07/09/2014

बक रहा हूँ जुनूं में...

रात का न जाने कौन-सा वक्त रहा होगा... सतह पर ठहरी हुई थी नींद, गहरे उतरी भी नहीं थी कि अतल गहराई से निकल कर उदासी ने नींद की पतली-सी झिल्ली को फाड़ दिया और नींद पर फैल गई। तब भैरवी के स्वर हवाओं में तैर रहे थे... फिर भी अभी सुबह होने में वक्त था। कई दिनों से ये सिलसिला चल रहा था, दिन भर की थकान के बाद रात नींद तो जल्दी लग जाया करती है, लेकिन जैसे ही शरीर कमजोर पड़ा मन उसे हरा देता और नींद टूट जाती। कभी बिना सपनों के गहरी नींद की दौलत हासिल थी मुझे... आजकल सपने तो नहीं, मगर विचार, बेचैनी और संवाद चलते रहते हैं। और नींद... ऊपर-नीचे करती रहती है। आखिर मन के जीतते ही नींद विदा हो जाती है। कभी दिन चढ़े तक नींद आती रहती थी... आजकल पौ फटने से पहले ही वो रूठ जाती है।
कितना बोझ है... क्या बोझ है... इतना दबाव, इतनी बेचैनी और इतना तनाव। न बाहर पूरी हूँ न भीतर... न बाहर को भर पा रही हूँ और न भीतर को तुष्ट कर पा रही हूँ... बस दौड़ है हर कहीं को संभाल लेने, सहेज लेने की... किसी को समझाऊँ भी तो क्या... और कोई समझे भी क्यों...? जाने मैं वक्त के साथ दौड़ में हूँ या फिर वक्त के खिलाफ, अपने बारे में मुझे कुछ भी साफ-साफ नजर नहीं आता। कभी अंदर तो कभी बाहर की खींचतान में जो यातना मेरे हिस्से आई है, उसका हिसाब खुद मेरे पास ही नहीं है। क्या छोड़ दूँ और क्या साथ ले चलूँ? इसका जवाब भी मेरे पास नहीं है। कई सवाल है... हर वक्त काँटों की तरह चुभते हैं, लेकिन जवाब नहीं है... जवाबों की तलब में लगातार हार की हिस्सेदार हो रही हूँ। मगर यातना का सिलसिला कहीं ठहरता ही नहीं है। कभी सोचती हूँ कि क्यों मुझे रात का अँधेरा आजकल इतना भाने लगा है...? इतना कि सूरज का आने की कल्पना भी दहशत से भर देती है, तो चाँदनी बेचैन करने लगती है, हर वो चीज जो बाहर ले जाती है, उससे मुझे डर लगने लगा है और इसलिए रोशनी से भी। लेकिन भला इस डर से बचाव कैसे होगा, हर दिन सूरज उगेगा... हर दिन सुनहरी रोशनी से रोशन होगा... हर दिन वही पुराने सवाल सिर उठाएँगे और हर दिन जवाबों की तलाश में भटकती रहूँगी... और रात ही मेरी पनाहगाह होगी... न जाने कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा... न जाने कब तक इसे सहती रहूँगी यूँ बिना थके...

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