18/02/2010

अंधा कर देने वाली चकाचौंध


अमेरिका से आर्किटेक्चर का कोर्स कर भारत आया लड़का शादी कर रहा था और दुर्भाग्य से हम साग्रह आमंत्रित थे... छुट्टी की शाम को शहर से 20 किमी दूर शादी का वैन्यू था और जाना जरूरी... मन-बेमन था लेकिन पहुँचे। आधा किमी दूर गाड़ी पार्क कर पैदल ही विवाह-स्थल पर पहुँचे तो दुल्हा महँगी शेरवानी-साफा पहने डिजायनर लहँगा और ब्राईडल मेकअप किए अपनी दुल्हन के साथ खड़ा था। सिर पर फूलों की चादर तनी थी आगे ढोली ढोल बजा रहा था और दुल्हे के साथी-भाई मस्ती में नाच रहे थे। अमेरिका से उच्च शिक्षा लेकर आए लड़के के इस रूप को देखकर बेहद-बेहद निराशा हुई।
एक दौर था जब आधुनिकता एक मूल्य था और हर विचारशील युवा उस सबको जो उसकी जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाता था, या जो उसके तर्कों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, उसे तोड़ने पर उतारू रहता था। हाँ...इसमें कुछ अच्छी चीजें भी पीछे छूट जाती थी, लेकिन हम समझते ही हैं कि गेहूँ से साथ घुन तो पिसता ही है, फिर भी एक दरवाजा तो होता था, जो चेंज फॉर गुड के लिए कम-अस-कम रास्ता तो खोलता ही था, लेकिन अब तो उम्मीदें तक राख में तब्दील होती नजर आ रही है। युवा यदि भेड़चाल का हिस्सा ही होने जा रहे हैं तो फिर जो सड़ रहा है... गया है, उसका क्या होगा, जो खराब हो गया है, उसे धक्का देकर कौन गिराएगा (बकौल नीत्शे)।
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हमारे शहर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा है, और क्षेत्रिय अखबार यूँ ही दीवाने हुए जा रहे हैं। यूँ लग रहा है कि इन दिनों शहर की सारी समस्याएँ, सारी परेशानियाँ छुट्टी पर चली गईं हो। हमने आपत्ति दर्ज कराई तो जवाब मिला कि पाठकों को सूचना दी जा रही है। सूचना....! क्या ये कि नाश्ते में क्या खाया, खाना क्या दिया गया और सोए कैसे.... इस सूचना का कोई औचित्य है? लेकिन क्या करें क्योंकि जो मुद्दे की बात थी, वहाँ तक तो पत्रकार पहुँच ही नहीं पा रहे हैं। तो जो गौण और पूरी तरह से महत्वहीन चीजें थी, उसे ही पाठकों के सामने परोसा दें... फिर इस अधिवेशन का आम जनता से क्या लेना-देना.... पार्टी ऐसे कौन-से निर्णय करने जा रही है जिसका निकट या दूर भविष्य में जनता से कोई संबंध होगा...? ये तो बिल्कुल वैसा है, जैसे लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी को पूरा मीडिया कवरेज दे... यूँ भी आजकल मीडिया खबरों के साथ काफी समानता का व्यवहार करता है, मामला चाहे आतंकवादी हमलों से जुड़ा हुआ हो या फिर राजनीतिक आयोजन उसी भावना और शिद्दत से कवरेज होता है। खबरें देने वाले इस सवाल को लगता है, कभी उठाते ही नहीं है कि कोई खबर हम क्यों दें? इतना सोचने की फुर्सत ही किसे है? होगी कभी पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारियाँ, अब तो यह मात्र व्यापार है, साबुन, तेल या फिर टूथपेस्ट बेचने की तरह ही खबरें बेची जाती है। जो क्षमता रखता है, वह इसे बखूबी इस्तेमाल कर सकता है, क्योंकि इसका कोई दीनो-ईमान नहीं है।
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दोनों ही मामले एक ही निर्ष्कष पर पहुँचाते हैं, हम जड़ होते जा रहे हैं, जबसे दुनिया से मार्क्सवाद (अब आप हँसना चाहे तो हँस ले, लेकिन इसके साथ थोड़ा सा सोच भी लेंगे तो शायद लगेगा कि हाँ सच....हमने भी कितने साल हुए कुछ सोचा नहीं) खत्म हुआ है, तब से लगता है प्रतिक्रिया ही खत्म हो गई है, उसके साथ ही बदलाव की सहज प्रक्रिया भी.... क्योंकि जब प्रतिक्रिया ही नहीं होगी तो फिर बदलाव क्या होगा? हम जो कुछ है, उसे सहज भाव से ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि हममें विरोध करने का माद्दा ही खत्म हो गया है। वो साहस ही नहीं रहा कि हम प्रवाह के विरूद्ध खड़े हों.... बाजार ने जहाँ से भी सवाल आ सकते थे, वो सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। उसने इतनी चकाचौंध पैदा कर दी है, कि समाज अंधत्व की तरह बढ़ रहा है, वह कुंद हो रहा है। इस दुनिया में अब कभी भी, कहीं भी क्रांति नहीं होगी..... क्योंकि हमें लगातार सोने (gold) का जहर दिया जा रहा है, बदलाव की ज्वाला पर पैसों के छींटे मारे जा रहे हैं और इसलिए हमारी आत्मा बौनी होती जा रही है...

5 comments:

  1. शानदार ब्‍लॉग, निरंतरता बनाए रखें, शुभकामनाएं

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  2. निश्चित ही चकाचौंध की आँधी में आँखें मिंच गई हैं.

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  3. ्ब्लाग बहुत ही बेहतरीन बनाया है आ[प ने

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  4. एक भी प्रतिक्रियावादी के होते मार्क्सवाद मर नहीं सकता....सुन्दर ब्लाग...बधाई...

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  5. यह सत्‍य है कि हम प्रतिक्रिया करना बन्‍द कर चुके है। इसी कारण हम केवल अच्‍छा है कहने को ही मजबूर हैं। आजकल के विवाह दिखावे की भेंट चढ़ते जा रहे हैं, कोई बदलाव की बात नहीं करता। इसी प्रकार आजकल का मीडिया भी खाने तक ही सीमित रहता है। अच्‍छा चिंतन है, बधाई।

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