28/12/2009
रेट्रोस्पेक्शन
गुजरते साल का आखिरी रविवार....ठिठके, उदास और पीले-से शिशिर की एकाकी और बेचैन-सी दोपहर...सुबह-शाम मौसम में थोड़ी तीखी-सी खुनक...दिसंबर गुजरने को है, लेकिन मौसम वैसा ही मुलायम बना हुआ है, जैसा बसंत से थोडा़ पहले हुआ करता है। कभी-कभी उत्तर से आती हवाएँ ही कुछ सिहराती है, बाकी तो सब कुछ ठीक-ठाक है। यूँ यह इकहरे दिन, छुटकी-सी शाम और फैलती-पसरती रात का मौसम है, लेकिन मौसम ही गुल है, बाकी सब है।
एक और साल गुजर रहा है, क्या पाया और क्या खोया का हिसाब करने का मौसम है। समय अपनी गति से प्रवाहित है, वह न नया है न ही पुराना.....वह तो हमेशा वही है जो वह है, बस समाज बदलता है, नया होता है। हमने सुविधा के लिए समय को सेकंडों, मिनटों, घंटों, दिनों, सप्ताहों, महीनों, सालों, दशकों और फिर शताब्दियों में बाँटा है। समय तो कहीं बँधा ही नहीं रूका ही नहीं, वह हमारे होने से पहले से है और हमारे बाद भी होगा, वैसा ही नूतन....वैसा ही प्रवाहित.....सतत....हम बस उसके खाँचों को ही टटोलते रहते हैं।
खैर तो फिर एक साल गुजर गया। एक पूरा साल....365 दिन और 12 महीने सूक्ष्म होने लगे तो लम्हों तक का हिसाब देना पड़ेगा....किसे....किसी को भी नहीं...बस खुद को ही....कह सकते हैं सिर्फ जुगाली है, पाना और खोना क्या है? लेकिन दुनिया में है तो फिर कुछ इसकी परिपाटी का भी तो पालन करें। तो बैठे है फुर्सत के समय को ऊपर से खड़े होकर देखने के लिए। जब हम किसी मकान या भवन की तीसरी मंजिल पर खड़े होकर देखते हैं तो बड़े निर्लिप्त होकर....क्योंकि हम ऊपर होते हैं और घटनाएँ नीचे....ठीक वैसे ही....गुजरे साल को उसके अंतिम सिरे पर खड़े होकर देखना है....निर्लिप्त, उदासीन और बहुत हद कर तटस्थ होकर...। तभी तो हिसाब हो पाएगा खोने और पाने का...इन श़ॉर्ट कुछ करने का....।
तो 2009 में दो यात्राएँ की, कुछ कहानियाँ लिखी ( दो-एक प्रकाशित भी हुईं), ब्लॉग पर 60 पीस (रेट्रोस्पेक्शन 61 वाँ)
लिखे और एक नया ब्लॉग शुरू किया। निराश भी हुईं और उदास भी, नाराज भी और उदात्त भी....खुश भी हुई और सुख को भी महसूस किया, पढ़ा भी....लिखा और सोचा भी....सुना भी.....फिर भी कुछ रह गया। शायद कुछ रह जाना ही जीने का सहारा है, क्योंकि यदि सब कुछ हो गया तो फिर जीएँ क्यों? जीने का मतलब तो करना है, सपने देखना उन्हें पाने की कोशिश करना तो फिर कर्म से कहाँ निजात है? अपने सूत्रों वाले ब्लॉग में मैंने सूत्र दिया था कि ''हम कर्म करने के लिए अभिशप्त हैं'' और कई सारे पाठकों ने इस पर आपत्ति की...। कहने वालों ने इसे निराशावादी दृष्टि भी कहा...लेकिन थोड़ा रूके पूर्वाग्रहों को छोड़े और फिर सोचें कि क्या यह सच नहीं है?
यदि हम कर्म नहीं करें तो फिर क्या करें? हम विकल्पहीन है।कर्म
अच्छा या बुरा....हो सकता है, लेकिन कर्म के होने को किसी भी सूरत में रोका नहीं जा सकता है। तो फिर हुए ना अभिशप्त....! खैर तो एक पूरा साल गुजर गया, हम अब भी प्रवाह में हैं, उसका हिस्सा है, समय उदासीन है तटस्थ है, हमारे कर्मों का गवाह है, वह कोई निर्णय नहीं देता है सिर्फ देखता है, हमें करते, सहते, भोगते और जीते हुए। वह अपनी मस्ती में है और हम जूझ रहे हैं सपनों को हकीकत में बदलने के लिए....देखें कहाँ पहुँचते हैं।
तो फिर गुजरे साल के अच्छे से गुजर जाने की और नए साल में सपनों के पूरा होने की शुभेच्छा के साथ.....ये औपचारिकता....
सभी को नए साल की शुभकामना.....
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अद्भुत है ....पर जिंदगी पीछे ओर आगे के हिसाब में बीत जाती है ओर टोटल जीरो आता है ....एक शानदार पोस्ट ....बुकमार्क करने जैसी
ReplyDeleteकुछ खोया और कुछ पाया जीवन का एक साल यूँ और बिताया....अच्छा लिखा है आपने ..साल भर का लेखा झोखा ...शुक्रिया
ReplyDeleteनया साल नये आयाम लाए ....शुभकामनाएँ.....
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