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22/09/2012

छोड़कर जाओ तो आहत होता है घर



शाम होते ही तुम्हें घर लौटने की जल्दी क्यों मची रहती है?
...........................
बोलो....
पता नहीं, बस लगता है कि घर बुला रहा है।
घर... बुला रहा है। - उसने दोहराया था, थोड़ी खीझ और बहुत सारे आश्चर्य के साथ। हाँ...। – मैंने बड़े अनमनेपन से जवाब दिया था। उसकी खीझ और भी बढ़ गई थी। अभी लिस्ट का बहुत सारा सामान लिया जाना बाकी है और मैं घर चलो-घर चलो की रट लगाने लगी थी। अजीब भी लग रहा था, लेकिन एकदम से बाजार से उकता गई थी। शोर-शराबा, लाइट, भीड़, ट्रेफिक... बस मेरा सिर घूमने लग गया था। अजीब तो लग रहा था, ये बचपना, लेकिन... मैं बेबस थी, बेचैनी तीखी होने लगी थी। बहुत देर तक अपने संकोच में लिपटी रही थी। जब उस चौराहे के बंद सिग्नल के उस पार खड़े सेब के ठेले से सेब खऱीदने की बात आई थी... मन मसोस कर रह गई थी। फिर आगे चलकर मॉल के पार्किंग में गाड़ी लगी तो मन में हौल उठा था, अभी और देर से घर जाएँगे...। फिर एक आउटलेट से दूसरे आउटलेट के चक्कर... बस धैर्य जवाब दे चुका था। घर चलें, पहले बहुत विनम्रता से... जवाब भी उसी विनम्रता से मिला था। हाँ... बस चलते हैं।
फिर हर पाँच मिनट बाद – घर चलें... घर चलें की रट्ट... खीझ गया था वो। यार... छुट्टी वाले दिन तुम घर से निकलना नहीं चाहतीं, घर पहुँचकर निकलने में तुम्हें परेशानी है, ज्यादा देर बाजार में काम करें तो तुम्हें परेशानी है, ऐसे कैसे चलेगा? उसने अपने सारे धीरज को समेटकर सवाल किया था। उस धीरज से मेरे आँसू निकल आए थे। फिर शायद उसे थोड़ी सहानुभूति हुई थी। चलो, चलते हैं... बाकी की चीजें कल-वल खरीद लेंगे।

घर लौट तो आए थे, लेकिन एक बोझ-सा बना रहा था। खरीदी दीपावली के लिए हो रही थी, आज शनिवार था तो चाहे कितनी भी देर तक बाजार करते रहो चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन मन का क्या करें। खाना खाने के बाद अपनी पसंद की नींबू चाय बनाई थी, बालकनी में पड़े स्टूल पर रखी और उसका हाथ पकड़कर ले आई थी, जो टीवी पर कोई बकवास-सी हॉलीवुड की फिल्म देख रहा था। मैंने अपराध-बोध से ग्रस्त थी, ट्राय टू अंडरस्टैंड मी... बॉलकनी से दूर क्षितिज पर झुकते आसमान को देखते हुए कहा था। उसकी आँखों में सवाल उभरा था... – क्या?

मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ समेटते हुए बात शुरू की थी - शाम होते-होते मुझे हमेशा ही घर की याद आने लगती है... यूँ लगता है कि बाहर निकलते हुए खुद का कोई हिस्सा रह जाता है घर में ही। और शाम होते-होते उसे मेरी और मुझे उसकी याद आने लगती हो... या... पता नहीं क्या... शायद पिछले जन्म में पंछी रही होऊँ... नहीं, मुझे यकीन नहीं अगले-पिछले जन्म में। इस पर यकीन करो तो बहुत सारे दूसरे यकीन भी करने पड़ते हैं, और फिर जिंदगी जैसे यकीनों का सिलसिला बन जाती है, फिर उन यकीनों से जुड़े सवालों से भी जूझना पड़ता है। ये तो बस यूँ ही... उतरता सूरज, ना जाने क्या-क्या लेकर आता है और खिंचता रहता है, हमेशा घर की ओर... अब दुनिया में है तो दुनियादार तो होना ही हुआ, सो हुए, घर-बाहर, दोस्त-रिश्तेदार, हारी-बीमारी, जन्म-मरण-परण... बहुत कुछ है जो घर से बाहर ले जाता है...लेकिन पंछी की मन लेकर जो पैदा हुए कि शाम होते घरोंदा ही याद आता रहा है। खुद को देखूँ तो उस सवाल का जवाब ही नहीं मिलता कि हम बाहर जाने के लिए शामों को ही क्यों चुनते हैं? जबकि घर से डूबते सूरज को देखो तो एक करूणा जागती है, वो भी हमारी ही तरह अपने घर लौट रहा है... बेचारा... दिन भर का थका-हारा, तपता-जलता, झुलसता-झुलसाता। जब कभी बाहर से घर लौटों तो महसूस होता है कि घर बहुत अनमना-अनमना-सा है, उसमें कोई जुंबिश नहीं है, कोई हरकत, कोई हरारत नहीं है, वो बिल्कुल ठंडा और बेजान है, निर्जीव...। अब बोलो भला घर कोई जीव है क्या? – मैं खुद ही सवाल करती जा रही थी और खुद ही जवाब भी दिए जा रही थी... वो बस मुझे बोलते देख रहा था। वो अक्सर कहता है कि तुम जब बोलती हो तो ऐसा लगता है कि शब्द झर रहे हैं... कई बार मैं बस उन्हें झरते देखता रहता हूँ, उनके अर्थों तक नहीं पहुँच पाता... मैंने अपनी बात जारी रखने के लिए थोड़ा वक्त लिया। जब उसने प्रश्नवाचक निगाहें छोड़ी तो फिर कहना शुरू किया - पता नहीं कितने बचपन से मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा है कि घर को छोड़कर जाओ तो वो नाराज हो जाता है। बहुत देर तक वो संवाद नहीं करता, कहीं हाथ नहीं रखने देता है, अनमना-सा रहता है और थोड़े-थोड़े अंतराल में वो अपनी नाराजगी जाहिर करता रहता है। पता नहीं किसी और के साथ ऐसा होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ हमेशा ही घर का ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब कभी बाहर से लौटकर घर आओ तो घर स्वागत नहीं करता है, अलगाया-सा बना रहता है, अजनबी और पराया-पराया-सा...बड़ी मुश्किल और मशक्कत करने के बाद वो सुलह करता है, इसीलिए बचपन से ही मुझे घर को नाराज करने में डर-सा लगता रहा है, शायद यही वजह रही हो कि मुझे घर से बाहर जाना पसंद नहीं आता... बल्कि यूँ कहूँ कि लौटकर आने पर घर का आहत होना पसंद नहीं है। इसीलिए दुनियादार के अतिरिक्त और कोई वजह नहीं होती कि घर को यूँ अकेले छोड़कर जाया जाए... अपनी छुट्टियों को उसके साथ शेयर करते रहना, उसके गुनगुनेपन में खुद को छोड़ देना, उससे संवाद करना और उसकी ऊष्मा में नहाना पसंद है, इसलिए छुट्टियों में घर से निकलना पसंद नहीं है। मुझे पता नहीं किसी को ये लगता हो या न लगता हो, लेकिन मेरे लिए घर महज भौतिक ईकाई नहीं है, ये मेरे वजूद का अभिन्न हिस्सा है, जो कहीं भी रहो, साथ मौजूद रहता है, किसी-न-किसी रूप में, न हो तो स्मृति के रूप में ही...जो बार-बार अपनी ओर खिंचती है।
मैं थक गई थी, क्योंकि वो चुप था। मैं भी चुप हो गई... लेकिन उसकी चुप्पी से अपराध-बोध और गहरा गया। चाय का आखिरी घूँट लिया और आसमान की तरफ देखते हुए सोचने लगी कितनी कृत्रिम रोशनी है कि तारों की टिमटिमाहट तक नजर नहीं आती। मैं शायद उसके कुछ कहने का इंतजार भी कर रही थी, कुछ विरोध करने सा कुछ। उसने कहा था – हाँ, ऐसा होता तो है, लेकिन मैंने कभी उसे बहुत गंभीर तरीके से नहीं लिया था... होता है ना अमूमन हम अपने भीतर के सूक्ष्म अहसासों के प्रति हमेशा ही लापरवाह और उदासीन बने रहते हैं, वैसा ही... तुम उस बारीक धागे को पकड़ लेती हो, क्योंकि तुम बेहद संवेदनशील हो, लेकिन यदि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ तो सोचो जिंदगी कैसे चलेगी...?
हाँ, जिंदगी कैसे चलेगी... – अनायास ही कह गई थी, लेकिन सच ही था, आखिर दुनिया में रहने के भी तो कुछ कंपल्शंस है ना। उसने मुझे नजर से दुलराया था, मैं आश्वस्त होकर फिर डूब गई थी, खुद में... सुरक्षा की ऊष्मा जो मिली थी।





20/07/2011

काश ऐसा हो पाता....!


साढे़ सात बजते न बजते पूरा घर खाली हो जाता है... सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और घर में रह जाती है सुगंधा अकेले...। पहाड़ जैसा दिन सामने पड़ा हुआ है और करने के लिए कुछ होता ही नहीं है। घर फिर से 3 बजे गुलजार होगा, तब तक उसे कभी टीवी, तो कभी अखबार-पत्रिकाओं, मोबाइल फोन या फिर किताबों से सिर फोड़ना होता है। तो सुबह साढ़े सात के बाद वह फिर से बिस्तर में घुस जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। कितनी ही कोशिश करे वो दिमाग की चर्खी को चलने से नहीं रोक पाती। कभी अपने खालीपन का कीड़ा, कभी पिता का स्वास्थ्य तो कभी माँ की चिंता... कभी भाई की चिंता, कभी बच्चों की पढ़ाई, पति का स्वास्थ्य तो कभी यूँ ही खुद का भविष्य...(कभी-कभी वो खुद से सवाल करने लगती है कि क्या जिंदगी यही है, इसी तरह से जाया होने के लिए... या इसका कोई मतलब है, लक्ष्य है....? उसका पति भी उसके इस तरह के सवालों से तंग आ चुका है, लेकिन वो क्या करे!) तो कभी कुछ और... कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है उसकी जान को...। समझाने को तो वो किसी को भी ये समझा सकती है कि चिंता किसी भी समस्या का हल नहीं है, लेकिन खुद को समझा पाने जितनी समझ पता नहीं कैसे उसमें अभी तक नहीं आ पाई है। तो रात भर एक खलिश उसके नींद के उपर एक पलती झिल्ली सी पड़ी रही और उसकी नींद उसके नीचे कुनमुनाती रही। सुबह का अपना कर्म पूरा कर उसने खिड़कियों के खुले पर्दे खींच दिए। पंखे की स्पीड कम कर दी और चादर तानकर सोने की कोशिश करने लगी। वो झिल्ली अभी भी जहन पर पड़ी हुई है... क्या करे उसका...?
बारिश का मौसम भी कुछ अजीब होता है, पंखा चले तो ठंडा लगता है और बंद कर दें तो गर्मी लगने लगती है, तो जब सुगंधा को चादर में ठंड़ा लगने लगा तो उसने अपने सिर तक कंबल खींच लिया। कमरे में वैसे ही अँधेरा था, सिर तक कंबल खींच लेने से अंदर का अँधेरा औऱ गाढ़ा हो गया, तो अँधेरे और कंबल के गुनगुनेपन का आश्वासन पाकर नींद झिल्ली तोड़कर उपर आ गई। थोड़ी देर के लिए दुनिया और दुनिया की चिंताएँ कंबल के बाहर ही रह गई और सुगंधा सो गई। हल्की झपकी के बाद जब उसने कंबल हटाने के लिए हाथ उठाया तो उसे एक अजीब सी दहशत हुई... उसे लगा जैसे वो अंदर बहुत सुरक्षित है और जैसे ही उसने कंबल हटाया बाहर खड़ी दुनिया उसे झपट लेगी... और वो वहीं साँस रोके लेटी रही..., लेकिन जल्दी ही उसका ये भ्रम भी टूट गया। कलाबाई ने घंटी बजाई, तो उसकी आवाज कंबल को छेदते हुए आ गई... सुगंधा ने उठकर दरवाजा खोला। कंबल को घड़ी करने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने गहरी साँस ली... – काश ऐसा हो पाता कि कबंल के नीचे का अँधेरा, उसे दुनियादारी से मुक्त और दूर कर पाता...। उसने बहुत एहतियात से कंबल को उठाया जैसे ये उसका सुरक्षा घेरा हो और वो उसे छूकर आश्वास्त होना चाहती हो...।

17/07/2011

....मुझको सन्नाटा सदा लगता है!


वो नहीं जानती है कि उसकी आँखें मुझे उसके सारे हाल की चुगली कर देती है। उसे तो बस ये भ्रम है उसके अंदर का तूफान बे-आवाज आता है और गुजर जाता है, किसी को उसकी खबर नहीं लगती है। मैं भी उसके भ्रम को भ्रम ही रहने देता हूँ। उस दिन भी हम दोनों एक रिसर्च पेपर के लिए नोट्स ले रहे थे, और उसके अनजाने ही उसकी बेचैन तरंगें मुझे लगातार झुलसा रही थी... जला रही थी। बार-बार उसका गहरी साँस लेना... मुझे भी बेचैन कर रहा था, लेकिन पता नहीं कैसी जिद्द में था कि बस... पूछा ही नहीं। ये जानते हुए भी कि वो खुद अपनी बेचैनी का पता कभी नहीं देगी...। हम दोनों के बीच बहुत बातें हुआ करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जो अनकहा ही रह जाता है। पता नहीं उसमें से भी कितना हम दोनों समझ पाते हैं और कितना छूट जाता है!
वो एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में बाहर जाने वाली थी। उसने कुछ कहा नहीं था, मैंने कुछ पूछा नहीं... सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वे अपना सामान निकालकर ताला लगा रही थी। मुझे देखकर वह चौंकी नहीं... ऐसे जैसे... वो तो जानती ही थी कि मैं पहुँचूगाँ ही...। बिना कुछ कहे मैंने उसका एयरबेग उठा लिया। वो भी कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई। वो कहीं और थी... गियर बदलने की मजबूरी के बाद भी... पता नहीं कैसे मैनेज कर लेता हूँ और उसके हाथ पर अपना हाथ रख देता हूँ। वो सूनी आँखों से देखती है, कुछ नमी तैरती है और इशारे से सामने देखने की ताकीद करते हुए फिर कहीं गुम हो जाती है। गाड़ी के जाते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं बहुत थक गया हूँ और अभी यहीं आराम करना चाहता हूँ। खाली स्टेशन पर हाल ही में खाली हुई बेंच पर जाकर बैठ जाता हूँ।

उन तीनों दिन में लगभग हर दिन उससे बात हुई थी, लेकिन कल दिनभर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ मैं बिज़ी रहा, कुछ वो और कुछ नेटवर्क... तो बात हो ही नहीं पाई। आज उसे लौटना है।
सुबह से ही जैसे मुझे किसी आहट का इंतजार है। आज मेरी छुट्टी है और दिन भर सामने पसरा है एक लंबे-चौड़े मैदान की तरह... अब मुझे उससे खेलने की स्कील जुटानी है। मोबाइल बजा तो कई बार... लेकिन मेरी चेतना जैसे किसी खास आवाज की राह देख रही है। शाम... जब आधी नींद और पूरी खुमारी के बाद जागा तो आखिर वो आहट सुनाई दी।
कहाँ हो...?
घर पर ही, कब लौटी? – जानते हुए एक बेकार-सा सवाल।
मैं आ रही हूँ। - सारी औपचारिकता को दरकिनार कर धरती-सी उदारता के साथ उसने सूचना दी।

दिन भर तेज धूप रही, लेकिन शाम घिरते ही ना जाने कैसे आसमान पर बादल जमा होने लगे। उसके आने की खुशी में मैंने घर की हर चीज को छूकर देखा... पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरी ही तरह मेरे घर को भी उसकी आमद का इंतजार है। उसकी ही गिफ्ट की हुई बाँसुरी की सीडी लगाई... और आवाज को बहुत धीमा कर दिया। बॉलकनी में दो कुर्सियाँ और टेबल लगाई, क्योंकि वो जब भी आती है, यहीं आकर बैठती है, बिल्डिंग के पिछले हिस्से में कॉलोनी के बगीचे के ठीक उपर ही है मेरी बॉलकनी...। घर के सारे दरवाजे-खिड़की और पर्दे खोल दिए। वो जब आई तब तक ठंडी हवाएँ चलने लगी थी। उसने पर्स सोफे पर पटका और सीधे बॉलकनी की कुर्सी में जाकर धँस गई। वो अपने टूर के बारे में बता रही थी, मैं उसे सुन रहा था... देख रहा था। अचानक उसकी बेचैन साँस ने मुझे फिर से छुआ, एक सिहरन हुई... वो उठकर अंदर आ गई...। उसने शिकायत-सी की - कितना शोर है!
पार्क में खेलते बच्चों की चिल्लपों के साथ ही आसपास के और भी लोग लगता है कि अच्छे मौसम को लूटने के लिए पार्क में जमा हो गए थे और उन सबकी सम्मिलित आवाजें... नीचे से गुजरते वाहनों का शोर... मुझे भी महसूस हुआ कि वाकई बहुत शोर हो रहा है। वो ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गई। सोफे की पुश्त पर सिर रखा – ये लाइट और ये म्यूजिक सिस्टम बंद कर सकते हो? – उसने जैसे गुज़ारिश की।
यार... आजकल मैं लाइट और साउंड को लेकर बहुत संवेदनशील हो चली हूँ। मुझे लगता है कितना शोर है आसपास... कितनी आवाजें आ रही है। मुझे रोशनी बेचैन करने लगी है। टीवी, रेडियो, वाहनों यहाँ तक कि पंखे के चलने की आवाज... और कभी-कभी तो घड़ी की सुईयों के सरकने की आवाज तक मुझे बेचैन किए देती है। - उसने अपनी हथेलियाँ खोलकर उँगलियाँ अपने बालों में कस ली। बाहर तेज बारिश होने लगी तो पार्क पूरा खाली हो गया। एक तरह से सारी कृत्रिम आवाजें बंद हो चली थी। वो उठकर बॉलकनी में आ गई।
मैंने उससे पूछा - चाय पिओगी...?
हाँ, नींबू है...?
नींबू चाय पीना है? – मुझे याद आया... उसे पसंद है। उसने कहा कुछ नहीं... बस गर्दन हिलाकर हाँ कर दी।
यूँ भी शाम उतर रही थी और फिर घने बादलों ने रोशनी और भी कम कर दी थी। धीरे-धीरे अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। मैं किचन में चाय बनाने चला आया। चाय लेकर लौटा तो लाइट जा चुकी थी। बारिश बहुत तेज होने लगी थी... अब सिर्फ बादलों के बरसने की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज शेष नहीं थी। स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी में उसने चाय का गिलास उठा लिया था। उसने बहुत मायूसी से कहा – शोर है दिल में कुछ इतना/ मुझको सन्नाटा सदा (आवाज़) लगता है। बिजली की चमक में उजाले में मैं उसकी आँखों में समंदर उतरते देखता हूँ और खुद को उसमें डूबते पाता हूँ। एक गहरी साँस आती है, मेरा समंदर तो ये भी नहीं जानता है कि कोई उसके खारे पानी में घुट कर मर रहा है।
चाय का सिप लेकर गिलास को दोनों हाथों में थामते हुए वे कहती है – नाइस टी...।

29/05/2011

इंतजार... उसकी स्लेट के धुलने का...


हर सुबह मैं इस हसरत से जागता हूँ कि आज उसकी स्लेट पर कुछ अपने मन का लिखूँगा और लगभग हर दिन पाता हूँ कि उस पर इतना कुछ घिचपिच होता है कि मेरे लिखने के लिए जगह ही नहीं बचती। कुछ जिद्द तो मेरी भी है कि घिचपिच में मैं अपना कुछ नहीं लिखूँगा...। तो हर दिन यूँ ही जाया हो रही है जिंदगी...। आज भी बहुत गर्म-सी सुबह जब चाय की ट्रे लेकर उसने मुझे जगाया तो आँखों में झुंझलाहट थी... – आज सन्डे है और आज भी मैंने ही चाय बनाई है।
मैंने मुस्कुराकर जवाब दिया – ठीक है, कल मैं बना दूँगा।
उसके चेहरे का तनाव ढीला हुआ और उसने भी रूठी-सी मुस्कुराहट फैलाई...। आज भी बहुत गर्मी है... है ना..? – थोड़ी देर बाद उसने कहा और मुझसे सहमति चाही। मैंने उसकी तरफ देखा... तुम्हारा सिरदर्द कैसा है? वो और मृदु हो आई, बोली - नहीं सिरदर्द नहीं है, क्या तुम्हें गर्मी नहीं लग रही है?
आज भी पूरी स्लेट घिचपिच है। अखबार पढ़ते हुए पूरे समय वो चुप थी... एक बेचैन चुप...। मैं उसकी बेचैनी को देख रहा था, बरसों-बरस उसे दूर करने की कोशिशें की, अब हारने लगा हूँ। समझ नहीं पाता कि ये क्यों है और कब तक ऐसी ही रहेगी। आम तौर पर उसे देखकर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वो बेचैन है। बेतरह शांति होती है, उसके चेहरे पर, लेकिन मैं जान पाता हूँ कि ये शांति कितनी बाहरी है। - मेरे होंठो का तबस्सुम दे गया धोखा तुझे/ तूने मुझको बाग़ जाना देख ले सेहरा हूँ मैं... कहती हुई-सी, चुनौती देती हुई। वो घर का हर काम एक अद्भुत लय के साथ करती है, लेकिन जैसे ही खुद के साथ खड़ी होती है, सारी लय ऐसे टूट जाती है, जैसे मंत्रमुग्ध हो चुकी संगीत सभा में झटके से सितार का कोई तार टूट जाए। अब वो अपने साथ है, कभी कोई पत्रिका उठाती है, पलटती है, कुछ एकाध पन्ना पढ़ती है... रख देती है। फिर किताबों की रैक की तरफ जाती है, लेकर आती है कोई किताब... कभी कोई पढ़ा हुआ फिक्शन... मुझे लगता है चलो इसे पढ़कर कुछ व्यवस्थित होगी, लेकिन उसके कवर को सहलाती रहती है, फिर कहीं कोई पन्ना खोलकर उसे पढ़ती है और बंद कर फिर से रैक की तरफ लौट जाती है। इस बार उसके हाथ में नॉन फिक्शन है। शायद किसी लेखक की डायरी-सा कुछ। बहुत मनोयोग से पढ़ती है, लेकिन फिर लगता है कि सब कुछ टूट गया है और वो उसे वहीं पटक देती है। अब वो लेटकर छत को ताकने लगी है, कोई टूटा-फूटा संदर्भहीन वाक्य कहती है और फिर चुप हो जाती है। झटके से उठती है... बालों को समेटकर जूड़ा बनाती है – बहुत बेचैनी है, कितनी गर्मी हो रही है। मैं उसे देख रहा हूँ, बहुत बेबसी से उसकी भीतरी बेचैनी को सतह पर आते, जिसे वो लगातार गर्मी के पीछे छुपा रही है।
बहुत देर से अपने म्यूजिक कलेक्शन का ड्रावर खोले बैठी है। कोई सीडी निकाल कर लगाती है। पंकज मलिक का गाना – पिया मिलन को जाना... बजता है। सुनो कैसे सरल शब्दों में कैसी फिलॉसफी कह दी है। - वो अभिभूत होकर कहती है। मैं उसे सुनने लगता हूँ। वाकई! – जग की लाज मन की मौज दोनों को निभाना... सच में अद्भुत...। उसकी आँखों में चमक आ जाती है। मैं देख रहा हूँ धूप-छाँह का खेल... मैं उसकी स्लेट को टटोलता हूँ, लेकिन घिचपिच बरकरार है। एकाएक वो चिढ़कर म्यूजिक सिस्टम बंद कर देती है।
मुझे कुछ बहुत अच्छा खरीदना है... – वो कह रही है।
क्या बहुत अच्छा? - मुझे उम्मीद होती है। शायद कुछ लय बँधे।
कितने दिनों से कुछ अच्छा म्यूजिक, कोई अच्छी किताब नहीं खरीदी।
जो कुछ है तुम्हारे कलेक्शन में वो सब कुछ तुमने सुन-पढ़ लिया है? – मैं उसे चिढ़ाता हूँ।
हाँ, जो कुछ अच्छा था, सब सुन-पढ़ लिया है, अब मुझे कुछ नया चाहिए।
नया... और अच्छा...? – मैं उसे फिर चिढ़ाता हूँ। वो सोचने लगती है।
हाँ, नया और अच्छा...- फिर खुद ही हड़बड़ाती है – नहीं मतलब कुछ बहुत पुराना जो हमारे लिए नया है। मतलब जिसे हमने नहीं सुना-पढ़ा है। हाँ कुछ क्लासिकल और इंस्ट्रूमेंटल तो नया मिल ही सकता है ना...। कुछ ऐसे क्लासिक्स जो हमने नहीं पढ़े हैं।– उसके चेहरे पर चमक लौटती है।
चलो, आज चलते हैं।– मैं कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ। बिना स्लेट देखे।
आज... – कुछ मेरे अंदर कौधता है, वो कुछ सोचती है – नहीं, आज नहीं... कौन सन्डे बर्बाद करे। - मैं बुझ जाता हूँ। स्लेट पर अब भी घिचपिच है।

अधूरी नींद में घड़ी देखती है। उठो पाँच बज गए हैं... चाय पिलाओ।
ऊँ... हाँ... दस मिनट...। – मैं गहरी नींद में हूँ, वहीं से जवाब देता हूँ। थोड़ी देर बाद सुबह की झुँझलाहट को खींचकर लाती हुई वो उठाती है। - सुबह भी मैं ही चाय बनाऊँ और दोपहर को भी।
मैं थोड़ा आँखें तरेरता हूँ – मैंने कहा था मैं बनाता हूँ, तुम्हें इतनी क्या जल्दी थी?
हुँ...ह... आधे घंटे से सो रहे हो। दस मिनट पता नहीं कब होते...! – झूठमूठ गुस्सा दिखाती है। जब मैं शरारत से मुस्कुराता हूँ, तब। स्लेट थोड़ी साफ होती दिखती है। वो सारे पर्दे खींच देती है। शाम कमरे में उतर आती है। मैं इशारा करता हूँ, लाईट जला दो...।
अच्छा लग रहा है। - वो खारिज कर देती है। फिर से उठकर म्यूजिक सिस्टम की तरफ बढ़ती है। कोई बहुत पुरानी कैसेट लगाती है। जगजीतसिंह गा रहे होते हैं। - बरसात का बादल का दीवाना है क्या जाने/ किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है। हम दोनों ही डूबने लगे हैं। दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है/ मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है। उसकी स्लेट कुछ-कुछ साफ होते दिख रही है, लेकिन दिन उतर गया है, मैं उदास हो जाता हूँ। मगर उसपर शाम के चढ़े नशे को देखता हूँ, तो कहीं से उम्मीद की किरण झाँकती है।

बाहर निकलते ही ठंडी हवा का झोंका छूकर गुजरता है। हुँ.... शब-ए-मालवा... वो किलकती है। - अच्छा लग रहा है ना...! दिन में तो कितनी गर्मी थी।
चलो... अंत भला तो सब भला। मैं खुद से ही कहता हूँ।
पता है मुझे गर्मी क्यों पसंद है। क्योंकि उसकी शामें और रातें बहुत खुली-खुली लगती है। ऐसी जैसे कि दिन फैलता-पिघलता रात में घुल रहा है। अँधेरे कमरे की खुली हुई खिड़की से बाहर के खुलेपन को दिखाती हुई वो कहती है, - लेकिन फिर भी बारिश तो बारिश है, कब आएगी बारिश... वो बच्चों की-सी विकलता से पूछती है।
पार्श्व में बेगम अख्तर गा रही है – हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब/ आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया...।
वो फिर किलकती है, मुझे बारिश का बेसब्री से इंतजार है। मैं कहता हूँ – मुझे भी...। सोचता हूँ - क्योंकि बारिश में उसकी स्लेट भी धुल जाएगी और मैं अपने मन का कुछ लिखूँगा, कोई कविता जो उसे परिभाषित करे... फिर खुद ही बुझ जाता हूँ, कर पाएगी क्या कोई...?

15/05/2011

उसकी क़ुर्बत (नजदीकी, निकटता)....


वो अक्सर बंद रहती है, कभी-कभी ही खुलती है। मैं उससे कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा खुला होना मुझे अपनी सफलता लगती है, लेकिन कह नहीं पाता हूँ। मुझे लगता है कि वो समझती है कि मैं उसे प्यार करने लगा हूँ, लेकिन वो कभी कुछ नहीं कहती। मैं भी उसे कुछ कह नहीं पाता। जब कभी वो मेरे साथ होती है, मैं उसे जीना चाहता हूँ, पर अक्सर वो मुझे बंद ही मिलती है। बहुत सारी उलझनों के साथ वो मेरे सामने आती है और मैं उसे सुलझाने में ही व्यस्त हो जाता हूँ, ऐसे ही वो लम्हे गुजर जाते हैं। उससे दूर उसका साथ मैं ज्यादा जी पाता हूँ, उसकी यादों को सजाता रहता हूँ, उससे प्यार करता हूँ, उससे बात करता हूँ, खोलकर अपना दिल उसके सामने रख देता हूँ, उससे दूर वो मेरे सामने खुलती है, महकती है, गुलाब और रजनीगंधा की तरह...।
आज उसका फोन आया – क्या कर रहे हो?
मैं कहना चाहता हूँ, तुम्हारी यादों को तरतीब दे रहा हूँ, लेकिन कह नहीं पाता। जवाब देता हूँ – कुछ नहीं... बोलो....।
वो हमेशा सीधे ही सवाल पूछती है। कभी हलो हाय नहीं कहती। पता नहीं वो मुझसे ही ऐसे बात करती है या ये उसका स्टाइल ही है, बिना किसी लाग-लपेट के सीधे काम की बात। पूछती है – फुर्सत है?
मैं सोचता हूँ कितना खड़ा बोलती है। याद आता है, जब वो बंद होती है, तब बहुत विनम्र होती है, बहुत नपी-तुली... उसके शब्दो में ‘संतुलित’...। जब खुलती है तो प्राकृत हो जाती है। हँसी आई थी ये सोचकर कि हमेशा ही उल्टा करती है।
मैं फिर कहता हूँ – बोलो...
वो आदेश देती है - घंटे भर में म्यूजिक प्लेनेट पहुँचो।
मुझे उसका आदेश देना अच्छा लगता है। वो अक्सर कहती है कि – स्त्री शासित होना चाहती है। क्योंकि यही उसका इतिहास रहा है, उसकी आदतों का इतिहास। और हँस पड़ती है। आज मुझे लगा कि कभी-कभी पुरुष भी चाहता है कि कोई उस पर शासन करे। शायद वो भी बदलाव चाहता है। या फिर भारहीन या मुक्त होना चाहता है, हर वक्त निर्णय लेने की दुविधा से...। या फिर किसी को, जिसे वो पसंद करें, शासन करने का अधिकार देना चाहता है। जो भी हो, मेरे मन के किसी कोने ने मुझसे कहा कि आज वो खुली हुई है।
आज मैं उसे बहुत करीने से पाता हूँ। बहुत सारे चटख और खुले रंग की लाइनिंग के कुर्ते के साथ फिरोजी रंग का चूड़ीदार और दुपट्टा... पूरी तरह से फेमिनीन... अक्सर तो वो अपनी ड्रेसिंग को लेकर लापरवाह ही हुआ करती है। आज वो खुली हुई है।
जब हम वहाँ से निकले तो उसके हाथ में बहुत सारी सीडीज थी। वो मेरे साथ बैठी है, मैं जानना चाहता हूँ – अब कहाँ? लेकिन नहीं पूछता, इंतजार करता हूँ, उसके कहने का... वो चुप है। चाभी घूमाता हूँ और एक्सीलरेटर पर पैर रखकर गाड़ी आगे बढ़ा लेता हूँ। फिर से उम्मीद करता हूँ कि वो निर्देश दें, वो अब भी चुप है। मैं उसकी तरफ देखता हूँ, वो सामने देख रही है, निर्विकार... निर्लिप्त... निस्संग...। न वो कहती है और न मैं पूछता हूँ कि – कहाँ? आज वो खुली हुई है।


मेरा म्यूजिक सिस्टम भी जैसे उसी का इंतजार करता है। कभी-कभी तो मुझे उसे हाथ लगाते हुए ही डर लगने लगता है कि कहीं वो मुझे करंट मारकर झटक ही न दें। बस इसी डर से मैं उसे कभी हाथ ही नहीं लगाता हूँ, जब कभी वो आती है, तब वही इसे ऑन करती है, जैसे आज किया। वो एक-एक कर सीडीज खोलती जा रही है। जैसे बच्चे को अपना मनपसंद खिलौना मिलने पर खुशी होती है, बस खुशी का वही रंग उसके चेहरे पर नजर आ रहा है। वो आज खुली हुई है, अक्सर तो वो बंद ही होती है, अपनी उलझनों के दायरों में...। मुझे म्यूजिक की समझ वैसी नहीं है, जरूरी भी क्या है? कोई इंस्ट्रूमेंटल पीस... शायद संतूर बजने लगा है, अच्छा लग रहा है। वो हमेशा की तरह जमीन पर बैठी है और उसका सिर सोफे पर टिका हुआ है। पैर फैलाते हुए पूछती है, क्या पिला रहे हो? मेरा मन किया कि मैं उसका सिर अपनी गोद में रखकर सहलाऊँ, लेकिन पूछता हूँ – क्या पीना चाहती हो?
वो शरारत से मुस्कुराती है, क्या है तुम्हारे पास...? वही सॉफ्ट ड्रिंक्स...
मैं झेंप जाता हूँ। जब मैं लौटता हूँ, तो उसे जमीन पर कुशन लगाते हुए देखता हूँ। वो इशारे से मुझे अपने पास बैठने के लिए बुलाती है। मैं बच्चों की तरह उसकी बात मानकर जमीन पर उस जगह बैठ जाता हूँ, जहाँ पर अभी तक वो बैठी हुई थी। अचानक वो कुशन पर सिर रखकर लेट जाती है। सिर पर उसकी बाँह पड़ी हुई है और दुपट्टा गले में सिकुड़ गया है। उसकी उठती-गिरती साँसें मेरे सीने पर हल्के-हल्के दस्तक दे रही है। उसकी बंद आँखें मुझे उसे देखते रहने की सुविधा दे रही है। मैं उसे चूमना चाहता हूँ, लेकिन... ।
जून उतर रहा है और बादलों की आवाजाही तेज हो गई है। अचानक बादल कड़कते हैं और बिजली गुल हो जाती है। शाम हो रही है और अँधेरा घिर आया है। वो आँखें बंद किए हुए ही कहती है, पर्दे हटाकर खिड़कियाँ खोल दो...। मैं वैसा ही करता हूँ। भूरे बादल कमरे में आ पसरते हैं, उनके बीच उसका चेहरा रह-रहकर कौंध जाता है। वो एक क्षण को आँखें खोलती है, मुझे लगता है कि वो मुझे आमंत्रित कर रही है। मैं उठकर उसके करीब चला जाता हूँ, वो फिर से आँखें बंद कर लेती है। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि मैं उससे प्यार करता हूँ, मुझे लगता है कि वो ये समझती है। मैं उस पर झुक जाता हूँ और... पहली बार... उसे चूम लेता हूँ। उसकी आँखें अब भी बंद है। मुझे अक्सर लगता था कि जब कभी मैं उसके करीब जाऊँगा... बहुत करीब... तो सालों से संचित उन्माद से सारे बंधन तहस-नहस कर दूँगा। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि मैं संयत हूँ – उसकी क़ुर्बत में अजब दूरी है, आदमी हो के खुदा लगता है...। मैं फिर अपनी जगह लौट जाता हूँ। बारिश के पहले की आहट है। हवाएँ सनसनाने लगी है, मुझे महसूस हो रहा है कि वो खुद में गहरे उतर गई है, और मैं यहीं कहीं छूट गया हूँ। एकाएक मैं खुद को फालतू लगने लगता हूँ। चौंकता हूँ उसकी आवाज सुनकर... उसकी आँखें मूँदी हुई है और वो गा रही है – आप ये पूछते हैं दर्द कहाँ होता है/ एक जगह हो तो बता दूँ कि यहाँ होता है...।
उसने कभी बताया था कि अपने बचपन में उसने कुछ दिन संगीत सीखा है, सुना पहली बार। सुर अनगढ़ है लेकिन आवाज दर्द और उसके अहसास से भरी हुई है। वो डूब गई, बहुत गहरे क्योंकि ऐसा लग रहा है कि उसकी आवाज बहुत दूर से आ रही है, आज वो खुली हुई है। मैं अपने मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर देता हूँ, - आप आए तो सुकूं आप न आए तो सुकूं/ दर्द में दर्द का अहसास कहाँ होता है... दिल को हर वक्त तसल्ली का गुमां होता है/ दर्द होता है, मगर जाने कहाँ होता है।
वो गा रही है, एक-एक कर उसने गज़ल के सारे शेर गाए... मैं आश्चर्य में हूँ, मैंने पहली बार उसे इतना स्थिर, इतना शांत पाया। अब वो चुप है, उसकी आँखें अब तक बंद है। बहुत देर तक मैं उसके बाहर आने का इंतजार करता हूँ। बाहर से आने वाले झोंके के साथ मिट्टी की सौंधी-सी खूशबू अंदर भर आती है। मैं इंतजार करता हूँ, उसके चिहुँकने का, उसे पहली बारिश जो पसंद है... नहीं उसे बारिश ही पंसद है, लेकिन वो नहीं लौटती, शायद वो सो गई है। मैं धीरे से उठता हूँ, बॉलकनी में चला आता हूँ। पर्दा खींचकर मोबाइल में रिकॉर्ड हुई उसकी आवाज सुनता हूँ। सुनते-सुनते खुद भी डूब जाता हूँ। बड़ी-बड़ी बूँदें बरसने लगती है। एक बार फिर उसकी गज़ल खत्म हो जाती है, फिर भी चल रही है, अंदर...। हल्की-हल्की फुहारें लग रही है, मीठा और अच्छा-सा लगने लगा है। मुझे वहम होता है कि पर्दा सरका, मन करता है कि एक बार वहम की तस्दीक कर लूँ, लेकिन नहीं करता। फिर लगता है कि वो मेरे पैरों के पास आकर बैठी है और अपना सिर उसने मेरी गोद में रख लिया है, मैं उसके सिर को थपक रहा हूँ। मैं फिर से तस्दीक करना चाहता हूँ, लेकिन डर के मारे आँखें नहीं खोलता...।
मुझे भी आज पता नहीं कैसे मुक्ति का अहसास हो रहा है, एकदम शांति और भारहीनता, जैसे अंतरिक्ष में होती होगी... । शायद इसलिए कि आज वो खुली हुई है... और मैंने उसके खुले होने को कैद कर लिया है, अपने ज़हन में और अपने मोबाइल में भी...

15/10/2009

गुम हो चुकी लड़की....छठी कड़ी


गतांक से आगे....
प्लेन से उतर कर एयरपोर्ट पर आते ही रिज़वान दिखाई दे गया जोर-जोर से तख़्ती हिलाता हुआ। मैं तेजी से उसकी तरफ पहुँचा तो वह तपाक से गले लग गया। मैंने हँसते हुए कहा-- वहाँ जर्मनी में भी तुम ऐसे ही मिले थे मुझे तख़्ती हिलाते हुए, तब मैं तुम्हें और तुम मुझे नहीं जानते थे....लेकिन आज ये क्यूँ? अब तो हम दोनों एक दूसरे को जानते हैं।
उसने हँस कर कहा--- दुनिया की भीड़ में कहीं तुम मुझे अनदेखा न कर दो, इसलिए...।
रिज़वान से मैं जर्मनी में ही मिला था, वहाँ वह कंपनी का काम मुझे हैंडओवर कर हिंदुस्तान लौट रहा था, उसके ही फ्लैट में फिर अगले पाँच साल मैं रहा था। मुझे 15 दिन की छुट्टी मिली थी, फिर बैंगलूरू ज्वाइंन करना है। आज तो पहुँचा ही हूँ.... कल हेडऑफिस रिपोर्ट करूँगा, फिर घर चला जाऊँगा....। रिज़वान मुझे अपने सातवीं मंजिल स्थित फ्लैट में पहुँचाकर ऑफिस चला गया और कह गया कि सात बजे आऊँगा.... फिर पार्टी में चलेंगे।
फ्रेश होकर खाना खाया थोड़ी देर टीवी देखा फिर लगा कि नींद आ रही तो सो गया। शाम को रिज़वान ने ही उठाया, वह पाँच बजे ही आ धमका...। दोनों ने चाय पी इधर-उधर की बातें की, फिर उसने पार्टी में जाने की बात कही, मैंने उससे कहा-- तुम चले जाओ, मैं यहीं रहूँगा।
उसने इसरार किया।--- मेरी गर्लफ्रैंड की बर्थ-डे पार्टी है, चल मजा आएगा तुझे।
मैंने रहस्य से उसकी ओर देखा... पहली या....!
वह मुस्कुराया- नहीं दुसरी....
पहली का क्या हुआ....?
चली गई स्टेट्स...।
और ये क्या करती है?
शी इज स्ट्रगलर एक्ट्रेस...एकाध टीवी सीरियल में छोटा-मोटा काम मिला है।
शादी करने का इरादा है?
करना तो चाहता हूँ, लेकिन वह नहीं चाहती है।
क्यों...?
कहती है अभी मैंने किया ही क्या है? फिर डर भी लगता है, अभी तो वह स्ट्रगल कर रही है, सक्सेसफुल हो जाने के बाद क्या वह मुझ जैसे प्रोफेशनल के साथ रहना पसंद करेगी....? फिर सोचता हूँ, यदि वह हम आज शादी कर लें और उसके सक्सेस होने के बाद हम निभा नहीं पाए तो....? इसलिए फिलहाल तो कुछ भी नहीं सोच रहा हूँ.... बस लाइफ इंजाय कर रहा हूँ। चल तैयार हो, बहुत हो चुकी बातें...., अभी तो तुझे चार दिन और रूकना पड़ेगा। यह कहने के लिए मल्टीनेशनल है... काम तो सरकारी गति से ही होता है यहाँ।
पार्टी हॉल में तेज रोशनी....तेज संगीत के बीच रिज़वान ने शब्दा और कुछ और दोस्तों से मिलवाया, फिर मैंने उससे पार्टी इंजाय करने का कहकर ड्रिंक लिया और एक कोना पकड़ लिया। आते-जाते, नाचते-हँसते एक दूसरे से मिलते बतियाते लोगों को देखते हुए मेरी नजर एक लड़की पर ठहर गई... वह डांस फ्लोर पर थी.... लगा कि इसे मैं जानता हूँ। पता नहीं कैसे उसने भी मुझे देखा और आश्चर्य से मेरी ओर देखकर हाथ हिलाया और मेरे सामने आकर खड़ी हो गई।
कब आए हिटलर के देश से....?---उसी तरह के तेवर से पूछा।
हिटलर का देश...!--- मैंने हँस कर कहा।- अब तो वो लोग भी उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं, तुम क्यों उन बेचारों के पीछे पड़ी हो?
मैंने उसे इस बीच देखा...लड़कों की तरह कटे हुए बाल... गहरा मेकअप और काले रंग के स्ट्रेप टॉप के साथ उसी रंग का टाईट स्कर्ट और पेंसिल हील.... बहुत बदली और अपरिचित लगी वह मुझे।
इतिहास से कभी भी भागा नहीं जा सकता....वो गाना नहीं सुना... आदमी जो कहता है, आदमी जो करता है जिंदगी भर वो दुआएँ पीछा करती है....संदर्भ से समझना... खैर तुम क्या गाना-वाना समझो तुम तो औरंगज़ेब हो....।--- उसने कहा।
अरे, पहले हिटलर, फिर औरंगज़ेब....क्या इन दिनों बहुत इतिहास पढ़ रही हो....तुम तो साहित्य की स्टूडेंट थी।
दुनिया में कुछ भी साहित्य से बाहर नहीं है, खैर हम फिर से नहीं झगड़ेंगे। तुम यहाँ कब आए....?
आज ही, और तुम यहाँ क्या कर रही हो?
बस यूँ ही सीरियल लिख रही हूँ, तुम ठहरे कहाँ हो?
रिज़वान के घर... दो-एक दिन में घर जाऊँगा।
क्यों नहीं तुम कल मेरे साथ डिनर करो.... बातें करेंगे। कुछ इतिहास याद करेंगे।
बिना कुछ सोचे मैंने उसे डिनर के लिए हाँ कर दी।
क्रमशः



निवेदनः इस लंबी कहानी को शुरू किया था तो इसका रंग-रूप कुछ दूसरा था....लेकिन पहली ही कड़ी के बाद मुझे यह अहसास हो गया था कि यह कहानी मैं नहीं लिख रही हूँ......यह मुझसे लिखवाई जा रही है। पात्रों को खड़ा करते ही वे मेरी गिरफ्त से बाहर हो गए और अपने-अपने रास्ते चल पड़े। इसलिए यह वैसी नहीं बन पाई जैसी मैं इसे बनाना चाहती थी। अब चूँकि अगली कड़ी में इस कहानी का समापन होने जा रहा है, मै अपने उन पाठकों से जो इसे लगातार पढ़ रहे हैं, निवेदन करना चाहूँगी कि, अब तक की कहानी को पढ़ने में उनके मन में जो चित्र बने हैं, उस आधार पर अपने कमेंट में वे यह बताएँ कि इसका अंजाम उनकी नजर में क्या हो सकता है? इस बात के लिए निश्चिंत रहें कि इससे कहानी के अंत पर कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा है। इस सारी कवायद का उद्देश्य मात्र मेरा लेखक (मात्र शब्द है, यहाँ भाव नहीं है) होने को रेटिंग देना है।

14/10/2009

गुम हो चुकी लड़की....पाँचवी कड़ी


गतांक से आगे..
दीपावली मना चुकने के बाद परीक्षा की तैयारी का दौर शुरू हो चुका था....। शामें हल्की-हल्की ठंडक लेकर आने लगी थी। दोस्त के यहाँ सुबह से शाम तक पढ़ने के बाद देर शाम घर लौट रहा था कि गली के मुहाने पर मैंने उसे बदहवास हाल में पाया। दुपट्टा और टखने की तरफ से फटी हुई सलवार, कुहनी छिल गई और कलाई से खून टपक रहा था। उसके काईनेटिक के फुट रेस्ट पर लटके पालीथिन भी रगड़ गई थी और उसमें से सामान झाँक रहा था.... मैंने घबराकर पूछा--- क्या हुआ....?
उसके आँसू ही निकल आए.... पालीथिन बैग में पैर फँस गया और गिर गई...।
और ये कलाई में से खून क्यों निकल रहा है....?---खून देखकर मैं घबरा गया था। अपने जेब से रूमाल निकाल कर कलाई को बाँधा।
पता नहीं शायद कोई काँच का सामान टूट कर चुभ गया हैं।
मैंने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी की और उसकी गाड़ी पर उसे बैठाया और घर छोड़ा.... जब अपनी गाड़ी लेकर घर पहुँचा तो माँ वहाँ जा चुकी थी।
चाची ने उसे पानी पिलाया और दीवान पर लेटा दिया। उसकी कटी हुई कलाई की ड्रेसिंग करते हुए बड़बड़ाई।--इस लड़की के मारे तो नाक में दम है। घर में इतने कप पड़े हैं, फिर भी चाय पीने के लिए इसे गिलास चाहिए।
गिलास....!---एकसाथ माँ और मैं दोनों ने पूछा...।
हाँ और नहीं तो क्या... कहती है कि सर्दी में काँच के गिलास में चाय पीना अच्छा लगता है। --- चाची ने कहा।
लेकिन अभी दीपावली पर ही तो हम दोनों काँच के गिलास लेकर आए थे...।-- माँ ने चाची से कहा।
वो तो गर्मी में शरबत पीने के गिलास है। सर्दी में चाय पीने के लिए नहीं है। सर्दी में तो लंबे और सँकरे गिलास होने चाहिए चाय के लिए....।--- अब तक वह स्वस्थ हो चुकी थी, इसलिए मासूमियत से बोली।
मुझे हँसी आ गई...तो वह चिढ़ कर बोली.... तुम्हें को कुछ समझ में आता नहीं है। सर्दी में चाय ज्यादा गरम चाहिए और चौड़े कप में जल्दी ठंडी हो जाती है, फिर उसकी क्वांटिटी भी अच्छी चाहिए... इसलिए काँच के गिलास चाहिए चाय के लिए....तुम तो निरे बुद्धु हो....।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं उसे सोचने लगा हूँ....। कभी-कभी तो यूँ भी भ्रम होता है कि मैं उसे जीने ही लगा हूँ। सब कुछ करता हूँ, तब वह मेरे आसपास नहीं होती है, लेकिन जब वह दिखती है तो फिर मेरे वजूद पर ऐसे होती है, जैसे जिस्म पर कपड़े.... फबते और लिपटे हुए-से....।

क्रमशः

13/10/2009

गुम हो चुकी लड़की....चौथी कड़ी



गतांक से आगे
दो दिन से लगातार बारिश हो रही है..... घर से बाहर निकलने की भी मोहलत नहीं मिली। इन दिनों में सर्फिंग-चेटिंग...... मेलिंग-कालिंग.....टीवी और मूवीज सब कुछ हो चुका और अब बुरी तरह से ऊब गया हूँ....। अपने कमरे की खिड़की से बाहर की ओर देख रहा था कि माँ ने बताया कि वो बीमार है।
जब मैं उसके कमरे में पहुँचा तो वह सो रही थी, उसकी टेबल पर कबीर की साखी किताब पड़ी हुई थी। मैं चुपचाप कुर्सी पर जाकर बैठ गया। वह गहरी नींद में थी। उसकी आँखों की कोरों से कानों तक सूखे हुए आँसुओं के निशान थे। बहुत धीमी आवाज में गुलाम अली की गज़ल --- सो गया चाँद, बुझ गए तारे, कौन सुनता है ग़म का अफसाना.... चल रही थी। रोते-रोते सोए बच्चे की तरह ही उसने नींद में सिसकारी भरी। यूँ लगता है कि उसके अवचेतन पर कोई गहरी चोट हो....। मैंने वह किताब उठा ली और उसे उलटने पलटने लगा। तभी चाची कमरे में आ गई....अभी उठी नहीं।
हाँ गहरी नींद में है।
उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखा तो वह चौंक कर उठ गई।
बेटा देख तुझसे मिलने कौन आया है।-- चाची ने कहा और वे हमारे बीच से सरक गई।
अरे.... कब आए..... मुझे उठाया क्यों नहीं।- उसने बीमार आवाज में पूछा।
तुम तो घोड़े बेचकर सो रही थी, मैंने आवाज भी लगाई, लेकिन तुम उठी ही नहीं।-- मैंने झूठ बोला।---क्या हुआ, क्या प्यार का ओवरडोज हो गया?--मैंने चिढ़ाया।
उसके चेहरे पर बहुत बारीक मुस्कुराहट आई।-- प्यार का कभी भी ओवरडोज नहीं होता, तुम नहीं समझोगे.....।
तभी चाची फिर से कमरे में आ गईं। --बेटा तुम्हारे दूसरे डोज का समय हो गया है।
न...हीं....--उसने बच्चों की तरह ठुनकते हुए कहा।
नहीं बेटा दवा नहीं लोगी तो ठीक कैसे होओगी?
उन्होंने उसके हाथ में पानी और दवाई दे दी और चली गईं। वह बहुत देर तक दवाइयों की तरफ देखती रही। मैंने पूछा कब से बीमार हो?
कल रात को तेज बुखार आया फिर उतर गया, फिर सुबह आया अब ठीक है।
चाची ने मेरे हाथ में चाय का कप और उसे दूध का गिलास थमाया और फिर चली गईं।
अब कैसा लग रहा है?
ठीक हूँ, बल्कि हल्का लग रहा है। --उसने चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए कहा।-- यू नो बीमार होकर अच्छे होना बिल्कुल वैसा है, जैसे पुनर्जन्म हो....। सब कुछ नया-नया.... अच्छा लगता है।
इस बीमारी ने उसकी आवाज की चंचलता को गुम कर दिया .... ऐसा लग रहा था, जैसे आवाज बहुत अंदर से आ रही हो, ठहरी.... गंभीर और शांत। उसका चेहरा भी एकदम धुला-पुछा और सौम्य लग रहा था। उसने खिड़की की तरफ देखा... तो, क्या करते रहे दो दिन....? बारिश हो रही है घर से बाहर तो जा ही नहीं पाए होगे?
हाँ यार... सब कुछ करके भी समय नहीं कट रहा था।
उसने चिढ़ाया, क्यों....तुम्हारा इंटरनेट और ये वो... क्या काम नहीं कर रहे हैं? खुद से भागने के तो तमाम साधन है.... कम पड़ गए क्या? कभी खुद के पास ही बैठ कर देखो... हमेशा क्या अपने से भागना।--उसने आँखें मूँद ली।
मैं उसे देख रहा था, वो एकाएक बहुत बड़ी-बड़ी सी लगी....। मैं उसे सह नहीं पाया... और कबीर की शरण में हो लिया।
सुनो, तुम मुझे रजनीगंधा के बल्ब ला दोगे...?---उसने आँखें खोलकर पूछा।
रजनीगंधा के बल्ब....! कहाँ मिलेंगे....?
किसी भी नर्सरी में या फिर बीज की दुकान में। मैं चाहती हूँ कि इस सर्दी में घर के हर कोने में रजनीगंधा महके....।
मुझे उसकी आँखों में महकते रजनीगंधा दिखने लगे थे।
क्रमशः

12/10/2009

गुम हो चुकी लड़की




गतांक से आगे....


उस दिन जोर-जोर से आँधी चलने लगी और बादल घुमड़ आए.... मैं दरवाजे-खिड़कियों को बंद करन के लिए बाहर आया तो वह सामने थी.....चलो थोड़ा घूमकर आते हैं....उसने प्रस्ताव दिया।
पागल हो क्या....? मौसम खराब हो रहा है...। --मैंने कहा। तभी पानी बरसने लगा।
लगता है इस बार मानसून जल्दी आ गया है।
तुम पागल हो...यह मानसून नहीं है, यह मावठे की बारिश है। कभी जेठ में मानसून आता है....!
उसे बारिश में भीगते देखा तो मैंने कहा--भीग रही हो अंदर आ जाओ...बीमार हो जाओगी...।
वह हँसी..कोई प्यार से बीमार होता है क्या?
मैंने उसे आश्चर्य से देखा-- प्यार...
हाँ वेबकूफ.... ये आसमान का प्यार है जो बरस रहा है और तुम्हारे जैसे उल्लू घर में दुबके बैठे हैं। चलो घूमकर आते हैं।--- फिर उसकी रट शुरू हो गई।
मैं उसके साथ हो लिया। रास्ते में वह गड्ढों के पानी में छपाक-छपाक कर बच्चों-सी किलकारी मारती रही। बूँदों को दोनों हथेलियों के कटोरों में इकट्ठा कर पानी को मुझ पर उछालती रही। उस वक्त मुझे लगा जैसे वो कोई छोटी बच्ची हो और मैं उसका गार्जियन.... मैं उसे ये और वो करने के लिए मना करता रहा है और वह बच्चों जैसी शैतानी कर हँसती रही.....। मुझे एकाएक अपना होना बड़ा और महत्वपूर्ण लगने लगा। मेरे मन में अज्ञेय के शेखर ने सिर उठा लिया हो जैसे।
कई दिनों से सुन रहे हैं कि इस बार मानसून जल्दी आएगा। बादल तो गहरा रहे थे....लेकिन लगा नहीं था कि इतनी जल्दी बारिश होने लगेगी। अभी रास्ते में ही था कि बारिश आ गई। वो मुझे फिर से सड़क पर भीगती मिली....। मुझे हँसी आ गई। मैं घर पहुँचा तो उसने पूछा चाय पिओगे...?
तुम बनाओगी....
हाँ बढ़िया चाय.... तेज अदरक की तुर्श स्वाद वाली चाय....एक बार पी लोगे तो लाइफ बन जाएगी।
ये कहाँ से लाई....?
बस.... एकरसता बोर करती है, बदलाव करते रहना चाहिए। आ रहे हो....!-- उसने चुटकी बजाकर जैसे ऐसे पूछा जैसे चेतावनी दे रही हो।
मैंने कहा--कपड़े बदल कर आता हूँ।
घर पहुँचा तब तक वह कपड़े बदल चुकी थी। बालों को तौलिये से पोंछते हुए बोली-- बैठो... चाय बनाती हूँ।
मैंने उसे चिढ़ाया--- अभी तक चाय बनी ही नहीं, चाय है या बीरबल की खिचड़ी?
उसने आँखें तरेरी... मैंने भी कपड़े बदले हैं, फिर बाल तुम्हारी तरह थोड़े ही है एक बार पोंछ लो तो बस सूख ही जाएँगें।
मुझे आश्चर्य हुआ हम-दोनों बचपन से साथ-साथ है फिर भी कभी मेरा ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया कि उसके बाल खासे खूबसूरत हैं। दरअसल मैंने कभी नहीं पाया कि वह लड़की है और मैं लड़का.... शायद उसने भी कभी नहीं सोचा होगा...तभी तो वह मुझसे इतनी बेझिझक है, एकाएक मैं उसे नजरों से तौलने लगा....और फिर खुद ही अपराध बोध से भर गया। पता नहीं कितनी देर बाद उसने मेरी आँखों के सामने चुटकी बजाकर मुझे सचेत किया।
कहाँ हो....! चाय...।
चाय वाकई अच्छी बनी थी, गले में तेज अदरक का स्वाद उतर रहा था, रहा नहीं गया, तुम तो अच्छी चाय बना लेती हो, सीख रही हो..... बहू-बेटियों के गुण....।-- जानता हूँ कि वह भड़केगी और वही हुआ।
ऐ......आगे से कभी ये कहना नहीं.....।
क्रमशः

10/10/2009

गुम हो चुकी लड़की



गतांक से आगे....

देर शाम जब मैं गर्मी से घबरा कर छत पर आया तो उसे देखकर याद आया कि मैं उसे बहुत दिनों बाद देख रहा हूँ। सफेद कुर्ते पर हल्के गुलाबी रंग का दुपट्टा पड़ा हुआ था। अपने बालों को उसने बड़ी बेतरतीबी से उपर बाँध लिया था। उसकी छत की मुँडेर पर फिलिप्स का ट्रांजिस्टर जोर-जोर से मौसम आएगा, जाएगा प्यार सदा मुस्काएगा, गा रहा था। उसकी पीठ मेरी ओर थी और हम दोनों ही आसमान से फिसलते सूरज को देख रहे थे। बहुत देर तक वह यूँ ही खड़ी रही। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि वह थोड़ी उदास है, जबकि मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था। झुटपुटा उतर आया था। छत पर लगे हुए बिस्तरों पर वह लेट गई और आसमान को देखने लगी..... मैंने जोर से आवाज लगाई- बिल्लो.... और मुँडेर की आड़ में बैठ गया। वह उठकर आई और बहुत थकी हुई आवाज में बोली- मुझे मालूम था तुम ही होगे, तुम क्या कर रहे हो छत पर...?
क्यों मैं छत पर नहीं आ सकता?-- मैंने पूछा।
नहीं तुम्हें तो यह मौसम सड़ा हुआ लगता है ना, तो एसी में बैठो ना.... अभी थोड़ी ना ठंडी हवा चल रही है।
मैंने उसे खुश करने के लिए कहा-- मैंने सोचा क्यों न मैं भी तुम्हारी तरह गर्मी से बातें करूँ।
लेकिन वह और भी उदास हो गई, बोली- तुमसे नहीं होगा। उसके लिए तुम्हें 'मैं' होना पड़ेगा, वो नहीं हो सकता.....एक गहरी निःशब्दता दोनों के बीच की जगह में फैल गई....... अँधेरे में मैं उसे देख नहीं पाया.....फिर वह बुदबुदाई..... होना भी मत....बहुत बुरा है 'मैं' होना।
पता नहीं थोड़े-थोड़े दिनों में वह ऐसी क्यों हो जाती है? कोई दुख जैसा दुख नहीं है उसके जीवन में फिर भी गाहे-ब-गाहे वह उदास हो जाती है। यूँ कोई उसकी उम्र भी नहीं है उदास होने की, लेकिन फिर भी। एक दिन जब वह खुश थी मैंने उससे यूँ ही पूछ लिया था--तुम थोड़े-थोड़े दिनों बाद ऐसी अजीब-सी क्यों हो जाती हो?
वह जोर से खिलखिलाई थी- मैंने कहीं सुना था कि लड़कों को उदास लड़कियाँ रहस्यमयी लगती है, इसलिए वे उन लड़कियों से पट जाते हैं.... लेकिन देखती हूँ तुम्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता।
मैं जानता था कि वह मुझे बहला रही है, फिर भी मुझे हँसी आ गई।
क्रमशः

09/10/2009

गुम हो चुकी लड़की


दिसंबर जा रहा था..... वो गुजरते साल का एक और छोटा-सा दिन था...... गुलमोहर के पेड़ के नीचे धूप और छाह से बुने कालीन पर वो मेरे सामने बैठी थी। उसके सिर और कंधों पर धूप के चकते उभर आए थे..... मोरपंखी कुर्ते पर हरा दुपट्टा पड़ा था......कालीन की बुनावट को मुग्ध होकर देखती उस लड़की ने एकाएक सिर उठाया और उल्लास से कहा- बसंत आने वाला है। केसरिया दिन और सतरंगी शामें.....नशीली-नशीली रातें, रून-झुन करती सुबह.... नाजुक फूल..... हरी-सुनहरी और लाल कोंपलें.....ऐसा लगता है, जैसे प्रकृति हमें लोक-गीत सुना रही है।
हल्की सी हवा से उड़कर गुलमोहर के पीले छोटे पत्ते जैसे सिर और बदन पर उतर आए थे। मैंने उसे चिढ़ाया-- और फिर आ जाएगा सड़ा हुआ मौसम.....। उसकी आँखें बुझ गई.....। मैंने फिर से जलाने की कोशिश की.... जलते दिन और बेचैन रातों वाली गर्मी..... न घूम सकते हैं, न सो सकते हैं, न ठीक से खा सकते हैं और न ही अच्छा पहन सकते हैं। बस दिन-पर-दिन जैसे-तैसे काटते रहो....।
उसने प्रतिवाद किया- मुझे पसंद है। नवेली दुल्हन की तरह धीरे-धीरे चलता सूरज..... पश्चिम की ओर मंथर होकर उतरता सूरज, लंबी होती शाम.... बर्फ को गोले....मीठे गाने..... हल्के रंग....दिन की नींद, रातों में छत पर पड़े रहकर तारों से बातें करते हुए जागना....मुझे सब पसंद है।
और उस दिन..... वो बाजार में बसंती रंग का दुपट्टा ढूँढते हुए मिली थी। बसंत पंचमी पर केसरिया और मेहरून रंग के सलवार कुर्ते पर वही खरीदा हुआ दुपट्टा डाले घऱ आई थी। उसके पूरे बदन से बसंत टपक रहा था। माँ ने उसे गले लगाया कितनी सुंदर लग रही है.... मेरी तरफ देखकर मेरी सहमति चाही मैंने भी आँखों से हामी भर दी, लेकिन उसने नहीं देखा।
अपने दोस्तों से मिलकर जब मैं घर लौटा तो वह गली के बच्चों के साथ बर्फ के गोले वाले का ठेला घेरे खड़ी थी। पलटी तो मैं अपनी गाड़ी खड़ी कर रहा था। उसने मुझे देखकर हाथ हिलाया और मुस्कुराई.....गोला मेरी तरफ कर इशारा किया--खाओगे?
मैंने इंकार में सिर हिलाया तो उसने बुरा सा मुँह बना कर ऐसे भाव दिए जैसे गोला नहीं खाया तो मेरा जीना ही बेकार है।
क्रमशः