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27/07/2014

तीन-दुनिया, तीन सच

साहचर्य
जाने क्या तो बेचैनी रही होगी कि रात भर नींद ने अपनी आगोश में नहीं लिया, बस सतह पर ही बहलाती रही। सुबह उठे तो हल्का सिरदर्द था। रविवार का दिन था तो दर्द को सहलाने की सहूलियत भी थी और मौका भी। आसमान बादलों की चहलकदमी से गुलजार था... दिन का रंग बरसात में सुनहरा नहीं साँवला-सा होता जाता है, तो आज भी वैसा ही था। आँखों पर नीम, गुलमोहर और अमरूद की टहनियाँ अपनी पत्तियों के साथ चंदोवा ताने हुए थीं। जाने कब-कहाँ का पढ़ा-सुना याद आने लग रहा था। याद आया कि अपने काम के दौरान मेरी कलिग ने बताया कि प्रकृति की व्यवस्था के तहत किसी भी पेड़ की हर पत्ती को उसके हिस्से की धूप मिलती है, ताकि वह अपना भोजन बना सके। तकनीकी भाषा में इसे ‘photosynthesis’ की प्रक्रिया कहते हैं। लेकिन किसी भी पेड़ को नीचे से देखकर ऐसा अहसास तो नहीं होता है कि इसकी हर पत्ती पर धूप पड़ रही है, लेकिन ऐसा होता तो है। बड़ा अभिभूत करने वाला सच है... पेड़-पौधों की दुनिया में कितना एकात्मवाद है। कोई किसी का हक नहीं छीनता है, कोई किसी के साथ अन्याय नहीं करता है। एक ही पेड़ पर अनगिनत पत्तियों के होते भी किसी एक के साथ भी कोई अन्याय नहीं... प्रकृति कैसे निभाती होगी, इस तरह का संतुलन... और पत्ते रहते हैं कितने साहचर्य से...?

प्रतिस्पर्धा
थोड़ी फुर्सत का वक्फ़ा आया था हिस्से में। बाहर बारिश हो रही थी, हल्की रोशनी में बूँदें गिरती हुई, झरती हुई नजर तो आ रही थी, लेकिन दिन जैसा नज़ारा नहीं था, लेकिन बहुत इंतजार के बाद आखिर बरसात हो रही थी। खिड़की की नेट पर एकाएक एक छिपकली दिखाई दी... बहुत एहतियात से बैठी हुई... ऊपर की तरफ नजरें गड़ाए, जब ऊपर देखा तो झिंगुर नजर आया। ओह... ये झिंगुर की ताक में है। एकदम से चेतना सक्रिय हुई, नेट पर जोर से हाथ मारा... जाने क्या हुआ, झिंगुर पहले उड़ा या फिर छिपकली गिरी, लेकिन झिंगुर की जान बच गई। लेकिन इसके तुरंत बाद ही सवाल उठा ‘किसका भला किया? झिंगुर की जान बची, लेकिन छिपकली... उसका निवाला तो छीन लिया... तो क्या भला किया।’ लगा कि प्रकृति ने जीव-जंतुओं की दुनिया की रचना बड़े निर्मम ढंग से की। यहाँ तो बस प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है। हमने इसे नाम दिया ‘ecology’। चार्ल्स डार्विन ने इसी दुनिया से तो अपने महानतम सिद्धांत का स्रोत पाया था ‘survival of the fittest’। यहाँ की संरचना में जो सबसे प्रतिस्पर्धा में जीत जाएगा वो जीवित रहेगा... लेकिन यहाँ भी मामला जरूरत का है। भूख का है, अस्तित्व का है।

लिप्सा
तो फिर हमारी दुनिया में क्या है? इस दुनिया में हम कुछ भी किसी के लिए नहीं छोड़ते हैं। ecology या पारिस्थितिकी से आगे जाती है, हमारी दुनिया। यहाँ डार्विनवाद भी हार जाता है, क्योंकि यहाँ अस्तित्व का संकट भी वैसा नहीं है। अजीब बात है कि प्रकृति इस सबसे बुद्धिमान जीव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है, लेकिन फिर भी वह संघर्षरत् है। अपनी भूख के लिए नहीं, अपने अस्तित्व के लिए भी नहीं... अपनी लालच के लिए। उस लालच के लिए जिसका कोई ओर-छोर नहीं है।
हर पत्ती नई पत्ती के लिए धूप छोड़ती है। ये वनस्पति की दुनिया की खूबसूरती है। जंतुओं की दुनिया में एक का वजूद दूसरे के जीवन पर निर्भर करता है। ये उनकी दुनिया की कड़वी हकीकत है, जिसे बदकिस्मती से उन्होंने नहीं चुना है। ये दुनिया उन्हें ऐसी ही मिली है। लेकिन हमारी दुनिया... जिसे हमने ही बनाई है। यहाँ का तो कोई सच नहीं है। जिसके हाथ ताकत आई, उसने दूसरे की दुनिया हथिया ली। हमने अपने-अपने अधिकारों पर तो कब्जा किया ही हुआ है, दूसरे के अधिकारों का भी हनन कर लिया है। न हमें इसकी भूख है न जरूरत... बस हमने अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए इस दुनिया को जहन्नुम में तब्दील कर दिया और ये दौड़ है कि कहीं थमती ही नहीं है।

04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।

25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।

11/06/2013

'बड़े' होने का दर्शन बनाम मनोविज्ञान बनाम हवस...


वो दोनों बस इससे पहले एक ही बार मिले थे। और उस वक्त दोनों ने ही एक-दूसरे को ज्यादा तवज्ज़ो नहीं दी थी। इस बार भी दोनों मिले तो लेकिन गर्माहट-सी नहीं थी। शायद दोनों को पिछली मुलाक़ात याद भी नहीं आई। वो दुराव भी याद नहीं था। इस बार मिले तब भी दोनों ही तरफ हल्की-हल्की झेंप थी... नए को लेकर संकोच था। लेकिन हमउम्र थे, इसलिए ये संकोच, झेंप और ठंडापन ज्यादा देऱ ठहर नहीं पाया और दोस्ती हो गई। बचपन किसी भी ‘कल’ को लाद कर नहीं चलता है, उसके लिए हर दिन पहला दिन होता है, शायद इसीलिए वो बेफिक्र होता है...। बड़ों की बातचीत से दोनों ने एक तथ्य जाना कि कनु उम्र में नॉडी से बड़ा है। नॉडी ने उस तथ्य को हवा में उड़ा दिया... क्योंकि उसे ‘छोटा’ होना मंज़ूर नहीं था और कनु ने उसे तुरंत लपक लिया, क्योंकि उसे बहुत दिनों बाद ‘बड़ा’ होने का मौका हासिल हुआ। थोड़ी देर झेंप के खेल के बाद दोनों ने एक-दूसरे से दोस्ती कर ली और साथ खेलने लगे। अब दो हमउम्र बच्चे साथ खेलेंगे तो झगड़ेंगे भी... तो थोड़ी ही देर बाद दोनों के बीच झगड़ा भी हो गया... वज़ह थी बड़ा होना...। कनु ने तो अपनी पसंद का सच लपक लिया था कि वो बड़ा है, लेकिन नॉडी उस सच से बचना चाह रहा था, क्योंकि वो भी बड़ा होना चाह रहा था। खैर... बच्चों के झगड़े क्या? अभी झगड़े और बिना किसी प्रयास के दोस्ती भी हो गई... क्योंकि वही... उनके ज़हन में कोई ‘कल’ नहीं ठहरता है।
दोनों के झगड़े की वजह सुनकर सारे ‘बड़े’ हँसे... हँसने की बात ही थी, अब ये कोई बात है कि कौन बड़ा है, इसे लेकर झगड़ा हो... अब भई जो बड़ा है वो बड़ा है और जो छोटा है, वो छोटा है... लेकिन क्या सचमुच हँसने की ही बात थी? सोचने की नहीं... कि क्यों बच्चा, ‘बड़े’ होने का अर्थ जाने बिना ‘बड़ा’ हो जाना चाहता है! जबकि जो बड़े हो गए हैं, वो अपना बचपन याद करते हुए आँहे भरते हैं कि वो दिन भी क्या दिन थे...? कम-अस-कम ये ऐसा तो कतई नहीं है कि जो गुज़र गया है, वो ही खूबसूरत है। फिर क्या वाकई हम बड़े हक़ीक़त में छोटे होना चाहते हैं, जबकि सारी लड़ाई तो हर स्तर पर ‘बड़े’ हो जाने की है। बच्चा बड़ा होना चाहता है, क्योंकि उसे लगता है कि बड़े होने में सत्ता है, जीत है, अधिकार, स्वतंत्रता है। हर ‘छोटा’ बड़ा हो जाना चाहता है, हर लघु विराट् हो जाना चाहता है... और सारा जीवन उसी जद्दोज़हद का हिस्सा बन जाता है। ये बच्चों का भी सच है और बड़ों का भी... बच्चों का सच तो वक्ती है, लेकिन बड़ों का सार्वकालिक, सार्वत्रिक, सार्वभौमिक है।
हम उम्र के तथ्य को जानते हैं तो ओहदे में, प्रभाव में, बल में, अर्थ में, बुद्धि में..., बड़े होना चाहते हैं, और यदि नहीं हो पाते हैं तो किसी ‘बड़े’ के बड़प्पन के छाते के नीचे आ जाना चाहते हैं, क्योंकि जो मनोविज्ञान बच्चे लघु रूप में समझते हैं, हम उसके विराट् रूप को समझ चुके होते हैं। हम प्रभावित करना चाहते हैं, अधिकार चाहते हैं, सत्ता और शासन चाहते हैं और इन्हीं चीजों के लिए हम ‘बड़े’ होना चाहते हैं, ऐसे नहीं तो वैसे... किसी भी तरह से। शायद सारा स्थूल विश्व ‘बड़े’ हो जाने की..., ‘विराट्’ हो जाने की ख़्वाहिश से संचालित होता है। इसी से प्रकृति में गति है, इसी में विकार भी। सिर्फ इंसान ही क्यों प्रकृति भी तो लघु से विराट का रूप ग्रहण करती है। एक पतली-सी धारा नदी में और नदी समुद्र में परिवर्तित होती है, बीज, पौधे में और पौधा पेड़ में बदलता है। कली, फूल में और फूल फल में बदलता है। वीर्य, भ्रूण में और भ्रूण शिशु में बदलता है। बच्चा, किशोर होकर वयस्क और फिर जवान होता है। गोयाकि ‘बड़ा’ हो जाना मात्र ख़्वाहिश ही नहीं, लक्ष्य भी है। या फिर बड़ा होना नियति... क्योंकि ‘विराट्’ विकार भी है और विनाश भी... ।

03/06/2013

जान की कीमत...


बॉक्स की न्यूज थी... हमेशा की तरह फ़र्ज अदायगी को महिमामंडित किया गया था। वीसी शुक्ल के युवा पीएसओ ने ये कहकर आखिरी गोली खुद को मार ली कि बस हम अब आपकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। टीवी और अख़बार लगे हुए हैं, उसके आखिरी शब्दों की जुगाली में। ख़बर तो जाहिर है बहुत बड़ी थी, इतनी बड़ी संख्या में इस देश में राजनीतिक लोगों की मौत कभी हुई ही नहीं... पूरा इतिहास खंगाल लें। तब भी नहीं जब श्रीपेरंबदुर में राजीव गाँधी की आत्मघाती हमले में मौत हुई थी। जबकि वे वहाँ चुनावी रैली को संबोधित करने गए थे और जाहिर है कि उनके साथ वहाँ स्थानीय राजनीतिज्ञों की फ़ौज होगी... लेकिन तब भी इतने राजनीतिज्ञ हताहत नहीं हुए थे, जितने कि सुकमा में हाल ही में हुए नक्सली हमलों में हुए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के बारे में बहुत जानकारी नहीं है, अरे... राजनीति के बारे में ही जानकारी कम है, जबकि इसके बारे में ही सबसे ज्यादा जानकारी होनी चाहिए थी, अब पढ़ा तो यही है ना! कुछ समय पहले अपने प्रोफेसरों से मिलने का 'संयोग' हुआ, अरे सौभाग्य-वौभाग्य कोई बात नहीं है और दुर्भाग्य तो खैर है ही नही... हाँ तो उनसे मिलने के दौरान बहुत सालों बाद बल्कि यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद याद आया कि पॉलिटिकल-साइंस पढ़ा है। शायद राजनीति ने जल्दी ही इससे मोहभंग कर दिया। नहीं पॉलिटिकल-साइंस से नहीं... बल्कि पॉलिटिक्स से... पॉलिटिकल-साइंस तो बहुत सारी चीजों की तरह ही दुखती रग है। खैर तो कहा तो ये जा रहा है कि हालिया नक्सली हमले ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के फ्रंट लाइन नेताओं की बलि ले ली। होगा ही, क्योंकि इस हमले में कांग्रेस के बहुत सारे कद्दावर नेताओं की जान ले ली और इसमें कुछ ऐसे लोगों की भी मौत हुई जो बेनाम है, अनजान और नामामूल किस्म के हैं। ड्रायवर, सहयोगी, सुरक्षा कर्मी आदि-आदि... महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और इसी तरह के बड़े-बड़े नामों के बीच ये गुमनाम लोग। राजनीतिज्ञ तो सारे-के-सारे चुनाव की तैयारियों के लिए वहाँ गए थे, चुनाव जीतते तो कुछ-न-कुछ तो मिलता ही, लेकिन उनके साथ जो लोग मारे गए उनका क्या? उन्हें क्या मिला? क्या मिलता?
ये सवाल बड़ा असुविधाजनक है, कह तो सकते हैं कि बड़ा अहमकाना भी। अरे यही व्यवस्था है, ऐसा ही होता आया है। अरस्तू ने भी तो कहा है कि महत्वपूर्ण काम करने वालों को सहयोगियों (उन्होंने तो खैर बाकायदा गु़लाम कहा था, लेकिन जरा सभ्य हो गए हैं, इसलिए शब्द थोड़े सॉफ्ट कर दिए हैं।) की जरूरत होती ही है। आखिर तो जो वीआईपी होते हैं, वे देश की संपदा होते हैं, व्यवस्था की रीढ़... उनका वज़ूद कितना अहम है वो इस बात से तय होता है कि उनके जीवन के लिए कितने लोग अपना जीवन कुर्बान कर सकते हैं? आखिर आम लोगों की जिंदगी का मतलब ही क्या है? लेकिन ये कौन तय करता है कि किसकी जिंदगी कितनी महत्वपूर्ण हैं और ये अधिकार किसने दिया है, किसको दिया है और किस नाते दिया गया है? पात नहीं ‘जीवन’ के प्रति संवेदना बढ़ गई है, इसलिए या फिर ‘इंसानी जीवन’ के प्रति व्यवस्थागत असंवेदनशीलता कम हुई है, इसीलिए ये सवाल परेशान कर रहा है कि कैसे और क्यों किसी की जान की कीमत कम और किसी की ज्यादा हो जाती है? और ये कीमत कौन तय करता है और उसका आधार क्या होता है? इसलिए कुछ बेवजह के सवाल आकर घेरते रहते हैं... व्यवस्था की क्रूरता की वजह से, आक्रोश पैदा होता है और इसलिए लगता है कि व्यवस्थाएं, अपने लिए सिर्फ ‘बोनसाई’ चाहती हैं... मनुष्यों को अपने हिसाब से कांट-छांट कर बनाने से ही व्यवस्थाएं सर्वाइव करती हैं और हम इतने कंडिशंड हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी नया, कुछ भी गलत नहीं लगता है...?
आखिर क्यों किसी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दें...? जिसके लिए कुर्बानी दी जा रही है, वो इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं कि कइयों की जान उस पर न्यौछावर कर दी जानी चाहिए...! तो क्या ऐसा है कि किसी जिंदगी का मूल्य महज पैसा है? सिर्फ पैसा ही वो वजह होती है, जिसकी वजह से कोई अपनी जान का सौदा करता है और सिर्फ पैसा ही वो वजह है, जिसकी वजह से किसी की जान बहुत सारे लोगों की जान से ज्यादा कीमती हो जाती है। तो फिर मानवता, इंसानियत, लोकतंत्र, समानता और भाईचारा सिर्फ शब्द नहीं रह जाते हैं, खोखले, अर्थहीन और बे-ग़ैरत शब्द। सिर्फ धन वो शब्द नहीं हो जाता है, जिसका अर्थ है! और फिर हमारी सारी संवेदना, ज्ञान, दर्शन, विचार, व्यवस्था, समाज सब कुछ बेमानी नहीं हो जाता है, जब अर्थ ही एकमात्र संचालक नजर आता हो तो... !



13/03/2013

रिश्तों का प्रोटोकॉल... :-)




जानने का क्रम तो हर वक्त चलता ही रहता है, लेकिन हर बार का जानना समझ तक कब पहुँचेगा ये कहा नहीं जा सकता है। अब अंतर्राष्ट्रीय संबंध पढ़ने के दौरान जाना था कि चाहे दो देश युद्धरत हों, लेकिन उनके राजनयिक संबंध फिर भी बने रहते हैं। मतलब दो देशों के बीच युद्ध चल रहा है, लेकिन राजदूत दूसरे देश में उसी तरह कार्य करते रहते हैं, जैसे शांतिकाल में काम करते हैं।
डिप्लोमेसी के प्रोटोकॉल के तहत राजदूतों की वापसी संबंध खत्म होने का संकेत है। मतलब ये कदम बहुत गंभीर स्थितियों में ही उठाया जाता है। युद्ध से भी ज्यादा गंभीर है राजदूतों को वापस बुला लिया जाना... एक तथ्य था, जिसे जस-का-तस ग्रहण कर लिया।


ननिहाल चूँकि शहर से बाहर था, इसलिए ताईजी का मायका ही हमारा ननिहाल हुआ करता था। उस पर वहाँ थे हमउम्र बच्चे... अब ये अलग बात है कि ताईजी को लगता था कि मुझे छोड़कर दुनिया में हर बच्चा बदमाश है और मुझे परेशान करना हर बच्चे का एक-सूत्री कार्यक्रम ही है। इसलिए वे अपने भतीजों-भतीजियों से-जो कि मेरे हमउम्र हुआ करते थे और इसलिए उनके साथ खेलने का लालच भी हुआ करता था-दूर ही रखती थीं।
खैर थोड़े-थोड़े बड़े हुए तो सारों में ही जैसे समझ आ गई और लड़ाई-झगड़े कम हो गए। ताईजी को भी यकीन हो गया कि सारे बच्चों ने अपने कार्यक्रम में तब्दीली कर ली है, सो अब गाहे-ब-गाहे हम ‘मामा’ के घर में ही रहने लगे। तीन मंजिला मकान के हर फ्लौर पर एक परिवार रहता था... तीन भाईयों का परिवार जो था... आने-जाने का रास्ता एक ही था, इसलिए वैसा ‘सेपरेशन’ नहीं था, जैसा कि फ्लैट्स में हुआ करता था। फिर इतने सारे बर्तन थे तो हर दिन खड़कने की आवाजें आया करती थी। ‘छोटे’ बर्तनों के खड़कने से ज्यादा आवाज़ तो ‘बड़े’ बर्तनों के खड़कने की आया करती थी, लेकिन छोटों की दुनिया पर उसका कोई असर नहीं हुआ करता था।
खिचड़ी सारे बच्चों की पसंदीदा डिश हुआ करती थी। और ये तय था कि जिसके भी घर में खिचड़ी बननी हैं, सारे बच्चे उसी घर में धावा बोलेंगे। और ऐसा मंजर बहुत बार पेश आया कि किसी के घर में खिचड़ी खाने के लिए बच्चे जमा हुए हैं, बच्चे बहुत प्रेम औऱ चाव से खिचड़ी खा रहे हैं, लेकिन बच्चों की माँओं के बीच जमकर तकरार हो रही है। मतलब बच्चे एक-दूसरे को छेड़ भी रहे हैं, थाली में से मूँगफली के दाने या फिर मीठे अचार की फाँके चुराकर खा रहे हैं और मीठी-मीठी लड़ाईयाँ भी कर रहे हैं, लेकिन बड़ों की तकरार के प्रति बिल्कुल उदासीन है।

बचपन का ये किस्सा और फिर यूनिवर्सिटी में पढ़ा सबक….. ये समझ के किस सूत्र तक ले जा रहे हैं? डिप्लोमेसी ये कहती है कि संवाद हर सूरत में कायम रहना चाहिए... तमाम युद्धों और खराब हालात के बावजूद... क्योंकि बात से ही बात निकलती है। ये सूत्र व्यक्तिगत रिश्तों से लेकर देशों के बीच के रिश्तों पर भी समान रूप से लागू होती है। कह लें, निकाल लें मन की भड़ास... फिर बढ़े आगे... यदि रिश्ता बनाए रखना चाहते हैं तो... चुप रहने से गड़बड़ाते हैं रिश्ते, घुट जाती हैं भावनाएं और बंद हो जाते हैं, एक-दूसरे की ओर जाने वाले रास्ते... फिर...!





06/03/2013

चलो बनाएँ अपना स्वर्ग




‘‘यदि ईश्वर ने ही औरतों के लिए यह जीवन रचा है तो फिर कहना होगा कि आपका ईश्वर सामंतवादी पुरुष है...’’ -जब ये कहा था उसने तो कई लोगों ने उसे घूरकर देखा था... माँ ने भी। जाहिर है ये ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की कथित नीतियों पर ‘अन्याय’ का आरोप था। और ईश्वर पर आरोप कतई-कतई सह्य नहीं है।
धीरे-धीरे जब उसने समाज को और बारीकी से जानने की कोशिश की तो उसे लगा कि धर्म के बहाने हर कहीं औरतों को मर्यादा, शालीनता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण की हिदायतें दी जाती हैं, पालन करने के लिए कभी दंड की धमकी, तो कभी आदर्श होने का प्रलोभन... हो सकता है ये विचार सख्त महिलावादी लगे लेकिन वो इस तरह से सोचती है क्या किया जा सकता है?
उसे नजर आता है कैसे लड़कियों को अच्छी लड़की बनने के लिए किस तरह से उदाहरण दिए जाते हैं। क्यों सावित्री-सत्यवान और रति-कामदेव की कथाएँ कही जाती है, क्यों लक्ष्मी-विष्णु के हर केलैंडर में लक्ष्मी, विष्णु के पैर दबाती नजर आती है... क्यों सीता-त्याग को राम की मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि से महिमामंडित किया जाता है? क्यों कृष्ण राधा को छोड़कर चले जाते हैं... वो प्रेम तो एक शादीशुदा महिला से कर सकते थे, लेकिन विवाह नहीं कर सकते थे... वो सोचती है, क्यों...? जवाब था एक ही... ‘ईश्वर सामंतवादी पुरुष है।’ लेकिन एक दिन उसे लगा कि जिसे हम ईश्वर समझते हैं, दरअसल वो तो बड़ी दुनियावी कल्पना है... ईश्वर तो निराकार, निर्विकार है... यदि है तो...। तो अब तक ईश्वर के नाम पर जो कूड़ा-कबाड़ फैला हुआ है, वो तो इंसान की ‘लीला’ है। मतलब... कि ये सारा जो ईश्वर के नाम पर धर्म में हुआ करता है, वो सब तो इंसानी करामात है...कुछ पूर्वाग्रही, कुछ पीड़ित और बहुत सारे षडयंत्रकारी पुरुषों के पूर्वाग्रह, कुंठा और षड़यंत्र... मामला साफ तब हुआ जब उसने वर्तमान में विचारों के जंजाल और बचपन की स्मृति के निहितार्थों के बीच संबंध स्थापित किया।
याद तो नहीं कि किस धार्मिक ग्रंथ के चित्र उसे दिखाए जाते थे, लेकिन उसमें छपे वे चित्र उसे अब भी उसी तरह याद है, जैसे उसने उस किताब में अपने बचपन में देखें थे। नर्क के फोटो... एक ही पेज पर कभी तीन तो कभी चार फोटो... ले-आऊट भी बड़ा अटपटा...। किसी फोटो में कुछ राक्षस जलती भट्टी के आसपास खड़े हैं और भटटी पर बड़े से कड़ाह में तेल गर्म हो रहा है। उसमें कोई मनुष्य पड़ा रो रहा है... वो कल्पना करने की कोशिश किया करती थी कि उस गर्म तेल से कितनी जलन हो रही होगी..., फिर किसी में मनुष्य को सुए चुभोए जाते हुए भी दिखाया गया था और भी कई... उन फोटो में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नजर नहीं आता था... गोयाकि नर्क तो दोनों के लिए एक-सा ही था। और स्वर्ग... ? ये सवाल जब उसने बचपन में ही किया था तो जवाब देने वाला गफ़लत में आ गया था। स्वर्ग उसमें ठंडी-ठंडी हवाएँ बहती है, झरने बहते हैं, खूबसूरत फूल खिलते हैं, मद्य (सीधे कहते हुए भावना अकड़ी जाती है- दारू...) और सुंदरी...। उसने मान लिया, लेकिन उस दिन जब उसने कड़ियाँ जोड़ी तो सवाल उठा – ‘ये सब तो पुरुषों के लिए हैं, हम महिलाओं के लिए स्वर्ग कैसा है।’ जवाब था ही नहीं तो मिलता कैसे...? बस यहीं से उसके दुख शुरू हो गए। महिलाओं के लिए तो स्वर्ग है ही नहीं, मतलब उसके लिए तो दोहरा नर्क है... एक जो धार्मिक कथाओं में है और दूसरा ‘पृथ्वीलोक’... ‘मृत्युलोक’...। तो नर्क में तो कोई अंतर नहीं है, हाँ अघोषित रूप से स्वर्ग तो सिर्फ पुरुषों के लिए ही है...।

तो आजकल वो लगी है, स्त्रियों के लिए स्वर्ग का ‘कंसेप्ट’ बनाने में... आइए जरा उसकी मदद कीजिए... ।

22/09/2012

छोड़कर जाओ तो आहत होता है घर



शाम होते ही तुम्हें घर लौटने की जल्दी क्यों मची रहती है?
...........................
बोलो....
पता नहीं, बस लगता है कि घर बुला रहा है।
घर... बुला रहा है। - उसने दोहराया था, थोड़ी खीझ और बहुत सारे आश्चर्य के साथ। हाँ...। – मैंने बड़े अनमनेपन से जवाब दिया था। उसकी खीझ और भी बढ़ गई थी। अभी लिस्ट का बहुत सारा सामान लिया जाना बाकी है और मैं घर चलो-घर चलो की रट लगाने लगी थी। अजीब भी लग रहा था, लेकिन एकदम से बाजार से उकता गई थी। शोर-शराबा, लाइट, भीड़, ट्रेफिक... बस मेरा सिर घूमने लग गया था। अजीब तो लग रहा था, ये बचपना, लेकिन... मैं बेबस थी, बेचैनी तीखी होने लगी थी। बहुत देर तक अपने संकोच में लिपटी रही थी। जब उस चौराहे के बंद सिग्नल के उस पार खड़े सेब के ठेले से सेब खऱीदने की बात आई थी... मन मसोस कर रह गई थी। फिर आगे चलकर मॉल के पार्किंग में गाड़ी लगी तो मन में हौल उठा था, अभी और देर से घर जाएँगे...। फिर एक आउटलेट से दूसरे आउटलेट के चक्कर... बस धैर्य जवाब दे चुका था। घर चलें, पहले बहुत विनम्रता से... जवाब भी उसी विनम्रता से मिला था। हाँ... बस चलते हैं।
फिर हर पाँच मिनट बाद – घर चलें... घर चलें की रट्ट... खीझ गया था वो। यार... छुट्टी वाले दिन तुम घर से निकलना नहीं चाहतीं, घर पहुँचकर निकलने में तुम्हें परेशानी है, ज्यादा देर बाजार में काम करें तो तुम्हें परेशानी है, ऐसे कैसे चलेगा? उसने अपने सारे धीरज को समेटकर सवाल किया था। उस धीरज से मेरे आँसू निकल आए थे। फिर शायद उसे थोड़ी सहानुभूति हुई थी। चलो, चलते हैं... बाकी की चीजें कल-वल खरीद लेंगे।

घर लौट तो आए थे, लेकिन एक बोझ-सा बना रहा था। खरीदी दीपावली के लिए हो रही थी, आज शनिवार था तो चाहे कितनी भी देर तक बाजार करते रहो चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन मन का क्या करें। खाना खाने के बाद अपनी पसंद की नींबू चाय बनाई थी, बालकनी में पड़े स्टूल पर रखी और उसका हाथ पकड़कर ले आई थी, जो टीवी पर कोई बकवास-सी हॉलीवुड की फिल्म देख रहा था। मैंने अपराध-बोध से ग्रस्त थी, ट्राय टू अंडरस्टैंड मी... बॉलकनी से दूर क्षितिज पर झुकते आसमान को देखते हुए कहा था। उसकी आँखों में सवाल उभरा था... – क्या?

मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ समेटते हुए बात शुरू की थी - शाम होते-होते मुझे हमेशा ही घर की याद आने लगती है... यूँ लगता है कि बाहर निकलते हुए खुद का कोई हिस्सा रह जाता है घर में ही। और शाम होते-होते उसे मेरी और मुझे उसकी याद आने लगती हो... या... पता नहीं क्या... शायद पिछले जन्म में पंछी रही होऊँ... नहीं, मुझे यकीन नहीं अगले-पिछले जन्म में। इस पर यकीन करो तो बहुत सारे दूसरे यकीन भी करने पड़ते हैं, और फिर जिंदगी जैसे यकीनों का सिलसिला बन जाती है, फिर उन यकीनों से जुड़े सवालों से भी जूझना पड़ता है। ये तो बस यूँ ही... उतरता सूरज, ना जाने क्या-क्या लेकर आता है और खिंचता रहता है, हमेशा घर की ओर... अब दुनिया में है तो दुनियादार तो होना ही हुआ, सो हुए, घर-बाहर, दोस्त-रिश्तेदार, हारी-बीमारी, जन्म-मरण-परण... बहुत कुछ है जो घर से बाहर ले जाता है...लेकिन पंछी की मन लेकर जो पैदा हुए कि शाम होते घरोंदा ही याद आता रहा है। खुद को देखूँ तो उस सवाल का जवाब ही नहीं मिलता कि हम बाहर जाने के लिए शामों को ही क्यों चुनते हैं? जबकि घर से डूबते सूरज को देखो तो एक करूणा जागती है, वो भी हमारी ही तरह अपने घर लौट रहा है... बेचारा... दिन भर का थका-हारा, तपता-जलता, झुलसता-झुलसाता। जब कभी बाहर से घर लौटों तो महसूस होता है कि घर बहुत अनमना-अनमना-सा है, उसमें कोई जुंबिश नहीं है, कोई हरकत, कोई हरारत नहीं है, वो बिल्कुल ठंडा और बेजान है, निर्जीव...। अब बोलो भला घर कोई जीव है क्या? – मैं खुद ही सवाल करती जा रही थी और खुद ही जवाब भी दिए जा रही थी... वो बस मुझे बोलते देख रहा था। वो अक्सर कहता है कि तुम जब बोलती हो तो ऐसा लगता है कि शब्द झर रहे हैं... कई बार मैं बस उन्हें झरते देखता रहता हूँ, उनके अर्थों तक नहीं पहुँच पाता... मैंने अपनी बात जारी रखने के लिए थोड़ा वक्त लिया। जब उसने प्रश्नवाचक निगाहें छोड़ी तो फिर कहना शुरू किया - पता नहीं कितने बचपन से मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा है कि घर को छोड़कर जाओ तो वो नाराज हो जाता है। बहुत देर तक वो संवाद नहीं करता, कहीं हाथ नहीं रखने देता है, अनमना-सा रहता है और थोड़े-थोड़े अंतराल में वो अपनी नाराजगी जाहिर करता रहता है। पता नहीं किसी और के साथ ऐसा होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ हमेशा ही घर का ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब कभी बाहर से लौटकर घर आओ तो घर स्वागत नहीं करता है, अलगाया-सा बना रहता है, अजनबी और पराया-पराया-सा...बड़ी मुश्किल और मशक्कत करने के बाद वो सुलह करता है, इसीलिए बचपन से ही मुझे घर को नाराज करने में डर-सा लगता रहा है, शायद यही वजह रही हो कि मुझे घर से बाहर जाना पसंद नहीं आता... बल्कि यूँ कहूँ कि लौटकर आने पर घर का आहत होना पसंद नहीं है। इसीलिए दुनियादार के अतिरिक्त और कोई वजह नहीं होती कि घर को यूँ अकेले छोड़कर जाया जाए... अपनी छुट्टियों को उसके साथ शेयर करते रहना, उसके गुनगुनेपन में खुद को छोड़ देना, उससे संवाद करना और उसकी ऊष्मा में नहाना पसंद है, इसलिए छुट्टियों में घर से निकलना पसंद नहीं है। मुझे पता नहीं किसी को ये लगता हो या न लगता हो, लेकिन मेरे लिए घर महज भौतिक ईकाई नहीं है, ये मेरे वजूद का अभिन्न हिस्सा है, जो कहीं भी रहो, साथ मौजूद रहता है, किसी-न-किसी रूप में, न हो तो स्मृति के रूप में ही...जो बार-बार अपनी ओर खिंचती है।
मैं थक गई थी, क्योंकि वो चुप था। मैं भी चुप हो गई... लेकिन उसकी चुप्पी से अपराध-बोध और गहरा गया। चाय का आखिरी घूँट लिया और आसमान की तरफ देखते हुए सोचने लगी कितनी कृत्रिम रोशनी है कि तारों की टिमटिमाहट तक नजर नहीं आती। मैं शायद उसके कुछ कहने का इंतजार भी कर रही थी, कुछ विरोध करने सा कुछ। उसने कहा था – हाँ, ऐसा होता तो है, लेकिन मैंने कभी उसे बहुत गंभीर तरीके से नहीं लिया था... होता है ना अमूमन हम अपने भीतर के सूक्ष्म अहसासों के प्रति हमेशा ही लापरवाह और उदासीन बने रहते हैं, वैसा ही... तुम उस बारीक धागे को पकड़ लेती हो, क्योंकि तुम बेहद संवेदनशील हो, लेकिन यदि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ तो सोचो जिंदगी कैसे चलेगी...?
हाँ, जिंदगी कैसे चलेगी... – अनायास ही कह गई थी, लेकिन सच ही था, आखिर दुनिया में रहने के भी तो कुछ कंपल्शंस है ना। उसने मुझे नजर से दुलराया था, मैं आश्वस्त होकर फिर डूब गई थी, खुद में... सुरक्षा की ऊष्मा जो मिली थी।





13/05/2012

.... यहाँ सबके सर पे सलीब है


एक संघर्ष चल रहा है या फिर ... ये चलता ही रहता है, लगातार हम सबके भीतर... मेरे-आपके। इसका कोई सिद्धांत नहीं, कोई असहमति नहीं, कोई समर्थक नहीं, कोई विरोधी नहीं। कोई दोस्त नहीं, कोई दुश्मन भी नहीं। मेरे औऱ मेरे होने के बीच या फिर मेरे चाहने और न कर पाने के बीच। अपने आदर्श और अपने यथार्थ के बीच, बस संघर्ष है, सतत, निःशब्द, गहरा, त्रासद... न जाने कितने युगों से चलता है, चल रहा है, चलेगा। न इसमें कभी कोई जीतेगा और न ही कोई हारेगा। ये युद्ध भी नहीं है, जिसका परिणाम हो, ये बस संघर्ष है, बेवजह, बेसबब, लक्ष्यहीन, इसीलिए इससे निजात नहीं है। ये संघर्ष है आदिम और सभ्य मान्यताओं के बीच, ख्वाहिशों और मर्यादाओं के बीच...। हर मोड़ पर खड़ा होता है, हर वक्त एक चुनौती है, हर वक्त इस संघर्ष से बचा ले जाने का संघर्ष है। यूँ ही-सा एक विचार आता है – ‘हम वस्तु हो जाने के लिए ... एक विशिष्ट ढाँचे में ढ़लने के लिए अभिशप्त है।’ सार्त्र जागते हैं, लेकिन कोई हल वो भी नहीं दे पाते हैं। पता नहीं क्यों लगता तो ये है कि ये संघर्ष हरेक का नसीब है, लेकिन कोई इस तरह लड़ता, लहूलुहान होता नजर नहीं आता...! तो क्या मैं आती हूँ?
क्या कोई ये जान पाता है, कोई कभी ये जान पाएगा कि लगातार हँसते-मुस्कुराते, सँवरते-चमकते से मानवीय ढाँचे के भीतर कोई संग्राम लड़ा जा रहा है, अनंत काल से और लड़ा जाता रहेगा अनंत काल तक...। आप चाहें तो कह सकते हैं, हवा में तलवार घुमाने जैसा कोई जुमला, लेकिन यहाँ तलवार भी कहाँ है। बस एक रणक्षेत्र है और दोनों ओर लहूलुहान होती ईकाईयाँ... भौतिक नहीं है, दिखायी नहीं देती, इसलिए न सहानुभूति है और न ही करूणा। बस अनुभूत होती है, उसे ही जिसके भीतर ये लड़ा जा रहा है। चाहे कोई कितना भी अपना हो, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाता जो होती है, जो साक्षात टीसती है, रिसती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि दुख को समझना अलग बात है और दुख को महसूस करना अलग। मेरा दुख मेरा और तुम्हारा दुख, तुम्हारा है। तुम्हारे और मेरे दुख के बीच कोई संवाद नहीं है, कोई पगडंडी नहीं है, कोई सेतु, कोई सिरा नहीं है। तुम्हें मेरे दुख और उससे उत्पन्न दर्द का अंदाजा नहीं हो सकता है, ठीक वैसे ही तुम्हारी पीड़ा की कोई बूँद मुझ तक पहुँच नहीं पाती।
कोई किसी के रण का भागीदार हो भी कैसे सकता है, कोई भी एक वक्त में दो-दो संघर्ष का हिस्सेदार कैसे हो सकता है... उम्मीद भी क्यों हो – मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल/ यहाँ सबके सर पे सलीब है।
.... और हरेक को अपनी-अपनी सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है :-c

08/04/2012

कई मायनों में इंसान से बेहतर है जानवर....

सुबह जल्दी उठ पाओ तो दिन कितना संभावनाओं भरा हो जाता है... कोई टुकड़ा अपने लिए भी बचाया जा सकता है, किसी में सपने भरे जा सकते हैं और किसी हिस्से को बस यूँ ही हवाओं में उड़ाया भी जा सकता है... उस सुबह का वो ऐसा ही खास समय था। अखबार आस-पास सरसरा रहे थे, लेकिन विचार शून्यता की ही-सी स्थिति थी। निर्विकार भाव से आँखें हरेक चीज का जायजा ले रही थी, लेकिन इसमें न तो कुछ पा लेने की जल्दी थी न कुछ ठीक करना था और न ही कोई उद्विग्नता थी.... चाय के कप, अभी-अभी पढ़कर छोड़े पन्ने-पन्ने रखे हुए अखबार... खुली हुई चादरें, टेबल पर नई सीडी के रैपर, मुँह खोले पड़ा लैपटॉप और रात को पढ़ते-पढ़ते उल्टी कर रख छोड़ी किताब सिरहाने पड़ी थी। खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलस्सुबह की हल्की ठंडक भी... हर चीज जैसे उसी जगह के लिए बनी हुई थी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी, न आगे की योजना थी, वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूँ ही विचार तंद्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। तंद्रा भंग हो गई... नजरें टिक गईं। बँटने के लिए ही तो रोशनी और दिन हुआ करता है। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुँह में कपड़े का छोटा-सा टुकड़ा था, जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। करीब 40-45 सेकंड तक वो उस कोशिश में लगी रही... उसी दौरान एक और गिलहरी वहाँ आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं... ये क्रम भी 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी, वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं... कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियाँ को लेकर, एकबारगी ये विचार आया कि क्यों नहीं इसे कैमरे से शूट कर लिया जाए...! लेकिन कुछ सोचकर इस विचार को स्थगित कर दिया और नजरें पूरी तरह से वहीं गड़ा दी...। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही... फिर एकाएक वो कूलर के अंदर घुस गई और उसने अंदर से उस कपड़े को खींच लिया... मैं हतप्रभ... कितनी योजना, कितना सामंजस्य... कितनी समझ, कितना प्यार... और कितनी बुद्धि। विचारों के प्रवाह को जैसे एक झटका लगा था। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है, कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था...। मान लिया, भूल गए कि बारिश से पहले चींटियाँ अपना खाना जमा करती है, क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है, वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई सारे अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने 1958 में जापान के एक द्वीप पर एक मादा बंदर को आलूओं को धोकर खाते देखा था, बाद के सालों में उन्होंने ये पाया कि वहाँ के बंदरों की अगली पीढ़ी के बच्चों ने भी इसी पद्धति को अपनाया... तो क्या मादा बंदर का नवाचार उसकी बुद्धि का पता नहीं देता है? और क्या उसका अनुसरण जंतुओं में बुद्धि का पता नहीं देती है... ! याद आता है माँ का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बहुत बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊँगलियों औऱ अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते... वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूँढती रहती, कई बार वो हाथ पर चढ़ भी जाती है। कभी इस खेल को आगे बढ़ाने के लिए जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से उससे बाहर निकलने की जुगत लगा लेती... तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती...? बाद में अलग-अलग अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है, प्यार, संवेदना, समझ, अपनापन सब कुछ होता है...। भाषा भी होती है, अब ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के आपसी संबंधों को...। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हम इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है... जैसे बुद्धि...! लेकिन सही है, कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है... जाहिर है, तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी...। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है, और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुँचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश, प्रसार-फैलाव है, जो इस लालच और हवस की ही देन है, तो हुआ ना इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...:-(

15/12/2011

ज़हन और दिल पर क़ाबिज बाज़ार



रात को कितनी ही जल्दी क्यों न करें सोते-सोते 11.30 हो ही जाती है, लिहाजा सुबह जब नींद खुलती है तो सूरज खिड़कियों पर दस्तक दे रहा होता है। कुमारजी श्याम बजा बाँसुरिया सुना रहे होते हैं और चाय के प्याले के साथ सुबह के अखबार हुआ करते हैं, जिनमें ज्यादातर निगेटिव खबरें होती हैं...। लगभग हर सुबह का यही क्रम हुआ करता है। और हर दिन की शुरुआत अखबारों में छपी खबरें और विज्ञापन देखते-देखते मन के उद्विग्न हो जाने से होती है। यूँ लगता है कि या तो दुनियाभर में बस सब कुछ गलत ही गलत हो रहा है या फिर लगता है कि हमारे आसपास बस अभाव ही अभाव है... सुबह पूरी तरह नकारात्मकता से पगी हुई, तो दिनभर का आलम क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
अच्छा खासा बड़ा, खुला, रोशन और हवादार घर है, लेकिन अखबार में छपने वाले फ्लैट के लुभावने विज्ञापन अहसास दिलाते हैं कि साहब आपके पास तो वॉकिंग जोन, स्विमिंग पुल, कम्युनिटी हॉल वाली टाउनशिप में कोई फ्लैट नहीं है औऱ यदि वो नहीं है तो फिर आपके जीवन में एक बड़ा अभाव है। स्लिमिंग सेंटर के विज्ञापनों में एक हड्डी की मॉडल देखकर लगता है कि कमर और पेट पर कितनी चर्बी चढ़ रही है और ब्यूटी पार्लरों के विज्ञापन चेहरे पर उम्र के निशान दिखाने लगते हैं किसी कॉस्मेटिक सर्जन के विज्ञापन पढ़कर चेहरे की सामान्य बनावट में कमी नजर आने लगती है और कभी लगता है कि यदि डिंपल होता तो शायद चेहरा खूबसूरत होता... किसी सेल का विज्ञापन घरेलू सामानों के अभाव को तो कपड़ों के विज्ञापन नए डिजाइन, पैटर्न आदि के कपड़ों का अभाव अलग तरह के मन को उदास करता है, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, म्यूजिक सिस्टम, गाड़ी, एयरकंडीशनर, मोबाइल, लैपटॉप आदि यदि नए भी खऱीदे हो तो लगता है कि टेक्नॉलॉजी पुरानी हो गई है। तो चाहे घऱ के किसी भी कोने पर नजर डालों बस कमियाँ ही कमियाँ नजर आती हैं...। यूँ लगता है जैसे जीवन में कमियों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। कभी-कभी तो विज्ञापन ये भ्रम तक दे डालते हैं कि हो ना हो, हमें कोई-न-कोई बीमारी जरूर है। और ये सिलसिला रूकता ही नहीं, अखबार से शुरू होकर दफ्तर तक और दफ्तर से घर लौटकर रात को टीवी देखने तक ये बदस्तूर जारी रहता है।
घर से दफ्तर के बीच एक पूरा लंबा-चौड़ा बाजार पसरा हुआ है जिनमें सामानों की शक्ल में अलग-अलग आकार-प्रकार-रंग और पदार्थों के सपने टँगे होते हैं। आते-जाते ये सपने आँखों में उतर जाते और जिंदगी बस इन्हीं सपनों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती सी लगती है। चौराहे के सिग्नल पर जब गाड़ी खड़ी थी, तभी पास में मायक्रा आकर रूकी... कितनी खूबसूरत गाड़ी है...! एक ठंडी आह निकली। शो-रूम पर हर दिन आते-जाते मेजेंटा रंग की ड्रेस पर ध्यान अटकता और हर दिन वो सपना जमा होता चला जाता है, बल्कि हर दिन कोई नया सपना साथ आता है। इनमें से कई पूरे किए, लेकिन ये फेहरिस्त कम होने का नाम ही नहीं लेती। इंटरनेट पर सर्फ करो तो पेंशन प्लान से लेकर गर्ल फॉर डेंटिंग तक और डायमंड ज्लैवरी से लेकर निवेश के विकल्पों को सुझाने वाले विज्ञापन... टीवी पर डिटर्जेंट से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक और टीवी से लेकर बैंकिंग तक हर चीज का विज्ञापन शाम का समय खा जाता है... गोया बस हर जगह बाजार लगा हुआ है, खरीदो-बेचो... खरीदो-बेचो...।
कभी-कभी तो अपना आप भी बाजार का ही हिस्सा लगने लगता है। आखिर तो किसी भी वक्त खुद को बाजार से बाहर निकाल पाने की मोहलत ही नहीं मिलती है। हर वक्त कोई न कोई जरूरत की चीज याद आती है, कोई न कोई कमी, कोई न कोई सपना... क्या हम उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिनिधि उदाहरण हैं? कभी-कभी तो लगता है कि सोते-जागते, हँसते-गाते, खाते-पढ़ते... पूरे समय दिमाग पर बाजार ही हावी रहता है। हो भी क्यों न...! यदि हम घर पर भी रहे तो अखबार, टीवी और इंटरनेट हर जगह बाजार पसरा मिलता है। लगता है कि एक पल को भी बाजार से मुक्ति नहीं है। देखते ही देखते बाजार न सिर्फ हमारे घरों तक आ पहुँचा है, बल्कि इसने हमारे उपर कब्जा कर लिया। अब बस खऱीदने और पुरानी चीजों को निकालने के अतिरिक्त और कोई विचार होता ही नहीं है, लगता है कि बस खऱीदो-बेचो, खऱीदो-बेचो यही है जीवन का ध्येय...।
दिसंबर मध्य में जब सर्दी ने अपनी आमद दर्ज करवा दी है। रात में हल्की धुँध-सी महसूस होती है और रजाई की गर्माहट शिराओं को और मेहंदी हसन की किसी अँधेरी खोह से आती आवाज में – मेरी आहों में असर है कि नहीं, देख तो लूँ... के तल दिमाग के तंतु जब शिथिल होने लगे, तब एक होशमंद विचार कौंधा कि बाजार असल में होश पर ही नहीं, बल्कि जहन और दिल तक पर काबिज़ हो गया है तभी एक सवाल उठा तो क्या बाजार से मुक्ति नहीं हैं?
जवाब मेरे पास नहीं है, क्या आपके पास है!

06/11/2011

रास्ते में यूँ ही...!


अपनी गाड़ी खराब होने के दौरान बस के समय को साधने और किसी वजह से बस छूट जाने के बाद बस या ऑटो का इंतजार करना कैसा होता है, ये वो ही समझ सकता है, जिसे ये करना पड़े। जब कभी ऐसा होता तो लगता कि काश कोई महिला अपनी टू-व्हीलर या फिर कार में हमें मुख्य सड़क तक लिफ्ट दे दें, माँगना अपने राम को कभी आया ही नहीं। किसी को अपनी कोई चीज ही दी हो, चाहे उपयोग करने के लिए, उधार (ये तो सिर्फ पैसा ही दिया जाता है) या फिर उपहार में... जरूरत पड़ने पर माँगने में जैसे हमारी ही जान निकल जाती है, तो अब खड़े हुए बस या ऑटो का इंतजार करेंगे, लेकिन लिफ्ट... वो तो नहीं होना। ऐसे ही किसी समय में ये तय किया कि अब अपनी गाड़ी में हम उन महिलाओं और लड़कियों को लिफ्ट देंगे जो हमारे जाने के रास्ते में कहीं भी जाना चाहेंगी। दी तो लड़कों-पुरुषों को भी जा सकती है, लेकिन इसमें बड़ा झंझट है... कई सारे पेंच हैं।
हुआ ये कि जिस दिन ये तय किया उसके बाद कभी ऐसा मौका आ ही नहीं पाया। कभी हम निकले तो बस सामने खड़ी थी, जिसमें चढ़ने के लिए कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती लड़कियाँ इंतजार कर रही थी, तो कभी पूरे परिवार के साथ महिला खड़ी थी, तो कभी एकसाथ इतनी लड़कियाँ खड़ी बतिया रही थी कि उन सारी की सारी को गाड़ी में बैठाने की गुँजाइश ही नहीं थी, कुछ और नहीं तो खुद हमें ही इतनी हड़बड़ी होती थी कि गाड़ी रोककर ये पूछना तक समय जाया करना लगता कि – कहाँ जाना है, मैं छोड़ देती हूँ। देखिए नीयत भी हो, इच्छा भी... लेकिन नसीब...! उसका क्या...?

पता नहीं सब कुछ बड़े आराम से करने, सुबह की पूरी दिनचर्या को विलासिता के साथ शब्दशः निभाने और फेसबुक पर लपककर जुगाली करने के बाद भी जल्दी तैयार हो गई। लगा कि आज गाड़ी को भी थोड़ा दुलरा दिया जाए। धूप खासी थी फिर भी कपड़े का एक झटका इधर मारा, एक झटका उधर मारा और ऊब होने लगी तो लगा कि सेल्फ मारे और चलें काम पर। भई देर से जाओ तो शर्मिंदा होओ... जल्दी जाने में कैसी शर्म...? वहाँ पहुँचकर थोड़ा पढ़ने का समय ज्यादा मिल जाएगा। तो दफ्तर के लिए निकल पड़े। आज... हुई मन की...। मुख्य सड़क पर एक दुबली-पतली, छोटे कद की लड़की जींस-टीशर्ट पहने, सिर सहित मुँह को स्कार्फ से ढँके खड़ी थी... हमने गाड़ी रोकी और फिल्म चढ़े दूसरी तरफ वाले शीशों के अंदर से झाँका... लेकिन लड़की ने तो कोई भाव ही नहीं दिया। हम थोड़े आहत हुए, लेकिन तुरंत ध्यान आया... उस बेचारी दिखाई ही नहीं दे रहा होगा... तो थोड़ा झुककर शीशा उतारा... – कहीं छोड़ दूँ? आवाज तो क्या पहुँच रही होगी... बस उसने ही कुछ अपने से समझ लिया... वो करीब आई... मुस्कुराई और कुछ बुदबुदाई। जैसे उसने मेरी बात बिना सुने समझ ली... मैंने भी समझ ली...। दरवाजा खोला और वो अंदर आ बैठी। थोड़ी सकुचाई-सी वो बैठी रही...मैंने पूछा पढ़ती हो (क्योंकि स्कार्फ से चेहरा ढँका होने पर उसका स्टेट्स कि काम करती है या पढ़ रही है, पता नहीं चलता है, फिर बात करने के लिए कोई तो बात हो...)?
उसने कहा – हाँ।
मैंने पूछा – कहाँ?
उसने जवाब दिया – जीडीसी...
ओह तो फिर तो मैं तुम्हें वहाँ तक छोड़ सकती हूँ। वो तो मेरे ऑफिस के रास्ते में ही है। - मैंने उत्साह में आकर कहा।
उसने कहा – मुझे लगा कि आपको दूसरी तरफ जाना होगा।
कहाँ रहती हो से लेकर, क्या पढ़ रही हो तक की सारी बातें हुई। मैंने उसका नाम भी पूछा, लेकिन उसने सिर्फ मेरा सरनेम पूछा और ब्राह्मण पाकर कुछ खुश भी हुई (स्कार्फ बँधे होने की वजह से उसका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उसकी आवाज की चहक से मुझे ऐसा अनुमान हुआ)। एक-दो बार मन हुआ कि उससे कहूँ कि अब तो गाड़ी के अंदर हो, स्कार्फ हटा सकती हो... लेकिन कह नहीं पाई। उसका कॉलेज आ चुका था, अब तक भी उसने स्कार्फ नहीं हटाया था। गाड़ी रूकी तो उसने कहा – थैंक्स मैम, नाइस टू मीट यू...।
मैंने भी उसे कहा – सेम हियर... बाय। वो कॉलेज के अंदर चली गई और मैं अपने रास्ते... । विचार चल रहा था, यही लड़की यदि अगली बार कहीं मिली, चाहे स्कार्फ के साथ या फिर बिना स्कार्फ के... मैं उसे नहीं पहचान पाऊँगी...। फिर सवाल उठा कि मैं उसे पहचानना ही क्यों चाहती हूँ। कभी... दिखे तो लगे कि किसी दिन इस लड़की को मैंने उसके कॉलेज छोड़ा था...। फिर प्रतिप्रश्न – और ऐसा क्यों चाहती हो...? कोई जवाब नहीं मिला...। फिर इन कबाड़ से सवाल जवाब में से एक नायाब निष्कर्ष निकला। ‘अच्छा ही हुआ जो लड़की ने अपना स्कार्फ नहीं हटाया। यदि भविष्य में वो कहीं मिली तो पहचान का कोई चिह्न ही नहीं होगा, मेरे पास इससे ये अहसास भी नहीं होगा कि कभी इसे इसके कॉलेज तक लिफ्ट दी थी...कोई बेकार का अहंकार भाव नहीं उभरेगा... वाह!’ कुछ ऐसा लगा जैसे बाल कटवाने पर, या फिर हर दिन ले जाने वाले बैग की सफाई कर बेकार चीजों को निकाल दिया हो, या फिर कमरे या अलमारी की सफाई कर कबाड़ निकाल दिया हो और सब कुछ हल्का, खुला-खुला और बड़ा-बड़ा-सा लग रहा हो।
फिर विचार उठा, लेकिन वो तो मुझे पहचानती है ना...! हाहाहा.... तो ये उसकी समस्या है:-)

27/10/2011

पता होता है तो घर खो जाता है...!


तथ्य तो ये है कि कार्तिक आधी उम्र जी चुका है, लेकिन सत्य यह है कि अभी तक तो क्वांर ही नहीं बीता... तो निष्कर्ष यूँ कि जरूरी नहीं है कि जो तथ्य हो वो सत्य हो ही और ये भी जरूरी नहीं है कि जो सत्य हो, उसमें तथ्य हो ही... ऊ हूँ... बात जरा मुश्किल हो रही है। थोड़ा आसान करके समझें... दीपावली से पहले सारे आर्थिक सर्वेक्षण ये गा रहे हैं कि देश में गरीबी कम हुई है लेकिन करीब बन रही कॉलोनी के सारे चौकीदार साल की इस सबसे अँधियारी रात को एक-एक दीए से रोशन करने की कोशिश में लगे हैं... कारण... इससे ज्यादा तेल जलाने की उनकी कुव्वत भी नहीं है और साहस भी नहीं है... तो तथ्य ये कि गरीबी कम हो रही है और सत्य ये कि गरीब तो वहीं के वहीं है, वैसे के वैसे ही... अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा है, छोड़िए... कुछ और बात करते हैं।
हाँ तो कार्तिक की खुनकभरी सुबह-शाम चाय का गर्म प्याला अभी तक खुले में ही मजा दे रहा है। सुबह की चाय अखबार की उबाऊ और अवसाद देने वाली खबरों के साथ और शाम की चाय आखिरी सिरे पर दिन भर की जुगाली के साथ...। तो उस शाम हमारी चाय में परिवार के और लोग भी शामिल हुए... तमाम दुनिया जहान की बातों के बीच न जाने कहाँ से वो रहस्यमयी खुशबू सरसराती हुई घुस गई... अरे... ये तो रातरानी की खुशबू है, हमने आश्चर्य जताया, लेकिन हमने तो अभी तक रातरानी लगाई ही नहीं, तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है। हमारे आसपास बहुत किफायती लोग रहते हैं, ना तो जमीन बेकार छोड़ी और न ही किसी मुँडेर पर कोई गमला नजर आता है... पानी की भी किफायत और जमीन की भी... पैसों की तो खैर है ही...। तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है...? घर के आसपास लगे पौधों में जाकर सरसरी तौर पर देख भी लिया, लेकिन शाम के धुँधलके और पेड़-पौधों के गुँजलक में क्या रातरानी दिखे, फिर जब अभी तक लगाई ही नहीं है तो होने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
किचन में सिंकती रोटी के साथ फिर से वही मादक और जंगली-सी सुगंध... रात के खाने के बाद टहलते हुए भी फिर वही... उफ्...! अब तो कॉलोनी छोड़कर सड़क पर टहलो तो वहाँ भी... जैसे वो सुगंध हमारा ही पीछा कर रही है। मुश्किल ये है कि दिन के उजाले में वो खुशबू नहीं होती कि उस बेल का पता मिले और शाम के धुँधलके में जब खुशबू का पता होता है तो वो घर ही खो जाता है। पिछले 15 दिनों से यही लुकाछिपा का खेल चल रहा है, लेकिन न रातरानी की खुशबू हारी और न ही हमें जीत मिली... फिर एक दिन सोचा कि क्यों न रातरानी को लगा ही लिया जाए, अब उसे लगाया तो है, लेकिन उसे फूलने में वक्त है... पर, ये खुशबू...! उफ्.. तो लब्बोलुआब ये है कि रातरानी हमारे आसपास नहीं है ये तथ्य है, लेकिन उसकी खुशबू सत्य... तो क्यों न उस खुशबूदार सत्य से रिश्ता रखें... रातरानी के तथ्य का फायदा क्या है? शायद अब सत्य-तथ्य की गुत्थी समझ आए...!

22/10/2011

नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो लें...


पता नहीं वो सपना था या विचार... रात के ऐन बीचोंबीच एक तीखी बेचैनी में मैंने अपने शरीर पर पड़ा कंबल फेंका औऱ उठ बैठी। चेहरे पर हाथ घुमाया तो बालों की तरफ से कनपटी पर आती पसीने की चिपचिपाहट हथेली में उतर आई। सिर उठाकर पंखे की तरफ देखा, फुल स्पीड में चलते पंखे ने अपनी बेचारगी जाहिर कर दी...। सिरहाने से पानी का गिलास उठा लिया, एक ही साँस में उसे पूरा गले में उँडेल लिया... लेकिन कुछ अनजान-सा अटका हुआ है, जो किसी भी सूरत में नीचे नहीं जा रहा है। सुबह-शाम-दिन-रात एक अपरिचित बेचैनी है, बड़ी घुटन। सबकुछ अपनी सहज गति से चल रहा है, लेकिन कहीं-कुछ चुभता है, गड़ता है और परेशान कर रहा है। थोड़ी कोशिश की तो नींद आ ही गई ... हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगें, अभी कुछ बेकरारी है, सितारों तुम तो सो जाओ...। सुबह फिर उसी बेचैनी में नींद खुली थी, उनींदी आँखों से घड़ी को देखा तो सात बजने में बस कुछ ही देर थी... पंखे की हवा ठंडी लग रही थी, लेकिन सोचा बस बिजली गुल होने ही वाली है... दिमाग के गणित से निजात कहाँ...?
चॉपिंग बोर्ड पर हाथ प्याज काट रहे हैं, लेकिन दिमाग का मेनैजमेंट जारी है। सब्जी छोंकने के दौरान ही दाल पक जाएगी और उसी गैस पर फिर चावल रख दूँगी। सब्जी बनते ही दाल छौंक दूँगी... दस बजे तक सारा काम हो ही जाएगा। फिर दो-चार पन्ने तो किताब के पढ़ ही पाऊँगी, आज नो इंटरनेट... बेकार समय बर्बाद होता है। कड़ाही में मसाला भून रहा है, लेकिन दिमाग में अलग ही तरह की खिचड़ी पक रही है। आज भी पुल से नहीं जाना हो पाएगा... अखबार में ही तो पढ़ा है कि यहाँ किसी पोलिटिकल पार्टी की आमसभा है, तो जाम की स्थिति बनेगी...। रिंग रोड से जाना ही सूट करता है। हालाँकि इस रोड पर बहुत गड्ढे हैं, लेकिन कम से कम जाम... अदिति कहती है कि तुम्हें मेडिटेशन करना चाहिए... लेकिन दिल और दिमाग दोनों को साध पाना क्या आसान है, खासकर तब जब दोनों की गति हवा की तरह हो... वो कहती है कि किसी को इतना हक नहीं देना चाहिए कि वो आपको दुख पहुँचा सके... उफ्! भूल गई... कहीं पानी ओवरफ्लो तो नहीं हो रहा है। दौड़कर देखा, बच गए। आखिरकार हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा पानी, बिजली, ईंधन औऱ पर्यावरण पर...। लेकिन क्या इतने अनुशासन के बाद जीवन में रस बचा रहेगा। तो क्या अनुशासन को उतार फेंके जीवन से...? फिर से सवाल...।अदिति का कहना सच है, जो भी दिल के करीब आता है, जख्म बनके सदा... तो क्या करें...? दिल के दरवाजे बंद कर के रखें! ... कितने दिनों से एक ही किताब पढ़ रही हूँ, आखिर इतनी स्लो कैसे हो सकती हूँ... मसाला तेल छोड़ने लगा है, लेकिन प्रवाह सतत जारी है, मशीन का बजर बज गया। घड़ी ने साढे़ दस बजा दिए। ना तो इंटरनेट हो पाया और न ही किताब के पन्ने पलटे गए। सोचा था आज साड़ी, लेकिन अब समय नहीं है, सूट... पिंक... नहीं यार आज मौसम अच्छा है, कोई तीखा रंग। सिल्क... पागल हो क्या? मौसम कितना खराब है, दिन भर घुटन होती रहेगी... फिर... कोई सूदिंग-सा कपड़ा... कॉटन...। दिमाग ने सारी ऊर्जा सोख ली... अभी तो दिन बाकी है।
यार दो ही भाषा आती है, कितना अच्छा होता पाँच-सात भाषाएँ जानती... तो कितना पढ़ पाती, जान पाती, समझती और महसूस कर पाती...। उफ्...! अदिति कहती है कि - कितनी भूख है यार तेरी... बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...। कहीं तो लगाम लगानी ही पड़ेगी ना...! कोई न कोई नुक्ता तू ढूँढ ही लाती है दुखी होने के लिए... छोड़ इस सबको... जीवन को उसकी संपूर्णता में देख...। काश कि वो मुझे वैसे दिख पाता...। – ओ...ओ... अभी बाइक से टकराती... ये दिमाग पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता फिरता है। उफ्... आज फिर किताब घर पर ही रखी रह गई। ले आती तो एकाध पन्ना पढ़ने का तो जुगाड़ भिड़ा ही लेती...। कब तक फिक्शन ही पढ़ती रहूँगी, कभी कुछ ऐसा पढूँगी जो नॉन-फिक्शन हो...। अरे... अभी तो पढ़ी थी वो डायरी...। हाँ, वो है तो नॉन फिक्शन...।

खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट ने एक बार फिर ध्यान खींचा और मैंने पर्दा खींचकर उस रोशनी को बाहर ढकेल दिया। आँखों के सामने अँधेरा घिर आया... अंदर-बाहर बस अँधेरा ही अँधेरा... कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। कई-कई रातों से नींद के बीच कुछ-न-कुछ बुनता हुआ-सा महसूस होता है, लगता है जैसे नींद भी कई-कई जालों में फँसी हुई है। लगता है कि कोई ऐसा इंजेक्शन मिल जाए, जिसे सिर में लगाएँ और रात-दो-रात गहरी नींद में उतर जाएँ...। कुछ अजीब से परिवर्तन हैं – संगीत सुहाता नहीं, डुबाता नहीं... सतह पर ही कहीं छोड़ जाता है, प्यासा-सूखा और बेचैन... किताबें साथी हो ही नहीं पा रही है, वो छिटकी-रूठी हुई-सी लगती है। कुछ भी डूबने का वायस नहीं बन रहा है... ना संगीत, ना किताबें और न ही रंग... क्यों आती है, ऐसी बेचैनी, क्यों होता है सब कुछ इतना नीरस और ऊबभरा... ? ऐसी ही बेचैनी में उठकर अपने स्टूडियो में आ खड़ी होती हूँ। जिस कैनवस पर मैं काम कर रही हूँ, उसके रंग देखकर ताज्जुब हुआ... कैसे पेस्टल शेड्स दाखिल हो गए हैं, जीवन में...! हल्के-धूसर रंगों को देखकर हमेशा ही कोफ्त होती रही है, लेकिन मेरे अनजाने ही वे रंग मेरे कैनवस पर फैल रहे हैं... उफ् ये क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है, क्या है जो बस धुँआ-धुँआ सा लगता है, कुछ भी हाथ नहीं आ रहा है।
दिल को शोलों से करती है सैराब, जिंदगी आग भी है पानी भी... आज तो बस शोलें ही शोलें हैं... तपन है तीखी। अदिति कहती है कि तुम्हें बदलाव की जरूरत है... बदलाव कैसा...? कहती है एक ब्रेक ले लो... ब्रेक... किससे... खुद से, यार यही तो नहीं हो पाता है। खुद को ही कभी अलग कर पाऊँ तो फिर समस्या ही क्या है...? कितनी दिशाओं में दौड़ रही हूँ, खींचती ही चली जाऊँगी और अपने लिए कुछ बचूँगी ही नहीं....। कहीं कोई मंजिल नजर नहीं आ रही है... दौड़ना और बस दौड़ना... क्या यही रह गया है जीवन... ? कहीं किसी बिंदू पर आकर निगाह नहीं टिकती है, अजीब बेचैनी है... स्वभाव में, विचार में, जीवन में तो फिर निगाहों में कैसे नहीं होगी? पढ़ने के दौरान कई सारे पैरे पढ़ने के बाद भी मतलब समझ नहीं आता... लगता है कि एकसाथ कई काम करने हैं और फिर तुरंत लगता है कि क्या करना है और क्यों करना है?
रफी गा रहे हैं – तल्खी-ए-मय में जरा तल्खी-ए-दिल भी घोले/ और कुछ देर यहाँ बैठ ले, पी ले, रो ले...। चीख कर रोने की नौबत आने लगी थी... मुँह को हथेली से दबाया और खुद को चीखने की आजादी दे डाली... एक घुटी हुई सी चीख निकली और फिर देर तक सिसकियाँ... गज़ल चल ही रही थी – आह ये दिल की कसक हाय से आँखों की जलन/ नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो ले... गहरी... मौत की तरह की अँधेरी नींद की तलब लगी थी... शायद मैं भी सो गई थी...

04/10/2011

...क्या फिर कारखानों में उत्पादित होगी बेटियाँ...!


कागज के उस छोटे-से टुकड़े ने जैसे पूरे घर में तूफान ला दिया था। टेबल पर पड़े उस कागज को सभी ऐसी नजर से देख रहे थे जैसे वो कोई बम है और उसके फटते ही सब कुछ खत्म हो जाएगा। लक्ष्मी देवी का चेहरा तो जैसे दहक रहा था, राधिका को ये समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्यों लग रहा है कि उससे कोई भारी अपराध हुआ है, लक्ष्मी देवी, सुरेश जी और अमोल सभी जैसे उससे नाराज है और वो खुद भी…, लेकिन बहुत सोचने के बाद भी वो खुद समझ नहीं पा रही है कि आखिर उसका अपराध क्या है?
लक्ष्मी देवी दहाड़ी थी – हमें ये नहीं चाहिए। तू कल ही डॉ. उपाध्याय से मिल और इससे छुटकारे का कोई उपाय कर।
लेकिन माँ…- राधिका के गले में शब्द ही जैसे फँस गए हो। अमोल ने भी बहुत कातर दृष्टि से राधिका की तरफ देखा था। अमोल ये तय नहीं कर पा रहा था कि उसका स्टैंड क्या होना चाहिए। हालाँकि ये तय था कि अमोल लक्ष्मी देवी और सुरेश जी के निर्णय के खिलाफ किसी भी कीमत पर नहीं जा सकता, लेकिन कहीं उसके विचार में ये सवाल जरूर उठता है कि आखिर राधिका की क्या गलती है? आखिर अमोल अपनी माँ से बात करने का साहस जुटा ही लेता है – माँ… ये पहला है। अगली बार इस पर सोचें तो…!
लक्ष्मी देवी चीखीं थी – अगली बार…! अगली बार नहीं इसी बार…। हमें ये झंझट नहीं चाहिए।
राधिका ने डबडबाई आँखों से एक बार लक्ष्मीदेवी की तरफ और एक बार अमोल की तरफ देखा था। अमोल ने बेचैन होकर नजरें चुरा ली थी, जबकि लक्ष्मीदेवी के चेहरे की दृढ़ता से राधिका ने खुद को बहुत बेबस महसूस किया था।
आखिरकार सारी तैयारी हो चुकी थी। राधिका पता नहीं किस उम्मीद में किसी चमत्कार की आस में अडोल बैठी थी कि सुरेशजी की कड़कती आवाज से चौंक गईं – चलो या फिर मुहूर्त निकलवाएँ?
राधिका डर गई थी। उसने सहारे के लिए अमोल की तरफ देखा तो उसने भी नजरें चुरा लीं। राधिका को लगा कि इस पूरी दुनिया में वो नितांत अकेली है, कोई भी उसका साथ देने के लिए नहीं है, जिस इंसान का बहुत विश्वास से हाथ पकड़कर वो इस घर में आई थी, उसने भी उसे मझधार में छोड़ दिया है।
पीली-बेदम राधिका की आँखें लगातार मूँदी जा रही थी। कमरे की रोशनी से उसे बेचैनी होने लगी तो अमोल से गुजारिश कर लाइट बंद करवा दी। एनेस्थिशिया का असर था या रात की अधूरी नींद का, कमजोरी थी या फिर लंबे तनाव के बाद गहरे अपराध बोध का उसे लगने लगा था कि वो लगातार धरती के अंदर धँस रही है… गहरे, गहरे काले अतल में…। उसी नींद-नशे के बीच की सी स्थिति में राधिका को आवाज सुनाई दी… माँ… माँ… माँ…। उसकी चेतना का कोई हिस्सा सक्रिय हुआ। वो बुदबुदाई – हाँ बेटा।
सिसकी की तीखी सीत्कार…। – तूने मुझे दुनिया में आने का अधिकार तक नहीं दिया!
राधिका घिघियाने लगी… – मैंने नहीं चाहा था कि ऐसा हो…
लेकिन… हुआ तो वही ना…! – बच्ची ने तल्खी से कहा। – तू तो माँ थीं ना… सदियों से तेरी कहानी साहित्य, इतिहास और कला में दोहराई जा रही है। खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरने वाली, खुद जागती रहकर बच्चों को सुलाने की सुविधा देने वाली, अपने खून को बच्चों के पसीने पर लुटा देने वाली ममतामयी, वात्सल्य से भरी हुई माँ…। तूने अपने ही बच्चे की हत्या पर कैसे सहमति दे दी…? वो भी सिर्फ इसलिए कि मैं बेटा न होकर बेटी थी!
राधिका ने फिर अपना बचाव किया – मैं तुझे खोना नहीं चाहती थी… लेकिन मेरे आसपास की दुनिया ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया। मैं बेबस थी।
माँ सच है तू बेबस है, तू लड़ नहीं पाई, लेकिन मैंने तो सुना था कि तुम्हारे यहाँ का इतिहास, धर्म और साहित्य माँओं के बलिदानों की कहानियों से भरे हुए हैं! भरे हुए हैं उन कहानियों से जिनमें माँ ने अपने बच्चों के लिए सारी दुनिया से लड़ाई लड़ी और तू इतनी कमजोर निकली…? मुझे आने तो देती… मैं तेरे आँगन को किलकारी, मुस्कान, अपनेपन और प्यार से भर देती। मैं तेरा अकेलापन दूर करती, जब तुझे जरूरत होती मैं तेरे साथ खड़ी होती। तेरी हिम्मत, तेरी ताकत बनती, तेरा सहारा होती… लेकिन शायद दूसरों की तरह ही तूने भी मुझे इस लायक नहीं समझा…। – उस आवाज ने कहा।
मैं… मैं… मैं भी लड़ना चाहती थी, लेकिन अकेली थी, किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। – राधिका ने साफ किया।
तुझे अपने बच्चे को बचाने के लिए साथ की जरूरत थी, सच और न्याय के लिए तू अकेले नहीं लड़ सकती थी! – वो आवाज कुछ क्षण के लिए रूकी – सही किया तूने… अच्छा किया जो मुझे मार डाला, क्योंकि जहाँ सच और न्याय के लिए लड़ाई इसलिए न लड़ी जाए कि हम अकेले हैं, जहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया जाए और उसकी पूजा का ढोंग तो किया जाता हो, लेकिन उसके जीवन को नकारा जाता हो। जो समाज स्वतंत्र और आधुनिक तो हो, लेकिन स्त्री की सुरक्षा और सम्मान का दायित्व नहीं उठा सकता हो। जहाँ बेटी और बेटे में फर्क किया जाता हो वहाँ मेरे होने का फायदा भी क्या था? क्या हो जाता एक मेरे बच जाने से… यहाँ तो हर घड़ी अजन्मी बेटियाँ मरती हो, जहाँ जीव हत्या तो पाप मानी जाती हो, लेकिन भ्रूण-हत्या पर सब मौन हो… जहाँ हर घड़ी बेटियों को प्रताड़ना, शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता हो, वहाँ एक अकेले मेरे जिंदा होने का फायदा भी क्या था? – आवाज थम गई थी, थक गई थी।
बेटा इस समाज में औरत का जीवन बहुत मुश्किल है। हर कदम पर उसे विरोध, प्रताड़ना और शोषण का सामना करना पड़ता है। तू जिन इतिहास, धर्म और साहित्य की बात कर रही है ना, वो भी स्त्री के शोषण की कहानियों, घटनाओं से रंगे पड़े हैं। जन्म से पहले मारे जाने की दास्तां तो क्या नई है। जन्म के बाद भी उसे कई-कई मुसीबतों, परेशानियों और बंधनों में अपना जीवन गुजारती है। खाने, पहनने और पढ़ने के लिए पक्षपात की जो शुरुआती होती है, वो जीवन के अंत तक जारी रहती है। – राधिका ने बचे हुए साहस को बटोरते हुए अपनी बात कही।
हाँ… हाँ शायद इसीलिए तूने मेरे जीवन के लिए संघर्ष नहीं किया? – थकी-बुझी आवाज – सही किया… जो तून मुझे पैदा होने से पहले ही मार दिया। पैदा हो भी जाती तो क्या होता? भाई के आते ही कदम-कदम पर पक्षपात सहती। पढ़ना चाहती, लेकिन पढ़ाया नहीं जाता। तू जो मेरे जीवन-मृत्यु का फैसला तक नहीं कर पाई, तू क्या मेरे भविष्य का फैसला कर पाती… पता नहीं तूने खुद अपने लिए कभी कोई फैसला किया भी है या तेरे सारे फैसले दूसरे लेकर तुझे सुना देते हैं… जैसे ये… कि तेरी कोख में पल रहे बच्चे का क्या किया जाना है? उसे जीने दिया जाना है या फिर मार दिया जाना है। जब ये निर्णय तक तुझसे नहीं हो पाया तो तू क्या मेरी जिंदगी और मेरे भविष्य का निर्णय कर पाती? जिस समाज में औरत के जन्म से लेकर मृत्यु तक का निर्णय कोई और करे, उस समाज में जन्म लेकर भी क्या हो जाता? अब सोचती हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया माँ तूने… जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मार दिया। जिस दुनिया में अपने ही घर में बहन-बेटियाँ सुरक्षित न हो, जिस दुनिया में औरतों को प्यार करने का हक तक नहीं दिया जाता हो, जिस दुनिया में स्त्रियों की कीमत ढोरों से भी कम आँकी जाती हो, जिस दुनिया में माँ को ईश्वर का दर्जा तो दिया जाता है, लेकिन उसके बीज रूप को ही कुचल दिया जाता हो। भला बताओ जब बीज को ही कुचल दिया जाए तो फिर पेड़ कहाँ से आएँगें…? आज तो दौड़ रहे हैं सीमेंट की सड़क पर चार पहियो में बैठकर जब धूप पड़ेगी, तो सिर छुपाने कहाँ जाएँगें…? तब कहाँ जाएँगें, जब बेटों के लिए बहुओं की जरूरत होंगी… भाईयों की सूनी कलाइयों को बहनों के प्यार भरे धागों की जरूरत होगी। तब पेड़ों की छाँह चाहेंगे तो कहाँ से होगी…, तब बेटियों की खेती करेंगे तब भी बेटों के लिए दुल्हनें नहीं ला पाएँगें… । इसे ही तो कहा जाएगा अपनी जड़े खोदना… विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली कि ये जान लें कि कोख में पल रहा जीव नर है या मादा… लेकिन अभी तक इतनी तरक्की नहीं की है कि बिना औरत के अपनी दुनिया, अपना वंश बढ़ा सके…। इसके लिए तो औरत की जरूरत पड़ेगी ही… अपने मकान को घर बनाने में, अपनी दुनिया को अपनी जिंदगी बनाने में औरत की ही जरूरत होगी और आपकी दुनिया का ये दुर्भाग्य है कि वो औरत किसी कारखाने में नहीं बनती है, किसी खेत में नहीं उगती है। वो तो पैदा होती है… और बढ़ती है। लेकिन नहीं… बहुत सवाल हो गए, आपकी दुनिया की गज़ालत और जहालत से मैं दूर ही भली। आपने अच्छा ही किया जो मुझे इससे दूर ही रखा… अच्छा किया जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मुक्त कर दिया। अच्छा किया माँ… जो मुझे तूने जन्म होने से पहले ही मार दिया…। अच्छा किया तूने… मुझे खुद ही तेरी दुनिया में नहीं रहना। बहुत अच्छा किया…।

19/09/2011

चार खूँटों से बँधी जिंदगी...!


सलीका - उठते ही सोने से फैले बालों को बाँधने के क्रम में वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और कंघी उठाकर बालों में गड़ाते हुए जैसे ही उसने आईना देखा… ऊब की लहर ऊपर से नीचे और हताशा की लहर नीचे ले ऊपर की तरफ दौड़ी। हर दिन वही चेहरा... उसी तरह की नाक, वही आँखें... सब कुछ वैसा ही, वहीं... उफ्! उसे अपने दिन का मूड समझ आ गया। वो वहीं स्टूल पर धपाक से बैठ गई। उसी हताशा में उसने एक बार फिर अपने चारों ओर नजरें दौड़ाई... हर चीज उसी जगह, कई दिनों से... बल्कि कई सालों से हरेक चीज है अपनी जगह ठिकाने से... सलीके से... । एकाएक उसे लगा कि ये सलीका ही उसकी परेशानी है। मन किया... सब कुछ को हाथ से फैला कर तितर-बितर कर दे। कुछ उठाकर जमीन पर पटक दे... कुछ... कुछ ऐसा करे जो उसे बदला सा महसूस कराए... लेकिन... लेकिन ये दिमाग। करो... कर ही डालो... फिर बिसूरते हुए समेटना भी तुम ही...।

नफासत - दफ्तर जाते हुए – वही रास्ता, सालों से वही… और वहीं दुकानें, पेड़, सड़क यहाँ तक कि गड्ढे तक... पता होता है कहाँ गाड़ी धीमी करनी है और कहाँ गियर बदलना है। इतनी उकताहट कि लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते रहे... शायद आसपास की दुनिया एकाएक बदली हुई-सी दिखे, लेकिन ये हो ही कैसे। कई बार उसे लगता है कि क्यों नहीं वो खुद ही अपने आप को बदल डालती? थोड़ा हेयर-स्टाइल बदल ले और थोड़े कपड़ों का स्टाइल... खुद भी काफी बदली नजर आएगी... लेकिन क्या ये बदलाव अच्छा होगा...? लीजिए सलीके के बाद दूसरी समस्या आ खड़ी हुई... नफासत...!

विश्वास - दफ्तर में वही जद्दोजहद... वही जगह, एक ही से चेहरे, वैसे ही एक्सप्रेशन्स और उसी तरह की बातें...। हर जगह सब कुछ इतना जाना पहचाना कि आँखें बंद कर यदि हाथ बढा़ओ तो जो हाथ आए वो परिचित चीज निकले...। उफ्....! यहाँ क्या वो खुद बदलाव नहीं कर सकती? कुछ नए लोगों से दोस्ती करे, कुछ नए लोगों को जानें, उनसे बातें करें... उनकी दुनिया में झाँके कुछ पात्र, कुछ कहानी, कुछ अनुभव उठा लें... लेकिन... लेकिन क्या ये इतना आसान है! एकाएक परिवर्तन से कईयों की भौहें तनेगी... फिर इसमें भी कौन दोस्ती के लायक है और कौन नहीं? किससे आपकी वेवलेंथ मैच करेगी और किससे नहीं... ये सब जानते-जानते पता नहीं किस ट्रेप में फँस जाए...। आखिर तो झटकना भी कहाँ आसान है, उसके लिए...? तो एक और समस्या या संकट... विश्वास का...!

सुविधा - शाम ढलते हुए ऑफिस से लौटना... 15 मिनट उपर हो या फिर 10 मिनट नीचे... सड़कों के हाल एक-ही से...। रोशनी का एक-सा जमावड़ा, ट्रेफिक जाम, हर दिन जैसा शोर। पटरी पार कर सड़कों को घरते ठेले, पुलिसवालों की मशक्कत-चिढ़ और खीझ...। उसी तरह की मनस्थिति... फिर से वही सब कुछ घर पहुँचकर... चाय या फिर कॉफी...। बनाना, खाना, टीवी देखना, टहलना, दिन भर का राग दोहराना...। अच्छे-बुरे पढ़ने को दोहराना। किसी अच्छे अनुभव को सुनाना-सुनना। छाया-गीत तक रेडियो के करीब पहुँच जाना। ज्यादातर उद् घोषक के बुरे चुनाव पर खीझना या फिर किसी अच्छे गाने को इत्मीनान से सुनने के चक्कर में घड़ी कि टिक-टिक को नजरअंदाज कर देना और फिर सोचना उफ् आज फिर देर...। सोते हुए जिस भी तरफ सिर करो... कमरे की हर चीज जानी पहचानी लगती है। कभी पूर्व तो कभी पश्चिम में सिर की दिशा रखी और नजरों को हर एंगल पर घुमा लिया... बदला कुछ भी नहीं... सब कुछ वैसा ही नजर आया। क्यों नहीं ऐसा कर लेती कि किसी शाम टीवी छोड़ दें... देर रात तक सड़कों पर आवारगी करते रहे या फिर गहरे गाढ़े अँधेरे को ओढ़कर किसी मीठी-सी धुन में खुद को डूबने-उतरने के लिए छोड़ दें। छाया-गीत का लालच छोड़ दे या फिर सुबह की चिंता छोड़ दे... देर रात तक अपनी फूलझड़ियों, छालों, फूलों और काँटों का हिसाब करते रहे... या फिर घड़ी को ताक पर पटककर समय को अँधेरे में से गुजर जाने दे...। नहीं होता, बहुत सोचते रहो तब भी नहीं होता... देर से सोए तो सुबह देर से उठेंगे या जल्दी उठ गए तो दिन भर काम करना मुश्किल होगा... फिर वही क्रम दोहराया जाएगा आखिर यहाँ मसला अ-सुविधा का है...।

वह सोचती है कि जिंदगी के चारों कोनों को खूँटे से बाँधने के बाद स्पेस, आजादी और चेंज की ख्वाहिश करना कितना हास्यास्पद है ना...! चाहना-चाहना-चाहना... अपने कंफर्ट ज़ोन में बैठकर सिर्फ चाहने से क्या बदलेगा? बदलने के लिए उसे तो छोड़ना ही पड़ेगा ना... तो...?

11/09/2011

दो कप भावना और आधा कप बुद्धि...!


यूँ गणपति स्थापना को चार-पाँच दिन हो चुके थे। आते-जाते अकाउंट्स डिपार्टमेंट के बाहर की रौनक-सजावट नजर आ ही जाती थी, सुबह-शाम गणपति की आरती का प्रसाद भी संपादकीय विभाग में आ जाता था। गणपति की स्थापना यूँ तो संपादकीय विभाग में भी हुई थी, लेकिन ये अलग बात है कि न तो वे कहाँ विराजे हैं, ये नजर आता था और न ही ये कि आरती कब होती है और कौन करता है। शायद संपादकीय के कर्मचारी अपनी कथित बुद्धिजीविता का प्रदर्शन कर रहे हों। जो भी हो, हमारे विभाग में ऐसी कोई हलचल नहीं है। तो ऑफिस में तो त्योहार का कोई भी निशान नजर नहीं आ रहा था।
अकाउंट्स के प्यून ने हमें भी आरती में शामिल होने का न्यौता दिया। याद आया... गणपति मंडप की कितनी खूबसूरत सजावट की गई है, लेकिन अभी तक हमने वहाँ जाकर नहीं देखा। चलो इसी बहाने देख पाएँगें। शाम की आरती का समय... थोड़ा धुँधलका-सा हो चला है। विचार की चकरी चल रही है, आरती के लिए समय का निर्धारण भी कितना सोच-विचार कर किया गया है ना...! दिन-रात के संधि समय में जब दिन विदा हो रहा हो और रात के आगमन की तैयारियाँ हो रही हो... जरा फर्लांग भर की ही तो दूरी है... नहीं! दिन-रात में नहीं... संपादकीय और अकाउंट्स विभाग की बिल्डिंग्स के बीच...। तो उस सजे हुए मंडप में अगरबत्ती की भीनी-भीनी सी खुश्बू, घंटी, करतल और सामूहिक कंठ स्वर... एक-सी लय और दीए की लौ...। आरती की आवाज सुनकर एक-एक कर लोगों का उस मंडप में आना... अद् भुत माहौल... लगातार दिमाग, विचार, तर्क औऱ बुद्धि से घिरे हुए हम जैसे लोगों के लिए ये माहौल बड़ा जादुई है। एक-सी ताल में जय देव जय देव जय मंगलमूर्ति... के बीच कहीं अंदर कुछ सोया हुआ जाग गया... तर्क पर आस्था की चादर उतर आई है और विचार अगरबत्ती के धुएँ के साथ हवा में विलिन हो गए... रह गई वो खुशबू जो तर्कहीन, विचारहीन औऱ बहुत हद तक अबौद्धिक है। लौटे तो बहुत हल्के और तरल होकर... सारा ‘मैं’ कहीं गल गया, झर गया...।


वहाँ से निकले तो लगा जैसे अपने प्राकृतिक क्षेत्र से निकल कर किसी दूसरे की जमीन पर आ खड़े हुए हैं। लगा कि असल में भावना इंसान में इनबिल्ट होती है और तर्क विकसित होते हैं। इस दृष्टि से भावना प्रकृतितः हमारी विरासत है, लेकिन तर्क हम बोते, पनपाते और फिर सजाते सँवारते हैं। जन्म से ही भावना हममें होती है, लेकिन बुद्धि या तर्क का विकास उम्र के साथ होता चलता है। थोड़ा आगे चलें तो भावना संस्कृतियों की वाहक है और तर्क सभ्यताओं के...। थोड़ा और आगे बढ़े तो इस विचार तक (फिर विचार...!) पहुँचते हैं कि सभ्यताओं ने बाँटने का और संस्कृतियों ने जोड़ने का काम किया है। तर्क सिर्फ मानवता को ही नहीं बाँटते हैं, बल्कि इनका काम व्यक्तित्व तक को विखंडित करना है। हम जान ही नहीं पाते कि कब तर्क या बुद्धि हमें खंडित कर देते हैं। फिर बुद्धि का लाभ क्या? क्योंकि अक्सर ये पाया जाता है कि बुद्धि ही हमारे दुख का कारण है। ज्यादातर हमारी खुशियों का आधार भावनाएँ हैं...। तो फिर जीवन में भावना और बुद्धि या तर्क का कांबिनेशन कैसा होना चाहिए ...! डोसे के घोल के प्रपोशन जितना... दो कप भावना (चावल) और आधा कप बुद्धि (दाल)...। सही है ना...!

01/09/2011

मृत्यु बोध के जागते ही...!


कहीं कुछ बेतरह अटका पड़ा है। कई अच्छे-बुरे विचार ऐसे में आ-जा रहे हैं। ऐसे में ही अपने आसपास की दुनिया में बुरी तरह लिप्तता के बीच अचानक कहीं से मृत्यु का विचार आ खड़ा हुआ। मृत्यु पर विचार करने का वैसे तो कोई खास कारण नहीं है, लेकिन शायद कभी पढ़ी फिलॉसफी का असर हो शायद या फिर उम्र का... कि अचानक विचारों के केंद्र में मौत आ गई...। या फिर बचपन में कभी पढ़ी-सुनी बुद्ध की वह कहानी जिसमें उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि – इस दुनिया में आपको सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक क्या लगता है?
तो बुद्ध कहते हैं कि – ये जानते हुए भी कि हमें एक दिन मर जाना है, हमारी दौड़ जारी है।
सचमुच... ये कितना आश्चर्यजनक है, हम सब जानते हैं कि हम सब एक दिन मर जाने वाले हैं, किसी के लिए कोई दिन और किसी के लिए कोई... या शायद आज ही... अभी ... फिर भी हम यूँ जी रहे हैं, जैसे हमें यही रहना है, हमेशा-हमेशा के लिए...।
कहीं से भी विचार करना शुरू करो मृत्यु पर विचार हमें एक ही जगह ले जाता है, जीवन का अंत...। चाहे हमारा दर्शन पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता का विचार देता हो, लेकिन ये महज एक विचार है, विश्वास और अविश्वास की सीमा से परे... होने और न होने की सवाल से दूर, क्योंकि इसमें स्मृति नहीं जुड़ती है, इसलिए पश्चिम में प्रचलित दर्शन हमारे जीवन के ज्यादा करीब है कि – मृत्यु जीवन का अंत है... सारी संभावनाओं का अंत है। होना और चाहना का अंत है। और हमारे चाहने और न चाहने से अलग इसका अस्तित्व अवश्यंभावी है।
तो फिर सवाल उठता है कि - क्या हम जीवन-मृत्यु के बीच बस सफर पर नहीं हैं? प्रस्थान जन्म और गंतव्य मृत्यु...? उद्गम जन्म और विसर्जन मृत्यु... प्रारंभ जन्म और अंत मृत्यु... ! बस इसके बीच कहीं जीवन टँगा हुआ है..., शायद इसीलिए इतना दिलफरेब, बिंदास और निश्चिंत... हम सब जानते है कि हरेक की मृत्यु यकीनी है... हमारे जीवन की पूर्णाहुति है, हमारे होने की नियति है। हम चाहे या न चाहे उसके साए से अलग कोई कभी नहीं हो सकता है, फिर भी हम उसे बरसों बरस भुलाए रहते हैं। दरअसल हम ये मान कर जीते हैं कि ये सच हमारा नहीं है, दुनियावी सच है, जैसे दूसरे और सच होते हैं, वैसे ही या यूँ कह लें कि ये तथ्य है, हमारे लिए... दुनिया के लिए चाहे सच हो... हमारे लिए नहीं... । लेकिन हमारे झुठलाने से भी न तो इसकी प्रकृति बदलती है और न ही तासीर... ।
कभी तमाम दुनियादारी औऱ पूर्वाग्रहों से दूर होकर सोचें तो लगेगा कि दरअसल हमारा जन्म ही कदम-दर-कदम मौत की तरफ बढ़ने के लिए हुआ है, क्योंकि उससे अलग हमारे होने की कोई औऱ परिणति हो ही नहीं सकती है। दुनिया के सारे दर्शन और अध्यात्म का अस्तित्व ही इस बात पर है कि आखिरकार हमें सब कुछ से ‘कुछ नहीं’ हो जाना है, हमें मर जाना है, सिर्फ याद बन कर रह जाना है... लेकिन यही सबसे महत्वपूर्ण सत्य को हम भूल जाते हैं। कभी-कभी तो यूँ लगता है जैसे इसी वजह से सारी दुनिया चल रही है। शायद सृष्टि के गतिमान रहने का रहस्य ही ये भ्रम है कि हम कभी मरने वाले नहीं है...
भौतिकता में आकंठ डूबे हुए प्राणियों तक मौत का विचार पहुँचता ही नहीं है, लेकिन जब कभी ये चेतना जागती है यही वो बिंदू होता है, जहाँ से आध्यात्मिकता हमारे जीवन में प्रवेश करती है। और सवाल उठता है कि इस दुनिया का हमारे लिए मतलब ही क्या है? फिर भी हम इस विचार, इस शाश्वत सच से विलग होकर अपना जीवन गुज़ारते हैं। हम भूले रहते हैं कि दरअसल हम उस मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं जिसका कोई विकल्प नहीं है, जिसमें चुनाव की स्वतंत्रता भी नहीं है और जिससे निजात भी नहीं है। हम इस भुलावे में रहते हैं कि हमारी राह हमें किसी दूसरी मंजिल की तरफ ले जा रही है, मौत का रास्ता कोई दूसरा है। हम इस भ्रम में जीते हैं... जीना चाहते हैं कि ये भयावह सच्चाई हमें और हमारे अपनों को छोड़कर शेष बची दुनिया के लिए है, बस यही इस सच्चाई की खूबसूरती है और यही दौड़ते रहने का अभिशाप भी... इसी की वजह से जीवन की दौड़ का अस्तित्व है... और इसी के होने से जीवन के अर्थहीन होने की चेतना भी... हम सब इस सच के साथ जीते हैं, लेकिन उसके अहसास से दूरी बनाए रखते हैं। कितना अजीब है कि हम लगातार मृत्यु के साए में जीते हैं, लेकिन लगातार उससे बहुत दूर होने के भ्रम को पाले रहते हैं। हर वक्त हमारे साथ चलते इस साए को हम महसूस तक नहीं करते हैं। हम दौड़ में हैं, लगातार, एक-दूसरे को धकियाकर आगे जाने की दौड़ में... सबसे आगे होने, होना चाहने की दौड़ में। एक मंजिल को पाकर दूसरी कई-कई मंजिल को पाने की दौड़ में, इस सच के बाद भी कि एक दिन यहीं सब कुछ छूट जाना है, एक... भ्रम... एक झूठ... जिंदगी को संचालित करता है और हमें वो खूबसूरत लगती है... कितना अजीब है ना...!

19/08/2011

रोज शाम भविष्य में थोड़ा मर जाता हूँ...!


इतिहास निर्मित होने के दौर में इतिहास की गुत्थियों को जस-का-तस रखती किताब पढ़ना, क्या है ? - वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ना! या फिर वर्तमान को इतिहास के संदर्भ से समझने की कोशिश करना...! ...पता नहीं! बहुत दिनों से अटका पड़ा पढ़ने का क्रम न जाने कैसे आज शुरू हुआ तो ओम थानवी की यात्रा संस्मरण (ऐतिहासिक-स्थल की यात्रा) मुअनजोदड़ो के पूरा होने का मुहूर्त बन ही गया। इस बीच अण्णा-आंदोलन-गतिरोध-भ्रष्टाचार और पक्ष-विपक्ष पर भी नजरें पड़ती रही।
जैसा कि होता है – खत्म होने पर हमेशा सवाल खड़ा होता है ‘औचित्य का’। यहाँ किताब को पढ़ने का। क्यों पढ़ी गई... ? जानना लक्ष्य था या फिर पढ़ना... यदि जानना लक्ष्य था तो क्या जान लिया और यदि पढ़ना ही लक्ष्य था तो यही क्यों? फिर सवालों का जंजाल... इसी में से निकलता है एक और पुराना सवाल जो गाहे-ब-गाहे जाग जाता है - ‘आखिर इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का लक्ष्य क्या है?’, क्या वाकई हम इतिहास इसलिए पढ़ते हैं कि हम उससे सबक सीख सकें! आज तक हमने इतिहास से क्या सबक सीखे? अभी तो किसी ऐतिहासिक घटना पर हमारे इतिहासविद् और विशेषज्ञ निश्चित नहीं है। फिर अपने-अपने पूर्वाग्रह और उस आधार पर स्थापित सिद्धांत... ढेर सारी स्थापनाओं के प्रतिपादन और खंडन-मंडन के बाद भी अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका कि 1. मुअनजोदड़ों के संस्थापक कौन थे और कहाँ से आए थे? 2. वैदिक सभ्यता ज्यादा पुरानी है या फिर मुअनजोदड़ो की! और 3. सभ्यता का अंत कैसे हुआ? अब तक लिपि पढ़ी नहीं जा सकी तो सभ्यता को जानने में कोई मदद नहीं मिली...। मान लिजिए कभी जान भी लें इन सारे और इनके जैसे और कई सारे सवालों के जवाब तो क्या फर्क पड़ेगा? क्या वर्तमान ज्यादा खुशनुमा बन जाएगा। आज तक कितनी सभ्यताओं, व्यवस्थाओं, राष्ट्रों, सरकारों, संस्थाओं और व्यक्तियों ने इतिहास से सबक ग्रहण किए हैं?
तो आखिर पढ़ ही लिए गए सारे दावे-प्रतिदावे, इतिहास को खोजने के ऐतिहासिक प्रयास ...तो... उससे क्या हुआ! क्या पाया?
शुरू हुआ खोने-पाने का शाश्वत हिसाब... भौतिक हो, जरूरी नहीं, लेकिन होता है। सफर में न हो तो सफर खत्म होने पर ... जीवन में न हो तो जीवन के अंत में होगा... चाहे हम कितना ही इंकार कर लें। दो और दो चार का गणित पीछा नहीं छोड़ता... हिसाब के रूप में न हो तो विश्लेषण के रूप में, होगा ही। और जब ये सवाल उठता है तो फिर अब तक हुए सारे कर्म अपना-अपना बही खाता लिए हाजिर हुए चले जाते हैं। हमारा भी हिसाब कर दो... हमारा भी कर दो... हमारा भी...। मतलब हिसाब से मुक्ति नहीं है। तो क्या यहीं से जुड़ते है अतीत-वर्तमान-भविष्य के सिरे...! ओम जी की ही किताब से अज्ञेय की कविता की पंक्तियाँ – ‘रोज सबेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ / क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।’
यही है चक्र... इतिहास को जानने का, वर्तमान को जीने का और भविष्य में मरने का... पैदा होने, जीने और मरने का...:(

12/08/2011

बड़े नोट-सा दिन... रेजगारी-सी रात...!


दिन तो महीने के अंत में पगार की तरह फटाफट खर्च हो जाता। आखिर में हथेली में फुटकर.. रेजगारी की तरह रात बच जाती है। सब कुछ खर्च करने के बाद बची रेजगारी कितनी कीमती होती है ये तो खत्म हुई सेलैरी के बाद ही जाना जा सकता है। तो बची हुई रेजगारी को दाँत से पकड़ते हुए हर रात किफायत बरतने की जद्दोजहद के साथ आती और फिसल जाती है। बचाते-बचाते भी फिजूलखर्ची हो ही जाती थी।
उस रात दिन भर की दुनियादारी झड़ गई थी औऱ रात खालिस होकर उतरी थी। पूनम की तरफ बढ़ता चाँद अपनी रूठी चाँदनी से रात को रोशन करने की कोशिश ही कर रहा था कि न जाने कहाँ से भूरी-लाल बदली ने उसे अपनी आगोश में समेट लिया था। रात गाढ़ी हो चली थी, न चाहते हुए भी एक-एक कर सिक्के खर्च हुए जा रहे थे। अचानक जैसे आखिरी बचे चंद सिक्कों की कीमत का खयाल आ गया हो और मुट्ठी तो पूरी ताकत से भींच लिया...। बाहर बारिश जैसे सितार के तारों को छेड़ रही थी और अंदर रेडियो भी जैसे राग नॉस्टेल्जिया बजा रहा हो। घर आजा घिर आए, बदरा साँवरिया... यादों के कबाड़ से कुछ बहुत ही मजेदार चीजें निकल आईं जैसे - बचपन में मोटी रही लड़की का नाम भाइयों ने मोटा आलू कर दिया और उसकी शादी तक हम सब उसे मोटा आलू ही कहते रहे, इसी तरह मोटी-नाक वाले लड़के का नाम भजिया आलू रख दिया और बाद में दोनों के नामों को एक साथ इस्तेमाल करते हुए मोटा आलू और भजिया आलू कह-कह कर चिढ़ाते रहते... घिर-घिर आई बदरिया कारी... यादों की पिटारी में कई सारी कबाड़ है, कई तो ऐसी कि उसे हाथ लगाते ही कहीं अंदर काँटे गड़ने लगे। सुनाते-सुनाते ऐसी हँसी चली कि हँसते-हँसते आँसू ही आ गए... गुजरा जमाना बचपन का... बाँहें गर्दन के नीचे से गुजरी, प्यार और आश्वासन की थपकी दिमाग के सनसनाते हुए तंतुओं पर एक गति से पड़ने लगी, दिमाग थोड़ा-सा शिथिल हुआ... एक-एक कर सिक्के खत्म होते जा रहे हैं... रेडियो बजा रहा है शराबी-शराबी ये सावन का मौसम... बस यूँ ही-सा एक विचार आया... कितना भी सुख हो, कितना भी दुख... आखिर तो एक दिन सब खत्म होना ही है... एक दिन तो मर ही जाना है... तो फिर ये स्साली जिंदगी सही क्यों नहीं जाती है...?
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ... कहते हैं कि कितनी भी जरूरत हो एक सिक्का हमेशा बचा कर रखना चाहिए, उसे बरकती सिक्का कहते हैं, फिर वही रात है, फिर वही रात है ख्वाब की... तो एक दिन सब कुछ के खत्म हो जाने के विचार के बाद भी उस आखिरी सिक्के को हथेली में मुट्ठी भींच कर बचा लिया कि कल फिर से नई शुरुआत होगी... बरकत बनी रहेगी...।