27/10/2013

दीपावली की 'ट्रिकल-डाउन-इकनॉमी'



बचपन में दीपावली को लेकर बहुत उत्साह हुआ करता था, सब कुछ जो दीपावली पर होता था, बहुत आकर्षक लगा करता था। साफ-सफाई के महायज्ञ में छोटा-छोटा सामान ही यहाँ-से-वहाँ कर देने भर से लगता था कि कुछ किया। तब छुट्टियाँ भी कितनी हुआ करती थी, दशहरे की महाअष्टमी से शुरू हुई छुट्टियाँ भाई-दूज तक चलती थी। इस बीच घर में जो कुछ दीपावली के निमित्त होता था, वो सब कुछ अद्भुत लगता था। याद आता है जब घर में सारे साफ-सफाई में व्यस्त रहते थे, तब एक चाची आया करती थी कपास की टोकरी लेकर...। चूँकि वे मुसलमान थी, इसलिए आदर से हम उन्हें चाची कहा करते थे। वे दो कटोरी गेहूँ और एक कप चाय के बदले कपास दिया करती थीं और उसी से दीपावली पर जलने वाले दीयों के लिए बाती बनाई जाती थी। उन दिनों रेडीमेड बाती का चलन नहीं था। ताईजी शाम के खाने के वक्त लकड़ी के पाटे पर हथेली को रगड़-रगड़ कर बाती बनाया करती थीं और माँ उन्हीं के सामने बैठकर रोटियाँ सेंका करती थी। दोनों इस बात की प्लानिंग किया करती थीं कि कब से दीपावली के पकवान बनाना शुरू करना है, और किस-किस दिन क्या-क्या बनाया जाना है और सुबह-शाम के खाने की कवायद के बीच कैसे इस सबको मैनेज किया जा सकता है।
कुछ चीजें अब जाकर स्पष्ट हुई हैं। एक बार दीपावली के समय सूजी और मैदे की किल्लत हुईं, इतनी कि पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) से बेचा गया। आज सोचो तो लगता है कि कालाबाजारी हुई थी, जैसे कि अभी प्याज़ की हो रही है। जब लगा कि पीडीएस से इतना नहीं मिल पाएगा तो ताईजी ने खुद ही घर में बनाने की ठानी। तब पहली बार मालूम हुआ कि सूजी, मैदा, आटा सब आपस में भाई-बहन हैं। उन्होंने गेहूँ को धोया, फिर सुखाया और फिर चक्की पर पीसने के लिए भेजा, मैदे के लिए एकदम बारीक पिसाई और सूजी के लिए मोटी पिसाई की हिदायत देकर...। दीपावली के पहले तीन दिनों में इतना काम हुआ करता था और इतनी बारीक-बारीक चीजें करनी हुआ करती थी कि तब आश्चर्य हुआ करता था, कि ये महिलाएँ इतना याद कैसे रख पाती हैं। तमाम व्यस्तता के बीच भी। हम बच्चे जागते इससे पहले ही घर के दोनों दरवाजों पर रंगोली सजी मिलती थीं। रंग, तो जब हम बाजार जाने लगे तब घर में आने लगे, इससे पहले तो हल्दी, कूंकू और नील से ही रंगोली सजा ली जाती थी।
दीपक, झाड़ू और खील-बताशे खरीदना शगुन का हिस्सा हुआ करता था। चाहे घर में कितने ही सरावले (हाँ, ताईजी दीपक को सरावले ही कहती थीं, जाने ये मालवी का शब्द है या फिर गुजराती का) हो फिर भी शगुन के पाँच दीपक तो खरीदने ही होते थे। इसी तरह घर में ढेर झाड़ू हो, लेकिन पाँच दिन गोधूली के वक्त झाड़ू खरीदना भी शगुन का ही हिस्सा हुआ करता था। घर में चाहे कितने ही बताशे हो, पिछले साल की गुजरिया हो, लेकिन दीपावली पर उनको खरीदना भी शगुन ही हुआ करता था। कितनी छोटी-छोटी चीजें हैं, लेकिन इन सबको दीपावली के शगुन से जोड़ा गया है, तब तो कभी इस पर विचार नहीं किया। आज जब इन पर विचार करते हैं तो महसूस होता है कि दीपावली की व्यवस्था कितनी सुनियोजित तरीके से बनाई गई हैं।
हमने दीपावली के बस एक ही पक्ष पर विचार किया कि ये एक धार्मिक उत्सव है, राम के अयोध्या लौटने का दिन... बस। लेकिन कभी इस पर विचार नहीं किया कि इस सबमें राम हैं कहाँ... हम पूजन तो लक्ष्मी का करते हैं। बहुत सारी चीजें गडमड्ड हो जाती है, बस एक चीज उभरती हैं कि चाहे ट्रिकल डाउन इकनॉमी का विचार आधुनिक है और पश्चिमी भी, और चाहे अर्थशास्त्र के सारे भारी-भरकम सिद्धांत पश्चिम में जन्मे हो, लेकिन हमारे लोक जीवन में व्यवस्थाकारों ने अर्थशास्त्र ऐसे पिरोया है कि वे हमें बस उत्सव का ही रूप लगता है और बिना किसी विचार के हम अर्थव्यवस्था का संचालन करते रहते हैं।
इस त्यौहार के बहाने हम हर किसी को कमाई का हिस्सेदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए कुम्हार... अब कितने दीपकों की टूट-फूट होती होगी, हर साल... तो घर में दीपकों का ढेर लगा हुआ हो, लेकिन फिर भी शगुन के दीपक तो खरीदने ही हैं, मतलब कि कुम्हार के घर हमारी कमाई का कुछ हिस्सा तो जाना ही है। आखिर उन्हें भी तो दीपावली मनानी है। ध्यान देने लायक बात ये है कि पारंपरिक तौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में दीपावली के आसपास ही खरीफ की कटाई होती हैं और बेची गई फसलों का पैसा आता है। किसान इन्हीं दिनों ‘अमीर’ होता है और इसकी अमीरी में से पूरे समाज को हिस्सा मिलता है, वो बचा तो सकता है, लेकिन शगुन के नाम पर कुछ तो उसे खर्च करना ही होगा... क्या इससे बेहतर ट्रिकल डाउन इकनॉमी का कोई उदाहरण हो सकता है? टैक्स के माध्यम से नहीं खर्च के माध्यम से पैसा रिसकर नीचे आ रहा है।
दीपावली मतलब क्षमता के हिसाब से खर्च, साफ-सफाई के सामान से लेकर कपड़े, गहने, बर्तन, उपहार, मिठाई तक तो फिर भी त्यौहार की खुशियों का हिस्सा है, लेकिन बताशे, झाड़ू, कपास और दीपक खुशियों से ज्यादा हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है। इतनी कुशलता से हमने त्यौहारी सिद्धांत बनाए हैं, और वो भी बिना किसी आडंबर के, बिना किसी प्रपोगंडा के। हम भी नहीं जानते हैं कि हम जाने-अनजाने किस तरह से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते चले आ रहे हैं, बिना किसी अहम के अहसास के... और वो भी त्यौहारी परंपरा का निर्वहन करके...।
तो दीपावली को इस नजरिए से भी देखें... आखिर हर साल हम वही-वही क्यों करते हैं? इस बार अलग दृष्टि से देखें... बात सिर्फ इतनी-सी है कि अपनी सारी तार्किकता को परे रखकर यदि हम सिर्फ शगुनों ही निभा लें तो उत्सव का आनंद भी उठाएँगे और सामाजिक जिम्मेदारी का पालन भी कर पाएँगें। आखिर
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल
कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़ दें
नहीं क्या... !

29/09/2013

आकार का सिलसिला...

हम दोनों स्कूल के दिनों की दोस्त हैं। बहुत साल अपनी-अपनी दुनिया की जद्दोजहद और उसकी साज-सवाँर की वजह से संपर्क जिंदा नहीं रख पाए थे। आखिरकार 20 साल बाद जबकि हमारी जिंदगियों में ठहराव आया, हमारे बीच संवाद जागा। उसने पाया कि इन बीच के सालों में मैं अपनी जिंदगी की शक्ल को खूबसूरत बनाने में कामयाब हुई हूँ और ये भी कि घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों और परंपरा-जिम्मेदारियों के बीच उसकी खुद की जिंदगी कहीं, गुमगुमा गई है। और मेरे माध्यम से वो अपनी जिंदगी को ढूँढने की कोशिश करने लगी। उसे लगता है कि मेरे पास विचारों का भंडार है और हर विषय पर मैं उसके ‘फंडे’ क्लीयर कर सकती हूँ।
वो काम के बाद की थोड़ी फुर्सत भरी शाम थी। अगले इश्यू की तैयारी का वक्फा था, जब उसका फोन आया था। उसकी बेटी को संस्कृति पर एक राईट-अप लिखना था। वो इंटरनेट खंगाल चुकी थी और जैसा कि होता है कि इंटरनेट पर अपने काम की चीज़ ढूँढना मतलब भूस के ढेर में से सुई ढूँढना था, तो कई लोगों से इस बीच उसने इस विषय पर चर्चा भी कर ली थी, लेकिन बड़ी गंभीर और गूढ़ बातों के साथ भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरे तक की बात लोगों ने उसे बताई थी। जाहिर है वो संतुष्ट नहीं हुई थी। आखिर उसने मुझे फोन लगाया। मैंने अपने अनुभव से जाना है कि खुद को सबसे बेहतर मैं संवाद के बीच ही पाती हूँ। कई बार तो खुद वो कह जाती हूँ, जिससे बाद में मैं खुद चौंक जाती हूँ, कि ‘अरे...! ये मैंने कहा है।’ तो बहुत सारी बातें संस्कृति के बारे में करते हुए मैंने उसे कन्क्लूड किया कि संस्कृति कोई पत्थर की लकीर नहीं है, वक्त-जरूरत के हिसाब से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। थोड़ा संस्कृति हमें शेप देती है और थोड़ा हम संस्कृति को शेप देते हैं कुल मिलाकर संस्कृति नदी के पानी की तरह है जो प्रवाहित होती रहती है, इसलिए वह कभी भी पुरानी नहीं होती है, हर वक्त नई होती रहती है। भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरों का उसका डर भी दूर हुआ और मुझे भी लगा कि मैं उसे बहुत हद तक संतुष्ट करने में कामयाब हुई हूँ। घर लौट रही थी कि चौराहे पर एक अनजान लड़की बस का इंतज़ार करती नज़र आई। पूछा – कहाँ तक जाना है?
गीता भवन चौराहा।
मैंने कहा - बैठो, मैं वहाँ छोड़ देती हूँ।
कई बार मुझे समझाया गया है कि इस तरह मदद का टोकरा लिए हुए अनजान लोगों को मत गाड़ी में बैठाया करो, किसी दिन किसी मुसीबत में फँस जाओगी। आखिर इसी शहर में लड़कियों के अपराध करने की खबरें भी तो आया करती है, लेकिन लगता है कि थोड़ी बहुत सावधानी रखी जाए तो हम इतना तो कर ही सकते हैं। और ये सिलसिला अब तक जारी है, चलेगा, जब तक कि कोई बड़ी ठोकर नहीं खाते।
अगली सुबह दफ्तर जाते हुए जल्दी थी। जिस रास्ते से अमूमन जाती हूँ, बहुत ट्रैफिक नहीं रहता है। बारिश से भीगी सुबह थी और गोरबंद की चटख भरी लोकधुन बज रही थी। ख्वाहिश ये हुई कि बस जिंदगी सफर ही सफर में बीत जाए कि पीछे से बजता हॉर्न लगातार करीब आ रहा था। घबराकर गाड़ी को दूसरी लेन में डाल लिया। ख्वाहिश का शीशा टूट गया। हर दूसरे ही दिन यही होता, लगता कि इतनी संवेदनशीलता क्यों है? जब हम लगातार हॉर्न बजाते हैं तो आगे वाला अपनी मस्ती में ही गाड़ी चलाता है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, हमें ही क्यों पड़ता है! इस विचार ने सोच के सारे सिलसिले को ही अस्त-व्यस्त कर दिया और तय किया कि ‘जगह मिलने पर ही साईड दी जाएगी।’
एकाएक लगा कि इंतजार करते हुए मुसाफिर को लिफ्ट देकर हम जिंदगी को शेप दे रहे हैं और एक तरफ हो जाने के हॉर्न को अनसुना करते हुए जिंदगी हमें शेप दे रही है। और इस तरह आकार देने-पाने का सिलसिला लगातार जारी है...।

12/09/2013

बिखेरे हैं, जिंदगी ने मोती...


दो हफ्ते पहले माँ के घर से लौट रहे थे। सड़क के इस-उस पार खेतों में खासी हरियाली छाई हुई थी, होगी ही इस बार जैसे आसमान ने धरती वालों के लिए बारिश का खजाना ही खोल दिया था। दो-एक जगह खेतों में रूई-सी बिखरी दिखी... अरे काँस...! भादौ ही तो शुरू हुआ है, अभी... काँस का आना मतलब तो बारिश का समापन है। राजेश ने तुलसी को याद किया 'फूले काँस शरद ऋतु आई'। लेकिन अभी तो वर्षा का ही समय है? अरे तुलसीदास जी का वक्त ६०० साल पहले ही गुज़र गया, इस बीच दुनिया भर की नदियों में बहुत पानी बह चुका है। बहुत वक्त बदल गया है, वक्त बदलने के साथ ही सभी कुछ बदलेगा, ऋतु-चक्र भी...। तो अभी बारिश का अवसान नहीं हुआ और काँस खिल उठे, शुरुआती दौर में गर्म दिनों के बाद रातें बहुत मीठी-मीठी हो गई थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिन-रात 'अंदर-बाहर' हर कहीं गर्म था और चुभता हुआ भी।
तेज़ भागती घड़ी की सुइयाँ थी, उन सुइयों के साथ दौड़ते-भागते हम थे। न भीतर मीठापन था न बाहर, काम का दबाब-तनाव, अपेक्षाओं की किच-किच और उस पर मौसम का तीखा रुख। बस सुबह होती है शाम होती है जिंदगी तमाम होती है वाला हाल। हर सुबह कामों की फेहरिस्त ज़हन में अपडेट होती रहती है और हर शाम ये सोचकर निराशा होती है कि बहुत सारे काम कर ही नहीं पाए हैं। सुबह-शाम का यही हिसाब... फिर घर में कितनी ही हड़बड़ी मचाओ समय पर निकल ही नहीं सकते हैं और दफ्तर में भी कितनी ही जल्दी-जल्दी काम करो वक्त पर नहीं निकल पाते हैं... बस चल रहा है यही सब।
उस सुबह भी इसी तरह हड़बड़ी में निकले थे कि सड़क पर अप्रत्याशित रूप से बालम ककड़ी लिए हुए ठेले वाला खड़ा था। अब जिसने बालम ककड़ी को स्वाद चखा हो, वो इसका पागलपन समझ सकता है। एक बारगी मन हुआ कि रूककर खरीद लें, लेकिन फिर ये सोचकर गाड़ी आगे बढ़ा दी कि दिन भर गाड़ी में पड़ी रहेगी और रात तक खराब हो सकती है, देखा जाएगा शाम को...। फिर हर दीगर चीजों की तरह ये विचार भी दिमाग से उतर गया। आजकल कुछ-कुछ दिनों के अंतराल से लगता है कि खुद का हाथ छूटता जा रहा है, वक्त के तेज़ बहाव में धीरे-धीरे खुद की ऊँगली हथेली से फिसल रही है और ये अहसास लगातार गहराता जा रहा है। रास्ते भर ये विचार कोंचता रहा। इसी तरह की नकारात्मकता ज़हन पर लगातार दस्तक दे रही थी... कि वहीं बालम ककड़ी का ठेला नज़र आया। कीमत पूछी २० रुपए की एक और दूसरी वाली १० रुपए की एक... पूछा ये अंतर क्यों? तो जवाब मिला कि आकार का फर्क है एक बड़ी, एक छोटी है। फिर पूछा कि ये है कहाँ की, जवाब मिला झाबुआ की...। मनस्थिति ऐसी नहीं थी कि बारगेन किया जा सके। ठीक है २० वाली दो दे दो। वो काट-काट कर रख रहा था, तभी एक और ग्राहक भाव पूछता हुआ आ पहुँचा। उसने बारगेन किया १५ की दे दो, वो मान गया। यहाँ भी बत्ती जली हाथ में पचास रुपए का नोट था, बिना हिसाब-किताब किए कह दिया ५० में तीन लूँगी। (घर आकर बताया तो खूब खिल्ली उड़ाई गई, खैर गणित में हाथ तंग है तो खुद भी हँस कर बात टाल दी।) उसने तीन ककड़ी दी, हम चल पड़े। गाड़ी में उसे व्यवस्थित किया, फोन को बैग से निकाल ही रहे थे कि वो ककड़ी वाला एक और ककड़ी लेकर आया, एक और ले लीजिए। फिर उसने कहा अगली बार मैं आपको वहाँ की (उसे जगह का नाम याद नहीं आ रहा था)... – हमने बीच में ही टोक दिया – सैलाना की- हाँ, सैलाना की खिलाऊँगा। आप शुक्रवार को पूछतीं जाना...।
घर पहुँची तो शकल देखकर पहला सवाल था- क्या बात है? आज कुछ खास...?
सोचा.... क्या खास?
नहीं कुछ भी खास नहीं...- फिर याद आया। - हाँ आज तो ककड़ी वाले ने खुश कर दिया।
सोचा जिस तरह से इंसान की बेईमानी, धोखा, छल, झूठ और बुराई हमें व्यथित करती है, उसी तरह इंसान की अच्छाई हमें ऊर्जा से भर देती है। हमें सब कुछ अच्छा-अच्छा-सा लगने लगता है। सारी निराशा धुल जाती है। सोचें तो लगता है कि सारी बुराईयों के बावजूद हमें यदि कुछ छूता है, द्रवित करता है तो वो है अच्छाई। बुरे-से-बुरे इंसान को भी एक बस यही चीज़ नम कर सकती है... इंसान की अच्छाई।
पाया कि जिंदगी हर वक्त हमें संकेत देती है,
कोई-न-कोई सबक अपने हर व्यवहार में देती है,
बस कभी-कभी कुछ लगता है,
बाकी यूँ ही बह जाता है, तेज बारिश की तरह...।

25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।