23/03/2014

होने का भ्रम


जाने शोर से नींद टूटी थी या फिर नींद टूटी थी तो शोर महसूस हुआ था... लेकिन अपरूपा जाग गई थी। आँखे बंद करके ही उसने उस शोर को सुना था सोचा था ये शोर कैसा...? जागते मन और सोती आँखों के बीच उसे ये गफ़लत हो गई थी कि वो कहाँ है...? थोड़ा घबराकर कर आँखें खोली थी, परिवेश अनजाना था... ओह... मैं तो घर में नहीं हूँ। थोड़ी संयत हुई थीं, नींद के टूटे सिरे को जोड़ने की कोशिश करने लगी थी, लेकिन जुड़ना तो ठीक, सिरा मिला ही नहीं था। बहुत देर तक आँखों पर तने उस फूस के छप्पर को देखती रही थी... समुद्र की लहरों की आवाज लगातार आ रही थी। इतने अँधेरे में घड़ी देखना संभव नहीं था, लेकिन ये तय था कि अभी सवेरा होने में देर है। उसने धीरे से अपना बिस्तर छोड़ा... उतनी ही एहतियात से पैरों में स्लीपर और कंधे पर स्टोल डालकर कमरे से बाहर आ गई थी। संभलकर एहतियात से कमरे का दरवाजा उढ़काया था और निकल पड़ी थी समंदर के किनारे।
समंदर अँधेरा ओढ़कर संवलाया सा डोल रहा था। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ की रेत थोड़ी गीली-गीली हो रही थी। थोड़ा चलने के बाद ही उसे लगा कि रेत में नंगे पैर चलना ज्यादा सरल है... उसने अपनी स्लीपर वहीं छोड़ दी थी और चलने लगी थी... गीली-ठंडी रेत पैरों के तलवों को राहत दे रही थी... कई दिनों की जम चुकी बेचैनी थोड़ी नर्म होने लगी थी, कोई साथ जो नहीं था। क्या-क्या नहीं उसने अपने भीतर रोक रखा है... खुद से निराश है बहुत... बूर रखा है, उसने वह सोता जहाँ से उमड़कर आती है भावनाएँ... अपेक्षाएँ, गुस्सा, आँसू, संवेदनाएँ... और भी बहुत कुछ। पता नहीं शायद बेचैनी की वजह वही हो।
वह चलती चली जा रही थी... अकेले, दिशाहीन, लक्ष्यहीन...। उधेड़बुन है गहरी... क्या बेचैनी है... यही न कि न खुद अपनी अपेक्षाओं पर खरी उतर पा रही है और न ही दूसरों की... बस अपेक्षाओं के समंदर में डूब उतरा रही है।
दूर क्षितिज पर आसमान का रंग बदलता नजर आ रहा था। समंदर के उस छोर से सूरज ने झाँकना जो शुरू कर दिया था। इक्का-दुक्का विदेशी जोड़े बीच पर टहल रहे थे और कुछ युवा रेत पर ही आसन लगाए ध्यान लगा रहे थे। बहुत दिनों से वह खुद के ‘न-होने’ के अहसास से घिरी हुई है। पता नहीं कहाँ जाकर अटक गई है कि उसे खुद का अहसास ही नहीं रहा… इतनी गहरी छटपटाहट है कि उसका सिरा ही नहीं मिलता। जिस्मानी वजूद से अलग उसे अपने होने का कोई और निशान नहीं मिलता, आजकल...। उसे लगने लगा है कि वो अपने देखते-ही-देखते एक भ्रम में तब्दील होती जा रही है। उसने झुककर रेत को हथेली में भरा था... लगा कि उसका अपना होना भी बस इसी रेत की तरह भुरभुरा हो रहा है, बिखर रहा है। कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसे नमी दे। अपनी उलझनों के सिरे उसे खुद ही नहीं मिलते, कोई क्या उसकी मदद करेगा। अब तो मदद की उम्मीद से भी डर लगने लगा है। उसकी आँखें डबडबा आई थी... बहुत दिनों के बाद उसकी आँखों में नमी उतरी थी... उसने अपने इर्द-गिर्द देखा... कोई देख तो नहीं रहा है, उसने खुद को छोड़ दिया था, बहने के लिए। गीली आँखें बहने लगी थी, होंठ कस गए थे। कोई भी नहीं है संभालने के लिए... वो बहा सकती है खुद को, ऐसे ही वह खुद को खतम कर रही है... यूँ ही खत्म हो जाना है, कहीं कुछ भी इकटठा नहीं होगा... कोई इकट्ठा नहीं करेगा। उसे बहना ही है, इसी तरह अकेले ही विसर्जित होना है... इस नदी को कोई बाँध नहीं रोक रहा है... किसी ने बनाया ही नहीं है, उसे बहकर खारे पानी में ही मिलना है।
आखिर उसने तय जो किया है कि किसी के सामने नहीं रोना है। इसी निश्चय ने उसके भीतर पर्त-दर-पर्त बेचैनी बुनी है। घुटने के बल बैठकर उसने फलक पर उभर आए सूरज की तरफ देखा था। वह रो रही है... निशब्द... आँसू बह रहे हैं। बह रही है बिना बाँध के खारे पानी की तरफ... यही उसकी नियति है, हर उस की, जिसे रोकने... थामने के लिए कोई बाँध नहीं है उसे बहना ही है। बहा चुकी थी, वह जितनी बची थी, अब वह लौट रही है, जहाँ उसकी स्लीपर पड़ी थी, वहीं बिहाग चाय का कप लिए उसका इंतजार कर रहा था। वो मुस्कुराई थी... आँखें बंद कर कुछ बुदबुदाई एक संकल्प उसने उगते सूरज और चंचल लहरों को दखेकर किया था और बिहाग के बढ़े हुए हाथ को खींच लिया था। बहुत दिनों बाद उसने मुस्कुराती हुई सुबह देखी थी। कोई निश्चय उसके भीतर जगमगाया था... झिलमिलाया था। फिर से उसने सूरज की तरफ देखा था... इस अपेक्षा में कि ये तो मदद करेगा ही...

4 comments:

  1. बहुत खूबसूरत और बहुत ही सटीक खीचा आपने
    Shalini

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  2. उम्‍दा गद्य है. क्‍या किसी कहानी का हिस्‍सा है ?

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    1. लिखना तो चाहती हूँ, लेकिन बस छोटा-छोटा लिखकर ही अटक जाती हूँ। कहने वाले कह रहे हैं कि बस ब्लॉग में जाया हो रही हूँ। :(

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