14/05/2009
उलटी हो गई सब तदबीरें ...
ये महज इत्तेफाक ही है कि इस बार चुनाव से पहले ही विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने मतदान के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए प्रयास किए....और ऐन इसी चुनाव में एकाएक लगा कि मतदान प्रतिशत कम हो गया...मतदान के चार चक्र हो जाने के बाद पूरे देश से आए रूझान ये संकेत दे रहे हैं कि आम तौर पर राजनीति से आम आदमी का मोहभंग हो चुका है....बावजूद इसके कि युवा मतदाता बड़ी संख्या में जुड़ा था....इस बार न तो फिल्मी कलाकारों और चुनाव आयोग की अपील ने काम किया और न ही संगठनों के प्रयासों ने.....उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया...मतदान प्रतिशत बढ़ने की बजाय कम ही हुआ...। इसे क्या कहेंगे....? लोकतंत्र के प्रति अरूचि या फिर राजनीति और राजनीतिक दलों के तरीकों, लटके-झटकों और उनकी विश्वसनीयता के प्रति संदेह ? अब तक के चुनावों में शायद नया जुड़ा मतदाता एकबारगी इस भुलावे का शिकार हो जाता हो....इस दौर का युवा इस भीड़ का हिस्सा होने के लिए कतई तैयार नजर नहीं आता है। यहाँ एक सवाल और उठता है और यह सवाल खतरनाक है कि क्या उदारीकरण के दौर ने युवाओं को राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों से दूर कर दिया है? और यदि ऐसा है तो ये भारतीय राजनीति के एक और खराब दौर की शुरूआत होगी...यूँ भी ये दौर कोई ज्यादा आशा नहीं जगाता है। राजनीतिक दल इस दौर से उबरने के अस्थायी उपाय के तौर पर सितारों का सहारा ले रहे हैं। यूँ राजनीति में सितारों का उपयोग राजीव गाँधी ने एक स्पष्ट रणनीति के तहत किया था...लेकिन इस बार राजनीतिक दलों में सितारों को भुनाने की जिस तरह की होड़ रही वह अभूतपूर्व थी....पिछले कई चुनावों से लगातार नेताओं की चुनावी सभाओं और रैलियों में भी मतदाता की दिलचस्पी कम होती नजर आ रही है....ऐसे में फिल्म या फिर टीवी के सितारों के साथ ही लोक कलाकारों के कार्यक्रमों के माध्यम से भीड़ जुटाने का भी खूब उपक्रम हुआ। अब दलों को इस विषय पर भी सर्वे कराना चाहिए कि उस भीड़ में से कितने वोट में बदलते हैं और कितने उस विशिष्ट दल के वोट में? और सवाल तो यह भी उठता है कि आखिर ये सिलसिला चलेगा कब तक? यूँ नेता इस बार के कम मतदान के लिए मौसम को भी एक कारण बता रहे हैं....हम कह सकते हैं कि दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है। फिर भी सवाल अपनी जगह जिंदा है कि राजनीति में आम आदमी की उदासीनता और अरूचि के लगातार बढ़ने के पीछे क्या कारण रहे हैं? क्या अब वो समय नहीं आ गया है कि इसके पीछे छुपे कारणों का विश्लेषण किया जाए? और उन्हें दूर किया जाए नहीं तो भारतीय लोकतंत्र की दुर्दशा को रोका जाना मुश्किल हो जाएगा।
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good thought
ReplyDeleteकारण तो ढूँढ़ने ही होंगे इस उदासीनता के । विचारशील बनाने वाली प्रविष्टि । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसही है..
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