24/10/2010

ब्लॉग-शतक पूरा



ये ब्लॉग का 100 वाँ पीस है। एक साल 11 महीने और ठीक 2 दिन पहले शुरू किए ब्लॉग अस्तित्व की ये प्रगति कोई बहुत उत्साहजनक नहीं है, आखिर अब तक मात्र 100 पीस ही तो लिखे हैं। कहाँ तो सोचा था कि इसे नियमित लिखेंगे और कहाँ बहुत-बहुत दिनों तक इसमें कुछ पोस्ट ही नहीं हो पाता है। कारण साफ है, जब खुद को उलीच कर कुछ लाना होता है तो जो बाहर आता है, वो तो खदानों से निकले कच्चे हीरे की तरह होता है। फिर हम हीरा बनने की उस प्रक्रिया और समय से तो अनजान ही रहते हैं, लेकिन है तो वो निर्मिति का ही हिस्सा... उसे चमक और कीमत देने का परिश्रम और समय भी तो उसी में जुड़ता है, तो कच्चे हीरे को आकार और शक्ल देने में लगने वाला समय भी तो शामिल था। लब्बोलुआब यूँ है कि जब तक विचार पैदा हो और उसका प्रेशर इतना हो कि उसका बाहर आना किसी भी तरह रोका नहीं जा सके तभी लिखे जाने की सूरत बनती थी।
वैसे ब्लॉग शुरू करने के पीछे लक्ष्य सिर्फ हर दिन होने वाली घटनाओं को लेकर पैदा होने वाली उबलन को शब्द और आकार देना रहा था। शुरुआती कुछ पीस लिखने के बाद ही ये अहसास हो गया कि आमतौर पर ब्लॉग रायटर्स यही कर रहे हैं, फिर यहाँ तो समय और मन दोनों को साधने का दुःसाध्य कर्म करना भी आ जुड़ता था। और इस दौरान उस विषय पर इतना ज्यादा लिखा जा चुका होता था कि फिर अलग से कुछ और लिखने के लिए कुछ बचता ही नहीं था। तो फिर अस्तित्व को अपनी डायरी का रूप दे डाला। इसमें कहानी, कविता (जो कि मेरा माध्यम नहीं है, फिर भी), यात्रा संस्मरण सब कुछ को शामिल कर लिया। फिर पता नहीं कहाँ, कैसे इसका स्वर भीतर की ओर मुड़ गया। खैर ब्लॉग लिखने का उद्देश्य शुरुआती कुछ भी रहा हो, लेकिन लिखते-लिखते महसूस हुआ कि भीतर की तरफ जाते हुए इस लिखने का मतलब खुद के ज्यादा करीब जाना, खुद को जानना, समझना और अपने ‘भीतर’ को शक्ल देना रहा, इसलिए भी संख्या पर विचार क्यों किया जाए... लेकिन कुछ भी गणित से इतर कहीं हो पाया है?
तो आखिर शतक तक का सफर ऊबड़-खाबड़ तो कभी साफ-शफ़्फ़ाफ रास्तों से होता हुआ पूरा हो गया। इस सारे समय में कुछ और हुआ हो या न हुआ हो, अंदर की उलझनों को सुलझाने की स्थितियाँ तो बनी ही है, बेचैनी ने रास्ता पाया, छटपटाहट ने आकार... कहीं-कहीं तो इस बेचैनी का कारण भी हाथ आया... अब इस सारी प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत तकलीफ और त्रास तो होना ही हुआ, लेकिन ज्यादातर तो ये खुद के नए सिरे से बनने का ही हिस्सा रहा। यूँ कहें कि लिखने से पहले ये जाना ही नहीं था कि – हम जान ही नहीं सकते हैं कि खुद को कह लेने में जितना हम देते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम पाते हैं।
वैसे लिखना व्यावसायिक मजबूरी है, इसलिए सिलसिला तो बहुत दिनों से चल रहा था, लेकिन इस क्रम में दुनियावी मसले ही शामिल थे। अपने बीहड़ की तरफ ले जाते रास्ते से हमेशा कतरा कर निकलते रहे... इसलिए असल में व्यक्त होना कितना भरता और कितना खाली करता है, इस अनुभव से वंचित ही रहे, लेकिन जब व्यक्त होने का लक्ष्य लेकर चले तो खुद को पाते, सुलझाते, जानते, सहेजते, सहलाते और चकित होते चले गए। एक बार इस बीहड़ में उतरने का हौसला दिखाया तो धीरे-धीरे खज़ाने का रास्ता निकलता गया। अब कुछ पाना है तो मुश्किल भी होगी, दुख भी, असुविधा और त्रास भी होगा, पसीना और खून दोनों ही बहेगा... लेकिन जो मिलेगा, उसका सुख कहीं ज्यादा होगा। तो सफर कहाँ रूकेगा, इसका फिलहाल तो कोई अनुमान नहीं है। अपनी कश्ती को अपने ही समंदर में छोड़ दिया है... बस इस उम्मीद में कि कभी तो कोई मोती हाथ लगेगा.... आमीन....!

2 comments:

  1. शतक की सहस्र बधाई......सौंवी पोस्ट तो zeast है.....

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  2. kaise likh leti hain itna ,rishton ,samaj,bijli,pani,tane,kami,khalipan ko patkar kaise samay nikal leti hain....raaz hai to bhi batayengi?

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