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20/07/2011

काश ऐसा हो पाता....!


साढे़ सात बजते न बजते पूरा घर खाली हो जाता है... सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और घर में रह जाती है सुगंधा अकेले...। पहाड़ जैसा दिन सामने पड़ा हुआ है और करने के लिए कुछ होता ही नहीं है। घर फिर से 3 बजे गुलजार होगा, तब तक उसे कभी टीवी, तो कभी अखबार-पत्रिकाओं, मोबाइल फोन या फिर किताबों से सिर फोड़ना होता है। तो सुबह साढ़े सात के बाद वह फिर से बिस्तर में घुस जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। कितनी ही कोशिश करे वो दिमाग की चर्खी को चलने से नहीं रोक पाती। कभी अपने खालीपन का कीड़ा, कभी पिता का स्वास्थ्य तो कभी माँ की चिंता... कभी भाई की चिंता, कभी बच्चों की पढ़ाई, पति का स्वास्थ्य तो कभी यूँ ही खुद का भविष्य...(कभी-कभी वो खुद से सवाल करने लगती है कि क्या जिंदगी यही है, इसी तरह से जाया होने के लिए... या इसका कोई मतलब है, लक्ष्य है....? उसका पति भी उसके इस तरह के सवालों से तंग आ चुका है, लेकिन वो क्या करे!) तो कभी कुछ और... कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है उसकी जान को...। समझाने को तो वो किसी को भी ये समझा सकती है कि चिंता किसी भी समस्या का हल नहीं है, लेकिन खुद को समझा पाने जितनी समझ पता नहीं कैसे उसमें अभी तक नहीं आ पाई है। तो रात भर एक खलिश उसके नींद के उपर एक पलती झिल्ली सी पड़ी रही और उसकी नींद उसके नीचे कुनमुनाती रही। सुबह का अपना कर्म पूरा कर उसने खिड़कियों के खुले पर्दे खींच दिए। पंखे की स्पीड कम कर दी और चादर तानकर सोने की कोशिश करने लगी। वो झिल्ली अभी भी जहन पर पड़ी हुई है... क्या करे उसका...?
बारिश का मौसम भी कुछ अजीब होता है, पंखा चले तो ठंडा लगता है और बंद कर दें तो गर्मी लगने लगती है, तो जब सुगंधा को चादर में ठंड़ा लगने लगा तो उसने अपने सिर तक कंबल खींच लिया। कमरे में वैसे ही अँधेरा था, सिर तक कंबल खींच लेने से अंदर का अँधेरा औऱ गाढ़ा हो गया, तो अँधेरे और कंबल के गुनगुनेपन का आश्वासन पाकर नींद झिल्ली तोड़कर उपर आ गई। थोड़ी देर के लिए दुनिया और दुनिया की चिंताएँ कंबल के बाहर ही रह गई और सुगंधा सो गई। हल्की झपकी के बाद जब उसने कंबल हटाने के लिए हाथ उठाया तो उसे एक अजीब सी दहशत हुई... उसे लगा जैसे वो अंदर बहुत सुरक्षित है और जैसे ही उसने कंबल हटाया बाहर खड़ी दुनिया उसे झपट लेगी... और वो वहीं साँस रोके लेटी रही..., लेकिन जल्दी ही उसका ये भ्रम भी टूट गया। कलाबाई ने घंटी बजाई, तो उसकी आवाज कंबल को छेदते हुए आ गई... सुगंधा ने उठकर दरवाजा खोला। कंबल को घड़ी करने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने गहरी साँस ली... – काश ऐसा हो पाता कि कबंल के नीचे का अँधेरा, उसे दुनियादारी से मुक्त और दूर कर पाता...। उसने बहुत एहतियात से कंबल को उठाया जैसे ये उसका सुरक्षा घेरा हो और वो उसे छूकर आश्वास्त होना चाहती हो...।

17/07/2011

....मुझको सन्नाटा सदा लगता है!


वो नहीं जानती है कि उसकी आँखें मुझे उसके सारे हाल की चुगली कर देती है। उसे तो बस ये भ्रम है उसके अंदर का तूफान बे-आवाज आता है और गुजर जाता है, किसी को उसकी खबर नहीं लगती है। मैं भी उसके भ्रम को भ्रम ही रहने देता हूँ। उस दिन भी हम दोनों एक रिसर्च पेपर के लिए नोट्स ले रहे थे, और उसके अनजाने ही उसकी बेचैन तरंगें मुझे लगातार झुलसा रही थी... जला रही थी। बार-बार उसका गहरी साँस लेना... मुझे भी बेचैन कर रहा था, लेकिन पता नहीं कैसी जिद्द में था कि बस... पूछा ही नहीं। ये जानते हुए भी कि वो खुद अपनी बेचैनी का पता कभी नहीं देगी...। हम दोनों के बीच बहुत बातें हुआ करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जो अनकहा ही रह जाता है। पता नहीं उसमें से भी कितना हम दोनों समझ पाते हैं और कितना छूट जाता है!
वो एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में बाहर जाने वाली थी। उसने कुछ कहा नहीं था, मैंने कुछ पूछा नहीं... सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वे अपना सामान निकालकर ताला लगा रही थी। मुझे देखकर वह चौंकी नहीं... ऐसे जैसे... वो तो जानती ही थी कि मैं पहुँचूगाँ ही...। बिना कुछ कहे मैंने उसका एयरबेग उठा लिया। वो भी कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई। वो कहीं और थी... गियर बदलने की मजबूरी के बाद भी... पता नहीं कैसे मैनेज कर लेता हूँ और उसके हाथ पर अपना हाथ रख देता हूँ। वो सूनी आँखों से देखती है, कुछ नमी तैरती है और इशारे से सामने देखने की ताकीद करते हुए फिर कहीं गुम हो जाती है। गाड़ी के जाते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं बहुत थक गया हूँ और अभी यहीं आराम करना चाहता हूँ। खाली स्टेशन पर हाल ही में खाली हुई बेंच पर जाकर बैठ जाता हूँ।

उन तीनों दिन में लगभग हर दिन उससे बात हुई थी, लेकिन कल दिनभर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ मैं बिज़ी रहा, कुछ वो और कुछ नेटवर्क... तो बात हो ही नहीं पाई। आज उसे लौटना है।
सुबह से ही जैसे मुझे किसी आहट का इंतजार है। आज मेरी छुट्टी है और दिन भर सामने पसरा है एक लंबे-चौड़े मैदान की तरह... अब मुझे उससे खेलने की स्कील जुटानी है। मोबाइल बजा तो कई बार... लेकिन मेरी चेतना जैसे किसी खास आवाज की राह देख रही है। शाम... जब आधी नींद और पूरी खुमारी के बाद जागा तो आखिर वो आहट सुनाई दी।
कहाँ हो...?
घर पर ही, कब लौटी? – जानते हुए एक बेकार-सा सवाल।
मैं आ रही हूँ। - सारी औपचारिकता को दरकिनार कर धरती-सी उदारता के साथ उसने सूचना दी।

दिन भर तेज धूप रही, लेकिन शाम घिरते ही ना जाने कैसे आसमान पर बादल जमा होने लगे। उसके आने की खुशी में मैंने घर की हर चीज को छूकर देखा... पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरी ही तरह मेरे घर को भी उसकी आमद का इंतजार है। उसकी ही गिफ्ट की हुई बाँसुरी की सीडी लगाई... और आवाज को बहुत धीमा कर दिया। बॉलकनी में दो कुर्सियाँ और टेबल लगाई, क्योंकि वो जब भी आती है, यहीं आकर बैठती है, बिल्डिंग के पिछले हिस्से में कॉलोनी के बगीचे के ठीक उपर ही है मेरी बॉलकनी...। घर के सारे दरवाजे-खिड़की और पर्दे खोल दिए। वो जब आई तब तक ठंडी हवाएँ चलने लगी थी। उसने पर्स सोफे पर पटका और सीधे बॉलकनी की कुर्सी में जाकर धँस गई। वो अपने टूर के बारे में बता रही थी, मैं उसे सुन रहा था... देख रहा था। अचानक उसकी बेचैन साँस ने मुझे फिर से छुआ, एक सिहरन हुई... वो उठकर अंदर आ गई...। उसने शिकायत-सी की - कितना शोर है!
पार्क में खेलते बच्चों की चिल्लपों के साथ ही आसपास के और भी लोग लगता है कि अच्छे मौसम को लूटने के लिए पार्क में जमा हो गए थे और उन सबकी सम्मिलित आवाजें... नीचे से गुजरते वाहनों का शोर... मुझे भी महसूस हुआ कि वाकई बहुत शोर हो रहा है। वो ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गई। सोफे की पुश्त पर सिर रखा – ये लाइट और ये म्यूजिक सिस्टम बंद कर सकते हो? – उसने जैसे गुज़ारिश की।
यार... आजकल मैं लाइट और साउंड को लेकर बहुत संवेदनशील हो चली हूँ। मुझे लगता है कितना शोर है आसपास... कितनी आवाजें आ रही है। मुझे रोशनी बेचैन करने लगी है। टीवी, रेडियो, वाहनों यहाँ तक कि पंखे के चलने की आवाज... और कभी-कभी तो घड़ी की सुईयों के सरकने की आवाज तक मुझे बेचैन किए देती है। - उसने अपनी हथेलियाँ खोलकर उँगलियाँ अपने बालों में कस ली। बाहर तेज बारिश होने लगी तो पार्क पूरा खाली हो गया। एक तरह से सारी कृत्रिम आवाजें बंद हो चली थी। वो उठकर बॉलकनी में आ गई।
मैंने उससे पूछा - चाय पिओगी...?
हाँ, नींबू है...?
नींबू चाय पीना है? – मुझे याद आया... उसे पसंद है। उसने कहा कुछ नहीं... बस गर्दन हिलाकर हाँ कर दी।
यूँ भी शाम उतर रही थी और फिर घने बादलों ने रोशनी और भी कम कर दी थी। धीरे-धीरे अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। मैं किचन में चाय बनाने चला आया। चाय लेकर लौटा तो लाइट जा चुकी थी। बारिश बहुत तेज होने लगी थी... अब सिर्फ बादलों के बरसने की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज शेष नहीं थी। स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी में उसने चाय का गिलास उठा लिया था। उसने बहुत मायूसी से कहा – शोर है दिल में कुछ इतना/ मुझको सन्नाटा सदा (आवाज़) लगता है। बिजली की चमक में उजाले में मैं उसकी आँखों में समंदर उतरते देखता हूँ और खुद को उसमें डूबते पाता हूँ। एक गहरी साँस आती है, मेरा समंदर तो ये भी नहीं जानता है कि कोई उसके खारे पानी में घुट कर मर रहा है।
चाय का सिप लेकर गिलास को दोनों हाथों में थामते हुए वे कहती है – नाइस टी...।

17/04/2011

लहरों के हवाले है मन...


हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा अच्छा नहीं है। ये सीख हरेक को अपने बचपन में मिलती रही है और यदि आप घर में बड़े हो तो आपको तो इसके साथ ये भी सुनने को मिलेगा कि तुम बड़े हो ना! समझदार हो, वो बच्चा है या बच्ची है उसकी बात सुन लो...। बड़े होने पर कई बार ऐसा होता है कि हम इसके उलट काम करने लगते हैं और कई बार उसी लीक को पकड़कर आगे का जीवन तय करते हैं। कुछ स्वभाव से लड़ाकू हो जाते हैं और कुछ समझदार...। औऱ कुछ ऐसे भी होते हैं, जो समय-समय पर सुविधानुसार बदलते रहते हैं... जैसे हम...। इसे प्रयोग भी कह सकते हैं और सुविधा भी। यूँ हर वक्त समझौतावादी होना या फिर हर वक्त हथियार लेकर लड़ना दोनों ही प्रवृत्ति ठीक नहीं है। मौका देखकर अपनी रणनीति तय करना ही अक्लमंदी मानी जाती है, लेकिन जब मामला अक्ल तक पहुँचने से पहले ही मन पर अटक जाए तो...? मुश्किलें संभाले नहीं संभलती है।
पता नहीं ये ग्रह-नक्षत्रों के परिवर्तन के प्रति मन की संवेदनशीलता है, रोजमर्रा के जीवन के प्रति उदासीनता या फिर लक्ष्यहीनता से पैदा हुई ऊब है। गर्मी के तपते दिनों और बेचैन करती रातों में अंदर भी कुछ उबलता, तपता-तपाता रहता है। जीवन अपनी गति और प्रवाह के साथ सहज है, लेकिन मन नहीं...। कहीं अटका, कहीं भटका, उदास, निराश और हताश, किसी बिंदू पर टिकता नहीं है, इसलिए हल तक हाथ पहुँचे ये हो नहीं सकता... तो फिर...? क्या किया जाए? सहा जाए या फिर लड़ा जाए...?
सवाल ये भी उठता है कि क्यों हर वक्त हथियार तान कर लड़ने के लिए तैयार रहे। कई बार बिना लड़े भी तो मसले हल होते हैं। तो क्या ऐसे ही हथियार डाल दें? लिजिए संघर्ष से संघर्ष करने के तरीके पर ही संघर्ष शुरू हो गया।
अज्ञेय को पढ़ते हुए लगा कि लड़ा जाए... क्योंकि शोधन करने पर ही परिष्कार हो सकता है। लड़ते रहे.... लड़ते रहे.... ना जीत मिली ना हार। संघर्ष घना होता चला गया। बेचैनी बढ़ती रही, अनिश्चय से पैदा होता तनाव भी... कुछ परिणाम नहीं। कब तक ये संघर्ष, कब तक ये बेचैनी और तनाव, जवाब... मौन। बचपन की सीख याद भी आ गई... हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा... फिर फायदा भी क्या है?
कहा ना! प्रयोग करने की आदत है या फिर कह लें सनक... टेस्ट चेंज करने लिए ओशो को पढ़ा तो लगा कि कभी-कभी खुद को छोड़ देना भी काम कर सकता है। छोड़ दिया बहने और डूबने के लिए... देख रहे हैं, किनारे खड़े होकर... मरेंगे नहीं ये विश्वास है। उबरेंगे, कुछ लेकर, कुछ नए होकर...।

03/02/2011

... और नहीं बच पाए मानसिक प्रदूषण से भी


जैसे हकीकत में दुख और निराशा होती है, वैसे ही काल्पनिक दुख और निराशा भी होती है। अब जैसे एक दुख ये भी है कि आज से लगभग 2300-2400 साल पहले स्थापित प्लेटो की अकादमी में हमारा एडमिशन नहीं हो पाता क्योंकि हमारा गणित में हाथ तंग है। वैसे तो वहाँ एडमिशन के लिए संगीत (इसमें साहित्य भी शामिल है) या दर्शन या गणित में से किसी एक विषय की समझ होना अनिवार्य शर्त थी, औऱ संगीत, साहित्य के साथ-साथ दर्शन भी थोड़ा बहुत तो समझ में आता ही है, लेकिन गणित... वो तो दुखती रग है। तो हुआ ना ये काल्पनिक दुख... फिर सिर्फ गणित में ही क्यों, विज्ञान में भी तो हाथ तंग है। तो जब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान सामान्य गणित और सामान्य विज्ञान को पढ़ने की मजबूरी सामने आई थी। उन्हीं दिनों चुनाव, संसद, संविधान, सिद्धांत, इज्म से इतर कुछ पढ़ा गया था, जैसे पर्यावरण और पर्यावरण प्रदूषण... विज्ञान के अनुसार मोटे तौर पर प्रदूषण के चार प्रकार वायु, ध्वनि, मिट्टी और पानी है, ये सब प्राकृतिक जीवन के उलट जीने का परिणाम है, लेकिन पिछले कई दिनों की विचार और अहसास प्रक्रिया से प्रदूषण का एक और प्रकार अन्वेषित किया है, जिसका संबंध अमूर्त विज्ञान से नहीं, बल्कि मनोविज्ञान से है, वो है मानसिक प्रदूषण...।
कहने को एक बार कह गए थे कि – अजीब दौर है ये, यहाँ अच्छाई अविश्वसनीय हो चली है। पता नहीं कैसे ये गफ़लत हो गई थी कि ये दुनिया का सच है, यहाँ अभी ऐसा दौर नहीं आया है, लेकिन जैसा कि होता है, परिवर्तन एक बहुत सुक्ष्म प्रक्रिया है और ये तब महसूस होती है, जब इसके परिणाम आने लगते हैं।
एक प्रकाशक एक विशेष कालखंड में हिंदी साहित्य की प्रकाशित हर विधा की किताबों की समीक्षा की एक पत्रिका निकाल रहे हैं। साहित्य में रूचि होने की वजह से उस पत्रिका की समीक्षा की जिम्मेदारी मिली। मसला ये है कि साहित्यिक समीक्षा के विचार से शुरू से ही असहमति रही है। लगता है, जैसे समीक्षा से किताब के रस की हत्या कर दी जाती है। किताब समीक्षक को कैसी लगी, ये एक अलग मसला है, लेकिन उसकी शैली, कथ्य, भाषा और शिल्प का पोस्टमार्टम यदि गुरुगंभीर साहित्यिक समीक्षक औऱ आलोचक करते हैं तो समीक्षा पढ़ने के बाद अक्सर यूँ लगता है कि इससे बेहतर होता, सीधे किताब ही पढ़ ली जाती। ये ठीक वैसा है जैसे किसी बहुत खूबसूरत गज़ल का विजुवलाइजेशन कर दिया जाए। सुनकर की जा सकने वाली कल्पनाओं की हत्या...(हो सकता है, इसे पुराना विचार करार दिया जाए।) मतलब रेडिमेड कल्पनाएँ। मतलब हमारे अंदर अँकुरित होने वाली कोंपलों पर पाला पड़ गया हो। हाँ पत्रिका की समीक्षा एक अखबारी कर्म है और इसमें ज्यादातर सूचनाएँ ही प्रेषित की जाती है, पोस्टमार्टम जैसी समीक्षा का गंभीर कर्म नहीं किया जाता है तो अखबार के शेड्यूल को साधते हुए अपने काम पर लग गए। जब समीक्षा के लिए पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो ये देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पत्रिका में सिर्फ अपने ही प्रकाशन-गृह से प्रकाशित किताबों को शामिल नहीं किया गया है, बल्कि हिंदी के लगभग सारे बड़े प्रकाशन-गृहों से प्रकाशित किताबों की समीक्षा को शामिल किया गया है। एकाएक प्रश्न कौंधा... – इससे पत्रिका के प्रकाशक को क्या फायदा है?
इस एक प्रश्न ने हमें ये अहसास दिलाया कि चाहे खुद को बचाने की आपने कितनी ही कोशिशें की हो, लेकिन मानसिक प्रदूषण से फिर भी बचाव नहीं हो पाया है।
मतलब बाजार ने हमें ऐसी नजर दे ही दी है कि बिना नफे-नुकसान के किसी के काम को देख ही नहीं सकते हैं। और जो बहुत सहज मानवीय चीजें हैं, उसे जुनून कह कर सामान्य जीवन से खारिज करने लगे। तो हमें लगा कि दूसरे और तरह के प्रदूषणों की तरह मानसिक प्रदूषण भी सामयिक परिवर्तनों का परिणाम हैं, लेकिन प्रदूषण तो आखिरकार प्रदूषण ही है ना... इसके दुष्परिणाम तो होने ही हुए। तो अब होने ये लगा है कि यदि किसी को प्रचलित इम्प्रेशन से उलट कुछ करता पाते हैं तो अंदर कहीं कुछ भीग जाता है, लेकिन... तुरंत मानसिक प्रदूषण का प्रभाव लहरा जाता है, और उसके कर्म से आगे नीयत के छिलके निकाले जाने लगते हैं... इससे बुरा क्या...? सहज चीजों के प्रति अविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा पर अविश्वास का हावी हो जाना... जैसे हम पृथ्वी को वायु और ध्वनि प्रदूषण से नहीं बचा पाए, उसी तरह से हम खुद को मानसिक प्रदूषण से नहीं बचा पाए... यही तो है बाजार का प्रभाव...।

23/12/2010

बाबूजी धीरे चलना...


सुबह के क्रम के तहत अखबारों पर नजर डाली जा रही थी, खबरों को पढ़ने के दौरान तो इयरफोन लगाए ही जा सकते हैं। पास की कुर्सी पर आकर बैठे नए-नए भर्ती हुए रिपोर्टर ने हलो की, हमने भी गर्दन हिलाकर हलो कर दी और मशगूल हो गए अखबार देखने में...। थोड़ी देर बाद लगा कि शायद वो हमसे कुछ पूछ रहा है। हमने एक कान से फोन हटाया... – क्या सुन रही हैं मैम?
उसने सवाल किया तो बजाए जवाब देने के इयरफोन निकाल कर उसके हाथ में दे दिए। यूँ भी मजा तो खराब कर ही चुका था वह। गज़ल चल रही थी मुहब्बत करने वाले कम न होंगे... नहीं बेग़म अख़्तर नहीं मेंहदी हसन की आवाज में... अगर तू इत्तफ़ाकन मिल भी जाए... ये लाइन दोहराई जा रही थी। शायद तीन-चार दफा हो गया था, उसने धीरे से इयरफोन निकाल कर पूछा – कैसे सुन लेती हैं मैम आप इस तरह की चीजें? एक ही लाइन को कितनी देर से गाए चले जा रहे हैं हज़रत...।
हमने मुस्कुरा कर जवाब दिया सुकून मिलता है, डूबने का स्कोप होता है और... उसने तुरंत हमारी बात काटी – इतना समय किसके पास है?
हमने बहुत धीरज से अपने कंधे उचका दिए... गोयाकि उसकी बात एक नासमझ की बतकही हो... फिर खुद ही लगा पुरानी पीढ़ी के हो चले हैं, समय की कीमत ही नहीं जानते हैं, सच तो यह भी है कि दौड़ने की उम्र से आगे जा चुके हैं, फिर खुद को ठीक किया... नहीं, ये आज की पीढ़ी हैं, इन्हें न संगीत की समझ है ना शायरी की... हाँ शीला की जवानी या मुन्नी बदनाम हुई टाइप की चीजें ही इनके लिए ठीक है।
लेकिन ये समय का काँटा धँसा तो धँसा ही रह गया। शाम टीवी के आगे अपनी थाली लिए बैठे तो (कहा जाता है कि टीवी देखते हुए खाना नहीं खाना चाहिए, मोटे होने का डर बना रहता है, लेकिन समय का जुगाड़ कहाँ से करें? देखिए, हम भी कहने लगे कि समय कहाँ हैं?) दीपिका पादुकोण अपनी मनमोहिनी मुस्कान के साथ कहती दिखी - इंडिया को चाहिए सब कुछ लाइटनिंग फास्ट... लिजिए सब कुछ तेज गति से ही चाहिए...। ज्यादा सीसी और तेज पिकअप वाली गाड़ियाँ, तेज नेटवर्क वाली मोबाइल और इंटरनेट सर्विस, तेज गति की फिल्में औऱ संगीत, छोटे लेख और कहानियाँ, तेज घटनाक्रम वाले उपन्यास, जल्दी और ज्यादा नाम-दाम देने वाला रोजगार, जल्दी और तेज तरक्की देने वाली एमएनसी... सुपर फास्ट ट्रेनें, फास्ट फूड, तेज रफ्तार जेट और पता नहीं क्या-क्या... बस जिंदगी तेज दौड़ रही है, दौड़... दौड़... और बस दौड़... तेज दौड़... आखिर कहाँ जाना है इतना तेज दौड़कर, जानता तो कोई कुछ नहीं, लेकिन ‘आसमान गिरा’ की तर्ज पर सारे-के-सारे दौड़ रहे हैं... बचपन भर खरगोश और कछुए की कहानी पढ़ी-सुनी, लेकिन आजकल लगता है कछुआ होना गुनाह है, अपराध है, अभिशाप है... सोचकर ही मन कुछ खट्टा हो गया, लेकिन क्या धीमा जीवन इतना बुरा है? यदि ये इतना बुरा होता तो इटली के लेखक और फुटबॉलर कार्लो पेट्रिनी 1949 में स्लो मूवमेंट नहीं चलाते। इटली में मैकडोनल्ड्स के खिलाफ शुरू हुए इस मूवमेंट में स्लो फूड से लेकर स्लो पेरेंटिंग तक की बात कही गई है। आखिर सोचें कि जीना, महसूस करना तो लाइटनिंग फास्ट नहीं हो सकता है ना? पहली बारिश में रूखी-सूखी धरती पर नन्हीं-नन्हीं बूँदों के पदचाप से उठती धूल और सौंधी खुशबू को क्या लाइटनिंग फास्ट स्पीड से देखा और महसूस किया जा सकता है... सुबह के सूरज को धरती से आसमान की तरफ हौले-हौले जाते देखने की क्रिया तो तेज नहीं हो सकती है। फूलों का खिलना, शाम का ढलना, मौसम का बदलना ये सब आहिस्ता-आहिस्ता होने वाली घटनाएँ हैं, जब प्रकृति किसी किस्म की जल्दी में नहीं है तो फिर हमें क्यों होना चाहिए? धीरे-धीरे अपने आस-पास को जानना, जीना-निहारना, जज़्ब करना न सिर्फ अपने परिवेश को जानना है बल्कि अपने अंदर बीजारोपण करने जैसा है। आखिर तो जीवन जीने के लिए है, आऩंद लेने के लिए, महसूस करने, खुश होने औऱ खुश करने के लिए है ना...। मशीन की तरह तेज गति से ना तो जीवन का आनंद लिया जा सकता है और न ही कुछ महसूस किया जा सकता है तो फिर बाबूजी धीरे चलना...

28/11/2010

यहाँ सादगी अश्लील शब्द और भूख गैर-जरूरी मसला है


शादियों का सिलसिला शुरू हो चला है और अपनी बहुत सीमित दुनिया में भी लोग ही बसते हैं तो उनके यहाँ होने वाले शादी-ब्याह में हम भी आमंत्रित होते हैं... फिर मजबूरी ही सही, निभानी तो है...। हर बार किसी औपचारिक सामाजिक आयोजन में जाने से पहले तीखी चिढ़ के साथ सवाल उठता है कि लोग ऐसे आयोजन करते क्यों हैं? और चलो करें... लेकिन हमें क्यों बुलाते हैं? इस तरह के आयोजनों में जाने से पहले की मानसिक ऊहापोह और अलमारी के रिजर्व हिस्से से निकली कीमती साड़ी की तरह की कीमती कृत्रिमता का बोझ चाहे कुछ घंटे ही सही, सहना तो होता ही है ना... ! बड़ी मुश्किल से आती शनिवार की शाम के होम होने की खबर तो पहले सी ही थी, उस पर हुई बारिश ने शाम के बेकार हो जाने की कसक को दोगुना कर दिया। शहर के सुदूर कोने में कम-से-कम 5 एकड़ में फैले उस मैरेज गार्डन तक पहुँचने के दौरान कितनी बार खूबसूरत शाम के यूँ जाया हो जाने की हूक उठी होगी, उसका कोई हिसाब नहीं था।
उस शादी की भव्यता का अहसास बाहर ही गाड़ियों की पार्किंग के दौरान हो रही अफरातफरी से लगाया जा चुका था। गार्डन में हल्की फुहारों से नम हुई कारपेट लॉन में पैर धँस रहे थे। गार्डन का आधा ही हिस्सा यूज हो रहा था और प्रवेश-द्वार से स्टेज ऐसा दिख रहा था, जैसे बहुत दूर कोई कठपुतली का खेल चल रहा हो।
शुरूआती औपचारिकता के बाद हमने देखने-विचारने के लिए एक कुर्सी पकड़ ली थी... आते-जाते जूस, पंच और चाय का आनंद उठाते लकदक कपड़ों, गहनों में घुमते-फिरते लोगों को देखते रहे। करीब 60 फुट चौड़े स्टेज पर दुल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देने के लिए कतार में खड़े लोगों को देखकर हँसी आई थी... यही शायद एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ देने वाले कतार बनाकर खड़े हों... वो भी आशीर्वाद और बधाई जैसी अमूल्य चीज... यही दुनिया है...।
खाने में देशी-विदेशी सभी तरह के व्यंजनों के स्टॉल थे... कहीं पहुँच पाए, कहीं नहीं... पता नहीं ये थकान होती है, ऊब या फिर खाना खाने का असुविधाजनक तरीका... घर पहुँचकर जब दूध गर्म करती हूँ... हर बार सुनती हूँ कि – ‘शादियों में बैसाखीनंदन हो जाती हो...।’ बादाम का हलवा ले तो लिया, लेकिन उसकी सतह पर तैरते घी को देखकर दो चम्मच ही खाकर उसे डस्टबिन में डाल दिया... फिर अपराध बोध से भर गए... यहाँ हर कोई हमारी ही तरह हरेक नई चीज को चखने के लोभ में क्या ऐसा ही नहीं कर रहा होगा? तो क्या देश की 38 प्रतिशत आबादी की भूख केवल मीडिया की खबर है...? यहाँ देखकर तो ऐसा कतई नहीं लगता कि इस देश में भूख कोई मसला है, प्रश्न है...।
विधायक, सांसद और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ शहर के बड़े व्यापारी, उद्योगपतियों का आना-जाना चल रहा था, कीमती सूट-शेरवानी में मर्द और महँगी चौंधियाती साड़ियों और सोने-हीरे के जेवरों में सजी महिलाओं के देखकर यूँ ही एक विचार आया... कि जिस तरह नेता रैली, बंद, धरने, हड़ताल और जुलूस के माध्यम से अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं, उसी तरह अमीर, शादियों में अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं... किसके यहाँ कौन वीआईपी गेस्ट आए... कितने स्टॉल थे, कितने लोग, मैन्यू में क्या नया और सजावट में क्या विशेष था... संक्षेप में शादी का बजट किसका कितना ज्यादा रहा... यहाँ शक्ति को संदर्भों में देखने की जरूरत है। कुल मिलाकर इस दौर में जिसके पास जो है, वो उसका प्रदर्शन करने को आतुर नजर आ रहा है, मामला चाहे सुंदर देह और चेहरे का हो, पैसे का, ताकत का या फिर बुद्धि का... यहाँ सादगी एक अश्लील शब्द, भूख-गरीबी गैर जरूरी प्रश्न है तो जाहिर है कि प्रदर्शन को एक स्थापित मूल्य होना होगा, हम लगातार असंवेदना... गैर-जिम्मेदारी और अ-मानवीयता की तरफ बढ़ रहे हैं... बस एक चुभती सिहरन दौड़ गई...।

26/11/2010

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं...


कार्तिक की आखिरी शाम... आसमान पर बादलों की हल्की परतों के पीछे चाँद यूँ नजर आ रहा था, जैसे उसने भूरे-सफेद रंग का दुपट्टा डाल रखा हो... फिर हर दिन बादलों, फुहारों और बारिश के बीच निकलता रहा... अगहन में सर्दी की तरफ बढ़ते और सावन-सा आभास देते दिन... अखबार बताते हैं कि ये गुजरात में आए चक्रवात का असर है... देश में कहीं कुछ होता है तो असर हमें महसूस होता है, कभी हिमालय पर गिरी बर्फ से शहर ठिठुरने लगता है तो कभी दक्षिण में आए तूफान से यहाँ बरसात होती है। और इन सबके पीछे भी दुनिया के किसी सुदूर कोने में हुआ कोई प्राकृतिक परिवर्तन होता है, तो क्या पूरी सृष्टि... ये चर-अचर जगत किसी अदृश्य सूत्र, कोई तार... किसी तंतु... या फिर किसी तरंग से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? होगा ही तभी तो कहाँ क्या घटन-अघटन होता है और उसका असर कहाँ पड़ता दिखाई देता है, चाहे दिखाई दे या न दें... । ये बहुत सुक्ष्म परिवर्तन हैं और लगातार स्थूलता की तरफ बढ़ती हमारी दुनिया इन सुक्ष्म परिवर्तनों को देख तो क्या महसूस भी कर पाएगी... ? ... हम तो रोजमर्रा में हमारे आसपास होते बारीक और बड़े परिवर्तनों के प्रति ही अनजान होते हैं... या फिर उन्हें देखकर अनदेखा कर देते हैं, तो ये सृष्टि की विराटता में घटित होता है, जिसकी एक बूँद का 100 वाँ हिस्सा ही हम तक पहुँचता होगा।
कभी ये फितूर-सा रहा था कि अपने हर कर्म के अर्थ तक पहुँचें... लेकिन फिर वही... अपनी संवेदनाओं, समझ, समय और ज्ञान की सीमा आड़े आ गईं और धीरे-धीरे तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा होते चले गए। फिर भूल ही गए कि यूँ हर चीज के होने का एक अर्थ है, उद्देश्य है, महत्व है, अब ये अलग बात है कि हमें वो नजर नहीं आता है।
फिर भी प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी जैसा बार-बार महसूस होता है, कि आकंठ डूबने के बाद भी हमारे अंदर कुछ ऐसा होता है, जो खुद को सूखा बचा लेता है.... पाता है तो वो हमें ‘वॉर्न’ करता रहता है कि दुनिया की हर चीज हम देखें ना देखें, महसूस करें ना करें हमें, हमारे जीवन, हमारे कर्म... अनुभव और आखिर में हमारे स्व को प्रभावित करता है... इस दृष्टि से हर साँस, हर घटना, अनुभूति, हर वो इंसान जो हमारे संपर्क में आता है... हमें कुछ सिखाता है... कुछ समझाता है... समृद्ध करता है, चाहे उसका होना... घटना क्षणिक क्यों न दिखता हो, उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और प्रभाव बहुत स्थायी होते हैं।
याद आते हैं... सिलिगुड़ी से दार्जिलिंग की यात्रा में मिले वे कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे... तीन दिन की यात्रा की थकान... सुबह से फिर ट्रेन का सफर... खाने का सामान खत्म और तेज भूख... हर स्टेशन पर खाने जैसे ‘खाने’ की तलाश... नहीं मिलने पर निराशा ... और फिर सामने आई पराँठें-सब्जी को वो प्लेट.... कहीं कौंधा था – इस दुनिया में हमारा लेना-देना स्थायी रहता है, किसी-न-किसी रूप में फिर से हमारे सामने होता है, समय और देश की सीमा के परे... चाहे अगले-पिछले जन्म पर विश्वास न हो, लेकिन ऐसे किसी समय में महसूस होता है, कि ये जो अजनबी हैं, जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले... शायद कभी नहीं मिलेंगे, हमारे जीवन में किसी भी रूप में आए हैं तो इसका कोई सूत्र कोई सिरा कहीं न कहीं हमसे जुड़ा है, हमारे जीवन, हमारे अनुभव या फिर हमारे भूत-भविष्य से, न मानें फिर भी अगले-पिछले जन्म से भी जुड़ा हो सकता है... ये अलग बात है कि वो हमें नजर नहीं आता है। तो कहीं कुछ भी होना बेकार नहीं होता, चाहे वो बुरा हो... वो हर अनुभव, सुख-दुख, पीड़ा, घटना, परिवेश, सपने, चाहत, ठोकरें, उपलब्धि हो या फिर कोई इंसान... जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक होता है, घटता है... हरेक चीज का एक अर्थ होता है, यदि दुख होता है तो भी और सुख होता है तो भी... हमें समझाता है, बचकर चलना, डूबकर जीना सिखाता है... समृद्ध करता है, वक्ती उत्तेजना या टूटन के बाद भी हम खुद को कदम-दो-कदम आगे की ओर पाते हैं... खासतौर पर दुख... पीड़ा... वेदना.... क्योंकि जैसा कि धर्मवीर भारती ने लिखा है
सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यही पीड़ा, यह कुंठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिसका कोई अर्थ नहीं।
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

31/10/2010

उमंग है तो अवसाद भी होगा


हर तरफ सफाई का दौर चल रहा है... सोचा थोड़ा अपने अंदर के जंक का भी कुछ करे, लेकिन बड़ी मुश्किल पेश आई... सामान हो तो छाँट कर अलग कर दें, लेकिन विचारों का क्या करें? कई सारे टहलते रहते हैं, किसी एक को पकड़ कर झाड़े-पोंछे तो दूसरा आ खड़ा होता है और इतनी जल्दी मचाता है कि पहले को छोड़ना पड़ता है... दूसरे को चमकाने की कवायद शुरू करें तो पहला निकल भागता है, उसके निकल भागने का अफसोस कर रहे होते हैं तो जो हाथ में होता है, उसके निकल जाने की भी सूरत निकल आती है... बस यही क्रम लगातार चल रहा है।... कुल मिलाकर बेचैनी...। अंदर-बाहर उत्सव का माहौल है, लेकिन कहीं गहरे... उमंग और उदासी के बीच छुपाछाई का खेल चल रहा है। आजकल संगीत का नशा रहता है... और इन दिनों एक ही सीडी स्थाई तौर पर बज रही है... मेंहदी हसन की... तो ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ गज़ल चल रही थी और उसका अंतरा – उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू... के जादू को वो विस्तार दे रहे थे और उस विस्तार से उदासी का मीठा-मखमली जादू फैलता-गहराता जा रहा था।
मन की प्रकृति भी अजीब है, कल जिस बात को मान लिया था, आज उसी से विद्रोह कर बैठता है। ओशो के उद्धरण से समझा लिया था कि जिस तरह के प्रकृति के दूसरे कार्य-व्यापार का कोई उद्देश्य नहीं है, उसी तरह जीवन का भी कोई उद्देश्य नहीं है... लेकिन उस मीठी-मखमली उदासी के समंदर से जब बाहर आए तो जीवन के निरूद्देश्य और अर्थहीन होने का नमक हमारे साथ लौटा... अब फिर से वही कश्मकश है, यदि जीवन है तो फिर उसका कोई अर्थ तो होना ही है और यदि नहीं है तो फिर जीवन क्यों है? और इसी से उपजता है एक भयंकर सवाल... मृत्यु... ?
एक बार फिर चेतना इसके आसपास केंद्रीत होने लगी है... जब एक दिन मर जाना है तो फिर कुछ भी करने का हासिल क्या है? मरने के बाद क्या बचा रहेगा... जो भी बचेगा, उसका हमारे लिए क्या मतलब होगा? औऱ जब मतलब नहीं है तो फिर कुछ भी क्यों करें... ? हाँलाकि सच ये भी है कि कर्म करना हमारी मजबूरी है।
वही पुराने सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है... बेमौका है... उत्सव के बीच है ... खत्म होने से पहले ही अवसाद... यही धूप-छाँव है... यही अँधेरा-उजाला.... सुख-दुख... यही जीवन-मृत्यु... तो फिर उमंग-अवसाद भी सही...। आखिरकार तो नितांत विरोधी दिखती भावनाएँ... कहीं-न-कहीं एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई जो होती है.... नहीं...!

आखिर में – 100 पोस्ट पूरी होने पर वादे के मुताबिक मिला डिजिटल कैमरा, लेकिन त्योहार और व्यस्तता के बीच कहीं आना-जाना नहीं हो पा रहा है तो फोटो लेने की सूरत भी नहीं निकल पा रही है...

10/10/2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!

18/02/2010

अंधा कर देने वाली चकाचौंध


अमेरिका से आर्किटेक्चर का कोर्स कर भारत आया लड़का शादी कर रहा था और दुर्भाग्य से हम साग्रह आमंत्रित थे... छुट्टी की शाम को शहर से 20 किमी दूर शादी का वैन्यू था और जाना जरूरी... मन-बेमन था लेकिन पहुँचे। आधा किमी दूर गाड़ी पार्क कर पैदल ही विवाह-स्थल पर पहुँचे तो दुल्हा महँगी शेरवानी-साफा पहने डिजायनर लहँगा और ब्राईडल मेकअप किए अपनी दुल्हन के साथ खड़ा था। सिर पर फूलों की चादर तनी थी आगे ढोली ढोल बजा रहा था और दुल्हे के साथी-भाई मस्ती में नाच रहे थे। अमेरिका से उच्च शिक्षा लेकर आए लड़के के इस रूप को देखकर बेहद-बेहद निराशा हुई।
एक दौर था जब आधुनिकता एक मूल्य था और हर विचारशील युवा उस सबको जो उसकी जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाता था, या जो उसके तर्कों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, उसे तोड़ने पर उतारू रहता था। हाँ...इसमें कुछ अच्छी चीजें भी पीछे छूट जाती थी, लेकिन हम समझते ही हैं कि गेहूँ से साथ घुन तो पिसता ही है, फिर भी एक दरवाजा तो होता था, जो चेंज फॉर गुड के लिए कम-अस-कम रास्ता तो खोलता ही था, लेकिन अब तो उम्मीदें तक राख में तब्दील होती नजर आ रही है। युवा यदि भेड़चाल का हिस्सा ही होने जा रहे हैं तो फिर जो सड़ रहा है... गया है, उसका क्या होगा, जो खराब हो गया है, उसे धक्का देकर कौन गिराएगा (बकौल नीत्शे)।
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हमारे शहर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा है, और क्षेत्रिय अखबार यूँ ही दीवाने हुए जा रहे हैं। यूँ लग रहा है कि इन दिनों शहर की सारी समस्याएँ, सारी परेशानियाँ छुट्टी पर चली गईं हो। हमने आपत्ति दर्ज कराई तो जवाब मिला कि पाठकों को सूचना दी जा रही है। सूचना....! क्या ये कि नाश्ते में क्या खाया, खाना क्या दिया गया और सोए कैसे.... इस सूचना का कोई औचित्य है? लेकिन क्या करें क्योंकि जो मुद्दे की बात थी, वहाँ तक तो पत्रकार पहुँच ही नहीं पा रहे हैं। तो जो गौण और पूरी तरह से महत्वहीन चीजें थी, उसे ही पाठकों के सामने परोसा दें... फिर इस अधिवेशन का आम जनता से क्या लेना-देना.... पार्टी ऐसे कौन-से निर्णय करने जा रही है जिसका निकट या दूर भविष्य में जनता से कोई संबंध होगा...? ये तो बिल्कुल वैसा है, जैसे लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी को पूरा मीडिया कवरेज दे... यूँ भी आजकल मीडिया खबरों के साथ काफी समानता का व्यवहार करता है, मामला चाहे आतंकवादी हमलों से जुड़ा हुआ हो या फिर राजनीतिक आयोजन उसी भावना और शिद्दत से कवरेज होता है। खबरें देने वाले इस सवाल को लगता है, कभी उठाते ही नहीं है कि कोई खबर हम क्यों दें? इतना सोचने की फुर्सत ही किसे है? होगी कभी पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारियाँ, अब तो यह मात्र व्यापार है, साबुन, तेल या फिर टूथपेस्ट बेचने की तरह ही खबरें बेची जाती है। जो क्षमता रखता है, वह इसे बखूबी इस्तेमाल कर सकता है, क्योंकि इसका कोई दीनो-ईमान नहीं है।
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दोनों ही मामले एक ही निर्ष्कष पर पहुँचाते हैं, हम जड़ होते जा रहे हैं, जबसे दुनिया से मार्क्सवाद (अब आप हँसना चाहे तो हँस ले, लेकिन इसके साथ थोड़ा सा सोच भी लेंगे तो शायद लगेगा कि हाँ सच....हमने भी कितने साल हुए कुछ सोचा नहीं) खत्म हुआ है, तब से लगता है प्रतिक्रिया ही खत्म हो गई है, उसके साथ ही बदलाव की सहज प्रक्रिया भी.... क्योंकि जब प्रतिक्रिया ही नहीं होगी तो फिर बदलाव क्या होगा? हम जो कुछ है, उसे सहज भाव से ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि हममें विरोध करने का माद्दा ही खत्म हो गया है। वो साहस ही नहीं रहा कि हम प्रवाह के विरूद्ध खड़े हों.... बाजार ने जहाँ से भी सवाल आ सकते थे, वो सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। उसने इतनी चकाचौंध पैदा कर दी है, कि समाज अंधत्व की तरह बढ़ रहा है, वह कुंद हो रहा है। इस दुनिया में अब कभी भी, कहीं भी क्रांति नहीं होगी..... क्योंकि हमें लगातार सोने (gold) का जहर दिया जा रहा है, बदलाव की ज्वाला पर पैसों के छींटे मारे जा रहे हैं और इसलिए हमारी आत्मा बौनी होती जा रही है...

31/01/2010

क्या है हम ....?


रविवार की छुट्टी....हाथ पसारे खड़ा खुला-खुला सा दिन... लिहाफ का भला लगने वाला गुनगुनापन...मीठी सरसराती वासंती बयार...खिड़की से उड़कर अंदर आते धूप के कतरे....मखमली-सा अहसास...उन्माद के तूफान के गुज़र जाने के बाद की शांति...पार्श्व में गुलाम अली का गाना...गर्दिश-ए-दौरा का शिकवा था मगर इतना न था....फिर से अहसासों का समंदर लहराने लगा...बस एक ही रात में ये कायापलट....!
कल रात चाँद पृथ्वी के सबसे पास....अमूमन जितना रहता है उससे 50 हजार किमी करीब था (खगोलीय भाषा में पेरिजी)...खूब बड़ा...साफ शफ़्फ़ाक...सफेद और चमकीला चाँद...देखा तो लगा देखते ही रहें.....लेकिन उसके पहले के बेचैनी....ऊब...त्रास और तकलीफ से भरे...बेहद उदास-से वे दिन...क्या है यह सब...? पता नहीं कब का पढ़ा-सुना याद आ गया कि पूरे चाँद की रातों में दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ होती है...खुद के अंदर की बेचैनी का सबब कहीं यह चाँद तो नहीं....एक विचार और अब खुद हो गए 'अंडर-ऑब्जर्वेशन'...क्या चाँद का असर है...? ज्योतिषी कहते हैं कि जिसमें भी जल तत्व की प्रधानता होती है...वह चाँद बढ़ने से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता...बिल्कुल ऐसा तो नहीं फिर भी इससे मिलता-जुलता सा ही कुछ मार्सेल या फिर शायद जैस्पर्स ने कहा था (शब्दशः याद नहीं...वो कभी भी नहीं रह पाता है...सिर्फ भाव है) कि इस पूरी सृष्टि में इंसान का होना धूल के एक कण के समान है।
हम खुद से सवाल पूछे कि जब हमारे मन पर, हमारे तन पर, व्यवहार, परिस्थितियों और आखिरकार जीवन पर हमारा नियंत्रण नहीं है तो फिर हम है क्या चीज़....हम क्यों हैं? इस सृष्टि में हमारे होने से क्या बदला है और हमारे नहीं होने से क्या बदल जाएगा...हमारे होने का यहाँ कोई मतलब नहीं है...तो फिर हमारा होना इतना महत्वपूर्ण कैसे हैं? हमारे कर्म, विचार, आचार, सिद्धांत, जीवन, उपलब्धि, असफलता, सुख-दुख, संबंध, भावना, इच्छा, सपने, अनुभव इस सबका मतलब क्या है?
फिर सवाल...सवाल और सवालों का ढेर...। जब हम इस सृष्टि में अंदर और बाहर के न जाने किन-किन तत्वों से प्रभावित, नियंत्रित होते रहते हैं, तो क्या हम खुद को एक इकाई कह सकते हैं...? फिर हम सिर्फ 'हम' बचे भी हैं? और बचे भी है तो कितने...कहाँ....? फिर हमारे 'अहं' का, 'अहंकार' का कोई वजूद है, क्या वजूद होना चाहिए...? क्योंकि हम तो कुछ हैं ही नहीं....हमारा सारा 'अहं' धूल का मात्र एक कण......बस...। एक बार फिर से सोचें हम क्या हैं और यदि 'हम' कुछ भी नहीं है तो फिर क्यों हैं? यहाँ तो सवालों का अंबार है और जवाब.....!
कोई नहीं.......

09/11/2009

...कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों...


एक बड़े शहर में रहने के अपने सुख और अपने दुख हैं....कह सकते हैं कि कोई भी सुख निरपेक्ष नहीं होता है या फिर बहुत आशावादी हैं तो यूँ भी कह सकते हैं कि दुख अपने साथ कोई-न- कोई उपहार लेकर आता है...कोई फर्क नहीं अलबत्ता....। हाँ तो एक साफ सफेद छुट्टी पर सामाजिकता निभाने की कालिख लगा दिन उगा... अब चूँकि छुट्टी के दिन घर से निकलना ही है तो क्यों नहीं बकाया दो-तीन काम भी हाथ के साथ कर लिए जाए, यही सोचकर घर से जल्दी निकले और इत्तफाक यूँ कि दोनों ही काम समय से पहले पूरे हो गए और आयोजन शुरू होने में घंटा आधा घंटा बचा हुआ है.....अब इस समय को कहाँ बिताएँ...तभी रास्ते में मॉल दिखा.... चलो समय काटने का इंतजाम तो हो ही गया.... मॉल इसके सिवाय और किस काम आएँगें?
पता नहीं अभी तक वहाँ क्यों नहीं पहुँच पाए कि मॉल से कुछ खरीदा जाए...जब कभी इस विचार के साथ वहाँ गए....एकाएक खुद में बसा कर्ता भाव लुप्त हो जाता और निकल आता दृष्टा.....और जब वो देखता है तो बड़ी हिकारत से....कि अरे! तुम्हारे इतने बुरे दिन आ गए हैं कि तुम यहाँ से खरीदी कर रहे हो?(खैर ये आज का सच है भविष्य के लिए कोई दावा नहीं है।) तो किसी भी सूरत में मॉल से खरीदी करने की कभी हिम्मत ही नहीं जुटा पाए। तो समय काटने के उद्देश्य से उस लक-दक मॉल में घुस गए.... वहाँ जगह-जगह युवाओं को खड़े और बातें करते देखते हुए एकाएक उनपर दया आई और सहानुभूति भी हुई..... लगा कि शहर में रहने वाले युवा कितने बेचारे हैं....एकाएक मिरिक (दार्जिलिंग) में झील के किनारे चीड़ के पेड़ों के बीच धमाचौकड़ी करते बच्चों को देखकर सतह पर आ गई ईर्ष्या की याद उभर आई......लगा कि ये युवा साधन संपन्नता में क्या खो रहे हैं, नहीं जानते.....। वे महँगे परफ्यूमों और डियो की तीखी या भीनी खुश्बू तो बता सकते हैं, लेकिन रातरानी, जूही और चमेली का रात में गमकना....रजनीगंधा का भीगा-भीगा सा भीनापन और केतकी की पागल कर देने वाली खुश्बू को नहीं जानते हैं, वे तोहफे में जरूर एक दूसरे को बुके देते होंगे, लेकिन डाली पर लगे गुलाब के सौंदर्य को उन्होंने शायद ही देखा होगा। वे एसी के सूदिंग मौसम में काम करते हैं, लेकिन पौष की सर्द रात और उसमें गिरते मावठे के मजे से शायद ही वाकिफ हों.... वे नहीं जानते जेठ की तपन का मजा और भादौ की घटाघोर में भीगने का आनंद क्या है?
महँगे म्यूजिक सिस्टमों और आईपॉड में बजते पसंदीदा सुलभ संगीत से तो वाकिफ है, लेकिन अलसुबह पंचम सुर में गाती चिड़ियो...... खूब ऊँचाई से गिरते झरनों का गान और आसमान के खुले हुए नलों से आती बौछारों की ध्वनि का मतलब शायद ही जानते होंगे। मॉल की लकदक रोशनी को तो जीते हैं, लेकिन पूरे चाँद की रात की चादर पर पसरी मादक चाँदनी के जादू और रहस्य का मजा शायद ही कभी पाते हो....कितना अजीब है ना, जो हमें सहज ही में हासिल है, वो लगातार दुर्लभ हो रहा है.....और इसे हम तरक्की समझ रहे हैं। हम जिसे वरदान समझ रहे हैं, दरअसल वहीं जमीन से कटने की सजा है। ये तो मात्र छोटे संकेत हैं, लेकिन इसके पीछे का संदेश बड़ा अर्थवान है। एक बार यूँ ही कहीं बातों-बातों में मुँह से निकल गया था कि पूरी दुनिया से क्रांति की संभावनाओं का अंत हो चला है। बहुत दिनों तक अनायास निकली इस बात की जड़ों को टोहती रही थी, लेकिन सिरा नहीं पकड़ पाई थी। तभी गोर्की की माँ पढ़ते हुए उसकी जड़ से साक्षात्कार हुआ था, उसमें लिखा था कि---
अगर बच्चों के खाने में ताँबा मिलाते रहो तो हड्डियों की बाढ़ मारी जाती है, लेकिन किसी आदमी को सोने का जहर दिया जाता है, तो उसकी आत्मा बौनी रह जाती है-टुच्ची, गंदी और बेजान, रबर की उन गेंदों की तरह जो बच्चे पाँच-पाँच कोपेक में खरीदते हैं।
इसी के साथ एक शेर याद आया....हमेशा की तरह शायर का नाम याद नहीं आ रहा है, फिर भी ये शेर आज के युवाओँ के लिए मौजूं है----मिली हवाओं में उड़ने की वो सजा यारों/ कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों..... तो आज बस इतना ही....।