बहुत देर से दरवाजा थपथपाने की आहट हो रही थी, लेकिन लिहाफ की नर्म गुनगुनाहट से मोह हो गया और उस थपथपाहट को लगातार टालती रही, बहुत देर तक उसे अनसुना किया, लेकिन फिर रहा नहीं गया। उठकर दरवाजा खोला तो उत्तर से आने वाली बर्फीली हवा-सी वो सीधे उतर आई और धूप भरे आँगन में फैल गई। पहाड़ पर छाने वाले गीले-सीले कोहरे की तरह... और देखते ही देखते गुनगुना-सुनहरा आँगन हो गया उसी की तरह साँवला, ठंडा...उदास...। पिटारा खोलकर बैठी तो बचपन वाली टीन की पेटी से किताबों के अलावा निकलने वाला दीगर सामान बिखर गया... रंग-बिरंगी कंचे, पक्षियों के पक्ष, सूखे फूल और पत्तियाँ, नदियों के गोल-गोल पत्थर, समुद्र के सीप-शंख, कौड़ियाँ... बुने-अधबुने खयाल, सुबह-दोपहर-शाम-रात के खाली-सूने खोखे...। बार-बार ललचा रही थी अपने खजाने से... कोशिश तो की थी, दूरी बरतने की, लेकिन बचपन का प्यार ठाठें मार रहा था... फिर नहीं बच पाई उसके दुर्निवार आकर्षण से, दूरी बरतते-बरतते भी वो सरककर पास आ ही गई थी, पुराने-गहरे दोस्त की तरह घेर लिया था हर कोना...। अगरबत्ती की तरह सुलगती और महकती... नशे में डुबाती वो... लौट आई है, फिर से... वही उदासी... !
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