मतदान के लिए फिल्म स्टार से लेकर स्वयं सेवी संगठन तक सभी अभियान चला रहे हैं....इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ कहा जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र की शुद्धता के लिए यह पर्याप्त है? 62 साला लोकतंत्र में ये दौर राजनीतिक उदासिनता का दौर है...इसमें एक आम आदमी राजनीति पर चर्चा तो करेगा...लेकिन उसकी रूचि यहीं तक रहेगी। अपने आस-पास ही कई लोग ऐसे हैं, जो यह कहते है कि वोट देने से क्या बदल जाएगा? आप उन्हें नहीं समझा सकते कि क्या बदलेगा? स्वतंत्रता के 62 साल यूँ राष्ट्र राज्य की दृष्टि से ज्यादा लंबा अरसा नहीं होता है, फिर भी इस छोटे से दौर ने हमसे हमारी राजनीतिक जागरूकता छीन ली, ऐसा क्यों हुआ क्या इस पर विचार करने का समय नहीं आ गया है?
बहुत पहले जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सार्थक चर्चाएँ हुआ करती थी, उस दौर में हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक नामवरसिंह से पूछा गया कि क्या हमारा लोकतंत्र इसलिए परिपक्व नहीं है कि हमारे यहाँ अशिक्षा ज्यादा है? तब उन्होंने कहा था कि---दरअसल हमारा लोकतंत्र तो जिंदा ही उन्हीं के दम पर है, पढ़ा-लिखा, शहरी तबका तो लोकतंत्र से कोसों दूर है....आज भी उस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है....और आए भी क्यों? इन बीते सालों में सकारात्मक बदलाव क्या आए हैं? उल्टे राजनीति का स्तर लगातार गिरता ही जा रहा है। उस पर राजनीति में अपराधियों के आ जाने से बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो गई। हम वोट दें, लेकिन किसको? सब बुरों में से कम बुरे को? हमारी राजनीति विकल्पहीनता के दौर में पहुँच गई है....अब मताधिकार को कर्तव्य की तरह निभाना है, क्योंकि कोई उम्मीदवार ऐसा दिखाई नहीं देता, जिससे कोई भी उम्मीद हो.....बकौल गालिब-----
जब तवक्को (उम्मीद) ही उठ गई गालिब, क्यूँ किसी का गिला करे कोई?
फिर भी राजनीति के हिमालय से गंगा निकालने के प्रयासों पर विराम ना लगे, इसलिए वोट दें.....।
bilkul sahi kaha aapne anddhon me kana raja chun lenge magar kab tak kane ki ek ankh bhi naklee hui to kya hoga
ReplyDeleteतवाको की जगह तवक़्क़ो करलें चचा ग़ालिब की रूह
ReplyDeleteदुआयें देगी.आमीन.
लोगों की बदहाली का सबसे बड़ा कारण दानिशमंद लोगों ने अवाम को उसके हाल पर छोड़ दिया हैं.वे अपने दड़बों में बैठे दूर से कुकड़ूं कूँ कर रहे हैं.
पर अँधेरा छटेगा ही,सवेरा होगा ही.
aapke sher bade mojun hote hain
ReplyDeletegood
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