21/05/2010
होने-गंवाने का हिसाब
मानसून के आमद की खबरों के बीच पश्चिम में गर्मी अपने पूरे शबाब पर है..... दाना चुगने के लिए चोंच खोले चिड़िया के बच्चे की तरह धरती का मुँह जगह-जगह से खुलने लगा है..... मौसम की कुछ ज्यादा ही मेहरबानी रहती है हम पर जरा बदला नहीं.... मन भी बदलने लगता है.....। हाँ तो अभी हर जगह तपन है.... भारी..... तेज-तीखे दिन और गहरी गुनगुनी शामों के साथ पठार की रातें जरा सुरमई मीठी हो जाती है, लेकिन क्या करें कि दिन भर की तपन
उसकी मिठास भी लील लेती है......तो जब रात हाथ आती है तो खुद हम कुछ बचे नहीं होते हैं। अब यूँ ही हम कितने बचे होते हैं......?
बस यही खऱाब आदत है, बात सीधी हो लेकिन पहुँच जाती है टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में...... यूँ भी हम कितने बचे हुए हैं........ ? अब ये तो कोई सवाल नहीं है..... लेकिन है कैसे नहीं.... यही तो सवाल है...... सवालों वाला......खूब सारे खाँचों.... बहुत सारे रिश्तों.... सपनों, ख्वाहिशों, जरूरतों, अपेक्षाओं और समझौतों के बीच
कोई भी जितना बचा रह पाता है.... बस उतने ही हम भी बचे हुए हैं.....। रिश्तों के बीच अपने होने को भूले..... हर रिश्ते, हर जगह और हर काम की अपेक्षाओं के बीच खुद कण-कण झरते हैं...... बहुत चुपके से..... खाँचों में पूरे ही स्वाहा हो गए..... और किसी पारंपरिक खाँचों को न भी बखाने तो जो भौतिक खाँचे हैं, वे तो हैं ही ना.... औरत, शादीशुदा....वर्किंग.....अजीब-सी.... घमंडी.... अकड़ू..... थोड़ी बहुत सहानुभूति हो तो.... संवेदनशील.... अच्छी और दो-तीन कांप्लीमेंट.... परिभाषित हुए और खेल खत्म.... बस इतने ही तो हैं, हम.... कितने.... बस कुछ शब्द.....यही है जिंदगी कुछ ख्बाव, चंद उम्मीदें.... लेकिन यहाँ तो मामला अपना है.... जीवन की कौन कहे.....। फिर बारी आती है खुद अपनी..... कई-कई सपनों, जरूरतों और ख्वाहिशों के पीछे भागते हम...... इस दौरान कितना और क्या छोड़ देते हैं, हिसाब ही नहीं रखते हैं। मेरे साथ रहने वाले 'विद्वान' कहते हैं कि - ''हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है, अब ये आपको तय करना है कि किसके बदले आप कितना चुकाना चाहते हैं....'' तो फिर खुद को अपने सपनों पर कुर्बान करते रहते है, यदि एक सपना हो तो नुकसान उतना नहीं होता.... लेकिन यदि सपनों की फौज ही हो तो फिर तो हम रेत के एक कण जितने वाल्यूम में भी नहीं बचते हैं.... लेकिन परवाह किसे हैं, सपनों के पीछे दौड़ते जाने के जुनून, असफल होने का दुख या सफल होने के नशे के बीच ये याद ही नहीं रहता है कि हम खुद को टटोल लें.... देख लें.... कि अब अपने लिए कितना बचे हैं... ...? और जब हमें इतना होश आता है कि हम अपने होने को टटोल लें, सहेज लें.... तो पता लगता है कि सहेजने जैसा तो अब कुछ बचा ही नहीं है....। लेकिन
ज्यादातर तो हो जाने से ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन हमारे जैसे कुछ होने से नहीं चुपाते हैं तो फिर इसी तरह के सवाल उठाते हैं, जिनका न सिर होता है और न ही पैर.... तो हम बहुत कुछ हो तो जाते हैं, लेकिन इस होने के चक्कर में रह कुछ नहीं जाते हैं... . एक खाली-खाली सा वजूद जो दूसरों के लिए बहुत कुछ होता है, बस अपने ही लिए कुछ नहीं रह पाता है....। अब ये तो कोई इत्तफाक नहीं है कि मैं ये सब लिख रही हूँ और मेंहदी हसन साहब शायर फरहत
शहजाद को फरमा रहे हैं -
अपना आप गंवा कर तूने, पाया है क्या,
मत सोचा कर, मर जाएगा......
फिर.......?
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..... दाना चुगने के लिए चोंच खोले चिड़िया के बच्चे की तरह धरती का मुँह जगह-जगह से खुलने लगा है.....
ReplyDeleteअपना आप गंवा कर तूने, पाया है क्या,
मत सोचा कर, मर जाएगा मत सोचा कर
.......शानदार......
जीना जाना नहीं तो पगले मर जायेगा.
ReplyDeleteमरना सीखा नहीं तो पहले मर जायेगा.
अपना आप गँवा कर तू ने जो पाया है
देख सुधार-सँवार नहीं तो मर जायेगा.
अमर न कोई दुनिया में पर मरे नहीं हैं
लोभ-वासना, तजे नहीं तो मर जायेगा.
हद से दर्द गुजर जाने दे जी जायेगा.
हद में दर्द रहा तो भय से मर जायेगा.
नीरव का सुन शोर, मौन निःशब्द नहीं है.
मित न अमित को कर पाया तो मर जायेगा.
खाँचों में बँट-कट कर पेड़, कलम बनता जब.
बने एक से सौ, न बँटे तो मर जायेगा.
उम्मीदों से नजर उठाकर ताक आसमान.
'सलिल' जमीं में गडीं नजर तो मर जायेगा.
http://divyanarmada.blogspot.com
आज दिनांक 18 जून 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट होने गंवाने का हिसाब शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
ReplyDeleteस्कैनबिम्ब के लिए प्रिंट मीडिया में ब्लॉग चर्चा पर क्लिक कर सकती हैं।