29/09/2013

आकार का सिलसिला...

हम दोनों स्कूल के दिनों की दोस्त हैं। बहुत साल अपनी-अपनी दुनिया की जद्दोजहद और उसकी साज-सवाँर की वजह से संपर्क जिंदा नहीं रख पाए थे। आखिरकार 20 साल बाद जबकि हमारी जिंदगियों में ठहराव आया, हमारे बीच संवाद जागा। उसने पाया कि इन बीच के सालों में मैं अपनी जिंदगी की शक्ल को खूबसूरत बनाने में कामयाब हुई हूँ और ये भी कि घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों और परंपरा-जिम्मेदारियों के बीच उसकी खुद की जिंदगी कहीं, गुमगुमा गई है। और मेरे माध्यम से वो अपनी जिंदगी को ढूँढने की कोशिश करने लगी। उसे लगता है कि मेरे पास विचारों का भंडार है और हर विषय पर मैं उसके ‘फंडे’ क्लीयर कर सकती हूँ।
वो काम के बाद की थोड़ी फुर्सत भरी शाम थी। अगले इश्यू की तैयारी का वक्फा था, जब उसका फोन आया था। उसकी बेटी को संस्कृति पर एक राईट-अप लिखना था। वो इंटरनेट खंगाल चुकी थी और जैसा कि होता है कि इंटरनेट पर अपने काम की चीज़ ढूँढना मतलब भूस के ढेर में से सुई ढूँढना था, तो कई लोगों से इस बीच उसने इस विषय पर चर्चा भी कर ली थी, लेकिन बड़ी गंभीर और गूढ़ बातों के साथ भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरे तक की बात लोगों ने उसे बताई थी। जाहिर है वो संतुष्ट नहीं हुई थी। आखिर उसने मुझे फोन लगाया। मैंने अपने अनुभव से जाना है कि खुद को सबसे बेहतर मैं संवाद के बीच ही पाती हूँ। कई बार तो खुद वो कह जाती हूँ, जिससे बाद में मैं खुद चौंक जाती हूँ, कि ‘अरे...! ये मैंने कहा है।’ तो बहुत सारी बातें संस्कृति के बारे में करते हुए मैंने उसे कन्क्लूड किया कि संस्कृति कोई पत्थर की लकीर नहीं है, वक्त-जरूरत के हिसाब से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। थोड़ा संस्कृति हमें शेप देती है और थोड़ा हम संस्कृति को शेप देते हैं कुल मिलाकर संस्कृति नदी के पानी की तरह है जो प्रवाहित होती रहती है, इसलिए वह कभी भी पुरानी नहीं होती है, हर वक्त नई होती रहती है। भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरों का उसका डर भी दूर हुआ और मुझे भी लगा कि मैं उसे बहुत हद तक संतुष्ट करने में कामयाब हुई हूँ। घर लौट रही थी कि चौराहे पर एक अनजान लड़की बस का इंतज़ार करती नज़र आई। पूछा – कहाँ तक जाना है?
गीता भवन चौराहा।
मैंने कहा - बैठो, मैं वहाँ छोड़ देती हूँ।
कई बार मुझे समझाया गया है कि इस तरह मदद का टोकरा लिए हुए अनजान लोगों को मत गाड़ी में बैठाया करो, किसी दिन किसी मुसीबत में फँस जाओगी। आखिर इसी शहर में लड़कियों के अपराध करने की खबरें भी तो आया करती है, लेकिन लगता है कि थोड़ी बहुत सावधानी रखी जाए तो हम इतना तो कर ही सकते हैं। और ये सिलसिला अब तक जारी है, चलेगा, जब तक कि कोई बड़ी ठोकर नहीं खाते।
अगली सुबह दफ्तर जाते हुए जल्दी थी। जिस रास्ते से अमूमन जाती हूँ, बहुत ट्रैफिक नहीं रहता है। बारिश से भीगी सुबह थी और गोरबंद की चटख भरी लोकधुन बज रही थी। ख्वाहिश ये हुई कि बस जिंदगी सफर ही सफर में बीत जाए कि पीछे से बजता हॉर्न लगातार करीब आ रहा था। घबराकर गाड़ी को दूसरी लेन में डाल लिया। ख्वाहिश का शीशा टूट गया। हर दूसरे ही दिन यही होता, लगता कि इतनी संवेदनशीलता क्यों है? जब हम लगातार हॉर्न बजाते हैं तो आगे वाला अपनी मस्ती में ही गाड़ी चलाता है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, हमें ही क्यों पड़ता है! इस विचार ने सोच के सारे सिलसिले को ही अस्त-व्यस्त कर दिया और तय किया कि ‘जगह मिलने पर ही साईड दी जाएगी।’
एकाएक लगा कि इंतजार करते हुए मुसाफिर को लिफ्ट देकर हम जिंदगी को शेप दे रहे हैं और एक तरफ हो जाने के हॉर्न को अनसुना करते हुए जिंदगी हमें शेप दे रही है। और इस तरह आकार देने-पाने का सिलसिला लगातार जारी है...।

1 comment:

  1. सुन्दर प्रस्तुति।। आभार आपका!!

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