08/06/2010

इश्क़-ए-हक़ीक़ी में अन्नपूर्णा देवी


4 जून के स्क्रीन में अन्नपूर्णा देवी पर एक खुबसूरत आर्टिकल पढ़ा...... खुबसूरत से अच्छा और कोई शब्द फिलहाल मिल नहीं रहा है...... क्योंकि उस अनुभूति को जिसे मैंने पढ़ने के दौरान और आज तक जी रही हूँ, शब्द नहीं दे पा रही हूँ, इसलिए फिलहाल सिर्फ खुबसूरत शब्द से ही काम चला रही हूँ।
ये एकसाथ ही बहुत ज्यादा जाना और बहुत कम सुना नाम है। ज्यादा जाना इसलिए कि उस्ताद अलाउद्दीन खाँ साहब की बेटी, उस्ताद अली अकबर खाँ की बहन के साथ ही पंडित रविशंकर की पहली पत्नी अन्नपूर्णा देवी का परिचय ज्यादातर इतना ही है..... लेकिन वो इससे कहीं ज्यादा है..... फिर परिचय इतना ही क्यों है? क्योंकि वे इतना ही चाहती हैं..... अजीब है ना..... ? हाँ तो उनका हकीकत में परिचय पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, चंद्रकांत सरदेशमुख, आशीष खान, सुधीर फड़के और उन्हीं की तरह कई-कई संगीत के दिग्गजों की गुरु के रूप में दिया जाता हैं....., फिर भी वे न तो कंसर्ट देती है और न ही रिकॉर्डिंग करती हैं...... क्यों? ये उनका निर्णय है। वे कहती है कि संगीत मेरे ईश्वर के लिए है.... मेरे लिए है.....। बस यही वो बात है, जिसने मुझे लिखने के लिए मजबूर किया। एक तरफ प्रतिष्ठा और शोहरत के लिए कुछ भी कर गुजरने वाली इस दुनिया में खुद के वजूद को इस तरह ईश्वर के हवाले कर देने के पीछे का मनोविज्ञान क्या होगा?
स्वभाव की वो कौन-सी केमिस्ट्री है, व्यक्तित्व का वो कौन सा तार है जो उन्हें अपने स्थूल होने के प्रति इतनी अचल निस्संगता देता है और अपने हक़ीकी स्व के प्रति इतनी गहरी ईमानदार निष्ठा देता है? वो क्या है? जो किसी सपने, किसी ख़्वाहिश, किसी प्रलोभन से नहीं डोलता है? मान, प्रतिष्ठा, शोहरत, समृद्धि, प्रशंसा, महत्वाकांक्षा, सफलता, उपलब्धि हर चीज के प्रति इतनी ठोस निर्लिप्तता, अचल उदासीनता और निश्चल निस्संगता कैसे आती है? और वो कैसा मन है, जो इस दौड़ती भागती दुनिया के बीच भी वैसा ही अटल, वैसा ही निश्चल बना रह सकता है? क्या ये इस तरह का संतत्व...... अचीव किया जा सकता है, पाया जा सकता है? या वो बस स्वभाव होता है? क्या इतनी निर्द्वंद्वता कभी पाई जा सकती है? क्योंकि यही तो उस मंजिल तक पहुँचाती है, जिसे फ़कीरी कहते हैं...... सब होने से दूर.... सब पाने से अलग..... सब जीने से निस्संग..... बस इश्क-ए-हक़ीक़ी में गर्क होना.....। यही तो है ना जीवन का आनंद.......?

2 comments:

  1. हर चीज के प्रति इतनी ठोस निर्लिप्तता, अचल उदासीनता और निश्चल निस्संगता कैसे आती है? और वो कैसा मन है, जो इस दौड़ती भागती दुनिया के बीच भी वैसा ही अटल, वैसा ही निश्चल बना रह सकता है? क्या ये इस तरह का संतत्व...... अचीव किया जा सकता है, पाया जा सकता है? या वो बस स्वभाव होता है?
    बहुत अदभुत और ठोस रचना....

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  2. Aapki manohahri lekhni ki prashansa karu ya usmese uth rhi jigyasao pr apni akal bgharu...... nice post

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