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26/08/2014

विसर्जन हो, अपने अहंकार और मोह का


अपनी रचना के प्रति तटस्थता का भाव ही रचनाकार को सृष्टा बनाता है... ईश्वरतुल्य... क्योंकि सृजन के क्रम में गहरी आसक्ति और पूर्णता पर उतनी ही गहरी वीतरागिता ... यही तो है संतत्व का सार, उत्स... और यही है ईश्वरत्व...।
यदि ईश्वर के होने के विचार को मानें और ये भी मानें कि ये सारी सृष्टि उसकी रचना है तो सोचें कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना गहरी आसक्ति, असीमित कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता के साथ की और सृजन करने के बाद उसे त्याग दिया... छोड़ दिया... सृष्टि को उसके कर्म औऱ कर्मफल के साथ...। कितना अनुराग था, जब रचना की जा रही थी, एक-एक चीज को सुंदर बनाया... विविधवर्णी और विविधरंगी... बहुत कलात्मकता और बहुत कल्पनाशीलता के साथ.... और फिर पूर्णता पर उसके प्रति उदासीनता ओढ़ ली... खुद को अपनी रचना से मुक्त कर लिया... उस मोह से, उस अहंकार से मुक्त कर लिया जो सृजनकर्ता को हुआ करता है... यही तो ईश्वर तत्व है।
सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन पटनायक की सैंड पैंटिंग का सबसे पहला फोटो देखा था लगभग २०-२२ साल पहले... तब से ही एक सवाल परेशान करता रहा है मुझे... कि जब वे समुद्र किनारे रेत पर रचना कर रहे होते हैं तो उनके मन में क्या हुआ करता होगा...? आखिर तो उनकी रचना उनकी आँखों के सामने ही नष्ट हो जाने वाली है... तो उन्हें क्या लगता होगा, अपनी रचना के प्रति कोई मोह, कोई ममता नहीं उमड़ती होगी? इन दिनों लग रहा है कि शायद उस सवाल का जवाब खुद में ढूँढ पा रही हूँ।
परंपराओं से बहुत दूर का भी रिश्ता कभी रहा नहीं। और धर्म से तो जरा भी नहीं। धार्मिक होना जाने क्यों गाली सा सुनाई देता है। फिर भी उत्सव पसंद है... आजकल न जाने कैसी मनस्थिति में रहती हूँ कि हर कहीं दर्शन, फिलॉसफी ढूँढ ही लेती हूँ। अब पता नहीं मिट्टी से सृजन की परंपरा के पीछे किस दर्शन की कल्पना की थी, लेकिन निष्कर्ष निकल आए हैं।
गणपति की मिट्टी की प्रतिमा की स्थापना के गला फाड़ू अभियान में एकाएक नई धुन सवार हुई... खुद बनाने की। मिट्टी से बचपन भर दूर रहे और बड़ों की शाबाशी पाई... ये कि हमारे बच्चे इतने साफ-सुथरे कि कभी मिट्टी-कीचड़ में हाथ गंदे कर नहीं आए (आज सोचती हूँ तो खुद को लानतें भेजती हूँ... कि क्यों नहीं मिट्टी-कीचड़ में खेलें) खैर सिर धुन लेने से भी बदलेगा क्या? तो अब समस्या ये कि बनेंगे कैसे... क्या-क्या लगेगा बनाने में और कैसे बनेंगे... क्योंकि जो काम नहीं आता, उसे करने से पहले गहरी बेचैनी रहती है...। पूछकर, जानकर, पढ़कर तय कर लिया कि मिट्टी से गणेशजी बनाएंगे, इस बार।
बनाने बैठे... उसी दौरान लगा कि इतनी मेहनत, लगन, कल्पनाशीलता और ऊर्जा लगाकर बनाएंगें, उन्हें प्रतिष्ठित करेंगे और फिर उन्हें विसर्जित कर देंगे? उदासी ने आ घेरा... अपनी रचना के प्रति मोह जागा... मन का करघा चल रहा था, ताना-बाना बुना जा रहा था। एक विचार यूं भी आया कि यदि ये खूबसूरत बना तो भी इसे विसर्जित कर देना होगा...?
हाँ... शायद यही तो है, मिट्टी से सृजन करने और विसर्जन करने का दर्शन...। उस मोह का त्याग जो अपने सृजन से होता है, उस अहंकार का त्याग जो हमें सृजनकर्ता होने का होता है... अपनी बनाई रचना को अपने ही हाथों विसर्जित करना... मतलब अपने ही मोह का परित्याग करना... जब रचना का विसर्जन करेंगे तो जाहिर है उस अंहकार का भी विसर्जन होगा, जो हमें सृजनकर्ता होने से मिलता है।
फिर मिट्टी... मतलब अकिंचन... कुछ नहीं, जिसका कोई भौतिक मोल नहीं, फिर भी अनमोल... क्योंकि ये पृथ्वी का अंश है, अक्स है, हमारे शरीर की भौतिक संरचना का एक अहम तत्व। इसके बिना जीवन नहीं, जीवन की कल्पना नहीं... पंचतत्वों की गूढ़ दार्शनिकता न भी हो, तब भी मिट्टी जीवन का आधार है, जैसे सूरज है, आसमान है, पानी है, उसी तरह मिट्टी भी है। और तमाम सफलताओं और उपलब्धियों के सिरे पर खड़ी है मिट्टी... मिट्टी मतलब खत्म होना, मिट्टी में मिलना... मिट्टी का दर्शन है, खत्म होना... अंततः सब कुछ को विसर्जित हो ही जाना है। तो लगा कि इस तरह के विसर्जन को जिया जाए, उस छोड़ने को... उस मुक्त करने और होने को महसूस किया जाए जो सृजनकार को संत बनाता है।
संतत्व को महसूस करें... गणपति की मूर्ति मिट्टी की हो, ये तो प्रकृति के लिए है, लेकिन यदि उस मूर्ति को खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जन करें... ये हमारे लिए है... खुद हमारे लिए। इस बहाने हम अपने गर्व को, मोह को और अहंकार को विसर्जित करें... गणपति प्रतिमा के साथ... खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जित भी करें।

03/05/2014

रचना नहीं, रचना-क्रम आनंद है



महीने का ग्रोसरी का सामान खरीदने गए तो रेडी टू ईट रेंज पर फिर से एक बार नज़र पड़ी। आदतन उसे उलट-पलट कर देखा और फिर वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था। एकाध बार लेकर आए भी, बनाया तो अच्छा लगा लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कुछ बहुत मज़ा नहीं आया। आजकल हिंदी फिल्मों में वो एक्टर्स भी गा रहे हैं, जिनके पास गाने की जरा भी समझ नहीं है। जब उनके गाए गाने सुनते हैं तो लगता ही नहीं है कि ये गा नहीं पाते हैं। बाद में कहीं जाना कि आजकल आप कैसे भी गा लो, तकनीक इतनी एडवांस हो गई है कि उसे ठीक कर दिया जाएगा। अब तो चर्चा इस बात की भी हो रही है कि जापान ने ऐसे रोबोट विकसित कर लिए हैं जो इंसानों की तरह काम करेंगे। मतलब जीवन को आसान बनाने के सारे उपाय हो रहे हैं। ठीक है, जब जीवन की रफ्तार और संघर्षों से निबटने में ही हमारी ऊर्जा खर्च हो रही हो तो जीवन की रोजमर्रा की चीजें तो आसान होनी ही चाहिए। हो भी रही है। फिर से बात बस इतनी-सी नहीं है।
पिछला पढ़ा हुआ बार-बार दस्तक देता रहता है तो अरस्तू अवतरित हो गए... बुद्धि के काम करने वालों का जीवन आसान बनाने के लिए दासों की जरूरत हुआ करती है, तब ही तो वे समाज उपयोगी और सृजनात्मक काम करने का वक्त निकाल पाएँगे। सही है। जीवन को आसान करने के लिए भौतिक सुविधाओं की जरूरत तो होती है और हम अपने लिए, अपने क्रिएशन के लिए ज्यादा वक्त निकाल पाते हैं। लेकिन जब मसला सृजन-कर्म से आगे जाकर सिर्फ सृजन के भौतक पक्ष पर जाकर रूक जाता है तब...?
विज्ञान, अनुसंधान, व्यापार और तकनीकी उन्नति ने बहुत सारे भ्रमों के लिए आसमान खोल दिया है। फोटो शॉप से अच्छा फोटो बनाकर आप खुद को खूबसूरत होने का भ्रम दे सकते हैं, ऐसी रिकॉर्डिंग तकनीक भी आ गई है, जिसमें आप गाकर खुद के अच्छा गायक होने का मुगालता पाल सकते हैं। अच्छा लिखने के लिए अच्छा लिखने की जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा पढ़ने की जरूरत है... कॉपी-पेस्ट करके हम अच्छा लिखने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। इसी तरह से रेडी-टू-ईट रेंज... रेडीमेड मसाले... आप चाहें तो हर कोई काम आप उतनी ही एक्यूरेसी से कर सकते हैं, जितनी कि लंबे रियाज से आती है। इस तरह से तकनीक और अनुसंधान आपको भ्रमित करती हैं और आप चाहें तो इससे खुश भी हो सकते हैं। तो अच्छा गाना और अच्छा गा पाना... अच्छा खाना बनाना और अच्छा खाना बना पाने के बीच यूँ तो कोई फर्क नज़र नहीं आता है। फर्क है तो... बहुत बारीक फिर भी बहुत अहम...। यहाँ रचनाकार दो हिस्सों में बँट जाता है – एक जो अपने लिए है... अच्छा गा पाने वाला या फिर अच्छा खाना बना पाने वाला और दूसरा जो लोगों के लिए है अच्छा गाने वाला और अच्छा खाना बनाने वाला। फाइनल प्रोडक्ट बाजार का शब्द है...।
लेकिन सवाल ये है कि आप जीवन से चाहते क्या हैं? यदि आपका लक्ष्य सिर्फ भौतिक उपलब्धि है, तो जाहिर है आप सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे हैं। आप दूसरों को ये बताना चाहते हैं कि आप कुछ है, जबकि आप खुद ये जानते हैं कि आप वो नहीं है जो आप दूसरों को बताना चाहते हैं। दूसरा और सबसे महत्त सत्य.... सृजन की प्रक्रिया सुख है। बहुत हद तक सृजनरत रहने के दौरान हम खुद से रूबरू होते हैं। रचना-क्रम अपने आप में खुशी है, सुख है, संतोष है। ऐसा नहीं होता तो लोग बिना वजह रियाज़ करके खुद को हलकान नहीं कर रहे होते। पिछले दिनों किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शान (शांतनु) शहर में आए, अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आजकल गाने में वो मज़ा नहीं है, पूछा क्यों तो जवाब मिला कि आजकल आवाज और रियाज़ से ज्यादा सहारा तकनीक का हुआ करता है। आप कैसा भी गाओ... तकनीक उसे ठीक कर देंगी। अब शान तो खुद ही अच्छा गाते हैं, तो उन्हें इससे क्यों तकलीफ होनी चाहिए...? वजह साफ है, इंसान सिर्फ अंतिम उत्पाद के सहारे नहीं रह सकता है, उसे उस सारी प्रक्रिया से भी संतोष, सुख चाहिए होता है, जो उत्पाद के निर्माण के दौरान की जाती है। ऐसा नहीं होता तो अब जबकि जीवन का भौतिक पक्ष बहुत समृद्ध हो गया है, कोई सृजन करना चाहेगा ही नहीं... हर चीज तो रेडीमेड उपलब्ध है। न माँ घर में होली-दिवाली गुझिया, मठरी, चकली बनाएँगी न सर्दियों में स्वेटर बुनेंगी। भाई पेंटिंग नहीं करेगा और बहन संगीत का रियाज़। असल में यही फर्क है, इंसान और मशीन होने में, मशीन सिर्फ काम करती है, इंसान को उस काम से सुख भी चाहिए होता है। जो मशीन की तरह काम करते हैं, वे काम से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और बहुत मायनों में उनका जीवन भी मशीन की तरह ही हो जाता है, मेकेनिकल।
साँचे से अच्छी मूर्तियाँ बनाई तो जा सकती है, लेकिन उससे वो संतोष जनरेट नहीं किया जा सकता है, जो एक मूर्तिकार दिन-रात एक कर मूर्ति बनाकर करता है। सृजन शायद सबसे बड़ा सुख है, उसकी पीड़ा भी सुख है। उससे जो बनता है चाहे उसका संबंध दुनिया से है, मगर बनाने की क्रिया में रचनाकार जो पाता है, वह अद्भुत है, इस दौरान वह कई यात्राएँ करता है, बहुत कुछ पाता है, जानता है और जीता है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी स्त्री माँ बनना नहीं चाहती, क्योंकि उसमें पीड़ा है। हकीकत में जो हम सिरजते हैं, हमारा उससे रागात्मक लगाव होता है, वो प्यार होता है और उसी प्यार को हम दुनिया में खुश्बू की तरह फैलाना चाहते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इंसान सृजन से सुख पाए ही... ऐसा होता तो दुनिया में रचनाएँ चुराने जैसे अपराध नहीं होते। जो रचनाकार होने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं, लेकिन रच पाने की कूव्वत नहीं रखते हैं, वे अक्सर ऐसा करते हैं। तो फिर वे ये जान ही नहीं सकते हैं कि रचनाकार होने से ज्यादा महत्त है रचनारत रहना। इसमें भी जिनका लक्ष्य भौतिकता है, वे सिर्फ रचना पर ध्यान केंद्रित करेंगे, लेकिन जिनका लक्ष्य आनंद है, वे उन सारे चरणों से गुजरेंगे जो रचना के दौरान आते हैं... क्योंकि सुख वहाँ है। सृजन के बाद भौतिकता बचती है, क्योंकि रचना के पूरे हो जाने के बाद वो दूसरी हो जाती है, वो रचनाकार के हाथ से छूट जाती है। तब उसे दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए, लेकिन जब रचना के क्रम में रहती है, तो वह रचनाकार की अपनी बहुत निजी भावना और संवेदना होती है। सुख और संतुष्टि रचनारत रहने में... तभी तो रचनाकार किसी रचना के लिए पीड़ा सहता है, श्रम और प्रयास करता है, क्योंकि वही, सिर्फ वही जान सकता है कि जो आनंद रचने की प्रक्रिया में है, वो रचना पूरी करने में नहीं है।
इस तरह से कलाकार जब सृजन के क्रम में रहता है, तब वह ऋषि होता है और जब उसका सृजन पूरा हो जाता है, तब वह दुनियादार हो जाता है और दोनों का ही अपना सुख है, अपनी तृप्ति है। तभी तो जो रेडीमेड पसंद करते हैं, वो बस भौतिक दुनिया में उलझकर रह जाते हैं और नहीं जान पाते कि आनंद क्या है?






16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





26/07/2012

भटक गए हैं, तो ठहर जाइए....


यूँ वो एक शांत-सी सुबह थी, चाहे इसकी रात उतनी शांत नहीं थी। गहरी नींद के बीच सोच की कोई सुई चुभी थी या फिर नींद दो-फाड़ हुई और घट्टी चलना शुरू हो गई थी, कुछ पता नहीं था। बस यूँ ही कोई अशांति थी, जो नींद को लगातार ठेल रही थी। फिर भी... रात हमेशा ही नींद की सहेली हुआ करती है, इसलिए ना जाने कैसे उसने चुपके से दबे पाँव नींद को भीतर दाखिल करवा दिया नींद आ गई थी।
गहरी उथल-पुथल, अस्तव्यस्तता औऱ अशांति के बीच शांति की चाह क्यों नहीं होगी...? ये कोई अनयूजवल ख़्वाहिश तो नहीं है... अब तक तो यही जाना था कि कुछ भी पाना लड़ कर ही संभव है, संघर्ष करने के बाद ही उपलब्धि हुआ करती है। शांति पाने के लिए संघर्ष किया, हर चीज को पाने के लिए जिस तरह करते रहे... उस दौर में सारी छटपटाहट शांति के लिए ही तो होगी। एकमात्र लक्ष्य शांति, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, कैसे भी... शांति... तो क्या शांति के लिए भी संघर्ष करना होता है...! सालों से शांति के लिए संघर्ष चल रहा है, चलता रहेगा... आंतरिक और बाहरी दोनों ही दुनियाओं में ... इसके परिणाम में होती है... गहरी और गहरी होती अशांति, फिर भी क्या शांति को पा सके...? नहीं... संघर्ष चलता रहा, लेकिन शांति को हाथ न आना था, नहीं आई...। अब सोचो तो कितना बेतुका है... अशांति में शांति के लिए जद्दोजहद... शांति के लिए संघर्ष... संघर्ष से पायी जाने वाली शांति की ख़्वाहिश... कितना बेतुका, कितना अतार्किक, कितना सतही... क्या वाकई संघर्ष से शांति तक पहुँचा जा सकता है...! कितनी बेतुकी बात है... शांति के लिए संघर्ष.... संघर्ष से पायी गई शांति की ख्वाहिश...! करते रहे हैं, अब तक… उतनी बेतुकी कभी लगी ही नहीं। ये अलग बात है कि संघर्ष करते हुए भी कभी शांति नहीं पा सके हैं। ऐसी मनस्थिति में, बुद्धि को नहीं आत्मा को थपकियों की जरूरत थी, इसलिए... उद्वेलन नहीं, बहने की जरूरत है....।

वो ऊब भरे दिन का अंतिम सिरा ही रहा होगा, जब टीवी पर कुछ भी ऐसा नहीं आ रहा था जो अच्छा लगे, जिसमें रूचि जागे... अंतिम विकल्प के तौर पर डिस्कवरी लगा दिया था। कोई कार्यक्रम चल रहा था, शुरू हो चुका था। बड़ा एक्साइटिंग लग रहा था। ब्रेक में पता चला कार्यक्रम का नाम था आय शुड नॉट बी अलाइव...। उस दिन डायना अपने पति टॉम के साथ एडवेंचर टूर पर गई थीं। रेगिस्तान के बीचोंबीच पहले गाड़ी खराब हो जाती है, फिर गाड़ी से पानी औऱ खाना निकालने के दौरान गाड़ी में आग लग जाती है। फिर शुरू होती है रास्ता भटकने और बाहर निकलने की कोशिश... उसमें क्या-क्या मुश्किलें आईं औऱ उससे कैसे निबटा गया... वो सब। कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात ये है कि ये उन्हीं की जुबानी होता है, जो उन परिस्थितियों से बाहर आ चुके होते हैं... एक बड़ी राहत... ।
केन, जॉर्डन, जिम, रॉजर, शैली, डैनियल, सारा, मिशेल.... हरेक.... जो कि एडवेंचर स्पोर्ट्स के शौकीन हैं उन्हें सबसे पहली हिदायत ये मिलती हैं कि यदि कहीं भटक गए तो जहाँ हैं, वहीं रूक जाएँ...।

आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा भी यही कहते हैं कि जिस चीज की ख्वाहिश हो, उसे छोड़ दो... उसके पीछे मत पड़ो। कुल मिलाकर बात ये है कि भटकाव, अशांति, दुख में ठहर जाना... कुछ न कर पाने की स्थिति में डूब जाना... सबसे सहज उपाय है। इसी तरह की मनस्थिति में यूँ ही कहीं से ओशो का कहा हाथ लग गया था। मौजूं था, क्योंकि उन्होंने शांति की ही बात की थी... “यदि शांति चाहिए तो उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा जाए... उससे तो अशांति ही उपजेगी ना...।“ लगा बात तो बिल्कुल सही है... शांति पाने के लिए जद्दोजहद... क्या ऐसा करके पाई जा सकती है, शांति...? उन्होंने कहा है कि यदि मैं अशांति के लिए तैयार हूँ तो फिर मुझे कौन अशांत कर सकता है? दुख के लिए तैयार हूँ तो फिर कौन दुखी कर सकता है? जब तक हम सुखी होना चाहेंगे तो दुख ही भाग्य होगा।
मतलब जो भी है, उसमें डूब जाएँ..., छोड़ दें खुद को... बिना प्रतिरोध-विरोध और प्रयासों के... साधने की जरूरत है खुद को, लेकिन ये अनुभव सिद्ध है कि ये दलदल है, जितने हाथ-पैर मारे जाएँगें, उतने ही धँसते चले जाएँगे, तो प्रतिकूलताओं में खुद को छोड़ देना, प्रतिकूलताओं को स्वीकार कर लेना, उसके भागीदार हो जाना अपेक्षाकृत अच्छा विकल्प है, संघर्ष करने की तुलना में।
हो सकता है दुनियादारी के नियम अलग हों, शायद होते ही हैं... भौतिक दुनिया में तो संघर्ष करके ही उपलब्धि मिलती है, जितना कड़ा संघर्ष, जितना ज्यादा परिश्रम उतना ही अच्छा फल..., लेकिन आंतरिक दुनिया के नियम अलग है, यहाँ तो धँसना पड़ता है, डूबना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है ग्राह्य-त्याज्य... सबको, तभी वो मिल पाएगा जो इच्छित है। मुश्किल है, लेकिन स्थापित है... क्या करें!

10/10/2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!