14/06/2014

आसान नहीं है पुरुष का पिता होना


सोच रहा हूं कि मुझे ये सब क्यों कहना चाहिए? क्यों मुझे खुद को खोल देना चाहिए...? फिर मुझे ही क्यों कहना चाहिए? क्यों बताना चाहिए ये सब... लेकिन फिर सोचता हूं कि शायद जो मुझे लगा वह और भी पिताओं को लगता होगा शायद उन्हें ये अहसास नहीं होता होगा। या अहसास भी होता होगा, लेकिन कह पाने लायक शब्द नहीं हुआ करते होंगे। जो भी हो बहुत सोच-समझ कर मैंने ये तय किया कि आज मैं बताऊंगा कि पिता भी बच्चों से प्यार करता है, पिता के सीने में भी दिल हुआ करता है और उसे भी बच्चे का दुख-सुख व्यापता है। पिता को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता है। सिर्फ इसलिए कि वह कहता नहीं है, रोता नहीं है। बताता नहीं है कि वो अपने बच्चों से कितना प्यार करता है... वो यह नहीं जता पाता कि बच्चे के सुख-दुख में वह भी हंसता-रोता है... बस दिखा नहीं पाता... क्योंकि ये उसके लिए वर्जित है। फिर भी क्यों बताना चाहिए मुझे कि आसां नहीं होता पिता होना। इसलिए एक पुरुष का पिता होना भी आसान नहीं होता।
क्योंकि मुझे तो हमेशा से सिखाया है ज़ब्त करना... अपने दुख-सुख, भावनाएं, संवेदना... सब कुछ को बस अपने मन के तहखाने में जमा करके रखना। पुरुष हूं तो मुझे रोना नहीं है, पुरुष हूं तो मुझे संतुलित रहना है। पुरुष होने का भी अनुशासन होता है शायद ही कोई जानता हो। जिस तरह से स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, उसी तरह पुरुष भी पैदा नहीं होता, बनाया जाता है। कोई माने या न माने... पुरुष होने की बाध्यता, पुरुष होने की मजबूरी और अपने पुरुष होने को जीवन भर निभाना आसान नहीं होता। पुरुष होने को सहना आसान नहीं होता। क्योंकि पुरुष होने के साथ-साथ वो इंसान भी होता है, रिश्तों से बंध्ाा होना, उन्हें जीना, सेना फिर भी उससे अलग रहना... यकीन मानिए आसान नहीं होता है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह खुद को मजबूत सिद्ध करे... दृढ़, क्षमतावान और ताकतवर रहे। और ये भी कि पिता होकर पुरुष होना और भी मुश्किल है। जानता हूं कि तुम्हें ये हास्यास्पद लगेगा, क्योंकि हरेक ने ये जाना है कि पुरुष होकर ही पिता हुआ जा सकता है, लेकिन शायद ये नहीं समझा कि पुरुष होकर पिता होना कितना मुश्किल है।
जानता हूं कि मां की भूमिका, उसका त्याग, समर्पण और पीड़ा पिता से ज्यादा होती है। ये प्राकृतिक है, स्वाभाविक है, क्योंकि मां होने का वरदान उसे ही मिला है...पता नहीं वो मां होने की हैसियत रखती है इसलिए, बच्चों के जीवन में उसकी भूमिका पहली और स्पष्ट है या फिर उसकी भूमिका पहली है, इसलिए उसका होना पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण और ज्यादा गरिमामय है। इसलिए वह पूजनीय भी है। लेकिन कभी पिता की तरफ भी ध्यान दें।
ये सही है कि पिता बच्चे को गर्भ में नहीं रखता है। वो सारी परेशानियां खुद नहीं उठाता जो मां बच्चे को गर्भ में रखते हुए उठाती है। ये भी सही है कि पिता को प्रसव-पीड़ा नहीं सहनी होती है... इसलिए स्त्री होने का मतलब पुरुष की तुलना में ज्यादा है। लेकिन पिता होने की पीड़ा भी तो कम नहीं है।
पहली बार बता रहा हूं कि मुझे भी दुख होता था, जब फुटबॉल खेलते हुए तुम्हारे घुटने छिलते थे या साइकल सीखते हुए जब तुम्हारा पैर पहिए में फंसा था। तुम्हें याद है छुटकी... तब तुम्हारा पैर का तलुवा कट गया था और बहुत खून बहा था। मैं दौड़कर तुम्हें डॉक्टर के पास लेकर गया था, टांके लगे थे। तुम और तुम्हारी मां बेतहाशा रो रहीं थीं। मेरे भीतर भी कुछ ऐसा हो रहा था जो बस फटकर निकलने को आतुर था। लेकिन मैंने रोका था... मैं नहीं रो सकता था। क्योंकि तुम्हारी मां रो रही थी। मैं कैसे रो सकता था? लेकिन क्या तुम्हें ऐसा लगा था कि तुम्हारा दर्द बस तुम्हारा था? शायद तुझे याद न हो, लेकिन उस शाम मैं खाना नहीं खा पाया था। बार-बार डॉक्टर के यहां तेरा दर्द से चीखना और पैर से बहता खून याद आ रहा था।
और तब... जब तू पहली बार पीएमटी में असफल हुई थी। हमने तुझे नींद की गोलियां देकर सुलाया था, लेकिन फिर भी रात के हर घंटे मैं उठकर तेरे कमरे में आया हूं... तुझे गहरी नींद में सोता देखता रहा हूं। तेरे सिरहाने बहुत देर तक बैठा रहा हूं।
मैं बंध्ाा रहा हूं अपनी ही सामाजिक छवि में... लेकिन अब नहीं बंध्ाा रह सकता हूं। रोका है हर बार खुद को... तब भी जब उस नाकारा लड़के ने तेरा दिल तोड़ा था। तब भी जब तेरा अपनी बेस्ट फ्रेंड से झगड़ा हुआ है। तुझे लगता होगा कि मैं बस हर उस वक्त तुझे देखता रहा होऊंगा जब तुझे मेरी सख्त जरूरत थी। लेकिन ऐसा नहीं है बेटा... हर उस वक्त मैं तेरा साथ था... बस मैं जाहिर नहीं कर पाया था, नहीं बता पाया था। और शायद कोई कभी ये समझ पाए कि ज़ब्त करने में... सब्र करने में कितनी पीड़ा होती है।
नहीं बंध्ाा रह पाऊंगा। मैं पुरुष होने से आज़िज आ चुका हूं, मैं पिता होना चाहता हूं... बस पिता... विशुद्ध पिता। तू बहुत उत्साह से अपनी शादी की तैयारियां कर रही है। मुझे भी खुशी है, उत्साह भी... लेकिन बस ये विचार ही मुझे उदास कर रहा है कि तू चली जाने वाली है और गाहे-ब-गाहे मेरी आंखें छलक पड़ती है। तेरी मां मुझे आश्चर्य और फिर प्रेम से देखती है। समझाती है... कई बार यूं भी कहा कि अरे पिता होकर रोते हो... मैं पूछता नहीं हूं, मगर पूछना चाहता हूं कि 'पिता क्यों नहीं रो सकता?" या 'पिता को क्यों नहीं रोना चाहिए?" क्या इसलिए कि उसने पुरुष होने का गुनाह किया है? या इसलिए कि वह पुरुष होकर पिता भी होना चाहता है।
बेटा फिर कहता हूं आसान नहीं है पुरुष होकर पिता होना। मगर मैं पुरुष होते-होते थक गया हूं और बस पिता होना चाह रहा हूं। कह लूं पिता होता जा रहा हूं। मैं अपने पिता होने को नहीं रोक सकता हूं, रोकना भी नहीं चाहता हूं। मैं बस बदल रहा हूं और सच पूछो तो बदलना चाहता भी हूं। अपनी भावनाओं को मैं पुरुषत्व की कैद से मुक्त करना चाहता हूं।
मैं मुक्त होकर पिता होने का आनंद लेना चाहता हूं, मैं मुक्त होकर तेरे साथ रोना, हंसना, गाना-खेलना और उड़ना चाहता हूं। मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं पुरुष होने की उस केंचुल से, जिसमें मेरी भावनाएं घुटती हैं, जिसमें मेरा मन कुम्हलाने लगता है, जिसमें मेरा जीवन कण-कण कर खिर रहा है। उसमें वजूद रेशा-रेशा कर उध्ाड़ रहा है। मैं पूरा होना चाहता हूं। मैं तुम्हारी मां की तरह ही तुममें होना चाहता हूं। मैं खुलकर तुम्हें गले लगाना चाहता हूं। चाहता हूं कि जिस तरह तू अपनी मां की गोद में सिर रखकर सोती या रोती है, उसी तरह मैं भी अपनी गोद में मैं तुझे रूलाना-हंसाना और सुलाना चाहता हूं। चाहता हूं कि मैं तेरे बालों में तेल लगाऊं और तेरी सफलता पर तेरी नज़र उतारूं। मैं क्यों नहीं कर सकता ये सब...? इसलिए कि मैं पिता होकर पुरुष हूं... मैं बस पिता होना चाहता हूं।
इसलिए तेरे साथ हंसना-रोना, गाना-मुस्कुराना चाहता हूं... मैं पुरुष होने से मुक्त होना चाहता हूं, मैं बस...

03/05/2014

रचना नहीं, रचना-क्रम आनंद है



महीने का ग्रोसरी का सामान खरीदने गए तो रेडी टू ईट रेंज पर फिर से एक बार नज़र पड़ी। आदतन उसे उलट-पलट कर देखा और फिर वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था। एकाध बार लेकर आए भी, बनाया तो अच्छा लगा लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कुछ बहुत मज़ा नहीं आया। आजकल हिंदी फिल्मों में वो एक्टर्स भी गा रहे हैं, जिनके पास गाने की जरा भी समझ नहीं है। जब उनके गाए गाने सुनते हैं तो लगता ही नहीं है कि ये गा नहीं पाते हैं। बाद में कहीं जाना कि आजकल आप कैसे भी गा लो, तकनीक इतनी एडवांस हो गई है कि उसे ठीक कर दिया जाएगा। अब तो चर्चा इस बात की भी हो रही है कि जापान ने ऐसे रोबोट विकसित कर लिए हैं जो इंसानों की तरह काम करेंगे। मतलब जीवन को आसान बनाने के सारे उपाय हो रहे हैं। ठीक है, जब जीवन की रफ्तार और संघर्षों से निबटने में ही हमारी ऊर्जा खर्च हो रही हो तो जीवन की रोजमर्रा की चीजें तो आसान होनी ही चाहिए। हो भी रही है। फिर से बात बस इतनी-सी नहीं है।
पिछला पढ़ा हुआ बार-बार दस्तक देता रहता है तो अरस्तू अवतरित हो गए... बुद्धि के काम करने वालों का जीवन आसान बनाने के लिए दासों की जरूरत हुआ करती है, तब ही तो वे समाज उपयोगी और सृजनात्मक काम करने का वक्त निकाल पाएँगे। सही है। जीवन को आसान करने के लिए भौतिक सुविधाओं की जरूरत तो होती है और हम अपने लिए, अपने क्रिएशन के लिए ज्यादा वक्त निकाल पाते हैं। लेकिन जब मसला सृजन-कर्म से आगे जाकर सिर्फ सृजन के भौतक पक्ष पर जाकर रूक जाता है तब...?
विज्ञान, अनुसंधान, व्यापार और तकनीकी उन्नति ने बहुत सारे भ्रमों के लिए आसमान खोल दिया है। फोटो शॉप से अच्छा फोटो बनाकर आप खुद को खूबसूरत होने का भ्रम दे सकते हैं, ऐसी रिकॉर्डिंग तकनीक भी आ गई है, जिसमें आप गाकर खुद के अच्छा गायक होने का मुगालता पाल सकते हैं। अच्छा लिखने के लिए अच्छा लिखने की जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा पढ़ने की जरूरत है... कॉपी-पेस्ट करके हम अच्छा लिखने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। इसी तरह से रेडी-टू-ईट रेंज... रेडीमेड मसाले... आप चाहें तो हर कोई काम आप उतनी ही एक्यूरेसी से कर सकते हैं, जितनी कि लंबे रियाज से आती है। इस तरह से तकनीक और अनुसंधान आपको भ्रमित करती हैं और आप चाहें तो इससे खुश भी हो सकते हैं। तो अच्छा गाना और अच्छा गा पाना... अच्छा खाना बनाना और अच्छा खाना बना पाने के बीच यूँ तो कोई फर्क नज़र नहीं आता है। फर्क है तो... बहुत बारीक फिर भी बहुत अहम...। यहाँ रचनाकार दो हिस्सों में बँट जाता है – एक जो अपने लिए है... अच्छा गा पाने वाला या फिर अच्छा खाना बना पाने वाला और दूसरा जो लोगों के लिए है अच्छा गाने वाला और अच्छा खाना बनाने वाला। फाइनल प्रोडक्ट बाजार का शब्द है...।
लेकिन सवाल ये है कि आप जीवन से चाहते क्या हैं? यदि आपका लक्ष्य सिर्फ भौतिक उपलब्धि है, तो जाहिर है आप सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे हैं। आप दूसरों को ये बताना चाहते हैं कि आप कुछ है, जबकि आप खुद ये जानते हैं कि आप वो नहीं है जो आप दूसरों को बताना चाहते हैं। दूसरा और सबसे महत्त सत्य.... सृजन की प्रक्रिया सुख है। बहुत हद तक सृजनरत रहने के दौरान हम खुद से रूबरू होते हैं। रचना-क्रम अपने आप में खुशी है, सुख है, संतोष है। ऐसा नहीं होता तो लोग बिना वजह रियाज़ करके खुद को हलकान नहीं कर रहे होते। पिछले दिनों किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शान (शांतनु) शहर में आए, अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आजकल गाने में वो मज़ा नहीं है, पूछा क्यों तो जवाब मिला कि आजकल आवाज और रियाज़ से ज्यादा सहारा तकनीक का हुआ करता है। आप कैसा भी गाओ... तकनीक उसे ठीक कर देंगी। अब शान तो खुद ही अच्छा गाते हैं, तो उन्हें इससे क्यों तकलीफ होनी चाहिए...? वजह साफ है, इंसान सिर्फ अंतिम उत्पाद के सहारे नहीं रह सकता है, उसे उस सारी प्रक्रिया से भी संतोष, सुख चाहिए होता है, जो उत्पाद के निर्माण के दौरान की जाती है। ऐसा नहीं होता तो अब जबकि जीवन का भौतिक पक्ष बहुत समृद्ध हो गया है, कोई सृजन करना चाहेगा ही नहीं... हर चीज तो रेडीमेड उपलब्ध है। न माँ घर में होली-दिवाली गुझिया, मठरी, चकली बनाएँगी न सर्दियों में स्वेटर बुनेंगी। भाई पेंटिंग नहीं करेगा और बहन संगीत का रियाज़। असल में यही फर्क है, इंसान और मशीन होने में, मशीन सिर्फ काम करती है, इंसान को उस काम से सुख भी चाहिए होता है। जो मशीन की तरह काम करते हैं, वे काम से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और बहुत मायनों में उनका जीवन भी मशीन की तरह ही हो जाता है, मेकेनिकल।
साँचे से अच्छी मूर्तियाँ बनाई तो जा सकती है, लेकिन उससे वो संतोष जनरेट नहीं किया जा सकता है, जो एक मूर्तिकार दिन-रात एक कर मूर्ति बनाकर करता है। सृजन शायद सबसे बड़ा सुख है, उसकी पीड़ा भी सुख है। उससे जो बनता है चाहे उसका संबंध दुनिया से है, मगर बनाने की क्रिया में रचनाकार जो पाता है, वह अद्भुत है, इस दौरान वह कई यात्राएँ करता है, बहुत कुछ पाता है, जानता है और जीता है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी स्त्री माँ बनना नहीं चाहती, क्योंकि उसमें पीड़ा है। हकीकत में जो हम सिरजते हैं, हमारा उससे रागात्मक लगाव होता है, वो प्यार होता है और उसी प्यार को हम दुनिया में खुश्बू की तरह फैलाना चाहते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इंसान सृजन से सुख पाए ही... ऐसा होता तो दुनिया में रचनाएँ चुराने जैसे अपराध नहीं होते। जो रचनाकार होने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं, लेकिन रच पाने की कूव्वत नहीं रखते हैं, वे अक्सर ऐसा करते हैं। तो फिर वे ये जान ही नहीं सकते हैं कि रचनाकार होने से ज्यादा महत्त है रचनारत रहना। इसमें भी जिनका लक्ष्य भौतिकता है, वे सिर्फ रचना पर ध्यान केंद्रित करेंगे, लेकिन जिनका लक्ष्य आनंद है, वे उन सारे चरणों से गुजरेंगे जो रचना के दौरान आते हैं... क्योंकि सुख वहाँ है। सृजन के बाद भौतिकता बचती है, क्योंकि रचना के पूरे हो जाने के बाद वो दूसरी हो जाती है, वो रचनाकार के हाथ से छूट जाती है। तब उसे दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए, लेकिन जब रचना के क्रम में रहती है, तो वह रचनाकार की अपनी बहुत निजी भावना और संवेदना होती है। सुख और संतुष्टि रचनारत रहने में... तभी तो रचनाकार किसी रचना के लिए पीड़ा सहता है, श्रम और प्रयास करता है, क्योंकि वही, सिर्फ वही जान सकता है कि जो आनंद रचने की प्रक्रिया में है, वो रचना पूरी करने में नहीं है।
इस तरह से कलाकार जब सृजन के क्रम में रहता है, तब वह ऋषि होता है और जब उसका सृजन पूरा हो जाता है, तब वह दुनियादार हो जाता है और दोनों का ही अपना सुख है, अपनी तृप्ति है। तभी तो जो रेडीमेड पसंद करते हैं, वो बस भौतिक दुनिया में उलझकर रह जाते हैं और नहीं जान पाते कि आनंद क्या है?






23/03/2014

होने का भ्रम


जाने शोर से नींद टूटी थी या फिर नींद टूटी थी तो शोर महसूस हुआ था... लेकिन अपरूपा जाग गई थी। आँखे बंद करके ही उसने उस शोर को सुना था सोचा था ये शोर कैसा...? जागते मन और सोती आँखों के बीच उसे ये गफ़लत हो गई थी कि वो कहाँ है...? थोड़ा घबराकर कर आँखें खोली थी, परिवेश अनजाना था... ओह... मैं तो घर में नहीं हूँ। थोड़ी संयत हुई थीं, नींद के टूटे सिरे को जोड़ने की कोशिश करने लगी थी, लेकिन जुड़ना तो ठीक, सिरा मिला ही नहीं था। बहुत देर तक आँखों पर तने उस फूस के छप्पर को देखती रही थी... समुद्र की लहरों की आवाज लगातार आ रही थी। इतने अँधेरे में घड़ी देखना संभव नहीं था, लेकिन ये तय था कि अभी सवेरा होने में देर है। उसने धीरे से अपना बिस्तर छोड़ा... उतनी ही एहतियात से पैरों में स्लीपर और कंधे पर स्टोल डालकर कमरे से बाहर आ गई थी। संभलकर एहतियात से कमरे का दरवाजा उढ़काया था और निकल पड़ी थी समंदर के किनारे।
समंदर अँधेरा ओढ़कर संवलाया सा डोल रहा था। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ की रेत थोड़ी गीली-गीली हो रही थी। थोड़ा चलने के बाद ही उसे लगा कि रेत में नंगे पैर चलना ज्यादा सरल है... उसने अपनी स्लीपर वहीं छोड़ दी थी और चलने लगी थी... गीली-ठंडी रेत पैरों के तलवों को राहत दे रही थी... कई दिनों की जम चुकी बेचैनी थोड़ी नर्म होने लगी थी, कोई साथ जो नहीं था। क्या-क्या नहीं उसने अपने भीतर रोक रखा है... खुद से निराश है बहुत... बूर रखा है, उसने वह सोता जहाँ से उमड़कर आती है भावनाएँ... अपेक्षाएँ, गुस्सा, आँसू, संवेदनाएँ... और भी बहुत कुछ। पता नहीं शायद बेचैनी की वजह वही हो।
वह चलती चली जा रही थी... अकेले, दिशाहीन, लक्ष्यहीन...। उधेड़बुन है गहरी... क्या बेचैनी है... यही न कि न खुद अपनी अपेक्षाओं पर खरी उतर पा रही है और न ही दूसरों की... बस अपेक्षाओं के समंदर में डूब उतरा रही है।
दूर क्षितिज पर आसमान का रंग बदलता नजर आ रहा था। समंदर के उस छोर से सूरज ने झाँकना जो शुरू कर दिया था। इक्का-दुक्का विदेशी जोड़े बीच पर टहल रहे थे और कुछ युवा रेत पर ही आसन लगाए ध्यान लगा रहे थे। बहुत दिनों से वह खुद के ‘न-होने’ के अहसास से घिरी हुई है। पता नहीं कहाँ जाकर अटक गई है कि उसे खुद का अहसास ही नहीं रहा… इतनी गहरी छटपटाहट है कि उसका सिरा ही नहीं मिलता। जिस्मानी वजूद से अलग उसे अपने होने का कोई और निशान नहीं मिलता, आजकल...। उसे लगने लगा है कि वो अपने देखते-ही-देखते एक भ्रम में तब्दील होती जा रही है। उसने झुककर रेत को हथेली में भरा था... लगा कि उसका अपना होना भी बस इसी रेत की तरह भुरभुरा हो रहा है, बिखर रहा है। कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसे नमी दे। अपनी उलझनों के सिरे उसे खुद ही नहीं मिलते, कोई क्या उसकी मदद करेगा। अब तो मदद की उम्मीद से भी डर लगने लगा है। उसकी आँखें डबडबा आई थी... बहुत दिनों के बाद उसकी आँखों में नमी उतरी थी... उसने अपने इर्द-गिर्द देखा... कोई देख तो नहीं रहा है, उसने खुद को छोड़ दिया था, बहने के लिए। गीली आँखें बहने लगी थी, होंठ कस गए थे। कोई भी नहीं है संभालने के लिए... वो बहा सकती है खुद को, ऐसे ही वह खुद को खतम कर रही है... यूँ ही खत्म हो जाना है, कहीं कुछ भी इकटठा नहीं होगा... कोई इकट्ठा नहीं करेगा। उसे बहना ही है, इसी तरह अकेले ही विसर्जित होना है... इस नदी को कोई बाँध नहीं रोक रहा है... किसी ने बनाया ही नहीं है, उसे बहकर खारे पानी में ही मिलना है।
आखिर उसने तय जो किया है कि किसी के सामने नहीं रोना है। इसी निश्चय ने उसके भीतर पर्त-दर-पर्त बेचैनी बुनी है। घुटने के बल बैठकर उसने फलक पर उभर आए सूरज की तरफ देखा था। वह रो रही है... निशब्द... आँसू बह रहे हैं। बह रही है बिना बाँध के खारे पानी की तरफ... यही उसकी नियति है, हर उस की, जिसे रोकने... थामने के लिए कोई बाँध नहीं है उसे बहना ही है। बहा चुकी थी, वह जितनी बची थी, अब वह लौट रही है, जहाँ उसकी स्लीपर पड़ी थी, वहीं बिहाग चाय का कप लिए उसका इंतजार कर रहा था। वो मुस्कुराई थी... आँखें बंद कर कुछ बुदबुदाई एक संकल्प उसने उगते सूरज और चंचल लहरों को दखेकर किया था और बिहाग के बढ़े हुए हाथ को खींच लिया था। बहुत दिनों बाद उसने मुस्कुराती हुई सुबह देखी थी। कोई निश्चय उसके भीतर जगमगाया था... झिलमिलाया था। फिर से उसने सूरज की तरफ देखा था... इस अपेक्षा में कि ये तो मदद करेगा ही...

04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।