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19/01/2010
हवाओं में महका बसंत
इस बार न तो कोयल कूकी, न बयार बही, न आम बौराया और न ही पलाश दहका....बहुत दबे पाँव बसंत आया...दिन-रात की तीखी खुनक के बीच दोपहर थोड़ी बहुत मुलायम हो रही है। आहट सुनाई पड़ रही है...वह अभी आया तो नहीं ही है, बस कहीं किसी पलाश पर बसंत की छाया दिखती है, बाकी तो बस हरे-कच पत्तों के साथ बसंत की प्रतीक्षा में है। बुधवार को सरस्वती पूजन के साथ ही बसंत उत्सव मनाना शुरू कर देगा। शहरों में तो सिर पर तने आसमान को देखना तक जहाँ एक घटना होती हो, वहाँ पलाश के दहकने को कहाँ ढूँढा जाएँ... फिर भी बसंत का आना एक घटना है। हम चाहे उसे ना देखें, ना महसूस करें, हवाएँ उसका पता देती है। सूरज के आने से सुनहरा होता आसमान...हल्की हवा से उड़ती पीली धूल....डूबते सूरज की किरणों से सतरंगी होता आसमान और रात के खुलते जूड़े में टँके सितारों का झरना...क्या ये सब बसंत का संदेश नहीं है? जब संदेश आ ही गया तो वह कहाँ रूकने वाला है, आएगा ही, चाहे एक-दो दिन इंतजार के बाद आए...आज तो हम बुद्धि, मेधा और सृजन की देवी सरस्वती को मनाए...बेहतर, सुंदर और मंगलकारी दुनिया को रचने का साहस पाएँ.....जिएँ....प्रकृति के आनंदोत्सव को मनाएँ, उसे प्यार करें, उसे बचाए...तभी तो बसंत के आने का.......वर्षा, ग्रीष्म, शरद और शिशिर को पहचान पाने के संकेत पाएँगें...फिलहाल तो सिंदूर-सी सुबह, सरसों की फूलों सी पीली दोपहर, गुड़हल सी लाल-सुर्ख शाम और सुरीली सुरमई रात का स्वागत करें....बसंत को गाएँ, गुनगुनाएँ....मनाएँ...।
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