27/07/2014

तीन-दुनिया, तीन सच

साहचर्य
जाने क्या तो बेचैनी रही होगी कि रात भर नींद ने अपनी आगोश में नहीं लिया, बस सतह पर ही बहलाती रही। सुबह उठे तो हल्का सिरदर्द था। रविवार का दिन था तो दर्द को सहलाने की सहूलियत भी थी और मौका भी। आसमान बादलों की चहलकदमी से गुलजार था... दिन का रंग बरसात में सुनहरा नहीं साँवला-सा होता जाता है, तो आज भी वैसा ही था। आँखों पर नीम, गुलमोहर और अमरूद की टहनियाँ अपनी पत्तियों के साथ चंदोवा ताने हुए थीं। जाने कब-कहाँ का पढ़ा-सुना याद आने लग रहा था। याद आया कि अपने काम के दौरान मेरी कलिग ने बताया कि प्रकृति की व्यवस्था के तहत किसी भी पेड़ की हर पत्ती को उसके हिस्से की धूप मिलती है, ताकि वह अपना भोजन बना सके। तकनीकी भाषा में इसे ‘photosynthesis’ की प्रक्रिया कहते हैं। लेकिन किसी भी पेड़ को नीचे से देखकर ऐसा अहसास तो नहीं होता है कि इसकी हर पत्ती पर धूप पड़ रही है, लेकिन ऐसा होता तो है। बड़ा अभिभूत करने वाला सच है... पेड़-पौधों की दुनिया में कितना एकात्मवाद है। कोई किसी का हक नहीं छीनता है, कोई किसी के साथ अन्याय नहीं करता है। एक ही पेड़ पर अनगिनत पत्तियों के होते भी किसी एक के साथ भी कोई अन्याय नहीं... प्रकृति कैसे निभाती होगी, इस तरह का संतुलन... और पत्ते रहते हैं कितने साहचर्य से...?

प्रतिस्पर्धा
थोड़ी फुर्सत का वक्फ़ा आया था हिस्से में। बाहर बारिश हो रही थी, हल्की रोशनी में बूँदें गिरती हुई, झरती हुई नजर तो आ रही थी, लेकिन दिन जैसा नज़ारा नहीं था, लेकिन बहुत इंतजार के बाद आखिर बरसात हो रही थी। खिड़की की नेट पर एकाएक एक छिपकली दिखाई दी... बहुत एहतियात से बैठी हुई... ऊपर की तरफ नजरें गड़ाए, जब ऊपर देखा तो झिंगुर नजर आया। ओह... ये झिंगुर की ताक में है। एकदम से चेतना सक्रिय हुई, नेट पर जोर से हाथ मारा... जाने क्या हुआ, झिंगुर पहले उड़ा या फिर छिपकली गिरी, लेकिन झिंगुर की जान बच गई। लेकिन इसके तुरंत बाद ही सवाल उठा ‘किसका भला किया? झिंगुर की जान बची, लेकिन छिपकली... उसका निवाला तो छीन लिया... तो क्या भला किया।’ लगा कि प्रकृति ने जीव-जंतुओं की दुनिया की रचना बड़े निर्मम ढंग से की। यहाँ तो बस प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है। हमने इसे नाम दिया ‘ecology’। चार्ल्स डार्विन ने इसी दुनिया से तो अपने महानतम सिद्धांत का स्रोत पाया था ‘survival of the fittest’। यहाँ की संरचना में जो सबसे प्रतिस्पर्धा में जीत जाएगा वो जीवित रहेगा... लेकिन यहाँ भी मामला जरूरत का है। भूख का है, अस्तित्व का है।

लिप्सा
तो फिर हमारी दुनिया में क्या है? इस दुनिया में हम कुछ भी किसी के लिए नहीं छोड़ते हैं। ecology या पारिस्थितिकी से आगे जाती है, हमारी दुनिया। यहाँ डार्विनवाद भी हार जाता है, क्योंकि यहाँ अस्तित्व का संकट भी वैसा नहीं है। अजीब बात है कि प्रकृति इस सबसे बुद्धिमान जीव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है, लेकिन फिर भी वह संघर्षरत् है। अपनी भूख के लिए नहीं, अपने अस्तित्व के लिए भी नहीं... अपनी लालच के लिए। उस लालच के लिए जिसका कोई ओर-छोर नहीं है।
हर पत्ती नई पत्ती के लिए धूप छोड़ती है। ये वनस्पति की दुनिया की खूबसूरती है। जंतुओं की दुनिया में एक का वजूद दूसरे के जीवन पर निर्भर करता है। ये उनकी दुनिया की कड़वी हकीकत है, जिसे बदकिस्मती से उन्होंने नहीं चुना है। ये दुनिया उन्हें ऐसी ही मिली है। लेकिन हमारी दुनिया... जिसे हमने ही बनाई है। यहाँ का तो कोई सच नहीं है। जिसके हाथ ताकत आई, उसने दूसरे की दुनिया हथिया ली। हमने अपने-अपने अधिकारों पर तो कब्जा किया ही हुआ है, दूसरे के अधिकारों का भी हनन कर लिया है। न हमें इसकी भूख है न जरूरत... बस हमने अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए इस दुनिया को जहन्नुम में तब्दील कर दिया और ये दौड़ है कि कहीं थमती ही नहीं है।

10/07/2014

कर्म ही आनंद है

वर्ल्ड कप फुटबॉल के सेमीफाइनल में आखिरकार मेजबान ब्राजील जर्मनी से हार गया। सारे मीडिया ने इस मैच को जमकर कवरेज दिया... आखिर तो दुनिया के एक बड़े हिस्से में फुटबॉल जुनून है... हमारी भाषा में कहें तो धर्म... जैसे हमारे यहाँ क्रिकेट है... धर्म। तो ब्राजील जो कि फुटबॉल विश्वकप खिताब के दावेदारों में था वो सेमीफाइनल में ही बाहर हो गया।
खुद ब्राजील में आँसुओं का सैलाब आ गया। वहाँ लोग निराशा और हताशा में हिंसा और आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। देशी-विदेशी मीडिया और सोशल मीडिया उस हार का जमकर मजाक बना रहे हैं। हार को इतना बुरा, इतना शर्मनाक बना दिया है कि अब हार हाल में जीतना एक मूल्य हो गया है। तभी तो जीतने के लिए हर नैतिक-अनैतिक, जायज-नाजायज उपाय अपनाए जाते हैं। क्योंकि हर हाल में जीत ही सबसे बड़ा और सबसे पहला सच है।
सोचें तो खेलों की ईजाद के पीछे बहुत सारा दर्शन और वजहें रही होंगी... आनंद, जोश, स्फूर्ति, व्यायाम, सामंजस्य, धैर्य, प्रबंधन, संतुलन ... और भी कुछ, लेकिन इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ जीत हासिल करना तो कतई नहीं रहा होगा, लेकिन आज खेल का मतलब ही जीत है। चाहे चीन में ओलंपिक की तैयारी से संबंधित रिपोर्ट पढ़ लें या फिर फुटबॉल वर्लड कप के मैचेस में दिखाई देती हिंसा... इस बार ही ऊरग्व के सुआरेज ने इटली के खिलाड़ी जॉर्जिया चेलिनी को कंधे पर काट लिया... और ये उसने तीसरी बार किया है। इसी के एक दूसरे मैच में कोलंबिया के युवान जुनिगा ने ब्राजील के नेमार को अपने घुटने से इतनी बुरी तरह से मारा कि उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई और वो वर्ल्ड कप खेलने के लायक नहीं रहे। आखिर हम खेलों के माध्यम से क्या सीखा रहे हैं? समझ नहीं आता कि खेल, खेल रहे हैं या फिर युद्ध लड़ रहे हैं?
हार भी तो खेल का ही हिस्सा है। हाँ असफलता तोड़ती तो है, लेकिन जिस तरह से रात और दिन जिंदगी का हिस्सा है, सुख-दुख, धूप-छाँव जीवन का हिस्सा है, उसी तरह हार और जीत भी...। आखिर ऐसा कौन है, जिसे जीवन ने हमेशा दिन-सुख-छाँह-जीत ही दिया है? जिसे सुख मिलता है उसे दुख भी मिलता ही है और खेल ही तो हमें ये सिखाते हैं सिखा सकते हैं कि हार भी जिंदगी का ही हिस्सा है।
ये समझ नहीं आता कि खिलाड़ी खेलते हुए आनंद लेते हैं या फिर बस सारा ध्यान हर हाल में जीतने का ही होता है। अनुभव कहता है कि जब हम कर्म करते हुए परिणाम पर ध्यान लगाए रहते हैं तो फिर कर्म का मजा खत्म हो जाता है, न तो हम कर्म से संबंद्ध हो पाते हैं और न ही कर्म से हम संतोष पाते हैं। वो बस एक यांत्रिक क्रिया होकर रह जाता है, जिसमें न रस है, आनंद और न ही संतोष... वो बस एक क्रिया है।
थोड़ी पुरानी घटना है, ट्रेन में सफर कर रही थी और बहुत सारे लोग किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए जा रहे थे। (बाद में पता चला कि वे वामपंथियों रैली में हिस्सा लेने पंजाब जा रहे थे) उनकी आपस की बातचीत सुन रही थी... उसका निचोड़ ये था कि पूँजीवाद सिर्फ आर्थिक प्रणाली नहीं है, इसके असर बहुत गहरे होंगे, ये जीवन के हर क्षेत्र में गहरे और स्थायी प्रभाव पैदा करेगी। बात तब ज्यादा समझ नहीं आई थी। लगा था कि पैसा आ जाने से जीवन-शैली में बदलाव होगा, कला-साहित्य-संस्कृति-अध्यात्म और दर्शन में कैसा और क्या बदलाव होगा... हो सकता है। जैसा कि होता है, हर नई चीज़ जो मन को भाती है, जहन के किसी कोने में स्थापित हो जाती है। वक्त बहुत धीरे-धीरे उस पर से धूल झाड़ता चलता है और एक दिन वो सिद्ध होती है... या सही या गलत...। तो उस दिन की वो बात सही सिद्ध हुई।
भौतिकवादी जीवन-शैली हमारे जीवन से आंतरिकता छीन रही है। जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हमारे जीवन में physicality शामिल होती जा रही है और न सिर्फ शामिल हो रही है, बल्कि वह विस्तार पा रही है। हमारा प्रयासों में... कोशिशों में... सफर में... यकीन कम हो चला है। हम बस परिणामों की तरफ ही देखते हैं। हम कर्म का आनंद भूल गए हैं और परिणामों की उपलब्धि को ही खुशी का स्रोत समझने लगे हैं। तभी तो हमारा सारा लक्ष्य बस रिजल्ट्स पर ही हुआ करता है। खेलों में इस तरह की प्रवृत्ति इसमें आ रहे बेशुमार धन की वजह से भी पैदा हुई है... बात तो वही है न... भौतिकता... फिजिकलिटी...! तो फिर रस कहाँ है, आनंद कहाँ है, जहाँ हिंसा हो, द्वेष और ईर्ष्या हो, जहाँ दबाव हो हर हाल में बेहतर सिद्ध होने का वहाँ कहाँ से रस, आनंद और तृप्ति आ सकती है?
हम अपने आस-पास जहाँ भी नजर दौड़ाएँ हर तरफ भौतिकता पसरी पड़ी है... भौतिकता सिर्फ वस्तु नहीं ये एक विचार है, एक जीवन-शैली भी। सुंदर चेहरों से लेकर खूबसूरत फोटो तक... भव्य शादियों से लेकर महँगे मोबाइल और उतने ही मँहगे कपड़ों तक। बाजार ने हमें दो शब्द दिए हैं, १. परफार्मेंस और २. टारगेट... और इन दोनों ने हमारे जीवन से रस सोख लिया है। हमारे कर्मों का सारा निचोड़ सिर्फ परिणामों पर हुआ करता है और उसके लिए हम नैतिक-अनैतिक, सही-गलत हर तरह के उपाय अपनाते हैं।
जाने कर्म करें औऱ फल को ईश्वर पर छोड़ देने वाले गीता के आप्त-वाक्य का गूढ़ार्थ क्या रहा होगा... हम तो बस इतना समझे हैं कि कर्म करते हुए उसमें डूब जाना और कर्म को ही लक्ष्य बना लेने से जीवन आनंदमयी होता है। क्योंकि चाहे इसे हम भाग्यवाद कह लें या फिर बहुत कर्मवादी हो जाएँ तब भी सच सिर्फ और सिर्फ इतना है कि महज कर्म पर ही आपका अधिकार है... परिणाम पर नहीं।

07/07/2014

रंग से मिली आज़ादी

रंग की अहमियत मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है जो साँवले रंग के साथ ही जन्मा हो... नर्सरी में ही ये तो समझ आ ही गया था कि कुछ तो ऐसा है जो मुझे दूसरों से कमतर करता है। और ये अहसास साल-दर-साल पुख्ता होता चला गया। बावजूद घर के मजबूत संरक्षण के ये बात कभी सहानुभूति के तौर पर तो कभी उलाहनों और तानों के तौर पर बता दी जाती थी कि ‘तेरी शादी कैसे होगी?’ बस सारी चीजें उस शादी के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। आत्म-विश्वास कम होता चला गया और मैं धीरे-धीरे अपने खोल में सिमटने लगी। हर लड़की मुझे खुद से बेहतर लगती रही। मिडिल और हाई स्कूल के बीच के सालों में मेरी दिशा तय होने लगी।
सारी स्त्री-सुलभ चीजें चुन-चुनकर इरेज कर दी गई। कपड़े, जूलरी, मेकअप, फैशन... सब कुछ से ध्यान हटा लिया गया। (उस वक्त के अपने अटायर पर आज तक ताने सुनती हूँ, कि पता है कैसे रंग पहनती थीं) मन को म्यूट कर दिया गया और दिमाग ने कमान संभाल ली। जो कुछ बड़े पढ़ते थे, वो सब पढ़ने और समझने में खुद को झोंक दिया। इस विचार के साथ कि ‘चाहे आज ये सब समझ नहीं आ रहा है, लेकिन कोशिश करती रही तो एक दिन जरूर समझ आएगा।’ शुरुआत में पढ़ने में रस आने लगा, फिर आनंद और अंत में नशा आने लगा। जब भीतर ही रहने लगी तो बाहरी दुनिया की समझ आ ही नहीं पाई। कई साल बुद्धिवाद के पागलपन में बिताए... ये मानकर कि बुद्धि की सीमा से बाहर कुछ है ही नहीं। और यदि खुद को सिद्ध करना है तो दिमाग को हथियार बनाना ही होगा... फिर भी रंग की कमतरी से उबर नहीं पाई। यूँ किसी और चीज में भी कोई झंडे नहीं गाड़े थे। हर जगह औसत ही रही... ।
आज फिर उसी बात पर लंबी बहस हुई जिस पर पिछले 13 सालों से चल रही है... हर बहस में मैं कंविंस करवाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन हर बार असफल होती हूँ। ये बात खारिज ही होती चली जा रही है, सालों-साल से कि हमारे यहाँ लड़कियों के रंग का मतलब होता है। या यूँ कि रंग भी खूबसूरती का मापदंड होता है। व्यक्तिगत तौर पर कोई चाहे जो मानें, लेकिन सामाजिक तौर पर फेयर होना... बस फेयर होना ही है। लेकिन नहीं माना जाता है, न व्यक्तिगत तौर पर और न ही सामाजिक सच को... बस खारिज किया जाता है।
आज भी बात हमशक्ल की हीरोइन ईशा गुप्ता के उस बयान से शुरू हुई थी जिसमें उसने कहा था कि साँवला रंग होने की वजह से उसे भेदभाव सहना पड़ा। उसकी बहनें फेयर थीं इसलिए भी उसे ज्यादा इस चीज का सामना करना पड़ा। और सानिया मिर्जा और नंदिता दास का उदाहरण भी... लेकिन बात इसी नोट पर खत्म हुई कि ‘तुम्हारा परिवेश बेहद अ-संवेदनशील था और तुम अति-संवेदनशील’। अन्यथा वक्त बदल गया है, सौंदर्य-सौंदर्य होता है, गोरा-काला नहीं...। होता है... मैं गवाह हूँ।
क्या अब भी...?
नहीं, अब नहीं...।
जीवन में बदलाव तब आया, जब प्यार आया। अहसास जागा कि उतना बुरा भी नहीं है सबकुछ... फिर भी वो सब कुछ नहीं आया जो इतने सालों से बंधक रहा। सालों-साल कोशिशें हुईं बहुत एफर्ट और बहुत मशक्कत के बाद मैं उस एहसास-ए-कमतरी से बाहर आ पाई हूँ। बहुत सारी दीगर चीजों के साथ ही आज मैं अपने रंग से भी आजाद हो पाई हूँ।
लेकिन आज भी मैं इस बात पर यकीन करती हूँ कि चाहे जो हो जाए, हमारे देश में खूबसूरत होने की सबसे पहली और सबसे अहम शर्त है फेयर होना... और चाहे कोई कुछ कहे, यही सच है। और ये हर वर्ग और हर जगह एक-सा है... उदाहरण नंदिता का ले लें या फिर नयोनिका का...


06/07/2014

आत्मालाप...!

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले/कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले... जिस वक्त नींद टूटी उस वक्त रात से चल रहे म्यूजिक सिस्टम पर यही गज़ल बज रही थी। खिड़की के उस पार चाँद अपने शबाब पर था। उसे देखकर याद आया कि आज पूरणमासी है। लगना तो चाहिए था, लेकिन कभी-कभी अपना आप ही खुद से छूट जाया करता है और छिटककर इतनी दूर चला जाता है कि उस तक पहुँचने में कई सारे दिन गुजर जाते हैं। कामाक्षी न जाने किस चीज से बेचैन है... दूर-पास कहीं भी तो उसकी बेचैनी की वजह का कोई सिरा नहीं मिल रहा है। बस वो बेचैन है। खुद से बहुत दूर, दुनिया में डूबकर बुरी तरह से छटपटा रही है। इस बहाव में उसने खुद को बहा दिया है। शायद इस दहशत में उसकी नींद टूटी थी कि कहीं वह खुद को विसर्जित तो नहीं कर चुकी है... रात के जिस पहर उसकी नींद टूटी थी, उसके बाद उसने बहुत कोशिश की थी कि उसे दूसरे सिरे से सिल दे, लेकिन बस दूसरा सिरा नहीं मिला तो नहीं ही मिला। बहुत देर तक रात के अँधेरे को नज़रों से सहलाती रही, फिर बेचैनी बढ़ने लगी तो तकिए को पलंग की पुश्त पर टिका कर उस पर अपना सिर डाल दिया। खिड़की का पल्ला खोल लिया, बाहर से हवा का झोंका-सा आया। पूरा-बड़ा और चमकीला चाँद होने के बावजूद अँधेरा उसे घना लगा। शायद भीतर का अँधकार फैलकर बाहर आ गया है उसका....। उसने बीती रात को फिर से बुहारा था, कोई फाँस यदि चुभी है, ठहरी है तो उभरकर हाथ आए, कोई सिरा तो मिले अपनी बेचैनी का। लेकिन नहीं जीवन में सब कुछ अपनी जगह पर सही और अपनी गति से चल रहा है। न कोई रूकावट है न कोई खराश... तो फिर ये सब आया कहाँ से और क्यों? वैसे ये उसके लिए कुछ नया भी नहीं है। थोड़े बहुत अंतराल के बाद कमोबेश ये बेचैनी सिर उठाती ही रहती है। कोई बीज है जो मर-मर कर भी नहीं मरता है। बार-बार जी उठता है। ये न तो किसी घटना से जुड़ता है और न ही किसी विचार से... बल्कि विचार की प्रक्रिया तो बेचैनी के बाद की घटना है... तो। सालों साल से ये उसके साथ है, हर कोशिश के बाद भी। अब तो उसने इसे स्वीकार भी कर ही लिया है। लेकिन चाहे दर्द के साथ जीना सीख लें, लेकिन दर्द तो फिर भी दर्द होता है न...। दो-तीन दिनों से उसे सब कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस हो तो रहा था, आहट बहुत करीब आ रही थी, लेकिन जानती थी कि जो सामने होगा उसे तो हर हाल सहना ही है...। वो जहाँ टँगी है, वहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है। बस अँधेरे कमरे में बाहर निकलने के लिए सिर भड़ीक रही है।
आसमान का रंग काले से जरा साँवला होने लगा है, सूरज के आने की सूचना है। फिर से वही दिन, वही जीवन... कल्पना भर से उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। सुबह हो चुकी थी... सुबह की ताजे-मन उजाले में उसकी आँखों के सामने पड़ोसी का लॉन था। मन ने तय किया था आज... कहीं जाना नहीं है। नीम की, अमरूद की डाल पर तोते का जोड़ा बैठा हुआ था। काली छोटी-सी चिड़िया तार पर बैठी हुई थी। गर्दन हिलाने पर उसके पंखों से मोरपंखी रंग झलक रहा था, ऐसे-जैसे वो रंग छलक रहा हो। फाख़्ता घास पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फुदकती फिर रही थी। खिड़की से लगी दीवार पर चींटियाँ कतार में आ-जा रही थी।
लड़ते-लड़ते वह थकने लगी, तभी उसे याद आया कि कहीं उसने पढ़ा है, जो कुछ परेशान करे उससे लड़ें नहीं, उसके साथ खुद को छोड़ दें... हाँ, ये भी सही है। उसने आँखें मूँद ली और छोड़ दिया खुद को उस भँवर में, जिससे वह पिछले कई दिनों से लड़ रही थी, डूबने के लिए मुक्त कर दिया... अपने आप को। इतनी गाफिल हो गई कि उसे इस बात का भी अहसास नहीं रहा कि आखिर वह पहुँची कहाँ है?
भीतर के भँवर में डूब-उतराते भी थकान होने लगी थी। वो बस डूब जाना चाहती थी, लेकिन संभव ही नहीं हो पा रहा था। एकाएक उसे लगा कि उसे शिद्दत से मरने की तलब लगने लगी है। उसने खुद को छोड़ दिया था... शांत... निश्चेष्ट...। चेतना उसके शरीर पर भटकने लगी। और उसका मन उसका पीछा करने लगा... पैर के अँगूठे से चली तो पूरे शरीर का चक्कर लगा लिया... फिर लौटी... फिर से यात्रा पर निकली, इस बार गिरफ्त छूट गई, वो न जाने कहाँ गुम हो गई... उसकी आँखें खुली थी... जाने वो जिंदा भी थी या... !