21/11/2009

१० दिन के लिए अर्धविराम....!


मावठा रूका तो....धूप का हाथ पकड़कर गहरी खुनक साथ चली आई...तब से धूप और खुनक दिन भर आँख मिचौली खेलती रहती हैं और शाम होते-होते धूप तो थक कर घर चली जाती है, लेकिन खुनक रात होते ही जवान हो जाती है....। मन रूखा-रूखा बना हुआ है, कितनी ही कोशिश की उसे मनाने की, लेकिन उसका रूखापन बरकरार है, आखिरकार सारी कोशिशें ही छोड़ दी और लग गए तैयारी में.... आखिर घूमने जो जाना है.....कुछ दिन खुद के साथ....सब कुछ को छोड़कर प्रकृति के राग-रंग, आमोद, सृजन और गीत को सुनने-देखने और उसी में डूब जाने के लिए, आखिरकार शहर में रहकर यही तो नहीं मिलता है। कुछ दिन....हाँ शायद हफ्ता दस दिन दुनियादारी से दूर खुद को प्रकृति की संगत में रखकर देखें तो शायद हर दिन की दौड़..... और कड़ुवाहट से सामंजस्य करने की ताकत पाएँ.....बस इतना ही... लौट कर कुछ 'मैं' और कुछ गोआ के अनुभवों के साथ फिर होऊँगी आपके सामने तब तक के लिए....बाय....।

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