30/03/2010

ट्रेडमिल पर सभ्यता...



सप्ताह की शुरुआत में ज्यादातर काम रविवार को आए अखबारों और पत्रिकाओं को देखने का ही होता है... इस तरह से अपने दिमाग में कुछ और कूड़ा जमा हो जाता है..., लेकिन ये बेवजह नहीं होता है, क्योंकि इन सूचनाओं से ही किसी विचार तक पहुँचा जाता है। तो एक तरह से यह एक अच्छी एक्सरसाइज ही है। खैर... तो सप्ताह का पहला गर्म दिन... पत्रिकाओं का ढेर... अंग्रेजी में हाथ थोड़ा तंग है, इसलिए पहले वहीं से शुरुआत... एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका की एक छोटी-सी स्टोरी पर नजर गई। इंटरनेशनल अडाप्शन को केंद्र में रखकर कुछ सूचनाएँ और बहुत सारी आशंकाएँ.... इंटरनेशनल अडाप्शन के गोरखधंधे के पीछे ह्युमन ट्रैफिकिंग की चर्चा और इसी के मद्देनजर यह सूचना कि दुनिया भर के 13 देशों में इंटरनेशनल अडाप्शन को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
जब भी हम घर से निकलते हैं, तो आसपास नजरें दौड़ाते चलते हैं, यूँ लगता है कि हमारी तरह हरेक जल्दी में है। सबको कहीं न कहीं पहुँचना होता है, न सिर्फ पहुँचना होता है, बल्कि जल्दी पहुँचना होता है, लगता है कि हर जगह जल्दी पहुँचने की प्रतिस्पर्धा सी है। यह जल्दी पहुँचना दरअसल इस दौर का एक सांकेतिक लक्षण है... इसके पीछे बहुत गहरे संदर्भ है। हम एक दूसरे के कंधों पर और यदि जरूरत हुई तो लाशों पर भी पैर रखकर आगे बढ़ते जाएँगें। आखिर को यदि डार्विन का survival of the fittest ही हमारा मूल्य है तो फिर यह तो होना ही हुआ ना! तो आखिर हम सभ्यता नुमा एक गर्व के साथ यहाँ तक पहुँचे तो हैं, लेकिन हमारे मूल्य तो वही है, हमारा लक्ष्य भी वही है तो उस मूल्य और लक्ष्य को लेकर हम पहुँच भी कहाँ सकते हैं?
ऐसे ही एक सवाल उठा कि हम (मानवीय सभ्यता ने कितना सफर तय किया) कितना चले.... लेकिन पहुँचे कहाँ? कहीँ पहुँचे भी है या वहीं खड़े हुए हैं। फ्रायड ने अपने विश्लेषण में कहा था कि भय, भूख और सेक्स से इंसान संचालित होता है। जहाँ तक मेरी समझ जाती है, भूख का संदर्भ भूख (hunger) से ही लिया गया होगा, क्योंकि फ्रायड आखिर में मनःविश्लेषक ही थे, भविष्यदृष्टा तो नहीं ही थे। वे शायद ही समझ पाए होंगे कि भविष्य में भूख का संदर्भ बहुत व्यापक होगा.... इतना कि उससे बाहर और कुछ नहीं होगा... हकीकत में भूख (hunger) छोड़कर.... बाकी सब कुछ भूख का हिस्सा ही होगा। इतिहास फ्रायड के विश्लेषण को सही सिद्ध करता है, वह बताता है कि सभ्यता के प्रारंभ में इन्हीं तीनों संवेगों के चलते, युद्ध भी हुए, हिंसा भी और परिवार भी आगे बढ़े... हमारे ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक स्तर पर सभ्यता के विकास को लेकर बहुत सारी स्थापनाएँ हैं, सिद्धांत है.... आखिरकार हम प्रगति की राह के राही हो गए...। भूख का अस्तित्व अब भी है.... फ्रायड की भूख पता नहीं, किस-किस रूप में कहाँ-कहाँ छुपी हुई है, लेकिन इसका भी स्वरूप सभ्यता की शुरुआती भूख की तरह का नहीं बचा है। इतिहास सभ्यता के इस सफर पर इन तीनों पर विजय पाने और नियंत्रित करने के मिशन पर रहा है, ( यूँ तो यह भी कहा जा सकता है कि दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है), क्योंकि सभ्यता के प्रारंभिक दौर के बाद का सारा इतिहास... इससे उबरने के बाद एक नई तरह की भूख (हवस) को पूरा करने का रहा है।
बरसों बरस हमने इस गफलत में निकाल दिए कि हमने पृथ्वी अब रहने लायक बना ली है। हमने मानव की आदिम प्रवृत्तियों पर विजय पा ली है। हम बर्बर दौर से निकल गए है, इसके उदाहरण के तौर पर हम तरक्की के सारे पैमानों को रखते हैं, लेकिन फिर भी कहीं कुछ रह जाता है, कुछ अटक जाता है, जो हमसे पूछता है कि क्या हम वाकई उस बर्बर दौर से निकल आए हैं या फिर अपने आसपास इसका मात्र आभास पैदा कर लिया है।
देखिए ना... अपनी हवस को पूरा करने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं? किसी की हत्या इसका आखिर उदाहरण है, लेकिन वह हर जगह मौजूद है, तो फिर हम आदिम दौर से कितना आगे आए हैं? इंसान मूलतः तो वही है, वहीं है, क्योंकि हम यदि उससे थोड़ा भी आगे बढ़े होते तो फिर कानून और पुलिस की व्यवस्था कहीं तो अप्रासंगिक होती, कहीं तो इसकी जरूरत कम होती.... बजाए इसके कम होने के यह तो लगातार बढ़ती ही जा रही है। तो एक कृत्रिम संतोष के साथ कि हम सभ्य हो गए हैं, हम लगातार भुलावे में हैं। लाखों साल के सफर के बाद भी इंसान के तौर पर हम वहीं है। विज्ञान, तकनीक, कला और संस्कृति ने चाहे तरक्की कर ली हो, लेकिन इंसान अब तक अपनी बर्बरता से मुक्ति नहीं पा सका है। अब तक वह अपनी भूख को समेटे हुए सभ्य होने का दिखावा कर रहा है। या यह कि अब उसने अपनी भूख को इतना फैला लिया है कि उसकी ज़द में सब कुछ आ गया है और मजे की बात यह है कि उसने इस एक भूख को इतने नाम दे दिए हैं कि उसे पहचान पाना भी मुश्किल हो रहा है। बात तो महज इतनी सी ही है कि सभ्यता लाखों साल से ट्रेडमिल पर है, वह वहाँ से एक सूत भर भी आगे नहीं गई है, हाँ लेकिन लगातार ट्रेडमिल पर होने से वह पतली हो चली है....thin….thin….thiner
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कुछ दिन पहले एक एसएमएस आया...चूँकि इसका मतलब अंग्रेजी में ज्यादा असरदार नजर आया तो जस का तस.... आपके लिए
A world wide survey conducted by the U N. The only question asked was – Would u please give your honest opinion about solutions to the food shortage in the rest of the world? The survey was a huge failure, because in AFRICA they didn’t know what FOOD meant, in INDIA they didn’t know what HONEST meant, in EUROPE they didn’t know what SHORTAGE meant, in CHINA they didn’t know what OPINION meant, in MIDDLE EAST they didn’t know what SOLUTION meant, in SOUTH AMERICA they didn’t know what PLEASE meant and in AMERICA they didn’t know what the REST OF THE WORLD meant.
क्या ट्रेडमिल पर सभ्यता के प्रकाश में इस एसएमएस के कुछ निहितार्थ खुलते हैं?

3 comments:

  1. बेहतरीन आर्टिकल....बेहतरीन sms ...जब तक मनुष्य निरूद्देश्य नहीं होगा तब तक वह भूख,हत्या,बर्बरता में उलझा रहेगा.........."

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  2. deepak tripathi11 June 2010 at 23:54

    this is the perfect way to state a lot in few words
    thanks

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