08/09/2009

मैंने जो संग तराशा वो खुदा हो बैठा



इन दिनों अखबार में और ई-पेपर में दोनों ही जगह राशिफल देखा जा रहा है...... अस्थिर मानसिक स्थिति में अमूमन यही होता है... इन दिनों भी... यह पता होने के बाद भी कि कभी भी ये सच नहीं हुई..... कम-अस-कम शुभ होने की सूचना तो बिल्कुल भी नहीं.... फिर भी देखी जा रही है..... क्यों? हम खुद से उपर किसी को चाहते हैं .... कि अपनी असफलता, दुख, कमी या अभाव का ठीकरा उसके सिर फोड़ सके.... उसे भाग्य कह लें, ईश्वर कह लें या फिर बहुत वैज्ञानिक होकर परिस्थिति......।
एक बार फिर से भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा सामने है और लगभग तीसरी दफा पढ़ रही हूँ.... हर बार कोई नया अर्थ मिलता है.... इस बार फिर से.... इसी में कहा गया है कि जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, उसे हमीं ने बनाया है। इसी तरह की बात कामू की किताब रिबेल में पढ़ी थी---The conception of GOD is the only thing for which man can not be forgiven. दरअसल ईश्वर की हमें जरूरत है, इसलिए वह है.... एक बार पहले भी शायद मैंने लिखा था कि जब तक एक भी सवाल जिंदा है ईश्वर का होना जिंदा है....।
इस तरह से हम 'उसके' होने को कम नहीं कर रहे हैं, महत्व को बढ़ा रहे हैं। इसे प्रतीकात्मक तौर पर हम प्रतिमा के निर्माण और फिर उसके विसर्जन से भी समझ सकते हैं। गणपति की प्रतिमा या फिर दुर्गा प्रतिमा का मिट्टी से निर्माण, स्थापना, प्रतिष्ठा और फिर विसर्जन के पीछे वही सच काम करता है जिसे कामू ने शेख सादी के हवाले से कोट किया है, लेकिन क्या इतना ही...? हमें अपनी असफलता के लिए ही नहीं अपनी खुशी के लिए भी ईश्वर के विचार की जरूरत है। क्योंकि उस विचार की धूरी के आसपास ही सब कुछ घूमता है..... आनंद भी....। तभी तो मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है... जिसके नशे में हैव्स नॉट अपनी सारी दुख तकलीफों को भूल जाता है.... कभी देखें गणपति के जुलूस या नीचली बस्ती में हो रहे नवरात्र उत्सव को.....उन झूमकर नाचते गाते लोगों के शरीर अभावों की चुगली करेंगे लेकिन चेहरों से टपकता उल्लास उस सबको झूठ साबित कर देगा....तो भौतिक चीजें झूठ है और आनंद ही सबसे बड़ा सच है.... एक बार फिर से ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या....? ये शंकर के दर्शन का अति साधारणीकरण हो सकता है, लेकिन हम स्थूल दुनिया के बाशिंदे तो दर्शन को ऐसे ही समझ सकते हैं.... नहीं ये मजाक नहीं है। दरअसल हर कीमत और हर हाल में परमानंद ही सच है... फिर वो प्रार्थना से मिले या फिर शराब से....लेकिन फिर पाप-पुण्य.... अरे भई यही तो चित्रलेखा भी नहीं समझ पाई.... ना श्वेतांक, न विशालदेव और न ही महाप्रभु रत्नांबर तो फिर हम-तुम किस.....?

4 comments:

  1. philosophical ......saras(!)....too good.

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  2. धर्म और राजनीति पर विचारविमर्श कभी सहमति और नतीजे पर पहूंचते नहीं इसलिये टिप्पणी करने से कतरा रहा था.

    आपका लेखन बहुत अच्छा लगा इसलिये ये निवेदन जरूर करूंगा -
    १. ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या - यदि जगत मिथ्या है तो फ़िर मिथ्या में रहने वाले जीव इसमे रहते हुए सत्य से साक्षात्कार कर ही नही सकते - x,y फ़लक पे रखा द्वीजामितीय बिंदू तीसरे अक्ष z को अनुभव कैसे करेगा? तो फ़िर शंकराचार्य जीते जी किस सत्य से साक्षात्कार करवा लेते? किस सत्य/अक्ष की बात कर रहे हैं वे जिसके होने ना होने का इस बिंदू के अस्तित्व पर कोई फ़र्क ही ना हो.
    २. परमानंद सच है पलायनवाद नहीं. आत्मानुभव ही परमानंद देता है, शराब विस्मरण.
    ३. आत्मानुभव जिस सत्य से परिचित करवाता है वो है ’अहं ब्रह्मास्मि’. परमानंद तो इस अनुभव का बाईप्राडक्ट मात्र है. इसकी माईन्यूट सी झलक तो २-३ महीनों में गलती से/लकिली किसी नौसिखिये को भी दिख जाती है. एक भला और ये हो जाता है कि ईश्वर के अस्तित्व पर शक भी नही रहता और किसी धर्म-वर्म कि जरूरत भी नही रहती.
    ४. सच्ची? मुच्ची!! :)

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  3. सचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी, बधाई स्वीकारें।

    आप के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाएं मेरा मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन करती हैं।
    आप के अमूल्य सुझावों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...
    Link : www.meripatrika.co.cc

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  4. अनूप जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया। दर्शन के तो मात्र सिरे ही पकड़े हैं अभी और गणित... बहुत दूर की कौड़ी है... यदि प्लेटो की अकादमी की तरफ सिर कर के भी सोए होते तो वे हमें वहाँ से भी हकाल देते.... जो कुछ है बस अनुभव है...। दर्शन की शुष्कता और नीरसता से दूर का भी वास्ता नहीं है। बस बिना किसी पूर्वपीठिका के यूँ ही किसी क्षण में इच्छा, आकांक्षा, सफलता, असफलता, भूत और भविष्य से परे कोई चमकीली सी अनुभूति को ही अब तक आनंद समझा है... बस इतना ही...फिर यह मान लिया है कि इस अनुभूति की स्थिरता का नाम ही शायद परमानंद होगा.... ब्रह्म.... अभी हम चुप रहेंगे।

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