26/08/2014

विसर्जन हो, अपने अहंकार और मोह का


अपनी रचना के प्रति तटस्थता का भाव ही रचनाकार को सृष्टा बनाता है... ईश्वरतुल्य... क्योंकि सृजन के क्रम में गहरी आसक्ति और पूर्णता पर उतनी ही गहरी वीतरागिता ... यही तो है संतत्व का सार, उत्स... और यही है ईश्वरत्व...।
यदि ईश्वर के होने के विचार को मानें और ये भी मानें कि ये सारी सृष्टि उसकी रचना है तो सोचें कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना गहरी आसक्ति, असीमित कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता के साथ की और सृजन करने के बाद उसे त्याग दिया... छोड़ दिया... सृष्टि को उसके कर्म औऱ कर्मफल के साथ...। कितना अनुराग था, जब रचना की जा रही थी, एक-एक चीज को सुंदर बनाया... विविधवर्णी और विविधरंगी... बहुत कलात्मकता और बहुत कल्पनाशीलता के साथ.... और फिर पूर्णता पर उसके प्रति उदासीनता ओढ़ ली... खुद को अपनी रचना से मुक्त कर लिया... उस मोह से, उस अहंकार से मुक्त कर लिया जो सृजनकर्ता को हुआ करता है... यही तो ईश्वर तत्व है।
सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन पटनायक की सैंड पैंटिंग का सबसे पहला फोटो देखा था लगभग २०-२२ साल पहले... तब से ही एक सवाल परेशान करता रहा है मुझे... कि जब वे समुद्र किनारे रेत पर रचना कर रहे होते हैं तो उनके मन में क्या हुआ करता होगा...? आखिर तो उनकी रचना उनकी आँखों के सामने ही नष्ट हो जाने वाली है... तो उन्हें क्या लगता होगा, अपनी रचना के प्रति कोई मोह, कोई ममता नहीं उमड़ती होगी? इन दिनों लग रहा है कि शायद उस सवाल का जवाब खुद में ढूँढ पा रही हूँ।
परंपराओं से बहुत दूर का भी रिश्ता कभी रहा नहीं। और धर्म से तो जरा भी नहीं। धार्मिक होना जाने क्यों गाली सा सुनाई देता है। फिर भी उत्सव पसंद है... आजकल न जाने कैसी मनस्थिति में रहती हूँ कि हर कहीं दर्शन, फिलॉसफी ढूँढ ही लेती हूँ। अब पता नहीं मिट्टी से सृजन की परंपरा के पीछे किस दर्शन की कल्पना की थी, लेकिन निष्कर्ष निकल आए हैं।
गणपति की मिट्टी की प्रतिमा की स्थापना के गला फाड़ू अभियान में एकाएक नई धुन सवार हुई... खुद बनाने की। मिट्टी से बचपन भर दूर रहे और बड़ों की शाबाशी पाई... ये कि हमारे बच्चे इतने साफ-सुथरे कि कभी मिट्टी-कीचड़ में हाथ गंदे कर नहीं आए (आज सोचती हूँ तो खुद को लानतें भेजती हूँ... कि क्यों नहीं मिट्टी-कीचड़ में खेलें) खैर सिर धुन लेने से भी बदलेगा क्या? तो अब समस्या ये कि बनेंगे कैसे... क्या-क्या लगेगा बनाने में और कैसे बनेंगे... क्योंकि जो काम नहीं आता, उसे करने से पहले गहरी बेचैनी रहती है...। पूछकर, जानकर, पढ़कर तय कर लिया कि मिट्टी से गणेशजी बनाएंगे, इस बार।
बनाने बैठे... उसी दौरान लगा कि इतनी मेहनत, लगन, कल्पनाशीलता और ऊर्जा लगाकर बनाएंगें, उन्हें प्रतिष्ठित करेंगे और फिर उन्हें विसर्जित कर देंगे? उदासी ने आ घेरा... अपनी रचना के प्रति मोह जागा... मन का करघा चल रहा था, ताना-बाना बुना जा रहा था। एक विचार यूं भी आया कि यदि ये खूबसूरत बना तो भी इसे विसर्जित कर देना होगा...?
हाँ... शायद यही तो है, मिट्टी से सृजन करने और विसर्जन करने का दर्शन...। उस मोह का त्याग जो अपने सृजन से होता है, उस अहंकार का त्याग जो हमें सृजनकर्ता होने का होता है... अपनी बनाई रचना को अपने ही हाथों विसर्जित करना... मतलब अपने ही मोह का परित्याग करना... जब रचना का विसर्जन करेंगे तो जाहिर है उस अंहकार का भी विसर्जन होगा, जो हमें सृजनकर्ता होने से मिलता है।
फिर मिट्टी... मतलब अकिंचन... कुछ नहीं, जिसका कोई भौतिक मोल नहीं, फिर भी अनमोल... क्योंकि ये पृथ्वी का अंश है, अक्स है, हमारे शरीर की भौतिक संरचना का एक अहम तत्व। इसके बिना जीवन नहीं, जीवन की कल्पना नहीं... पंचतत्वों की गूढ़ दार्शनिकता न भी हो, तब भी मिट्टी जीवन का आधार है, जैसे सूरज है, आसमान है, पानी है, उसी तरह मिट्टी भी है। और तमाम सफलताओं और उपलब्धियों के सिरे पर खड़ी है मिट्टी... मिट्टी मतलब खत्म होना, मिट्टी में मिलना... मिट्टी का दर्शन है, खत्म होना... अंततः सब कुछ को विसर्जित हो ही जाना है। तो लगा कि इस तरह के विसर्जन को जिया जाए, उस छोड़ने को... उस मुक्त करने और होने को महसूस किया जाए जो सृजनकार को संत बनाता है।
संतत्व को महसूस करें... गणपति की मूर्ति मिट्टी की हो, ये तो प्रकृति के लिए है, लेकिन यदि उस मूर्ति को खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जन करें... ये हमारे लिए है... खुद हमारे लिए। इस बहाने हम अपने गर्व को, मोह को और अहंकार को विसर्जित करें... गणपति प्रतिमा के साथ... खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जित भी करें।

3 comments:

  1. जीवन के हर प्रसंग में,नए अर्थ अन्वेषित करना,उसके मर्म में झांकने की जिद्द,
    अद्भुत जीवन दृष्टि है आपकी,
    एक सार्थक सन्देश गर्व और अहंकार को विसर्जित करने का.
    लिखते रहिये अमिता जी,

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