02/11/2014

बेशक्ल...


फिर सुबह हो गई, आज फिर उसी जुमले से सुबह की शुरुआत हुई। हर दिन यही होता है... रात थकान से नींद तो जल्दी आ जाती है, लेकिन सुबह होने से पहले न जाने क्यों और कैसे नींद टूट जाती है। आज भी न जाने वह विचार था या फिर सपना... या अहसास... हाँ, अहसास भी, नींद में भी चेतना का कोई हिस्सा जाग्रत रहता है न... इसलिए वो अहसास भी हो सकता है। उसे एकाएक लगा कि वह पैने-नुकीले-नाखूनों वाले अदृश्य पंजों की गिरफ्त में है... नाखून चुभ रहे हैं, खून रिस रहा है और छूटने के लिए वह छटपटा रही है, लेकिन पकड़ ढीली होने की बजाए सख्त होने लगी है।
जाने डर था, बेचैनी थी या फिर दर्द... कि नींद टूट गई। वो जाग गई, साँस रूकने-सी महसूस हो रही है... ब्लैंकेट हटा दिया, पंखे की तरफ नजर गई, वो बंद था। बीच नवंबर में चाहे सर्दी वैसी न हो, लेकिन गर्मी भी तो नहीं हुआ करती कि पंखा चलाया जाए। लेकिन बेचैनी का अपना ताप हुआ करता है, शरीर से जैसे लपटें उठी हो... ऐसे हड़बड़ाकर उठी थी। उसके यूँ एकाएक उठने से मोक्ष की नींद चटकी थी... वह आधी नींद में बड़बड़ाया था... ‘क्या हुआ?’
‘ऊँ..... हूँ..... कुछ नहीं, सो जाओ तुम।’ सोचा उसका तो रोज का यही रोना है, मोक्ष को क्यों अपनी बेचैनी में घसीटे...। बाँहों पर हथेली घुमाई थी... जैसे अब भी उस सबसे बाहर नहीं आ पाई हो, या देखना चाहती हो कि कहीं सचमुच तो कोई जख्म नहीं है, खून तो नहीं रिस रहा है। थोड़ा वक्त लगा था, उस सबसे उबरने में... घड़ी देखी थी सुबह के साढ़े चार हो रहे हैं। हर दिन कमोबेश इसी वक्त उसकी नींद टूटती है। जानती है या शायद नहीं जानती है... बस महसूस करती है कि कोई बेचैनी तो है। वह पानी की बोतल मुँह से लगाकर दो घूँट पानी उतारती है... हर सुबह की तरह सब कुछ को हलक के नीचे ठेल देती है और फिर से सोने की कोशिश में लग जाती है।
बहुत देर तक भटकती है, रात के जंगल में, लेकिन नींद का कोई सुराग नहीं मिलता... फिर एकाएक नींद आ जाती है। सुबह जब बाहरी कोलाहल से नींद खुलती है तो देखती है कि 8 बज चुके है... फिर से सुबह हो गई।
आजकल हर दिन उसे लगता है कि सुबह हो ही नहीं। पड़ी रहे, सोती रहे... जब तक मन चाहे। उसके जीवन में सब कुछ बिल्कुल ठीक और सधा हुआ है। देखने वाले को तो यही दिखता है, लेकिन वो... बस... वही जानती है कि भीतर सबकुछ कैसा सूना और वीरान पड़ा हुआ है। कभी मोक्ष भी उस रास्ते पर बढ़ने लगता तो है, लेकिन फिर इस सबको लाइलाज पाकर लौट जाता है। अब तो उसके कहने की धार भी जाती रही है। कोई उससे सहानुभूति रखे तो कब तक और क्यों? आखिर समझ तो आए कि मसला क्या है? कोई क्यों इस तरह बेवजह बेचैन हो जाया करता है। कैफियत खुद उसके पास ही नहीं है, दूसरे को समझाए भी तो क्या...?
अब उसके सामने पूरा दिन है, टिक-टिक करती घड़ी है और उसके साथ रेस करती वह खुद है। कोई ऐसा वक्त उसके पास है ही नहीं जब वह खालिस खुद हो पाए। जीवन उसे मोहलत ही नहीं दे रहा है।
कई बार मन में आया कि काम छोड़ दे... फिर से उस जिंदेगी में लौट जाए, जब वह खूब पढ़ती थी, गाती थी, सुनती थी... बातें करती थी। जब वह बस यूँ ही पड़े-पड़े आते-जाते मौसमों से चुहल करती थी। बारिश की बूँदों के पैटर्न देखती, बारिश के गिरने की आवाज से एकाकार हो जाती। सर्दी की धूप में बैठे हुए आँखें बंद कर लेती और पलकों के पर्दों में छनकर भीतर आती धूप के रंगों को देखती। गर्मी में ढ़लते सूरज के साथ थोड़ी उदास हो लेती और तारों भरी रात के साथ रूमानी हो जाती।
अब तो उसे याद ही नहीं पड़ता कि घड़ी के साथ कदमताल करते कितने साल गुजर गए। कभी आस-पास के बारीक से बारीक बदलाव पर जिसकी नजर होती थी और हर चीज़ उसे वहाँ जाकर छूती थी, जहाँ से आह और वाह निकलती है। और आज... सब कुछ होता है, बस हर चीज उससे बचकर गुजर जाती है। शायद मशीनें ऐसी ही हुआ करती होगी। जो कपड़े हाथ में आए पहन लिए... जैसा भी खाना बना हो, गले से नीचे उतार लिया...। कुछ भी हुलसकर नहीं कर पाती... हो ही नहीं पाता।
वह नहाकर आई तब मोक्ष नाश्ता कर रहा था। जब उसने जल्दी से अगरबत्ती लगाई तो मोक्ष ने हँसते हुए कहा ‘इसे कहते हैं कौवा-पूजा। कितनी दौड़ते भागते करती हो?’
उसने घूरकर मोक्ष को देखा तो वह जोर से खिलखिला दिया। वह बालों में जल्दी-जल्दी कंघी कर रही थी, तभी सवाल आया... ‘आजकल फिटनेस के लिए कुछ करती नजर नहीं आती हो...? कुछ कर रही हो?’
एकसाथ कातरता और बेबसी उसके चेहरे पर उतर आई... ‘कब करूँ, बताओ... देख तो रहे हो।’
स्टेयरिंग व्हील पर एक हाथ और गियर बदलते दूसरे हाथ के बीच फोन बजता है। दूसरी तरफ से माँ पूछ रही है ‘हलवा टेस्ट किया? कैसा बना?’ वह माँ को बताना तो नहीं चाहती कि दो दिन पहले जो हलवा माँ ने भेजा था, अभी वह उसे चख नहीं पाई है... लेकिन बेसाख्ता ही निकल गया ‘अभी टेस्ट नहीं कर पाई’
माँ ने गुस्सा किया था ‘क्यों...? तेरे लिए इतनी मेहनत की और तूने अभी तक चखा भी नहीं। इतनी भी फुर्सत नहीं है तुझे...’
उसने डाँट सुन ली थी... क्या कहती... सच में फुर्सत नहीं है। कई बार सोचती है कि क्या सारी कामकाजी महिलाएँ ऐसी ही बेचैनी से गुजरती हैं???


आईने के सामने खड़ी होकर वह खुद को देख रही है... सोचती है कि दिन भर में कहाँ-कहाँ वह छूटती रहती है... बिस्तर से लेकर दफ्तर तक हर कहीं वह कतरा-कतरा रिसती है, क्षरित होती है और छूटती रहती है। खुद को बीनती हुई वह लौटती है, लेकिन फिर भी उससे कुछ बना नहीं पाती है। उसने दिन भर में बिखरे अपने टुकड़े सहेजे हैं... नींद में जाने से पहले वह तरतीब देना चाहती है... लेकिन खुद को खत्म पाती है... ऊर्जा नहीं बची है अब और... बस सोचती है, देखने वालों को सब कुछ कितना परफेक्ट दिखता है... जिंदगी से जगमगाती आँखें, गालों के गड्ढों वाली हँसी, शोख रंगों के कपड़े, आत्मविश्वास से लबरेज चाल... इफीशिएंट, पोलाइट, वेल ड्रेस्ड- वेल बिहेव्ड-वेल मैनर्स और अवेयर लड़की... कौन जानेगा कि इन खूबियों वाले खूबसूरत लिबास के भीतर उदासीनता है... तीखी बेचैनी और गहरी छटपटाहट है... एक कसमसाहट है... खुद के मशीन में बदल जाने की... विचारों के बीत जाने की, संवेदनाओं के छिटक जाने की और भावनाओं के रूठ जाने की...।
वह चाहती है कि खुद की शक्ल उकेरे... अपने भुलाए जा चुके वजूद को आकार दे... मगर कल फिर से सुबह होगी... इसलिए उसे खुद को यहीं छोड़ देना है और हो जाना है उस नींद के हवाले जो उसका बचा-खुचा पैनापन भी रेंत देने वाली है।

07/09/2014

बक रहा हूँ जुनूं में...

रात का न जाने कौन-सा वक्त रहा होगा... सतह पर ठहरी हुई थी नींद, गहरे उतरी भी नहीं थी कि अतल गहराई से निकल कर उदासी ने नींद की पतली-सी झिल्ली को फाड़ दिया और नींद पर फैल गई। तब भैरवी के स्वर हवाओं में तैर रहे थे... फिर भी अभी सुबह होने में वक्त था। कई दिनों से ये सिलसिला चल रहा था, दिन भर की थकान के बाद रात नींद तो जल्दी लग जाया करती है, लेकिन जैसे ही शरीर कमजोर पड़ा मन उसे हरा देता और नींद टूट जाती। कभी बिना सपनों के गहरी नींद की दौलत हासिल थी मुझे... आजकल सपने तो नहीं, मगर विचार, बेचैनी और संवाद चलते रहते हैं। और नींद... ऊपर-नीचे करती रहती है। आखिर मन के जीतते ही नींद विदा हो जाती है। कभी दिन चढ़े तक नींद आती रहती थी... आजकल पौ फटने से पहले ही वो रूठ जाती है।
कितना बोझ है... क्या बोझ है... इतना दबाव, इतनी बेचैनी और इतना तनाव। न बाहर पूरी हूँ न भीतर... न बाहर को भर पा रही हूँ और न भीतर को तुष्ट कर पा रही हूँ... बस दौड़ है हर कहीं को संभाल लेने, सहेज लेने की... किसी को समझाऊँ भी तो क्या... और कोई समझे भी क्यों...? जाने मैं वक्त के साथ दौड़ में हूँ या फिर वक्त के खिलाफ, अपने बारे में मुझे कुछ भी साफ-साफ नजर नहीं आता। कभी अंदर तो कभी बाहर की खींचतान में जो यातना मेरे हिस्से आई है, उसका हिसाब खुद मेरे पास ही नहीं है। क्या छोड़ दूँ और क्या साथ ले चलूँ? इसका जवाब भी मेरे पास नहीं है। कई सवाल है... हर वक्त काँटों की तरह चुभते हैं, लेकिन जवाब नहीं है... जवाबों की तलब में लगातार हार की हिस्सेदार हो रही हूँ। मगर यातना का सिलसिला कहीं ठहरता ही नहीं है। कभी सोचती हूँ कि क्यों मुझे रात का अँधेरा आजकल इतना भाने लगा है...? इतना कि सूरज का आने की कल्पना भी दहशत से भर देती है, तो चाँदनी बेचैन करने लगती है, हर वो चीज जो बाहर ले जाती है, उससे मुझे डर लगने लगा है और इसलिए रोशनी से भी। लेकिन भला इस डर से बचाव कैसे होगा, हर दिन सूरज उगेगा... हर दिन सुनहरी रोशनी से रोशन होगा... हर दिन वही पुराने सवाल सिर उठाएँगे और हर दिन जवाबों की तलाश में भटकती रहूँगी... और रात ही मेरी पनाहगाह होगी... न जाने कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा... न जाने कब तक इसे सहती रहूँगी यूँ बिना थके...

26/08/2014

विसर्जन हो, अपने अहंकार और मोह का


अपनी रचना के प्रति तटस्थता का भाव ही रचनाकार को सृष्टा बनाता है... ईश्वरतुल्य... क्योंकि सृजन के क्रम में गहरी आसक्ति और पूर्णता पर उतनी ही गहरी वीतरागिता ... यही तो है संतत्व का सार, उत्स... और यही है ईश्वरत्व...।
यदि ईश्वर के होने के विचार को मानें और ये भी मानें कि ये सारी सृष्टि उसकी रचना है तो सोचें कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना गहरी आसक्ति, असीमित कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता के साथ की और सृजन करने के बाद उसे त्याग दिया... छोड़ दिया... सृष्टि को उसके कर्म औऱ कर्मफल के साथ...। कितना अनुराग था, जब रचना की जा रही थी, एक-एक चीज को सुंदर बनाया... विविधवर्णी और विविधरंगी... बहुत कलात्मकता और बहुत कल्पनाशीलता के साथ.... और फिर पूर्णता पर उसके प्रति उदासीनता ओढ़ ली... खुद को अपनी रचना से मुक्त कर लिया... उस मोह से, उस अहंकार से मुक्त कर लिया जो सृजनकर्ता को हुआ करता है... यही तो ईश्वर तत्व है।
सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन पटनायक की सैंड पैंटिंग का सबसे पहला फोटो देखा था लगभग २०-२२ साल पहले... तब से ही एक सवाल परेशान करता रहा है मुझे... कि जब वे समुद्र किनारे रेत पर रचना कर रहे होते हैं तो उनके मन में क्या हुआ करता होगा...? आखिर तो उनकी रचना उनकी आँखों के सामने ही नष्ट हो जाने वाली है... तो उन्हें क्या लगता होगा, अपनी रचना के प्रति कोई मोह, कोई ममता नहीं उमड़ती होगी? इन दिनों लग रहा है कि शायद उस सवाल का जवाब खुद में ढूँढ पा रही हूँ।
परंपराओं से बहुत दूर का भी रिश्ता कभी रहा नहीं। और धर्म से तो जरा भी नहीं। धार्मिक होना जाने क्यों गाली सा सुनाई देता है। फिर भी उत्सव पसंद है... आजकल न जाने कैसी मनस्थिति में रहती हूँ कि हर कहीं दर्शन, फिलॉसफी ढूँढ ही लेती हूँ। अब पता नहीं मिट्टी से सृजन की परंपरा के पीछे किस दर्शन की कल्पना की थी, लेकिन निष्कर्ष निकल आए हैं।
गणपति की मिट्टी की प्रतिमा की स्थापना के गला फाड़ू अभियान में एकाएक नई धुन सवार हुई... खुद बनाने की। मिट्टी से बचपन भर दूर रहे और बड़ों की शाबाशी पाई... ये कि हमारे बच्चे इतने साफ-सुथरे कि कभी मिट्टी-कीचड़ में हाथ गंदे कर नहीं आए (आज सोचती हूँ तो खुद को लानतें भेजती हूँ... कि क्यों नहीं मिट्टी-कीचड़ में खेलें) खैर सिर धुन लेने से भी बदलेगा क्या? तो अब समस्या ये कि बनेंगे कैसे... क्या-क्या लगेगा बनाने में और कैसे बनेंगे... क्योंकि जो काम नहीं आता, उसे करने से पहले गहरी बेचैनी रहती है...। पूछकर, जानकर, पढ़कर तय कर लिया कि मिट्टी से गणेशजी बनाएंगे, इस बार।
बनाने बैठे... उसी दौरान लगा कि इतनी मेहनत, लगन, कल्पनाशीलता और ऊर्जा लगाकर बनाएंगें, उन्हें प्रतिष्ठित करेंगे और फिर उन्हें विसर्जित कर देंगे? उदासी ने आ घेरा... अपनी रचना के प्रति मोह जागा... मन का करघा चल रहा था, ताना-बाना बुना जा रहा था। एक विचार यूं भी आया कि यदि ये खूबसूरत बना तो भी इसे विसर्जित कर देना होगा...?
हाँ... शायद यही तो है, मिट्टी से सृजन करने और विसर्जन करने का दर्शन...। उस मोह का त्याग जो अपने सृजन से होता है, उस अहंकार का त्याग जो हमें सृजनकर्ता होने का होता है... अपनी बनाई रचना को अपने ही हाथों विसर्जित करना... मतलब अपने ही मोह का परित्याग करना... जब रचना का विसर्जन करेंगे तो जाहिर है उस अंहकार का भी विसर्जन होगा, जो हमें सृजनकर्ता होने से मिलता है।
फिर मिट्टी... मतलब अकिंचन... कुछ नहीं, जिसका कोई भौतिक मोल नहीं, फिर भी अनमोल... क्योंकि ये पृथ्वी का अंश है, अक्स है, हमारे शरीर की भौतिक संरचना का एक अहम तत्व। इसके बिना जीवन नहीं, जीवन की कल्पना नहीं... पंचतत्वों की गूढ़ दार्शनिकता न भी हो, तब भी मिट्टी जीवन का आधार है, जैसे सूरज है, आसमान है, पानी है, उसी तरह मिट्टी भी है। और तमाम सफलताओं और उपलब्धियों के सिरे पर खड़ी है मिट्टी... मिट्टी मतलब खत्म होना, मिट्टी में मिलना... मिट्टी का दर्शन है, खत्म होना... अंततः सब कुछ को विसर्जित हो ही जाना है। तो लगा कि इस तरह के विसर्जन को जिया जाए, उस छोड़ने को... उस मुक्त करने और होने को महसूस किया जाए जो सृजनकार को संत बनाता है।
संतत्व को महसूस करें... गणपति की मूर्ति मिट्टी की हो, ये तो प्रकृति के लिए है, लेकिन यदि उस मूर्ति को खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जन करें... ये हमारे लिए है... खुद हमारे लिए। इस बहाने हम अपने गर्व को, मोह को और अहंकार को विसर्जित करें... गणपति प्रतिमा के साथ... खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जित भी करें।

23/08/2014

लिखे नहीं जाते हैं रंग...

रंग उड़ाना चाहती है, रंग भरना भी, गाना भी और लिखना भी... मन हुलसता है उसका आँखों पर छाए आसमानी आसमान और उस पर तैरते भूरे-सांवले-सफेद बादल... उमगाते हैं, रंगों को पकड़ने के लिए, मचलती है, लेकिन दूर चले जाते हैं सारे रंग... उसकी जिद्द है समेटने की... सहलाने की, उसमें डूबने और रंगों को खुद में डूबा लेने की... रंग... हर तरफ जो बिखरे हैं। समंदर वाला नीला, मिट्टी के खिलौने बेचती छोटी लड़की के लहंगे वाला बैंगनी, फूल लिए घूमती लड़की के कुर्ते-सा पीला, आसमानी नीला, फाख्ता के रंग-सा भूरा... मोर के पंखों-सा नीला-हरा... बरसात वाला हरा, सुबह वाला सिंदूरी, दोपहर वाला सुनहरी, शाम वाला उदास सांवला, रात वाला गहरा सुरमयी... पत्तियों वाला हरा, गुलमोहर वाला लाल, अमलतास वाला पीला, गुलाबों वाला गहरा गुलाबी, नींबू वाला पीला... खुद के दुपट्टे सा सतरंगा... बस रंग ही चाहती है, पकड़ना, फैलाना, बिखेरना, लिखना...डूबना... डुबो देना... मगर लगता है कि उससे सारे रंग रूठे हुए हैं।
वो सोचकर उदास हो जाती है, सारे रंग उसकी आँखों की कोरों को छूकर गुजरते हैं, दिमाग के खाँचों में उतर जाते हैं... वो हाथ पकड़कर थाम लेना चाहती है, मन में उतारकर बिखेर देना चाहती है। कभी उसे भ्रम होता भी है, कि उसने थाम लिए हैं, भर लिए हैं मुट्ठी में... फैला दिए है जैसे फैलाते हैं रंग किए दुपट्टे... सूखने के लिए। खुश हो जाती है... झूमने और नाचने लगती है, सिर को आसमान की तरफ तानकर गहरी साँसें लेती है, भर लेती है सारी कायनात की खुशबू... और खोलती है अपनी मुट्ठी... अरे ये क्या, कोई रंग नहीं है हाथ में। हथेली पूरी स्याह हुई पड़ी है। आँखों में कुछ गरम और तरल-सा उतर आया... एक निराशा साँसों के रास्ते शरीर में समा गई, और खून की तरह नसों में बहने लगी... स्याही आँखों के सफेद रंग पर फैल गई...। रंग मन को नहीं छू पा रहे हैं... अब तो उसे रंग दिखना भी बंद हो गए... हर जगह अँधेरा फैल गया, ये स्याही अब उसके साथ चल रही है... मन अब भी रंगों के पीछे भाग रहा है, लेकिन उसे रंग दिखाई देना बंद हो गए हैं। रंग उससे रूठ गए हैं, छिटककर दूर चले गए हैं। वो फिर से उदास है... अब रंग दिखेंगे ही नहीं तो क्या तो वह बिखेरेगी और क्या फैलाएगी और क्या लिखेगी...? अब कभी भी वह नहीं लिख पाएगी रंग...कभी भी नहीं खिल पाएंगें रंग...।