फिर सुबह हो गई, आज फिर उसी जुमले से सुबह की शुरुआत हुई। हर दिन यही होता है... रात थकान से नींद तो जल्दी आ जाती है, लेकिन सुबह होने से पहले न जाने क्यों और कैसे नींद टूट जाती है। आज भी न जाने वह विचार था या फिर सपना... या अहसास... हाँ, अहसास भी, नींद में भी चेतना का कोई हिस्सा जाग्रत रहता है न... इसलिए वो अहसास भी हो सकता है। उसे एकाएक लगा कि वह पैने-नुकीले-नाखूनों वाले अदृश्य पंजों की गिरफ्त में है... नाखून चुभ रहे हैं, खून रिस रहा है और छूटने के लिए वह छटपटा रही है, लेकिन पकड़ ढीली होने की बजाए सख्त होने लगी है।
जाने डर था, बेचैनी थी या फिर दर्द... कि नींद टूट गई। वो जाग गई, साँस रूकने-सी महसूस हो रही है... ब्लैंकेट हटा दिया, पंखे की तरफ नजर गई, वो बंद था। बीच नवंबर में चाहे सर्दी वैसी न हो, लेकिन गर्मी भी तो नहीं हुआ करती कि पंखा चलाया जाए। लेकिन बेचैनी का अपना ताप हुआ करता है, शरीर से जैसे लपटें उठी हो... ऐसे हड़बड़ाकर उठी थी। उसके यूँ एकाएक उठने से मोक्ष की नींद चटकी थी... वह आधी नींद में बड़बड़ाया था... ‘क्या हुआ?’
‘ऊँ..... हूँ..... कुछ नहीं, सो जाओ तुम।’ सोचा उसका तो रोज का यही रोना है, मोक्ष को क्यों अपनी बेचैनी में घसीटे...। बाँहों पर हथेली घुमाई थी... जैसे अब भी उस सबसे बाहर नहीं आ पाई हो, या देखना चाहती हो कि कहीं सचमुच तो कोई जख्म नहीं है, खून तो नहीं रिस रहा है। थोड़ा वक्त लगा था, उस सबसे उबरने में... घड़ी देखी थी सुबह के साढ़े चार हो रहे हैं। हर दिन कमोबेश इसी वक्त उसकी नींद टूटती है। जानती है या शायद नहीं जानती है... बस महसूस करती है कि कोई बेचैनी तो है। वह पानी की बोतल मुँह से लगाकर दो घूँट पानी उतारती है... हर सुबह की तरह सब कुछ को हलक के नीचे ठेल देती है और फिर से सोने की कोशिश में लग जाती है।
बहुत देर तक भटकती है, रात के जंगल में, लेकिन नींद का कोई सुराग नहीं मिलता... फिर एकाएक नींद आ जाती है। सुबह जब बाहरी कोलाहल से नींद खुलती है तो देखती है कि 8 बज चुके है... फिर से सुबह हो गई।
आजकल हर दिन उसे लगता है कि सुबह हो ही नहीं। पड़ी रहे, सोती रहे... जब तक मन चाहे। उसके जीवन में सब कुछ बिल्कुल ठीक और सधा हुआ है। देखने वाले को तो यही दिखता है, लेकिन वो... बस... वही जानती है कि भीतर सबकुछ कैसा सूना और वीरान पड़ा हुआ है। कभी मोक्ष भी उस रास्ते पर बढ़ने लगता तो है, लेकिन फिर इस सबको लाइलाज पाकर लौट जाता है। अब तो उसके कहने की धार भी जाती रही है। कोई उससे सहानुभूति रखे तो कब तक और क्यों? आखिर समझ तो आए कि मसला क्या है? कोई क्यों इस तरह बेवजह बेचैन हो जाया करता है। कैफियत खुद उसके पास ही नहीं है, दूसरे को समझाए भी तो क्या...?
अब उसके सामने पूरा दिन है, टिक-टिक करती घड़ी है और उसके साथ रेस करती वह खुद है। कोई ऐसा वक्त उसके पास है ही नहीं जब वह खालिस खुद हो पाए। जीवन उसे मोहलत ही नहीं दे रहा है।
कई बार मन में आया कि काम छोड़ दे... फिर से उस जिंदेगी में लौट जाए, जब वह खूब पढ़ती थी, गाती थी, सुनती थी... बातें करती थी। जब वह बस यूँ ही पड़े-पड़े आते-जाते मौसमों से चुहल करती थी। बारिश की बूँदों के पैटर्न देखती, बारिश के गिरने की आवाज से एकाकार हो जाती। सर्दी की धूप में बैठे हुए आँखें बंद कर लेती और पलकों के पर्दों में छनकर भीतर आती धूप के रंगों को देखती। गर्मी में ढ़लते सूरज के साथ थोड़ी उदास हो लेती और तारों भरी रात के साथ रूमानी हो जाती।
अब तो उसे याद ही नहीं पड़ता कि घड़ी के साथ कदमताल करते कितने साल गुजर गए। कभी आस-पास के बारीक से बारीक बदलाव पर जिसकी नजर होती थी और हर चीज़ उसे वहाँ जाकर छूती थी, जहाँ से आह और वाह निकलती है। और आज... सब कुछ होता है, बस हर चीज उससे बचकर गुजर जाती है। शायद मशीनें ऐसी ही हुआ करती होगी। जो कपड़े हाथ में आए पहन लिए... जैसा भी खाना बना हो, गले से नीचे उतार लिया...। कुछ भी हुलसकर नहीं कर पाती... हो ही नहीं पाता।
वह नहाकर आई तब मोक्ष नाश्ता कर रहा था। जब उसने जल्दी से अगरबत्ती लगाई तो मोक्ष ने हँसते हुए कहा ‘इसे कहते हैं कौवा-पूजा। कितनी दौड़ते भागते करती हो?’
उसने घूरकर मोक्ष को देखा तो वह जोर से खिलखिला दिया। वह बालों में जल्दी-जल्दी कंघी कर रही थी, तभी सवाल आया... ‘आजकल फिटनेस के लिए कुछ करती नजर नहीं आती हो...? कुछ कर रही हो?’
एकसाथ कातरता और बेबसी उसके चेहरे पर उतर आई... ‘कब करूँ, बताओ... देख तो रहे हो।’
स्टेयरिंग व्हील पर एक हाथ और गियर बदलते दूसरे हाथ के बीच फोन बजता है। दूसरी तरफ से माँ पूछ रही है ‘हलवा टेस्ट किया? कैसा बना?’ वह माँ को बताना तो नहीं चाहती कि दो दिन पहले जो हलवा माँ ने भेजा था, अभी वह उसे चख नहीं पाई है... लेकिन बेसाख्ता ही निकल गया ‘अभी टेस्ट नहीं कर पाई’
माँ ने गुस्सा किया था ‘क्यों...? तेरे लिए इतनी मेहनत की और तूने अभी तक चखा भी नहीं। इतनी भी फुर्सत नहीं है तुझे...’
उसने डाँट सुन ली थी... क्या कहती... सच में फुर्सत नहीं है। कई बार सोचती है कि क्या सारी कामकाजी महिलाएँ ऐसी ही बेचैनी से गुजरती हैं???
आईने के सामने खड़ी होकर वह खुद को देख रही है... सोचती है कि दिन भर में कहाँ-कहाँ वह छूटती रहती है... बिस्तर से लेकर दफ्तर तक हर कहीं वह कतरा-कतरा रिसती है, क्षरित होती है और छूटती रहती है। खुद को बीनती हुई वह लौटती है, लेकिन फिर भी उससे कुछ बना नहीं पाती है। उसने दिन भर में बिखरे अपने टुकड़े सहेजे हैं... नींद में जाने से पहले वह तरतीब देना चाहती है... लेकिन खुद को खत्म पाती है... ऊर्जा नहीं बची है अब और... बस सोचती है, देखने वालों को सब कुछ कितना परफेक्ट दिखता है... जिंदगी से जगमगाती आँखें, गालों के गड्ढों वाली हँसी, शोख रंगों के कपड़े, आत्मविश्वास से लबरेज चाल... इफीशिएंट, पोलाइट, वेल ड्रेस्ड- वेल बिहेव्ड-वेल मैनर्स और अवेयर लड़की... कौन जानेगा कि इन खूबियों वाले खूबसूरत लिबास के भीतर उदासीनता है... तीखी बेचैनी और गहरी छटपटाहट है... एक कसमसाहट है... खुद के मशीन में बदल जाने की... विचारों के बीत जाने की, संवेदनाओं के छिटक जाने की और भावनाओं के रूठ जाने की...।
वह चाहती है कि खुद की शक्ल उकेरे... अपने भुलाए जा चुके वजूद को आकार दे... मगर कल फिर से सुबह होगी... इसलिए उसे खुद को यहीं छोड़ देना है और हो जाना है उस नींद के हवाले जो उसका बचा-खुचा पैनापन भी रेंत देने वाली है।