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27/07/2014

तीन-दुनिया, तीन सच

साहचर्य
जाने क्या तो बेचैनी रही होगी कि रात भर नींद ने अपनी आगोश में नहीं लिया, बस सतह पर ही बहलाती रही। सुबह उठे तो हल्का सिरदर्द था। रविवार का दिन था तो दर्द को सहलाने की सहूलियत भी थी और मौका भी। आसमान बादलों की चहलकदमी से गुलजार था... दिन का रंग बरसात में सुनहरा नहीं साँवला-सा होता जाता है, तो आज भी वैसा ही था। आँखों पर नीम, गुलमोहर और अमरूद की टहनियाँ अपनी पत्तियों के साथ चंदोवा ताने हुए थीं। जाने कब-कहाँ का पढ़ा-सुना याद आने लग रहा था। याद आया कि अपने काम के दौरान मेरी कलिग ने बताया कि प्रकृति की व्यवस्था के तहत किसी भी पेड़ की हर पत्ती को उसके हिस्से की धूप मिलती है, ताकि वह अपना भोजन बना सके। तकनीकी भाषा में इसे ‘photosynthesis’ की प्रक्रिया कहते हैं। लेकिन किसी भी पेड़ को नीचे से देखकर ऐसा अहसास तो नहीं होता है कि इसकी हर पत्ती पर धूप पड़ रही है, लेकिन ऐसा होता तो है। बड़ा अभिभूत करने वाला सच है... पेड़-पौधों की दुनिया में कितना एकात्मवाद है। कोई किसी का हक नहीं छीनता है, कोई किसी के साथ अन्याय नहीं करता है। एक ही पेड़ पर अनगिनत पत्तियों के होते भी किसी एक के साथ भी कोई अन्याय नहीं... प्रकृति कैसे निभाती होगी, इस तरह का संतुलन... और पत्ते रहते हैं कितने साहचर्य से...?

प्रतिस्पर्धा
थोड़ी फुर्सत का वक्फ़ा आया था हिस्से में। बाहर बारिश हो रही थी, हल्की रोशनी में बूँदें गिरती हुई, झरती हुई नजर तो आ रही थी, लेकिन दिन जैसा नज़ारा नहीं था, लेकिन बहुत इंतजार के बाद आखिर बरसात हो रही थी। खिड़की की नेट पर एकाएक एक छिपकली दिखाई दी... बहुत एहतियात से बैठी हुई... ऊपर की तरफ नजरें गड़ाए, जब ऊपर देखा तो झिंगुर नजर आया। ओह... ये झिंगुर की ताक में है। एकदम से चेतना सक्रिय हुई, नेट पर जोर से हाथ मारा... जाने क्या हुआ, झिंगुर पहले उड़ा या फिर छिपकली गिरी, लेकिन झिंगुर की जान बच गई। लेकिन इसके तुरंत बाद ही सवाल उठा ‘किसका भला किया? झिंगुर की जान बची, लेकिन छिपकली... उसका निवाला तो छीन लिया... तो क्या भला किया।’ लगा कि प्रकृति ने जीव-जंतुओं की दुनिया की रचना बड़े निर्मम ढंग से की। यहाँ तो बस प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है। हमने इसे नाम दिया ‘ecology’। चार्ल्स डार्विन ने इसी दुनिया से तो अपने महानतम सिद्धांत का स्रोत पाया था ‘survival of the fittest’। यहाँ की संरचना में जो सबसे प्रतिस्पर्धा में जीत जाएगा वो जीवित रहेगा... लेकिन यहाँ भी मामला जरूरत का है। भूख का है, अस्तित्व का है।

लिप्सा
तो फिर हमारी दुनिया में क्या है? इस दुनिया में हम कुछ भी किसी के लिए नहीं छोड़ते हैं। ecology या पारिस्थितिकी से आगे जाती है, हमारी दुनिया। यहाँ डार्विनवाद भी हार जाता है, क्योंकि यहाँ अस्तित्व का संकट भी वैसा नहीं है। अजीब बात है कि प्रकृति इस सबसे बुद्धिमान जीव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है, लेकिन फिर भी वह संघर्षरत् है। अपनी भूख के लिए नहीं, अपने अस्तित्व के लिए भी नहीं... अपनी लालच के लिए। उस लालच के लिए जिसका कोई ओर-छोर नहीं है।
हर पत्ती नई पत्ती के लिए धूप छोड़ती है। ये वनस्पति की दुनिया की खूबसूरती है। जंतुओं की दुनिया में एक का वजूद दूसरे के जीवन पर निर्भर करता है। ये उनकी दुनिया की कड़वी हकीकत है, जिसे बदकिस्मती से उन्होंने नहीं चुना है। ये दुनिया उन्हें ऐसी ही मिली है। लेकिन हमारी दुनिया... जिसे हमने ही बनाई है। यहाँ का तो कोई सच नहीं है। जिसके हाथ ताकत आई, उसने दूसरे की दुनिया हथिया ली। हमने अपने-अपने अधिकारों पर तो कब्जा किया ही हुआ है, दूसरे के अधिकारों का भी हनन कर लिया है। न हमें इसकी भूख है न जरूरत... बस हमने अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए इस दुनिया को जहन्नुम में तब्दील कर दिया और ये दौड़ है कि कहीं थमती ही नहीं है।

03/05/2014

रचना नहीं, रचना-क्रम आनंद है



महीने का ग्रोसरी का सामान खरीदने गए तो रेडी टू ईट रेंज पर फिर से एक बार नज़र पड़ी। आदतन उसे उलट-पलट कर देखा और फिर वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था। एकाध बार लेकर आए भी, बनाया तो अच्छा लगा लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कुछ बहुत मज़ा नहीं आया। आजकल हिंदी फिल्मों में वो एक्टर्स भी गा रहे हैं, जिनके पास गाने की जरा भी समझ नहीं है। जब उनके गाए गाने सुनते हैं तो लगता ही नहीं है कि ये गा नहीं पाते हैं। बाद में कहीं जाना कि आजकल आप कैसे भी गा लो, तकनीक इतनी एडवांस हो गई है कि उसे ठीक कर दिया जाएगा। अब तो चर्चा इस बात की भी हो रही है कि जापान ने ऐसे रोबोट विकसित कर लिए हैं जो इंसानों की तरह काम करेंगे। मतलब जीवन को आसान बनाने के सारे उपाय हो रहे हैं। ठीक है, जब जीवन की रफ्तार और संघर्षों से निबटने में ही हमारी ऊर्जा खर्च हो रही हो तो जीवन की रोजमर्रा की चीजें तो आसान होनी ही चाहिए। हो भी रही है। फिर से बात बस इतनी-सी नहीं है।
पिछला पढ़ा हुआ बार-बार दस्तक देता रहता है तो अरस्तू अवतरित हो गए... बुद्धि के काम करने वालों का जीवन आसान बनाने के लिए दासों की जरूरत हुआ करती है, तब ही तो वे समाज उपयोगी और सृजनात्मक काम करने का वक्त निकाल पाएँगे। सही है। जीवन को आसान करने के लिए भौतिक सुविधाओं की जरूरत तो होती है और हम अपने लिए, अपने क्रिएशन के लिए ज्यादा वक्त निकाल पाते हैं। लेकिन जब मसला सृजन-कर्म से आगे जाकर सिर्फ सृजन के भौतक पक्ष पर जाकर रूक जाता है तब...?
विज्ञान, अनुसंधान, व्यापार और तकनीकी उन्नति ने बहुत सारे भ्रमों के लिए आसमान खोल दिया है। फोटो शॉप से अच्छा फोटो बनाकर आप खुद को खूबसूरत होने का भ्रम दे सकते हैं, ऐसी रिकॉर्डिंग तकनीक भी आ गई है, जिसमें आप गाकर खुद के अच्छा गायक होने का मुगालता पाल सकते हैं। अच्छा लिखने के लिए अच्छा लिखने की जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा पढ़ने की जरूरत है... कॉपी-पेस्ट करके हम अच्छा लिखने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। इसी तरह से रेडी-टू-ईट रेंज... रेडीमेड मसाले... आप चाहें तो हर कोई काम आप उतनी ही एक्यूरेसी से कर सकते हैं, जितनी कि लंबे रियाज से आती है। इस तरह से तकनीक और अनुसंधान आपको भ्रमित करती हैं और आप चाहें तो इससे खुश भी हो सकते हैं। तो अच्छा गाना और अच्छा गा पाना... अच्छा खाना बनाना और अच्छा खाना बना पाने के बीच यूँ तो कोई फर्क नज़र नहीं आता है। फर्क है तो... बहुत बारीक फिर भी बहुत अहम...। यहाँ रचनाकार दो हिस्सों में बँट जाता है – एक जो अपने लिए है... अच्छा गा पाने वाला या फिर अच्छा खाना बना पाने वाला और दूसरा जो लोगों के लिए है अच्छा गाने वाला और अच्छा खाना बनाने वाला। फाइनल प्रोडक्ट बाजार का शब्द है...।
लेकिन सवाल ये है कि आप जीवन से चाहते क्या हैं? यदि आपका लक्ष्य सिर्फ भौतिक उपलब्धि है, तो जाहिर है आप सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे हैं। आप दूसरों को ये बताना चाहते हैं कि आप कुछ है, जबकि आप खुद ये जानते हैं कि आप वो नहीं है जो आप दूसरों को बताना चाहते हैं। दूसरा और सबसे महत्त सत्य.... सृजन की प्रक्रिया सुख है। बहुत हद तक सृजनरत रहने के दौरान हम खुद से रूबरू होते हैं। रचना-क्रम अपने आप में खुशी है, सुख है, संतोष है। ऐसा नहीं होता तो लोग बिना वजह रियाज़ करके खुद को हलकान नहीं कर रहे होते। पिछले दिनों किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शान (शांतनु) शहर में आए, अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आजकल गाने में वो मज़ा नहीं है, पूछा क्यों तो जवाब मिला कि आजकल आवाज और रियाज़ से ज्यादा सहारा तकनीक का हुआ करता है। आप कैसा भी गाओ... तकनीक उसे ठीक कर देंगी। अब शान तो खुद ही अच्छा गाते हैं, तो उन्हें इससे क्यों तकलीफ होनी चाहिए...? वजह साफ है, इंसान सिर्फ अंतिम उत्पाद के सहारे नहीं रह सकता है, उसे उस सारी प्रक्रिया से भी संतोष, सुख चाहिए होता है, जो उत्पाद के निर्माण के दौरान की जाती है। ऐसा नहीं होता तो अब जबकि जीवन का भौतिक पक्ष बहुत समृद्ध हो गया है, कोई सृजन करना चाहेगा ही नहीं... हर चीज तो रेडीमेड उपलब्ध है। न माँ घर में होली-दिवाली गुझिया, मठरी, चकली बनाएँगी न सर्दियों में स्वेटर बुनेंगी। भाई पेंटिंग नहीं करेगा और बहन संगीत का रियाज़। असल में यही फर्क है, इंसान और मशीन होने में, मशीन सिर्फ काम करती है, इंसान को उस काम से सुख भी चाहिए होता है। जो मशीन की तरह काम करते हैं, वे काम से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और बहुत मायनों में उनका जीवन भी मशीन की तरह ही हो जाता है, मेकेनिकल।
साँचे से अच्छी मूर्तियाँ बनाई तो जा सकती है, लेकिन उससे वो संतोष जनरेट नहीं किया जा सकता है, जो एक मूर्तिकार दिन-रात एक कर मूर्ति बनाकर करता है। सृजन शायद सबसे बड़ा सुख है, उसकी पीड़ा भी सुख है। उससे जो बनता है चाहे उसका संबंध दुनिया से है, मगर बनाने की क्रिया में रचनाकार जो पाता है, वह अद्भुत है, इस दौरान वह कई यात्राएँ करता है, बहुत कुछ पाता है, जानता है और जीता है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी स्त्री माँ बनना नहीं चाहती, क्योंकि उसमें पीड़ा है। हकीकत में जो हम सिरजते हैं, हमारा उससे रागात्मक लगाव होता है, वो प्यार होता है और उसी प्यार को हम दुनिया में खुश्बू की तरह फैलाना चाहते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इंसान सृजन से सुख पाए ही... ऐसा होता तो दुनिया में रचनाएँ चुराने जैसे अपराध नहीं होते। जो रचनाकार होने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं, लेकिन रच पाने की कूव्वत नहीं रखते हैं, वे अक्सर ऐसा करते हैं। तो फिर वे ये जान ही नहीं सकते हैं कि रचनाकार होने से ज्यादा महत्त है रचनारत रहना। इसमें भी जिनका लक्ष्य भौतिकता है, वे सिर्फ रचना पर ध्यान केंद्रित करेंगे, लेकिन जिनका लक्ष्य आनंद है, वे उन सारे चरणों से गुजरेंगे जो रचना के दौरान आते हैं... क्योंकि सुख वहाँ है। सृजन के बाद भौतिकता बचती है, क्योंकि रचना के पूरे हो जाने के बाद वो दूसरी हो जाती है, वो रचनाकार के हाथ से छूट जाती है। तब उसे दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए, लेकिन जब रचना के क्रम में रहती है, तो वह रचनाकार की अपनी बहुत निजी भावना और संवेदना होती है। सुख और संतुष्टि रचनारत रहने में... तभी तो रचनाकार किसी रचना के लिए पीड़ा सहता है, श्रम और प्रयास करता है, क्योंकि वही, सिर्फ वही जान सकता है कि जो आनंद रचने की प्रक्रिया में है, वो रचना पूरी करने में नहीं है।
इस तरह से कलाकार जब सृजन के क्रम में रहता है, तब वह ऋषि होता है और जब उसका सृजन पूरा हो जाता है, तब वह दुनियादार हो जाता है और दोनों का ही अपना सुख है, अपनी तृप्ति है। तभी तो जो रेडीमेड पसंद करते हैं, वो बस भौतिक दुनिया में उलझकर रह जाते हैं और नहीं जान पाते कि आनंद क्या है?






04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।

25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।

16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





31/07/2013

पत्तों के आँसू


सावन लगा तो नहीं था, लेकिन बारिश लगातार हो रही थी। मौसम की मेहरबानी और बेहद अस्त-व्यस्तता भरे ‘लंबे’ हफ्ते के बाद शांत और क्लांत मन... पूरी तरह से सन्डे का सामान था...। ऐसे ही मौकों पर हम अपने आस-पास को नज़र भरकर देख पाते हैं, जी पाते हैं। घर भर पर नज़र मारते हुए ऐसे ही छत के गमलों पर नज़र गई थी। वो बड़े-बड़े पत्तों वाला पौधा एकदम खिल और हरिया गया था। मौसम ने भी तो बड़ी दरियादिली दिखाई है ना...
‘ये इनडोर प्लांट है ना...?’
‘हाँ’
‘तो इसे तो ड्रांईंग रूम में होना चाहिए...’
‘वहाँ, ले चलते हैं।’
वो पौधा ड्रांईंग रूम के कोने में आ पहुँचा था। मन उसे देख-देखकर मुग्ध हो रहा था। हफ्ते के व्यस्तता भरे दिनों में भी आते-जाते उस कोने को देखना खुश कर दिया करता था। सप्ताह की शुरुआत के दो दिन तो ऐसा मौका ही नहीं मिल पाया कि उसके करीब बैठा जा सके। इस बीच एक दिन जरूर उस पौधे के पास की जमीन बड़ी गीली-गीली-सी लगी। नज़र उठाकर छत को देख लिया, कहीं ऐसा तो नहीं छत से पानी टपक रहा हो, आखिर तो महीने भर से लगातार हो रही बारिश को कोई भी सीमेंट कब तक सहन करेगी, लेकिन छत भी सूखी ही थी, फिर लगा कि शायद पास की खिड़की खुली रह गई हो, बौछारें भीतर आ गई हो...। अमूमन काम के दिनों में दिमाग इतने झंझटों में फँसा हुआ करता है कि घर की छोटी-मोटी चीजों पर ध्यान ही नहीं जाता है। उसी शाम बाहर की तेज़ बारिश के बीच घर पहुँची तो सरप्राइसिंगली गर्मागर्म कॉफी का मग इंतजार कर रहा था। अपने कॉलेज के दिनों में कहीं पढ़-सुन लिया था कि कॉफी पीने से दिमाग का ग्रे-मैटर कम हो जाता है और वो काम करना कम कर देता है। यूँ ही दिल हावी हुआ करता है, इसलिए कॉफी से दूरी बना ली थी, पसंद होने के बावजूद...। इसलिए जब बिना अपेक्षा के आपकी पसंद की कोई चीज़ मिल जाए तो इससे बड़ा सरप्राइज और क्या होगा...? खैर तो कॉफी का कप था, विविध भारती पर पुरानी गज़लों का कोई प्रोग्राम चल रहा था, बिजली गुल थी और बारिश मेहरबान...। कोने के उस पौधे के पास ही आसन जमा लिया था, गज़ल के बोल और बारिश की ताल... कुल मिलाकर अद्भुत समां था। अचानक बाँह पर पानी की बूँद आ गिरी थी। फिर से छत को देखा था... आखिर ये पानी आया कहाँ से? खिड़की की तरफ भी नज़र गई थी, उसके भी शीशे बंद थे। फिर सोचा वहम होगा... लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही...। इस बार कोने वाले पौधे को गौर से देखा... उसके सबसे नीचे वाले पत्ते पर पानी जमा था... और तीन-चार पत्तों के नोंक पर पानी की बूँद टपकने की तैयारी में थी... अरे... ये क्या? ये पौधा पानी छोड़ रहा है। जब इसे छत से ला रहे थे तो गमले में भरे पानी को भी निकाल दिया था, लेकिन हो सकता है कि मिट्टी में अब भी इतनी नमी हो कि अतिरिक्त पानी तने से गुज़रकर पत्तों की नोंक से डिस्चार्ज हो रहा हो...। इंटरनेट पर देखा तो इस पौधे को आमतौर पर एलिफेंट इयर या फिर Colocasia esculenta के नाम से जाना जाता है।
कितना अद्भुत है ना प्रकृति का सिस्टम... अतिरिक्त कुछ भी अपने पास नहीं रखती हैं, जो कुछ भी उसके पास अतिरिक्त होता है, वो उसे ड्रेन कर देती है, डिस्चार्ज कर देती है। बारिश के पानी से भरा हुआ लॉन सामने पसरा नज़र आया...। समझ आया कि प्रकृति का सारा संग्रहण हमारे लिए है... कुछ भी वो अपने लिए नहीं रखती है और फिर भी उसके संग्रहण की एक सीमा है? जाने विज्ञान का सच क्या है? लेकिन प्रकृति उतना ही ग्रहण करती है, जितने कि उसको जरूरत है... जितना वो संभाल पाती है। इतना ही नहीं, इंसान को छोड़कर बाकी जीव-जंतु भी... बल्कि तो इंसान के शरीर का भी सच इतना ही है... पेट भरने से ज्यादा इंसान खा नहीं सकता है... बस मन ही है जो नहीं भरता... किसी भी हाल में नहीं भरता है, ये होता है तो कुछ और चाहने लगता है, कुछ ओर हो जाता है तो और कुछ चाहने लगता है... और खत्म होने तक यही चाहत बनी रहती है। और चाहतों का बोझ लिए ही इंसान इस दुनिया से विदा हो जाता है... मरते हुए भी बोझ से छुटकारा नहीं होता... तो फिर सवाल उठता है कि क्या हम कुछ सीखेंगे प्रकृति से....!


11/06/2013

'बड़े' होने का दर्शन बनाम मनोविज्ञान बनाम हवस...


वो दोनों बस इससे पहले एक ही बार मिले थे। और उस वक्त दोनों ने ही एक-दूसरे को ज्यादा तवज्ज़ो नहीं दी थी। इस बार भी दोनों मिले तो लेकिन गर्माहट-सी नहीं थी। शायद दोनों को पिछली मुलाक़ात याद भी नहीं आई। वो दुराव भी याद नहीं था। इस बार मिले तब भी दोनों ही तरफ हल्की-हल्की झेंप थी... नए को लेकर संकोच था। लेकिन हमउम्र थे, इसलिए ये संकोच, झेंप और ठंडापन ज्यादा देऱ ठहर नहीं पाया और दोस्ती हो गई। बचपन किसी भी ‘कल’ को लाद कर नहीं चलता है, उसके लिए हर दिन पहला दिन होता है, शायद इसीलिए वो बेफिक्र होता है...। बड़ों की बातचीत से दोनों ने एक तथ्य जाना कि कनु उम्र में नॉडी से बड़ा है। नॉडी ने उस तथ्य को हवा में उड़ा दिया... क्योंकि उसे ‘छोटा’ होना मंज़ूर नहीं था और कनु ने उसे तुरंत लपक लिया, क्योंकि उसे बहुत दिनों बाद ‘बड़ा’ होने का मौका हासिल हुआ। थोड़ी देर झेंप के खेल के बाद दोनों ने एक-दूसरे से दोस्ती कर ली और साथ खेलने लगे। अब दो हमउम्र बच्चे साथ खेलेंगे तो झगड़ेंगे भी... तो थोड़ी ही देर बाद दोनों के बीच झगड़ा भी हो गया... वज़ह थी बड़ा होना...। कनु ने तो अपनी पसंद का सच लपक लिया था कि वो बड़ा है, लेकिन नॉडी उस सच से बचना चाह रहा था, क्योंकि वो भी बड़ा होना चाह रहा था। खैर... बच्चों के झगड़े क्या? अभी झगड़े और बिना किसी प्रयास के दोस्ती भी हो गई... क्योंकि वही... उनके ज़हन में कोई ‘कल’ नहीं ठहरता है।
दोनों के झगड़े की वजह सुनकर सारे ‘बड़े’ हँसे... हँसने की बात ही थी, अब ये कोई बात है कि कौन बड़ा है, इसे लेकर झगड़ा हो... अब भई जो बड़ा है वो बड़ा है और जो छोटा है, वो छोटा है... लेकिन क्या सचमुच हँसने की ही बात थी? सोचने की नहीं... कि क्यों बच्चा, ‘बड़े’ होने का अर्थ जाने बिना ‘बड़ा’ हो जाना चाहता है! जबकि जो बड़े हो गए हैं, वो अपना बचपन याद करते हुए आँहे भरते हैं कि वो दिन भी क्या दिन थे...? कम-अस-कम ये ऐसा तो कतई नहीं है कि जो गुज़र गया है, वो ही खूबसूरत है। फिर क्या वाकई हम बड़े हक़ीक़त में छोटे होना चाहते हैं, जबकि सारी लड़ाई तो हर स्तर पर ‘बड़े’ हो जाने की है। बच्चा बड़ा होना चाहता है, क्योंकि उसे लगता है कि बड़े होने में सत्ता है, जीत है, अधिकार, स्वतंत्रता है। हर ‘छोटा’ बड़ा हो जाना चाहता है, हर लघु विराट् हो जाना चाहता है... और सारा जीवन उसी जद्दोज़हद का हिस्सा बन जाता है। ये बच्चों का भी सच है और बड़ों का भी... बच्चों का सच तो वक्ती है, लेकिन बड़ों का सार्वकालिक, सार्वत्रिक, सार्वभौमिक है।
हम उम्र के तथ्य को जानते हैं तो ओहदे में, प्रभाव में, बल में, अर्थ में, बुद्धि में..., बड़े होना चाहते हैं, और यदि नहीं हो पाते हैं तो किसी ‘बड़े’ के बड़प्पन के छाते के नीचे आ जाना चाहते हैं, क्योंकि जो मनोविज्ञान बच्चे लघु रूप में समझते हैं, हम उसके विराट् रूप को समझ चुके होते हैं। हम प्रभावित करना चाहते हैं, अधिकार चाहते हैं, सत्ता और शासन चाहते हैं और इन्हीं चीजों के लिए हम ‘बड़े’ होना चाहते हैं, ऐसे नहीं तो वैसे... किसी भी तरह से। शायद सारा स्थूल विश्व ‘बड़े’ हो जाने की..., ‘विराट्’ हो जाने की ख़्वाहिश से संचालित होता है। इसी से प्रकृति में गति है, इसी में विकार भी। सिर्फ इंसान ही क्यों प्रकृति भी तो लघु से विराट का रूप ग्रहण करती है। एक पतली-सी धारा नदी में और नदी समुद्र में परिवर्तित होती है, बीज, पौधे में और पौधा पेड़ में बदलता है। कली, फूल में और फूल फल में बदलता है। वीर्य, भ्रूण में और भ्रूण शिशु में बदलता है। बच्चा, किशोर होकर वयस्क और फिर जवान होता है। गोयाकि ‘बड़ा’ हो जाना मात्र ख़्वाहिश ही नहीं, लक्ष्य भी है। या फिर बड़ा होना नियति... क्योंकि ‘विराट्’ विकार भी है और विनाश भी... ।

26/07/2012

भटक गए हैं, तो ठहर जाइए....


यूँ वो एक शांत-सी सुबह थी, चाहे इसकी रात उतनी शांत नहीं थी। गहरी नींद के बीच सोच की कोई सुई चुभी थी या फिर नींद दो-फाड़ हुई और घट्टी चलना शुरू हो गई थी, कुछ पता नहीं था। बस यूँ ही कोई अशांति थी, जो नींद को लगातार ठेल रही थी। फिर भी... रात हमेशा ही नींद की सहेली हुआ करती है, इसलिए ना जाने कैसे उसने चुपके से दबे पाँव नींद को भीतर दाखिल करवा दिया नींद आ गई थी।
गहरी उथल-पुथल, अस्तव्यस्तता औऱ अशांति के बीच शांति की चाह क्यों नहीं होगी...? ये कोई अनयूजवल ख़्वाहिश तो नहीं है... अब तक तो यही जाना था कि कुछ भी पाना लड़ कर ही संभव है, संघर्ष करने के बाद ही उपलब्धि हुआ करती है। शांति पाने के लिए संघर्ष किया, हर चीज को पाने के लिए जिस तरह करते रहे... उस दौर में सारी छटपटाहट शांति के लिए ही तो होगी। एकमात्र लक्ष्य शांति, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, कैसे भी... शांति... तो क्या शांति के लिए भी संघर्ष करना होता है...! सालों से शांति के लिए संघर्ष चल रहा है, चलता रहेगा... आंतरिक और बाहरी दोनों ही दुनियाओं में ... इसके परिणाम में होती है... गहरी और गहरी होती अशांति, फिर भी क्या शांति को पा सके...? नहीं... संघर्ष चलता रहा, लेकिन शांति को हाथ न आना था, नहीं आई...। अब सोचो तो कितना बेतुका है... अशांति में शांति के लिए जद्दोजहद... शांति के लिए संघर्ष... संघर्ष से पायी जाने वाली शांति की ख़्वाहिश... कितना बेतुका, कितना अतार्किक, कितना सतही... क्या वाकई संघर्ष से शांति तक पहुँचा जा सकता है...! कितनी बेतुकी बात है... शांति के लिए संघर्ष.... संघर्ष से पायी गई शांति की ख्वाहिश...! करते रहे हैं, अब तक… उतनी बेतुकी कभी लगी ही नहीं। ये अलग बात है कि संघर्ष करते हुए भी कभी शांति नहीं पा सके हैं। ऐसी मनस्थिति में, बुद्धि को नहीं आत्मा को थपकियों की जरूरत थी, इसलिए... उद्वेलन नहीं, बहने की जरूरत है....।

वो ऊब भरे दिन का अंतिम सिरा ही रहा होगा, जब टीवी पर कुछ भी ऐसा नहीं आ रहा था जो अच्छा लगे, जिसमें रूचि जागे... अंतिम विकल्प के तौर पर डिस्कवरी लगा दिया था। कोई कार्यक्रम चल रहा था, शुरू हो चुका था। बड़ा एक्साइटिंग लग रहा था। ब्रेक में पता चला कार्यक्रम का नाम था आय शुड नॉट बी अलाइव...। उस दिन डायना अपने पति टॉम के साथ एडवेंचर टूर पर गई थीं। रेगिस्तान के बीचोंबीच पहले गाड़ी खराब हो जाती है, फिर गाड़ी से पानी औऱ खाना निकालने के दौरान गाड़ी में आग लग जाती है। फिर शुरू होती है रास्ता भटकने और बाहर निकलने की कोशिश... उसमें क्या-क्या मुश्किलें आईं औऱ उससे कैसे निबटा गया... वो सब। कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात ये है कि ये उन्हीं की जुबानी होता है, जो उन परिस्थितियों से बाहर आ चुके होते हैं... एक बड़ी राहत... ।
केन, जॉर्डन, जिम, रॉजर, शैली, डैनियल, सारा, मिशेल.... हरेक.... जो कि एडवेंचर स्पोर्ट्स के शौकीन हैं उन्हें सबसे पहली हिदायत ये मिलती हैं कि यदि कहीं भटक गए तो जहाँ हैं, वहीं रूक जाएँ...।

आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा भी यही कहते हैं कि जिस चीज की ख्वाहिश हो, उसे छोड़ दो... उसके पीछे मत पड़ो। कुल मिलाकर बात ये है कि भटकाव, अशांति, दुख में ठहर जाना... कुछ न कर पाने की स्थिति में डूब जाना... सबसे सहज उपाय है। इसी तरह की मनस्थिति में यूँ ही कहीं से ओशो का कहा हाथ लग गया था। मौजूं था, क्योंकि उन्होंने शांति की ही बात की थी... “यदि शांति चाहिए तो उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा जाए... उससे तो अशांति ही उपजेगी ना...।“ लगा बात तो बिल्कुल सही है... शांति पाने के लिए जद्दोजहद... क्या ऐसा करके पाई जा सकती है, शांति...? उन्होंने कहा है कि यदि मैं अशांति के लिए तैयार हूँ तो फिर मुझे कौन अशांत कर सकता है? दुख के लिए तैयार हूँ तो फिर कौन दुखी कर सकता है? जब तक हम सुखी होना चाहेंगे तो दुख ही भाग्य होगा।
मतलब जो भी है, उसमें डूब जाएँ..., छोड़ दें खुद को... बिना प्रतिरोध-विरोध और प्रयासों के... साधने की जरूरत है खुद को, लेकिन ये अनुभव सिद्ध है कि ये दलदल है, जितने हाथ-पैर मारे जाएँगें, उतने ही धँसते चले जाएँगे, तो प्रतिकूलताओं में खुद को छोड़ देना, प्रतिकूलताओं को स्वीकार कर लेना, उसके भागीदार हो जाना अपेक्षाकृत अच्छा विकल्प है, संघर्ष करने की तुलना में।
हो सकता है दुनियादारी के नियम अलग हों, शायद होते ही हैं... भौतिक दुनिया में तो संघर्ष करके ही उपलब्धि मिलती है, जितना कड़ा संघर्ष, जितना ज्यादा परिश्रम उतना ही अच्छा फल..., लेकिन आंतरिक दुनिया के नियम अलग है, यहाँ तो धँसना पड़ता है, डूबना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है ग्राह्य-त्याज्य... सबको, तभी वो मिल पाएगा जो इच्छित है। मुश्किल है, लेकिन स्थापित है... क्या करें!

05/07/2012

जया-पार्वती - तीसरी और समापन किश्त


दफ्तर से आते-जाते ताऊजी को रोज मालीपुरा पर मोगरे के फूल नजर आते रहते थे। अचानक ही उन्हें खयाल आया और उन्होंने इसे बा से कहा कि – ‘’क्यों नहीं ‘इसकी’ वेणी गूँथवा दी जाए... कितना मोगरा आ रहा है। कोई दिन ऐसा हो सकता है जिसमें दो-तीन घंटे मिल सकते हों...?’’ लालच तो बा को भी आया... आखिर हरेक के बालों पर कहाँ वेणी गूँथी जा सकती है, और यदि गूँथी ही जाए तो कितने खटकर्म करने पड़ते हैं, पहले तो नकली चोटी लेकर आओ... फिर उसे अच्छे से बालों में लगाओ फिर ही वेणी बँध पाएगी ना...। इसके लिए तो कुछ करना ही नहीं है, इतने अच्छे बाल जो हैं। तो छठे दिन तय कर दिया कि इसकी वेणी गूँथी जाएगी। सुबह-सुबह बाल धुलवाए (इस दिन बाल धोने जरूरी हैं) फिर टॉवेल से रगड़-रगड़ कर जल्दी से सुखाए और खूब तेल लगाकर कस कर एक चोटी बाँधी गई। और फिर शुरू हुआ वेणी गूँथने का क्रम... इसके लिए दो-तीन एक्सपर्ट्स को बुलवाया गया। चोटी की लंबाई का एक गत्ते का टुकड़ा काटा और उसके दोनों तरफ छेद किए गए, उन छेदों में जूते की तरह लेस लगाई गई और उसी लेस के सहारे चोटी पर लपेटा गया... फिर शुरू हुआ मोगरे की कलियाँ पिरोने का काम... इसमें लाल कनेर की कलियाँ और हरे पत्तों को कलियों की शक्ल देकर एक-एक लड़ पिरोना शुरू किया... दो-तीन घंटे हो गए... उसकी पीठ दुखने लगी... वो बार-बार किसी के कुछ कहने पर गर्दन घुमाती... मामी ने चिढ़कर उसके सिर पर एक चपत लगाई... – ‘कितना हिलती है... शांति से बैठी रहेगी तो जल्दी हो जाएगा... नहीं तो देर होगी, तुझे भी और हमें भी...।‘ वो भी चिढ़ गई – ‘कितनी देर से तो बैठी हूँ, चुपचाप... कितनी देर लगेगी और... मुझे नहीं गुँथवानी वेणी-ऐणी...।‘ ‘बेटा, बस हो गया... थोड़ी-सी देर और... बा ने समझाया – ‘देख तो कित्ती सुंदर लग रही है।‘ अब वो कैसे देखे... उसकी चोटी पर तो ‘काम’ चल रहा है ना...। आखिर तीन-चार घंटे की मशक्कत के बाद उसकी वेणी ने शक्ल ली.... चोटी पर सफेद मोगरों के बीच लाल कनेर और हरे पत्तों की कलियों ने तीन शकरपारे का आकार लिया... उसने चोटी को धीरे से आगे कर देखा... मन खुश हो गया। फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर छठें दिन की पूजा में पहुँची।
आखिरी दिन था व्रत का... आज तो दाल-चावल और खीरा खाने को मिलेगा... इस सोच मात्र से ही उसके दिन में कुछ नया आ गया था। पाँच दिनों से नमक ना खाने का असर थोड़ा-थोड़ा महसूस होने लगा था और हल्का-फुल्का उनींदापन सुबह से ही लग रहा था। उस पर आज पूरी रात जागने का विधान...। सुबह की पूजा से जब वो लौटी तो उसे उतावली थी, दाल-चावल खाने की। माँ कहती ही रह गई, बेटा पहले ठीक से रोटी खा ले...। चावल से पेट तो भर जाता है, लेकिन भार नहीं रहता है, लेकिन उसकी ‘प्यास’ की शिद्दत इतनी थी कि गर्म-खिले-बिखऱे-सफेद चावल को देखकर ही जैसे उसका मन तृप्त हो गया। फरमाईश पहले से ही कर दी थी माँ से... चावल बनाते हुए घी-नींबू जरूर डालना... वो एकदम से सफेद और खिलेखिले होने चाहिए।
या तो ऐसा है कि वो भविष्य को इतना घोंट चुकी होती है कि जब वो वर्तमान होता है तब तक उसका सारा रस निचुड़ जाता है... या फिर भविष्य पर अपेक्षाओं का इतना भार हो जाता है कि उसके वर्तमान होते-होते वो खत्म ही हो जाता है... यही हुआ भी...। इतना सारा सोचा था, लेकिन सब खत्म हो गया...। हाथ आए सपने-सा...। वो कुछ भी ठीक से नहीं खा पाई... फिर वही असंतुष्टि...।
चूँकि आज रात भर जागना है, इसलिए उसे जल्दी से खिला-पिलाकर सुला दिया गया। हालाँकि कस के गूँथी गई चोटी और मोटी-सी वेणी की वजह से सोने में उसे दिक्कत तो हो रही थी, लेकिन करवट लेकर वो सो गई।
आज रात को चार पहर की पूजा होगी, इसलिए रात्रि जागरण भी, क्योंकि अंतिम पूजा सुबह ४ बजे की जाती है। इसकी तैयारी ना सिर्फ व्रती लड़कियाँ करती है, बल्कि उनके परिवार की सारी महिलाएँ और लड़के भी...। तीन पूजा हो चुकी थी, मैदान में पकडमपाटी, फुंदडी, छुपाछाई जैसे खेल हो गए थे और लड़के-लड़कियाँ दोनों ही थक गए थे। महिलाएँ अंदर बैठकर अंत्याक्षरी खेल रही थीं। थकेहारे लड़के-लड़कियाँ लौटकर महिलाओं के साथ अंत्याक्षरी का हिस्सा बन गए... कुछ ऊँघने भी लगे थे... चूँकि व्रती लड़कियों को तो चौथी पूजा के लिए जागना ही है, इसलिए उन्हें छोड़कर सारे
लड़के, कुछ महिलाएँ और बची हुई लड़कियाँ धीरे-धीरे पसरने लगी थीं। थोड़ी देर में लड़कियों में उम्र में सबसे बड़ी औऱ खिलंदड लड़की ने बाकी सभी लड़कियों से धीरे से कहा – चलो एक चक्कर लगाकर आते हैं। आधी रात गुजर चुकी थी, सड़कें सुनसान थीं उसने पहले सोचा इतनी रात को बाहर... फिर से सोचकर खुद को समझा लिया कि इतनी सारी लड़कियाँ तो है, यदि कोई आएगा तो सब मिलकर काट-काटकर ही उसे अधमरा कर देंगी। तब तक वो लड़कियों के साथ ऊँच-नीच जैसी किसी चीज का मतलब नहीं समझती थीं... यूँ भी उसे हर चीज बाद में ही समझ आती थी। ऐसा नहीं था कि वो डंब थी, लेकिन उसकी समझ दूसरी तरह से काम करती थीं। आम चीजें समझने में उसका मन नहीं लगता था शायद इसीलिए वो उसकी समझ में नहीं आती थी और मुश्किल चीजों के पीछे पड़ जाती थीं, तब ही तो उस उम्र में उसने धर्मयुग में छपा अज्ञेय का यात्रा-वृत्तांत पढ़ डाला... चाहे उसे समझ कुछ नहीं आया हो, बस उसे महाबलिपुरम् का समुद्र ही समझ आया और हाँ.... लेखक का नाम उसे बड़ा पसंद आया... अज्ञेय.... कितना अच्छा नाम है ना...! बहुत बाद में जब उसने अज्ञेय को पढ़ा तब तो वो और भी अभिभूत हुई कि कितने बचपन से वो अज्ञेय को ‘जानती’ है न...कितना अच्छा लिखते हैं न...! बेवजह वो रविवार, दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान को भी पूरा-पूरा चाट जाती... चाहे समझ आए या ना आए...।
तो एक-एक कर सारी लड़कियाँ वहाँ से बाहर आ गईं। ये सब वही गलियाँ, सड़के, पेड़, घर, खिड़की, गड्ढे हैं जिन्हें देखते, जिनमें से गुजरकर सारी-की-सारी लड़कियाँ हर दिन स्कूल जाती और आती हैं। उसे ये देखकर इतनी हैरानी हुई कि ये सब कुछ दिन में कितना अलग होता है और रात में कितना अलग...। रात में कितना खूबसूरत होता है ये सब... कितना शांत, कितना अपना और कितना रहस्यमय...। लड़कियों के झुंड में वो बीच में थी और हुल्लड़बाज लड़कियाँ कभी किसी के घर की कुंडी खटखटाकर भाग निकलती तो कभी रास्ते में पड़े किसी पत्थऱ को ठोकर मारकर चलती। कई सारे घरों की तो बाहर से साँकल ही लगाती चल रही थीं।
थोड़ी देर बाद जब उसका डर कम हुआ तो वो धीरे-से झुंड से अलग हो गई और एक घर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गई। उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि वो इस सुनसान रात में इस तरह अकेली, बिना किसी डर के इस दुनिया को इस तरह से देख पा रही है। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में उसके सामने एकदम से एक नई-सी दुनिया ही खुल रही थी। उसे पहली बार महसूस हुआ कि अँधेरे में किस तरह का रहस्य है और उस रहस्य का सौंदर्य कितना अद्भुत है। यही रास्ते और यही घर, खिड़की, दुकाने, पत्थर-पेड़ हैं, जिन्हें वो हर दिन देखते हुए निकलती है, रात में कितने अलग लगते हैं... कितने खूबसूरत, कितनी शांति है, मीठी, सुरीली... कहीं कोई नहीं है, कोई आवाज भी नहीं... सन्नाटा भी नहीं, उसने आँखें मूँद ली... उसे बस अच्छा लगा, कोई विचार नहीं था, बस ऐसे ही... वो बहुत देर तक उस दीवार से सिर टिकाए यूँ ही आँखें मूँदे बैठी रही... उसे पहली बार अपने लड़की होने का दुख हुआ... वो बस अपने दुख को सेंत रही थी... तब उसे पता नहीं था कि सहेजा हुआ दुख भी कभी-कभी कुछ सिरजता है। जया-पार्वती व्रत की वो आखिरी रात थी, लेकिन इस रात ने उसके सामने एक नए रहस्य-लोक की सृष्टि की थी।
सारी लड़कियाँ गोल चक्कर लगाकर लौट रही थी... चलो-चलो आखिरी पूजा का टाइम हो रहा है... तू यहीं थी?
उसने आँखें खोली... कुछ गीलापन आँखों के सिरों पर आ ठहरा... उसने एक बड़ी गहरी साँस ली... आखिरी साँस जैसे... इस सौंदर्य को जी लेने के लिए, इस रहस्य को गह लेने के लिए... इस आजादी को पी लेने के लिए और उठकर लड़कियों के साथ चल पड़ी...।
समाप्त

13/05/2012

.... यहाँ सबके सर पे सलीब है


एक संघर्ष चल रहा है या फिर ... ये चलता ही रहता है, लगातार हम सबके भीतर... मेरे-आपके। इसका कोई सिद्धांत नहीं, कोई असहमति नहीं, कोई समर्थक नहीं, कोई विरोधी नहीं। कोई दोस्त नहीं, कोई दुश्मन भी नहीं। मेरे औऱ मेरे होने के बीच या फिर मेरे चाहने और न कर पाने के बीच। अपने आदर्श और अपने यथार्थ के बीच, बस संघर्ष है, सतत, निःशब्द, गहरा, त्रासद... न जाने कितने युगों से चलता है, चल रहा है, चलेगा। न इसमें कभी कोई जीतेगा और न ही कोई हारेगा। ये युद्ध भी नहीं है, जिसका परिणाम हो, ये बस संघर्ष है, बेवजह, बेसबब, लक्ष्यहीन, इसीलिए इससे निजात नहीं है। ये संघर्ष है आदिम और सभ्य मान्यताओं के बीच, ख्वाहिशों और मर्यादाओं के बीच...। हर मोड़ पर खड़ा होता है, हर वक्त एक चुनौती है, हर वक्त इस संघर्ष से बचा ले जाने का संघर्ष है। यूँ ही-सा एक विचार आता है – ‘हम वस्तु हो जाने के लिए ... एक विशिष्ट ढाँचे में ढ़लने के लिए अभिशप्त है।’ सार्त्र जागते हैं, लेकिन कोई हल वो भी नहीं दे पाते हैं। पता नहीं क्यों लगता तो ये है कि ये संघर्ष हरेक का नसीब है, लेकिन कोई इस तरह लड़ता, लहूलुहान होता नजर नहीं आता...! तो क्या मैं आती हूँ?
क्या कोई ये जान पाता है, कोई कभी ये जान पाएगा कि लगातार हँसते-मुस्कुराते, सँवरते-चमकते से मानवीय ढाँचे के भीतर कोई संग्राम लड़ा जा रहा है, अनंत काल से और लड़ा जाता रहेगा अनंत काल तक...। आप चाहें तो कह सकते हैं, हवा में तलवार घुमाने जैसा कोई जुमला, लेकिन यहाँ तलवार भी कहाँ है। बस एक रणक्षेत्र है और दोनों ओर लहूलुहान होती ईकाईयाँ... भौतिक नहीं है, दिखायी नहीं देती, इसलिए न सहानुभूति है और न ही करूणा। बस अनुभूत होती है, उसे ही जिसके भीतर ये लड़ा जा रहा है। चाहे कोई कितना भी अपना हो, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाता जो होती है, जो साक्षात टीसती है, रिसती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि दुख को समझना अलग बात है और दुख को महसूस करना अलग। मेरा दुख मेरा और तुम्हारा दुख, तुम्हारा है। तुम्हारे और मेरे दुख के बीच कोई संवाद नहीं है, कोई पगडंडी नहीं है, कोई सेतु, कोई सिरा नहीं है। तुम्हें मेरे दुख और उससे उत्पन्न दर्द का अंदाजा नहीं हो सकता है, ठीक वैसे ही तुम्हारी पीड़ा की कोई बूँद मुझ तक पहुँच नहीं पाती।
कोई किसी के रण का भागीदार हो भी कैसे सकता है, कोई भी एक वक्त में दो-दो संघर्ष का हिस्सेदार कैसे हो सकता है... उम्मीद भी क्यों हो – मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल/ यहाँ सबके सर पे सलीब है।
.... और हरेक को अपनी-अपनी सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है :-c

25/04/2012

यादों की रहगुज़र, रहगुज़र-सी यादें

साल भर में यही कुछ दिन हुआ करते हैं, जब वो खुद हो जाती है... वरना तो अंदर से बाहर की तरफ तनी रस्सी पर नट-करतब करते हुए ही दिन और जिंदगी गुजर रही होती है। कभी संतुलन बिगड़ जाता है, गिरती है, दर्द-तंज सहती है, असफल होती है और फिर उठकर करतब दिखाने लगती है। कभी-कभी सोचती है, क्या सबको यही करना होता है। क्या अंदर-बाहर के बीच हरेक के जीवन में इतनी ही दूरी हुआ करती है? हरेक को उसे इसी तरह पाटना होता है...? या ये उसी का अज़ाब है...! उसे अक्सर लगता है कि खुद को ही अच्छे से नहीं जाना जा सकता है तो हम दूसरों को कैसे जान सकते हैं? और कैसे, किसी के प्रति जजमेंटल हो जाया करते हैं? आखिर हम किसी की मानसिक और भावनात्मक बुनावट को कितना जानते है? इंसान तो अपने परिवेश में ही घड़ा जाता है ना...! हम उसकी जरूरत और परिवेश पर विचार किए बिना ही, उसे सही-गलत कैसे ठहरा सकते हैं...?
दो स्तरों पर लगातार विचार चल रहे थे... पता नहीं कमरा कैसा होगा? इंटरनेट पर बुकिंग करवाने पर यही होता है... गाड़ी ने बाहर छोड़ दिया था... कुली ने जब लगेज उठाया तो असीम ने उसे पहियों पर खींचने के लिए हैंडल खोलकर दे दिया...। चढ़ाव पर लगेज की गड़घड़ की तेज आवाज के बीच सारे विचार अटक गए। जैसे ही लगेज की गड़घड़ आवाज रूकी, गहरी शांति फैल गई...। जब कमरे में पहुँचे तो पूर्व की तरफ खुलती बड़ी-सी खिड़की से धूप की रोशनी में धुँधलाते पहाड़ नजर आए... सारी कुशंकाएँ भी धुँधला गई। अटेंडर ने पानी रखा, असीम ने चाय लाने के लिए कहा तो वो चला गया। असीम ने सूटकेस खोलकर कपड़े निकाले और बाथरूम चला गया। वो कमरे में अकेली हो गई। तेज साँस खींची... जैसे उस शांति को भीतर भर लेना चाहती हो। खिड़की के पास रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गई। इतनी शांति पता नहीं कितने सालों से नहीं मिली उसे... जब बाहर सबकुछ शांत होता है, तब भीतर अशांति चलती है, बाहर-भीतर शांति हो... ये कभी-कभी ही तो होता है।
इस बार फिर से घूमने के लिए मसूरी इसलिए ही तो चुना है, कि घूमने की हवस ना हो... यहाँ का चप्पा-चप्पा देखा हुआ है। पिछली बार आए थे, तब भी लगभग हफ्ते भर यहाँ रहे थे, इस बार भी इतना ही लंबा टूर है। शांति से रहने, पढ़ने, महसूस करने और खुद से संवाद करने का लक्ष्य लेकर ही तो दोनों यहाँ आए हैं। और उसके लिए इससे बेहतर और कौन-सी जगह होगी...।
चाय बनाने, खाना-नाश्ता, लांड्रीवाला, माली, सब्जीवाला, मैकेनिक, बाथरूम का टपकता नल, बदरंग हुए जा रहे पर्दे... गर्द जमी हुई टेबल और अस्त-व्यस्त किताबों को व्यवस्थित करने का अटका पड़ा काम... म्यूजिक सिस्टम को ठीक करवाना और इंटरनेट कनेक्शन का बंद हो जाना... बूटिक से कपड़े उठाना और गाड़ी में फ्यूज डलवाने जैसे सारे रूटीन से भरकर ही तो यहाँ आए हैं। अपनी दुनिया न हो तो दुनियादारी भी वैसी नहीं होती है। सोचा तो था कि बस दिन भर कमरे में ही रहेंगे... लेकिन पहले दिन उसे साध नहीं पाए...। लगा कि पहले उस सबको रिकलेक्ट कर लिया जाए जो पिछली बार यहाँ छूट गया था। दिन भर दोनों उन निशानों को इकट्ठा करने में लगे रहे जो पिछली बार जगह-जगह छोड़े थे, छूट गए थे। यहाँ कॉफी पिया करते थे, और यहाँ से सॉफ्टी लिया करते थे...। यहाँ की फोटो है और यहाँ के एकांत में... तुम्हें पता है... यहाँ पहले कुछ दुकानें हुआ करती थी। हाँ और ये एंटीक की दुकान... तब भी वैसी ही थी... जरा भी नहीं बदली। और यहाँ से आडू खरीदा करते थे, याद है हमने पहली बार जाना था कि असल में आडू का स्वाद कैसा होता है! मैदानों में हम तक जो पहुँचते हैं, वो तो बस फल ही है... स्वाद तो यहाँ के आडुओं में हुआ करता है। और लीची का शर्बत... कितनी खूबसूरत बॉटल में मिलता था! यहाँ तुम थककर रो पड़ी थी और यहाँ हमने झगड़ा किया था...। और फिर मनाने के लिए चॉकलेट खरीदी थी यहाँ से... । यहाँ मेंहदी बनवाई थी... कितनी स्मृतियाँ हैं यहाँ हर जगह बिखरी हुई...। उसे लगा कि ये भी रिलेक्स होने का एक तरीका है।
देर रात जब थककर कमरे पर पहुँचे थे तो जैसे 10 साल पुरानी स्मृतियों को जिंदाकर लौटे थे। ठंड बढ़ गई थी, मोटे ब्लैंकेट और फिर उस पर रजाई... इतना वजन कि सारे बदन को आराम महसूस होने लगा। आखिर दिन भर चल-चलकर ही तो बीते हुए दिनों को इकट्ठा किया था। असीम तो थककर सो गए थे, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। अँधेरा और शांति... शांति इतनी कि उससे सन्नाटे को दहशत होने लगे... स्मृतियों से ध्वनियाँ चुन-चुनकर लाता रहा मन... ना तो कुत्तों के भौंकने की आवाज थी और ना ही झींगुर की... इतनी गाढ़ी शांति में उसे साँस लेना भी गुनाह लग रहा था, यूँ लग रहा था जैसे ये जादू, जिसके लिए वो लगातार तरसती रही है टूट जाएगा, भंग हो जाएगा...। उसी जादू में उसे नींद आ गई। असीम की बड़बड़ से उसकी नींद खुली थी – यार इतनी रात लाईट जलाकर क्या कर रही हो...?
उसने आँखें खोली तो खिड़की से तेज रोशनी आ रही थी... – जरा उठकर देखो, खुद सूरज तुम्हारे कमरे में आकर जल रहा है...। – उसने असीम को गुदगुदाकर कहा।
ओह... क्या टाईम हुआ होगा...! – कहकर असीम ने टेबल पर से घड़ी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उसने असीम का हाथ खींच लिया। - सूरज निकल आया है... क्या ये कम है!
पता है, इस कमरे में इस बड़ी-सी खिड़की के अलावा और सबसे खूबसूरत क्या है...?
खुद कमरा...
ऊँ हू... इसमें घड़ी नहीं है...। – खुलकर हँसी थी वो... असीम लपका था, उसकी तरफ। वो जानता था कि उसने ये क्यों कहा था।

छोड़ दो सब... मोबाइल, घड़ी, लैपटॉप, दिन-रात का खयाल... बस घुलने ही आए हैं, हम यहाँ... - हवाघर की बेंच पर बैठी थी... भुट्टा खाते हुए... - और हाँ महँगा-सस्ता भी... – और शरारत से मुस्कुराई थी।

कभी खुद की बुद्धि को विश्राम देकर, दूसरों की नीयत पर भी विश्वास किया करो... दुनिया का हर आदमी घात लगाकर तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।

हर वक्त खुद को लादे हुए घूमती हो, थक नहीं जाती हो...! मुक्त करो खुद को... आजाद हो जाओ... किसी दिन बुद्धिमान और खूबसूरत नहीं लगोगी तो आसमान टूटकर गिर नहीं जाएगा...।
हाहाहा... आसमान तो है ही नहीं... टूटकर गिरेगा क्या खाक...!
है कैसे नहीं... सिर उठाकर देखो, तुम्हारे दुपट्टे के रंग का है... । –असीम ने दुपट्टे के कोने को अपनी ऊँगलियों में लपेट लिया था।
ये मैंने नहीं कहा है, तुम्हारा साईंस ही कहता है।
तुम्हें क्या दिखता है? जरा आसमान की तरफ सिर उठाकर देखो... साईंस को छोड़ो
मुझे दिखता है आसमान, मेरे दुपट्टे के रंग का... जिस पर बादल है, तुम्हारी शर्ट के रंग के...
तो बस... वो है... पता है तथ्य जीवन को जटिल बना देते हैं...।
तथ्य या फिर सत्य...!
नहीं... तथ्य... सत्य तो कुछ है ही नहीं।

दिन-पर-दिन गुजर गए... सुबह, दोपहर, शाम और रात... दुनिया और दुनियादारी से दूर... भटकाव, अपेक्षा, उलझन, दबाव और तमाम जद्दोजहद से दूर पंछी की तरह उन्मुक्त दिन उड़ गए, हवा हो गए। अब... अब लौटना है... कोई भी वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, लंबा टिक जाता है तो रूटीन हो जाता है। घर लौटने की कल्पना भी उत्साह भर रही थी। हरिद्वार से ही रिजर्वेशन है... एक दिन पहले ही दोपहर वहाँ पहुँच गए थे।
बहती हुई गंगा को छुए बिना कैसे लौटा जा सकता है!
बहती नदी जादू होती है
बहाकर लाती है ना जाने क्या-क्या
ले जाती है ना जाने क्या-क्या
माना कि बहना ही जीवन है
लेकिन
नदी-सा बहना
खुशी भी है और
त्रास भी...
क्योंकि बहना चुनाव हो तो
ठीक
अगर मजबूरी हो तो...?

तो... तो... त्रास, देखो गंगा को, लोग अपनी आस्था के जुनून में क्या-क्या बहाते जा रहे हैं। संध्या-आरती का समय था, हर की पौड़ी पर आरती के लिए मजमा इकट्ठा था। बाकी घाटों पर लोग एक दोने में फूल और दीया लेकर गंगा में प्रवाहित कर रहे थे... क्या ये सारा कूड़ा नहीं है?
असीम ने आँखों से डपटा था – तुम आस्था पर सवाल कर रही हो...!
मैं सिर्फ जानना चाह रही हूँ।
हाँ ये भी कूड़ा है। - असीम ने गंगा के ठंडे पानी में पैर डालते हुए कहा था
तो क्या किसी को ये जरा भी खयाल नहीं आता है कि कितना साफ पानी बह रहा है और उसमें ये कूड़ा क्यों बहाया जा रहा है? क्या सरकारें भी नहीं सोचती...! – गहरी वितृष्णा से भरकर उसने कहा था।
तुम फिर से तर्क पर आ रही हो...
ये तर्क है...? ये आस्था है, सौंदर्य-बोध है... छोड़ों।

दोनों अलग-अलग किनारों पर जा बैठे थे। असीम कैमरे से आसपास को खंगाल रहा था। वो बस बैठी थी... तेज लहरों को एकटक देखते हुए...। धारा का वेग उसकी चेतना को भी बहा ले जा रहा था। वो अचानक खड़ी हुई... घाट की पहली सीढ़ी पर पैर रखा... फिर दूसरी... फिर तीसरी... लहरों ने उसे कमर तक भिगो दिया था उसने बेखयाली में जंजीर को छोड़कर चौथी सीढ़ी की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि खयाल लौट आया – ये क्या कर रही थी तू...?
उसने जंजीर पकड़कर आसपास नजरें दौड़ाई, असीम थोड़ी दूर जाकर फोटो ले रहा था... कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। यदि ये बेखयाली और नीचे की सीढ़ियों की तरफ ले जाती तो...! उसे खुद से ही वहशत होने लगी...। वो लौट आई थी अपनी चेतना में... यदि भीतर का ये आवेग लहरों के हवाले कर देता उसे तो...! यदि वो बह जाती तो निश्चित ही कहीं दूर उसकी लाश मिलती... या शायद वो भी नहीं... क्योंकि बहाव तो क्रूर होता है... निर्मम भी...। उसने अपनी दुनिया में नजरें दौड़ाई... उसके न होने से किसकी दुनिया में फर्क आता... सबकी दुनिया भरी-पूरी है... सिवाय असीम के... सिर्फ असीम की दुनिया ही सूनी होती... उसे अचानक असीम पर लाड़ आया। वो अब भी पहली सीढ़ी पर खड़ी थी। असीम लौट आया था... चलें, सुबह जल्दी उठना है।
उसने झुककर अंजुरी में गंगा को भरा और अपने सिरपर उँढेल लिया...। ऐसा आवेग कभी आता नहीं है, उसने हाथ जोड़े तो ना जाने क्यों आँसू उमड़ आए... पलट कर चप्पल पहनी और असीम का हाथ थामे हुए भीड़ में से रास्ता बनाते दोनों लौट आए...।



08/04/2012

कई मायनों में इंसान से बेहतर है जानवर....

सुबह जल्दी उठ पाओ तो दिन कितना संभावनाओं भरा हो जाता है... कोई टुकड़ा अपने लिए भी बचाया जा सकता है, किसी में सपने भरे जा सकते हैं और किसी हिस्से को बस यूँ ही हवाओं में उड़ाया भी जा सकता है... उस सुबह का वो ऐसा ही खास समय था। अखबार आस-पास सरसरा रहे थे, लेकिन विचार शून्यता की ही-सी स्थिति थी। निर्विकार भाव से आँखें हरेक चीज का जायजा ले रही थी, लेकिन इसमें न तो कुछ पा लेने की जल्दी थी न कुछ ठीक करना था और न ही कोई उद्विग्नता थी.... चाय के कप, अभी-अभी पढ़कर छोड़े पन्ने-पन्ने रखे हुए अखबार... खुली हुई चादरें, टेबल पर नई सीडी के रैपर, मुँह खोले पड़ा लैपटॉप और रात को पढ़ते-पढ़ते उल्टी कर रख छोड़ी किताब सिरहाने पड़ी थी। खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलस्सुबह की हल्की ठंडक भी... हर चीज जैसे उसी जगह के लिए बनी हुई थी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी, न आगे की योजना थी, वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूँ ही विचार तंद्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। तंद्रा भंग हो गई... नजरें टिक गईं। बँटने के लिए ही तो रोशनी और दिन हुआ करता है। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुँह में कपड़े का छोटा-सा टुकड़ा था, जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। करीब 40-45 सेकंड तक वो उस कोशिश में लगी रही... उसी दौरान एक और गिलहरी वहाँ आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं... ये क्रम भी 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी, वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं... कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियाँ को लेकर, एकबारगी ये विचार आया कि क्यों नहीं इसे कैमरे से शूट कर लिया जाए...! लेकिन कुछ सोचकर इस विचार को स्थगित कर दिया और नजरें पूरी तरह से वहीं गड़ा दी...। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही... फिर एकाएक वो कूलर के अंदर घुस गई और उसने अंदर से उस कपड़े को खींच लिया... मैं हतप्रभ... कितनी योजना, कितना सामंजस्य... कितनी समझ, कितना प्यार... और कितनी बुद्धि। विचारों के प्रवाह को जैसे एक झटका लगा था। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है, कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था...। मान लिया, भूल गए कि बारिश से पहले चींटियाँ अपना खाना जमा करती है, क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है, वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई सारे अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने 1958 में जापान के एक द्वीप पर एक मादा बंदर को आलूओं को धोकर खाते देखा था, बाद के सालों में उन्होंने ये पाया कि वहाँ के बंदरों की अगली पीढ़ी के बच्चों ने भी इसी पद्धति को अपनाया... तो क्या मादा बंदर का नवाचार उसकी बुद्धि का पता नहीं देता है? और क्या उसका अनुसरण जंतुओं में बुद्धि का पता नहीं देती है... ! याद आता है माँ का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बहुत बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊँगलियों औऱ अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते... वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूँढती रहती, कई बार वो हाथ पर चढ़ भी जाती है। कभी इस खेल को आगे बढ़ाने के लिए जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से उससे बाहर निकलने की जुगत लगा लेती... तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती...? बाद में अलग-अलग अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है, प्यार, संवेदना, समझ, अपनापन सब कुछ होता है...। भाषा भी होती है, अब ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के आपसी संबंधों को...। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हम इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है... जैसे बुद्धि...! लेकिन सही है, कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है... जाहिर है, तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी...। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है, और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुँचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश, प्रसार-फैलाव है, जो इस लालच और हवस की ही देन है, तो हुआ ना इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...:-(

01/04/2012

पिद्दी से हम... !

गर्मी बस शुरू हुई ही है, लेकिन लगता है जैसे देरी की सारी कोर-कसर पूरी कर लेगी। घर-दफ्तर का तनाव, गर्मी, रात की टूटी-फूटी, अधूरी-सी नींद से जो होना था, वो हुआ... माइग्रेन...। कामवाली काम छोड़ गई तो दर्द को सहलाने की लक्जरी की न तो सहूलियत थी और न ही गुंजाईश... काम निबटाकर टीवी के सामने आसन जमाकर खाना-खाने बैठे तो हाल ही में खोजे मूवी चैनल पर फिल्म चल रही थी, नोईंग...। फिल्म का नायक जोनाथन अपनी एस्ट्रोफिजिक्स की क्लास में थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म एंड थ्योरी ऑफ रेनडमनेस की चर्चा कर रहा था। थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म से मतलब है कि हरेक चीज तयशुदा है, और इसलिए हर चीज का कोई-न-कोई मतलब है। इसके उलट है थ्योरी ऑफ रेनडमनेस... इसके अनुसार किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं है और ये सृष्टि पूरी तरह से इत्तफाक पर चल रही है। आँखें दर्द और टीवी की बदलती रोशनी से तन रही थी, लगातार सो जाने की इच्छा होने लगी थी, लेकिन फिल्म की शुरुआत ही इतनी शानदार लगी कि फिल्म छोड़कर सो जाने का विचार ही बुरा लगा था। आखिर तो फिल्म की शुरुआत में ही हमारी मुठभेड़ एक सिद्धांत, एक विचार से हुई है और बस इसीलिए तो पूरी दुनिया के कार्य-व्यापार में लगे रहते हैं... लेकिन हमारा शरीर हमारी इच्छाओं का गुलाम नहीं होता है, तो बड़े बेमन से ये सोचते हुई वहाँ से उठ खड़े हुए कि जब फिल्म की शुरुआत में ही ‘कुछ’ मिल गया है तो फिर मलाल किस बात का...! दर्द था, थोड़ी नींद और थोड़ी जाग्रति भी थी... कुल मिलाकर मस्तिष्क का कोई हिस्सा चैतन्य था...। वहाँ रोशन थी वो रात जब ना तो एस्ट्रोफिजिक्स था ना फिजिक्स का पी ही था, बस था तो एक अनगढ़-सा विचार... एक सवाल और बहुत सारी उद्विग्नता...। यदि हमारा होना तयशुदा है तो फिर हमसे जुड़ी हर चीज तय है... फिर हमारे करने, होने का मतलब ही नहीं है कुछ...। और यदि हम इत्तफाक से हैं तब भी हम क्या है? बस महज एक इत्तफाक... । जरा दूर से देखें तो लगता है कि सृष्टि के इस विराट में हमारी हस्ती ही क्या है...? महासागर में एक बूँद-सी... तो क्या बूँद और क्या उसका वजूद...। ये महासागर अनंतकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा, उसमें हमारा आना और जाना ठीक वैसा है, जैसा किसी एक फूल का खिलना और फिर सूखकर बिखर जाना... अनगिनत बूँदों में एक का होना न होना... कोई फर्क पड़ता है, यदि न हो तो... ! यदि सृष्टि के विकास-क्रम की दृष्टि से देखें तो शायद इतना भी नहीं... तो फिर हमें हमारा सब-कुछ इतना बड़ा क्यों लगने लगता है... ? क्या वाकई हम इतने ही हैं...! यदि हम इतने ही है तो फिर हमारा पूरा जीवन क्या है... क्या है हमारे संघर्ष-उपलब्धि, दुख-सुख, रिश्ते-नाते, जीवन-मृत्यु, उदात्तता-क्षुद्रता, प्यार-नफरत, ... क्या है, क्यों हैं और इनके होने का अर्थ क्या है? या तो ये सब इत्तफाक है या फिर ये बेवजह है...। दोनों ही स्थितियों में हमारे ‘स्व’ का अर्थ क्या होगा...? यदि ये इत्तफाक है तो फिर हम खुद भी इत्तफाक हैं और इत्तफाक की अपनी सत्ता क्या है? वो तो बस इत्तफाक से ही है ना... फिर हमारे होने के गुरूर की कोई वजह होनी ही नहीं चाहिए... और यदि ये बेवजह है तो फिर हमारा वजूद ही बेवजह है... तो इससे जुड़ी हर चीज बेवजह है। तो फिर ये स्वत्व-बोध तक बेवजह है... फिर कैसे इंसानी सुख-दुख सृष्टि से उपर, उससे भारी हो जाते है...? और क्यों...? शायद हममें उस विराट संरचना को देख पाने की काबिलियत, लियाकत ही नहीं है, इसीलिए हम अपने दुख-सुख में ही डूबे रहते हैं, या फिर चूँकि हममें ये कूव्वत नहीं है, इसलिए इन्हीं में डूबे रहना हमारे लिए श्रेयस्कर है... ! हम इतने ही हैं, सृष्टि की संरचना में होना ही महज हमारा एक योगदान है, हम इसमें न कुछ जोड़ते हैं और न ही कम कर सकते हैं। यही निराशा है, यही हमारे स्व की सीमा, यही बेबसी है और यही है हमारी क्षुद्रता... :-c

16/03/2012

जीवन का रहस्य.... रंग


होली गुजरे चार दिन हो चुके हैं, लेकिन मालवा-निमाड़वासियों का जैसे मन ही नहीं भरता होली के गुलाल-अबीर से, तभी तो चौथे दिन रंगपंचमी मनाते हैं और गुलाबी-हरा-नीला-काला-सुनहरी रंग पोते हुए रंग-बिरंगी होकर पूरी दुनिया को रंगीन करने निकल पड़ते हैं।
जहाँ होली को पूरी शालीनता और सभ्यता से सूखे रंगों के साथ मनाते हैं, वहीं रंगपंचमी पर जैसे साल भर की मस्ती का कैथार्सिस होता है। कोई भी रंग चलेगा... रंगने के लिए भी कोई भी चलेगा और लगाने के लिए भी। मस्ती का आलम यूँ होता है कि बाजार-सड़क तक रंगीन हो जाया करती है। इसी दिन गेर निकालने की परंपरा है... परंपरा क्या है सामूहिक मस्ती का आयोजन है। खूब रंग-गुलाल साथ लिए... बड़ी-बड़ी मिसाइलों से सबपर उड़ाते पूरे माहौल को रंगमय करते चलता बड़ा-सा हुजूम... और इसमें शामिल होते जाते और... और.... और.....।
अपने बचपन में गेर में बनेठी घुमाते बच्चों और युवाओं को देखा करते थे, अब इसका स्वरूप सिर्फ जुलूस की तरह हो चला है। या फिर जैसे रंगों की बारात... हर तरफ रंग, मस्ती, बेखयाली, तरंग, नशा... बस। बेतरतीब रंगों से रंगोली की रचना होती है, और गुजरने के बाद सड़कें उस अनगढ़ रंगोली से जैसे मौसम की मस्ती-मिजाजी का भी पता देती है.... जिस जगह से ये गेर या अब इसे फाग यात्रा नाम दे दिया गया है गुजरती है ऐसा लगता है जैसे पूरी कायनात को रंगने निकली हो...। शामिल होने वाला मस्त देखने वाला भी मस्त... बस ऐसा लगने लगता है कि ये मस्ती ही स्थायी हो जाए, क्योंकि यही तो रहस्य है, सार है... जीने का, जीवन का....।

12/02/2012

पाँच गज़लों का फासला


दिन बड़ा ही अजीब-सा गुजरा था। बेवजह ही बहस हो गई, वो भी महिलाओं की हमारे समाज में दशा और दिशा पर...। यूँ तो महिलाओं को और महिलाओं के दुख कम नहीं है, लेकिन हम पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपने दुख का अहसास बड़ी शिद्दत से होता है। हालाँकि ये भी जरूरी नहीं है कि हर पढ़ी-लिखी महिला को हो... सुशील होने का तमगा शायद हर चीज से बड़ा होता होगा... तभी तो... या फिर ग्रूमिंग ही इस तरह से होती है कि उनकी जिंदगी से जुड़ी छोटी-छोटी बातें बहुत महत्वहीन होती है, या फिर उनका ‘स्व’ दुनिया की बाकी सारी छोटी-बड़ी बातों की तुलना में बहुत महत्वहीन होता हो.... तो बात तो महज इतनी सी थी कि महिलाओं को ये तय करना चाहिए कि उनके जीवन की प्राथमिकताएँ क्या हो...? परिवार या फिर वो खुद...। गोया कि उनका होना ही उनके पारिवारक जीवन की सबसे बड़ी बाधा हो.... :-( । नहीं, बहस ऐसे नहीं शुरू हुई थी, लेकिन खत्म इसी नोट पर हुई। इसके बीच इस बात का अहसास भी कि आपका होना समाज के लिए कितना ही अहम क्यों न हो.... हमारे लिए नहीं है, हमारे साथ की शर्तें जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी.... इसमें फेरबदल की सूत भर भी गुंजाइश नहीं है, आपको सूट नहीं करता है तो बेहतर है आप शादी ही न करो....। देर तक दिमाग झनझनाता रहा.... फिर दिमाग से इस बात को झटकने की कोशिश भी की, ये सोचकर कि जिस ‘बेचारी’ महिला के लिए मैं बहस कर रही हूँ, शायद उसे तो अपनी स्थिति से कोई शिकायत ही नहीं है और फिर वो बेचारी तो ये जानती तक नहीं है कि कोई एक कितनी शिद्दत से उनके लिए लड़ रहा है... तो फिर सारा उद्वेलन तो बेकार ही है ना...! लेकिन जो कुछ अस्तव्यस्त हुआ है उसे तो व्यवस्थित होने में समय लगेगा ना... इस बीच अपने भी ‘औरत’ होने की बेचारगी फिर उभर आई...। और साथ ही सार्त्र याद आ गए, जो कह गए कि – ‘प्यार में प्रिय पात्र को वस्तु बनाने का षडयंत्र रचा जाता है।‘ काम तो था, लेकिन उद्विग्नता ने एकाग्रता छिन ली थी और आज का काम कल पर छोड़कर घर की राह पकड़ ली थी। स्थिर करने के लिए म्यूजिक प्लेयर ऑन कर लिया था। दफ्तर से घर तक का फासला पाँच गजलों का है, यदि रास्ते के तीनों सिग्नल क्लियर हो तो... नहीं हो तो आधी गज़ल का फासला और बढ़ जाता है।
शुरुआत ही बहुत उदास-सी गज़ल कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद से हुई थी.... गाड़ी रिवर्स की फिर गियर बदला और आगे बढ़ा दी। शाम हो चली थी, बसंत के लिहाज से मौसम थोड़ा ज्यादा ठंडा था। बंद खिड़की से गाड़ी चलाने का अनुभव ठीक सनग्लास लगाने जैसा होता है, इसलिए बहुत मजबूरी के अतिरिक्त गाड़ी का ड्राइविंग सीट वाला शीशा खुला ही होता है। देखना जो आसान होता है। मन तो किया कि कहीं किसी सुनसान में गाड़ी खड़ी करके एक गहरी साँस ली जाए और चीखकर रो लिया जाए... लज़्ज़ते सजदा-ए-संगे दर क्या कहें/ होश ही कब रहा सर झुकाने के बाद... रूलाने के लिए काफी था, लेकिन हाय रे शहर की मजबूरियाँ...। लगा बड़ा मौजूं शेर है... ‘बिचारी’ औरतों के लिए.... । सर झुका लिया है तो अब होश में आने से बाज़ आ जाओ....।
चौराहे पर अगली लेन में जाने के लिए गाड़ी रूकी तो देखा तीन छोटे बच्चे गर्म कपड़े पहने एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए सड़क पार कर रहे हैं। लगा कि ये फोटो का विषय हो सकता है, मोबाइल के कैमरे को ऑन करने से पहले ही तीनों गाड़ी के पास से निकल गए और पीछे खड़ी गाड़ी का कर्कश हॉर्न चीख पड़ा.... अशआर मेरे यूँ तो जमाने के लिए हैं.... गज़ल शुरू हो चुकी थी....। कितनी अच्छी कंपोजिशन है, किसकी होगी और ये मुकेश ने ज्यादा गज़लें क्यों नहीं गाई.... कुछ और बेहतर मिलता सुनने के लिए.... पीछे छूट गया था दिन... अभी घर आगे था... फिलहाल तो सफर था। सोचो तो बड़ी चीज है तहजीब बदन की/ वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं.... शेर कितना खूबसूरत है, लेकिन ये जांनिसार अख्तर के दौर का सच है... अब तो ये पुराना हो गया है। क्या वाकई कोई चीज कालजयी हो सकती है....? कल रात कागज़ के फूल एक बार फिर देखने की कोशिश करने के दौरान उठा सवाल फिर से टकराया... हर रचना का अपना समय होता है, समाज और समाज के मूल्य बदलते ही रचना की प्रासंगिकता भी बदल जाती है। याद आया सुबह आते हुए गाना चल रहा था – एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की... क्या ये आज का सच हो सकता है? जिस दौर में भौतिकता परम धर्म हो....!
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं.... चल रही थी। इत्तफाक से दूसरे सिग्नल पर गाड़ी रोकनी पड़ी... चिढ़ तब आई, जब राइट साइड जाने वाली गाड़ी भी लेफ्ट साइड वाली लेन में खड़ी थी और सिग्नल चालू होते ही, उसकी हड़बड़ी अपनी लेन मे पहुँच जाने की थी, इस हड़बड़ी में वो तो निकल गया और सिग्नल फिर से ऑफ हो गया। गज़ल का आखिरी शेर चल रह था, देखिए मेरी पज़ीराई को अब आता है कौन/ लम्हा भर को वक्त की दहलीज पर आया हूँ मैं... कहाँ से आते हैं ये अहसास और ये अशआर... हताशा की एक लहर, उपर की तरफ चढ़ने लगी। और फिर गुलाम अली ने सरगम शुरू कर दी, दुखती रग में और दर्द उभर आया...। अबकी जैसे ही सिग्नल क्लियर हुआ, तुरंत गाड़ी आगे बढ़ा ली, हालाँकि लेफ्ट साइड से आने वाली सड़क से राइट जाने वाले वाहनों ने आधा रास्ता रोके रखा था, फिर भी हम तो निकल गए... लगा कि सारी दुनिया ही हड़बड़ी में है। वैसे भी अक्सर जब हमें जल्दी होती है तो लगता है कि सारी दुनिया ही आज जल्दी में हैं।
तब तक दिल को ग़म-ए-हयात गवारा है इन दिनों/ पहले जो दर्द था, वही चारा है इन दिनों शुरू हो गई थी। चित्रा की आवाज चाहे जगजीत के साथ सूट नहीं करती हो, लेकिन उनकी गज़लों में भी दर्द तो उभरता ही है...। एकाएक ये तलब उठी कि ये गाड़ी मेरे कमरे में तब्दील हो जाए... ठंडा, अँधेरा-सा कमरा... नए-पुराने, याद आते और भूले हुए, मजाज़ी और हक़ीक़ी सारे दर्द-तकलीफें धुआँ-धुआँ होकर कमरे में बिखर जाए और ऐसे ही दम घुट जाए... इससे बेहतर मौत और क्या हो सकती है...? लेकिन अचानक मौत की याद क्यों आई है...। तीसरा और अंतिम सिग्नल... बस बंद हुआ ही जा रहा था कि हमने गाड़ी को रफ्तार दे डाली। बिना रूके अपनी राह हो लिए... हरिहरन शुरू हो चुके थे, तब तक... खुद को बेहतर है सराबों में भटकता देखूँ/ वरना वो प्यास है मर जाऊँ तो दरिया देखूँ। बस ऐसे ही मौत की याद आई थी। लगा कि सब कुछ एक दिन खत्म हो जाना है, प्रेम-घृणा, अच्छाई-बुराई, सफलता-असफलता, पाप-पुण्य, तेरा-मेरा, खुशी-दुख... रिश्ते-नाते और सारी भौतिकताएँ... एकाएक बड़ी राहत लगी। ठीक वैसे, जैसे एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा... लगा कि बस थोड़ा ही तो सहना है। हालाँकि बहुत बेवकूफाना है, लेकिन बहुत राहत देने वाला था ... एक दिन मैं इस सबसे आजाद हो जाऊँगी, जो आज मुझे तकलीफ दे रहा है... मुक्त... स्वच्छंद...। थोड़ा-सा जाम लगा था... तो जाहिर है कि छठी गज़ल शुरू होनी ही है। आशा का आलाप-सा खत्म हुआ और ... रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए/ कुछ याद रही कुछ भूल गए.... सारी उद्विग्नता, बेचैनी, हड़बड़ाहट, चिढ़ और गुस्सा सब कुछ झर गया-सा महसूस हुआ... लगा कि मरने के बाद शायद ऐसी ही मुक्ति का अहसास होगा... :-) हल्कापन हवा में भी महसूस हुआ... घर आ गया था।

27/10/2011

पता होता है तो घर खो जाता है...!


तथ्य तो ये है कि कार्तिक आधी उम्र जी चुका है, लेकिन सत्य यह है कि अभी तक तो क्वांर ही नहीं बीता... तो निष्कर्ष यूँ कि जरूरी नहीं है कि जो तथ्य हो वो सत्य हो ही और ये भी जरूरी नहीं है कि जो सत्य हो, उसमें तथ्य हो ही... ऊ हूँ... बात जरा मुश्किल हो रही है। थोड़ा आसान करके समझें... दीपावली से पहले सारे आर्थिक सर्वेक्षण ये गा रहे हैं कि देश में गरीबी कम हुई है लेकिन करीब बन रही कॉलोनी के सारे चौकीदार साल की इस सबसे अँधियारी रात को एक-एक दीए से रोशन करने की कोशिश में लगे हैं... कारण... इससे ज्यादा तेल जलाने की उनकी कुव्वत भी नहीं है और साहस भी नहीं है... तो तथ्य ये कि गरीबी कम हो रही है और सत्य ये कि गरीब तो वहीं के वहीं है, वैसे के वैसे ही... अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा है, छोड़िए... कुछ और बात करते हैं।
हाँ तो कार्तिक की खुनकभरी सुबह-शाम चाय का गर्म प्याला अभी तक खुले में ही मजा दे रहा है। सुबह की चाय अखबार की उबाऊ और अवसाद देने वाली खबरों के साथ और शाम की चाय आखिरी सिरे पर दिन भर की जुगाली के साथ...। तो उस शाम हमारी चाय में परिवार के और लोग भी शामिल हुए... तमाम दुनिया जहान की बातों के बीच न जाने कहाँ से वो रहस्यमयी खुशबू सरसराती हुई घुस गई... अरे... ये तो रातरानी की खुशबू है, हमने आश्चर्य जताया, लेकिन हमने तो अभी तक रातरानी लगाई ही नहीं, तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है। हमारे आसपास बहुत किफायती लोग रहते हैं, ना तो जमीन बेकार छोड़ी और न ही किसी मुँडेर पर कोई गमला नजर आता है... पानी की भी किफायत और जमीन की भी... पैसों की तो खैर है ही...। तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है...? घर के आसपास लगे पौधों में जाकर सरसरी तौर पर देख भी लिया, लेकिन शाम के धुँधलके और पेड़-पौधों के गुँजलक में क्या रातरानी दिखे, फिर जब अभी तक लगाई ही नहीं है तो होने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
किचन में सिंकती रोटी के साथ फिर से वही मादक और जंगली-सी सुगंध... रात के खाने के बाद टहलते हुए भी फिर वही... उफ्...! अब तो कॉलोनी छोड़कर सड़क पर टहलो तो वहाँ भी... जैसे वो सुगंध हमारा ही पीछा कर रही है। मुश्किल ये है कि दिन के उजाले में वो खुशबू नहीं होती कि उस बेल का पता मिले और शाम के धुँधलके में जब खुशबू का पता होता है तो वो घर ही खो जाता है। पिछले 15 दिनों से यही लुकाछिपा का खेल चल रहा है, लेकिन न रातरानी की खुशबू हारी और न ही हमें जीत मिली... फिर एक दिन सोचा कि क्यों न रातरानी को लगा ही लिया जाए, अब उसे लगाया तो है, लेकिन उसे फूलने में वक्त है... पर, ये खुशबू...! उफ्.. तो लब्बोलुआब ये है कि रातरानी हमारे आसपास नहीं है ये तथ्य है, लेकिन उसकी खुशबू सत्य... तो क्यों न उस खुशबूदार सत्य से रिश्ता रखें... रातरानी के तथ्य का फायदा क्या है? शायद अब सत्य-तथ्य की गुत्थी समझ आए...!

22/10/2011

नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो लें...


पता नहीं वो सपना था या विचार... रात के ऐन बीचोंबीच एक तीखी बेचैनी में मैंने अपने शरीर पर पड़ा कंबल फेंका औऱ उठ बैठी। चेहरे पर हाथ घुमाया तो बालों की तरफ से कनपटी पर आती पसीने की चिपचिपाहट हथेली में उतर आई। सिर उठाकर पंखे की तरफ देखा, फुल स्पीड में चलते पंखे ने अपनी बेचारगी जाहिर कर दी...। सिरहाने से पानी का गिलास उठा लिया, एक ही साँस में उसे पूरा गले में उँडेल लिया... लेकिन कुछ अनजान-सा अटका हुआ है, जो किसी भी सूरत में नीचे नहीं जा रहा है। सुबह-शाम-दिन-रात एक अपरिचित बेचैनी है, बड़ी घुटन। सबकुछ अपनी सहज गति से चल रहा है, लेकिन कहीं-कुछ चुभता है, गड़ता है और परेशान कर रहा है। थोड़ी कोशिश की तो नींद आ ही गई ... हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगें, अभी कुछ बेकरारी है, सितारों तुम तो सो जाओ...। सुबह फिर उसी बेचैनी में नींद खुली थी, उनींदी आँखों से घड़ी को देखा तो सात बजने में बस कुछ ही देर थी... पंखे की हवा ठंडी लग रही थी, लेकिन सोचा बस बिजली गुल होने ही वाली है... दिमाग के गणित से निजात कहाँ...?
चॉपिंग बोर्ड पर हाथ प्याज काट रहे हैं, लेकिन दिमाग का मेनैजमेंट जारी है। सब्जी छोंकने के दौरान ही दाल पक जाएगी और उसी गैस पर फिर चावल रख दूँगी। सब्जी बनते ही दाल छौंक दूँगी... दस बजे तक सारा काम हो ही जाएगा। फिर दो-चार पन्ने तो किताब के पढ़ ही पाऊँगी, आज नो इंटरनेट... बेकार समय बर्बाद होता है। कड़ाही में मसाला भून रहा है, लेकिन दिमाग में अलग ही तरह की खिचड़ी पक रही है। आज भी पुल से नहीं जाना हो पाएगा... अखबार में ही तो पढ़ा है कि यहाँ किसी पोलिटिकल पार्टी की आमसभा है, तो जाम की स्थिति बनेगी...। रिंग रोड से जाना ही सूट करता है। हालाँकि इस रोड पर बहुत गड्ढे हैं, लेकिन कम से कम जाम... अदिति कहती है कि तुम्हें मेडिटेशन करना चाहिए... लेकिन दिल और दिमाग दोनों को साध पाना क्या आसान है, खासकर तब जब दोनों की गति हवा की तरह हो... वो कहती है कि किसी को इतना हक नहीं देना चाहिए कि वो आपको दुख पहुँचा सके... उफ्! भूल गई... कहीं पानी ओवरफ्लो तो नहीं हो रहा है। दौड़कर देखा, बच गए। आखिरकार हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा पानी, बिजली, ईंधन औऱ पर्यावरण पर...। लेकिन क्या इतने अनुशासन के बाद जीवन में रस बचा रहेगा। तो क्या अनुशासन को उतार फेंके जीवन से...? फिर से सवाल...।अदिति का कहना सच है, जो भी दिल के करीब आता है, जख्म बनके सदा... तो क्या करें...? दिल के दरवाजे बंद कर के रखें! ... कितने दिनों से एक ही किताब पढ़ रही हूँ, आखिर इतनी स्लो कैसे हो सकती हूँ... मसाला तेल छोड़ने लगा है, लेकिन प्रवाह सतत जारी है, मशीन का बजर बज गया। घड़ी ने साढे़ दस बजा दिए। ना तो इंटरनेट हो पाया और न ही किताब के पन्ने पलटे गए। सोचा था आज साड़ी, लेकिन अब समय नहीं है, सूट... पिंक... नहीं यार आज मौसम अच्छा है, कोई तीखा रंग। सिल्क... पागल हो क्या? मौसम कितना खराब है, दिन भर घुटन होती रहेगी... फिर... कोई सूदिंग-सा कपड़ा... कॉटन...। दिमाग ने सारी ऊर्जा सोख ली... अभी तो दिन बाकी है।
यार दो ही भाषा आती है, कितना अच्छा होता पाँच-सात भाषाएँ जानती... तो कितना पढ़ पाती, जान पाती, समझती और महसूस कर पाती...। उफ्...! अदिति कहती है कि - कितनी भूख है यार तेरी... बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...। कहीं तो लगाम लगानी ही पड़ेगी ना...! कोई न कोई नुक्ता तू ढूँढ ही लाती है दुखी होने के लिए... छोड़ इस सबको... जीवन को उसकी संपूर्णता में देख...। काश कि वो मुझे वैसे दिख पाता...। – ओ...ओ... अभी बाइक से टकराती... ये दिमाग पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता फिरता है। उफ्... आज फिर किताब घर पर ही रखी रह गई। ले आती तो एकाध पन्ना पढ़ने का तो जुगाड़ भिड़ा ही लेती...। कब तक फिक्शन ही पढ़ती रहूँगी, कभी कुछ ऐसा पढूँगी जो नॉन-फिक्शन हो...। अरे... अभी तो पढ़ी थी वो डायरी...। हाँ, वो है तो नॉन फिक्शन...।

खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट ने एक बार फिर ध्यान खींचा और मैंने पर्दा खींचकर उस रोशनी को बाहर ढकेल दिया। आँखों के सामने अँधेरा घिर आया... अंदर-बाहर बस अँधेरा ही अँधेरा... कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। कई-कई रातों से नींद के बीच कुछ-न-कुछ बुनता हुआ-सा महसूस होता है, लगता है जैसे नींद भी कई-कई जालों में फँसी हुई है। लगता है कि कोई ऐसा इंजेक्शन मिल जाए, जिसे सिर में लगाएँ और रात-दो-रात गहरी नींद में उतर जाएँ...। कुछ अजीब से परिवर्तन हैं – संगीत सुहाता नहीं, डुबाता नहीं... सतह पर ही कहीं छोड़ जाता है, प्यासा-सूखा और बेचैन... किताबें साथी हो ही नहीं पा रही है, वो छिटकी-रूठी हुई-सी लगती है। कुछ भी डूबने का वायस नहीं बन रहा है... ना संगीत, ना किताबें और न ही रंग... क्यों आती है, ऐसी बेचैनी, क्यों होता है सब कुछ इतना नीरस और ऊबभरा... ? ऐसी ही बेचैनी में उठकर अपने स्टूडियो में आ खड़ी होती हूँ। जिस कैनवस पर मैं काम कर रही हूँ, उसके रंग देखकर ताज्जुब हुआ... कैसे पेस्टल शेड्स दाखिल हो गए हैं, जीवन में...! हल्के-धूसर रंगों को देखकर हमेशा ही कोफ्त होती रही है, लेकिन मेरे अनजाने ही वे रंग मेरे कैनवस पर फैल रहे हैं... उफ् ये क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है, क्या है जो बस धुँआ-धुँआ सा लगता है, कुछ भी हाथ नहीं आ रहा है।
दिल को शोलों से करती है सैराब, जिंदगी आग भी है पानी भी... आज तो बस शोलें ही शोलें हैं... तपन है तीखी। अदिति कहती है कि तुम्हें बदलाव की जरूरत है... बदलाव कैसा...? कहती है एक ब्रेक ले लो... ब्रेक... किससे... खुद से, यार यही तो नहीं हो पाता है। खुद को ही कभी अलग कर पाऊँ तो फिर समस्या ही क्या है...? कितनी दिशाओं में दौड़ रही हूँ, खींचती ही चली जाऊँगी और अपने लिए कुछ बचूँगी ही नहीं....। कहीं कोई मंजिल नजर नहीं आ रही है... दौड़ना और बस दौड़ना... क्या यही रह गया है जीवन... ? कहीं किसी बिंदू पर आकर निगाह नहीं टिकती है, अजीब बेचैनी है... स्वभाव में, विचार में, जीवन में तो फिर निगाहों में कैसे नहीं होगी? पढ़ने के दौरान कई सारे पैरे पढ़ने के बाद भी मतलब समझ नहीं आता... लगता है कि एकसाथ कई काम करने हैं और फिर तुरंत लगता है कि क्या करना है और क्यों करना है?
रफी गा रहे हैं – तल्खी-ए-मय में जरा तल्खी-ए-दिल भी घोले/ और कुछ देर यहाँ बैठ ले, पी ले, रो ले...। चीख कर रोने की नौबत आने लगी थी... मुँह को हथेली से दबाया और खुद को चीखने की आजादी दे डाली... एक घुटी हुई सी चीख निकली और फिर देर तक सिसकियाँ... गज़ल चल ही रही थी – आह ये दिल की कसक हाय से आँखों की जलन/ नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो ले... गहरी... मौत की तरह की अँधेरी नींद की तलब लगी थी... शायद मैं भी सो गई थी...

19/09/2011

चार खूँटों से बँधी जिंदगी...!


सलीका - उठते ही सोने से फैले बालों को बाँधने के क्रम में वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और कंघी उठाकर बालों में गड़ाते हुए जैसे ही उसने आईना देखा… ऊब की लहर ऊपर से नीचे और हताशा की लहर नीचे ले ऊपर की तरफ दौड़ी। हर दिन वही चेहरा... उसी तरह की नाक, वही आँखें... सब कुछ वैसा ही, वहीं... उफ्! उसे अपने दिन का मूड समझ आ गया। वो वहीं स्टूल पर धपाक से बैठ गई। उसी हताशा में उसने एक बार फिर अपने चारों ओर नजरें दौड़ाई... हर चीज उसी जगह, कई दिनों से... बल्कि कई सालों से हरेक चीज है अपनी जगह ठिकाने से... सलीके से... । एकाएक उसे लगा कि ये सलीका ही उसकी परेशानी है। मन किया... सब कुछ को हाथ से फैला कर तितर-बितर कर दे। कुछ उठाकर जमीन पर पटक दे... कुछ... कुछ ऐसा करे जो उसे बदला सा महसूस कराए... लेकिन... लेकिन ये दिमाग। करो... कर ही डालो... फिर बिसूरते हुए समेटना भी तुम ही...।

नफासत - दफ्तर जाते हुए – वही रास्ता, सालों से वही… और वहीं दुकानें, पेड़, सड़क यहाँ तक कि गड्ढे तक... पता होता है कहाँ गाड़ी धीमी करनी है और कहाँ गियर बदलना है। इतनी उकताहट कि लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते रहे... शायद आसपास की दुनिया एकाएक बदली हुई-सी दिखे, लेकिन ये हो ही कैसे। कई बार उसे लगता है कि क्यों नहीं वो खुद ही अपने आप को बदल डालती? थोड़ा हेयर-स्टाइल बदल ले और थोड़े कपड़ों का स्टाइल... खुद भी काफी बदली नजर आएगी... लेकिन क्या ये बदलाव अच्छा होगा...? लीजिए सलीके के बाद दूसरी समस्या आ खड़ी हुई... नफासत...!

विश्वास - दफ्तर में वही जद्दोजहद... वही जगह, एक ही से चेहरे, वैसे ही एक्सप्रेशन्स और उसी तरह की बातें...। हर जगह सब कुछ इतना जाना पहचाना कि आँखें बंद कर यदि हाथ बढा़ओ तो जो हाथ आए वो परिचित चीज निकले...। उफ्....! यहाँ क्या वो खुद बदलाव नहीं कर सकती? कुछ नए लोगों से दोस्ती करे, कुछ नए लोगों को जानें, उनसे बातें करें... उनकी दुनिया में झाँके कुछ पात्र, कुछ कहानी, कुछ अनुभव उठा लें... लेकिन... लेकिन क्या ये इतना आसान है! एकाएक परिवर्तन से कईयों की भौहें तनेगी... फिर इसमें भी कौन दोस्ती के लायक है और कौन नहीं? किससे आपकी वेवलेंथ मैच करेगी और किससे नहीं... ये सब जानते-जानते पता नहीं किस ट्रेप में फँस जाए...। आखिर तो झटकना भी कहाँ आसान है, उसके लिए...? तो एक और समस्या या संकट... विश्वास का...!

सुविधा - शाम ढलते हुए ऑफिस से लौटना... 15 मिनट उपर हो या फिर 10 मिनट नीचे... सड़कों के हाल एक-ही से...। रोशनी का एक-सा जमावड़ा, ट्रेफिक जाम, हर दिन जैसा शोर। पटरी पार कर सड़कों को घरते ठेले, पुलिसवालों की मशक्कत-चिढ़ और खीझ...। उसी तरह की मनस्थिति... फिर से वही सब कुछ घर पहुँचकर... चाय या फिर कॉफी...। बनाना, खाना, टीवी देखना, टहलना, दिन भर का राग दोहराना...। अच्छे-बुरे पढ़ने को दोहराना। किसी अच्छे अनुभव को सुनाना-सुनना। छाया-गीत तक रेडियो के करीब पहुँच जाना। ज्यादातर उद् घोषक के बुरे चुनाव पर खीझना या फिर किसी अच्छे गाने को इत्मीनान से सुनने के चक्कर में घड़ी कि टिक-टिक को नजरअंदाज कर देना और फिर सोचना उफ् आज फिर देर...। सोते हुए जिस भी तरफ सिर करो... कमरे की हर चीज जानी पहचानी लगती है। कभी पूर्व तो कभी पश्चिम में सिर की दिशा रखी और नजरों को हर एंगल पर घुमा लिया... बदला कुछ भी नहीं... सब कुछ वैसा ही नजर आया। क्यों नहीं ऐसा कर लेती कि किसी शाम टीवी छोड़ दें... देर रात तक सड़कों पर आवारगी करते रहे या फिर गहरे गाढ़े अँधेरे को ओढ़कर किसी मीठी-सी धुन में खुद को डूबने-उतरने के लिए छोड़ दें। छाया-गीत का लालच छोड़ दे या फिर सुबह की चिंता छोड़ दे... देर रात तक अपनी फूलझड़ियों, छालों, फूलों और काँटों का हिसाब करते रहे... या फिर घड़ी को ताक पर पटककर समय को अँधेरे में से गुजर जाने दे...। नहीं होता, बहुत सोचते रहो तब भी नहीं होता... देर से सोए तो सुबह देर से उठेंगे या जल्दी उठ गए तो दिन भर काम करना मुश्किल होगा... फिर वही क्रम दोहराया जाएगा आखिर यहाँ मसला अ-सुविधा का है...।

वह सोचती है कि जिंदगी के चारों कोनों को खूँटे से बाँधने के बाद स्पेस, आजादी और चेंज की ख्वाहिश करना कितना हास्यास्पद है ना...! चाहना-चाहना-चाहना... अपने कंफर्ट ज़ोन में बैठकर सिर्फ चाहने से क्या बदलेगा? बदलने के लिए उसे तो छोड़ना ही पड़ेगा ना... तो...?

01/09/2011

मृत्यु बोध के जागते ही...!


कहीं कुछ बेतरह अटका पड़ा है। कई अच्छे-बुरे विचार ऐसे में आ-जा रहे हैं। ऐसे में ही अपने आसपास की दुनिया में बुरी तरह लिप्तता के बीच अचानक कहीं से मृत्यु का विचार आ खड़ा हुआ। मृत्यु पर विचार करने का वैसे तो कोई खास कारण नहीं है, लेकिन शायद कभी पढ़ी फिलॉसफी का असर हो शायद या फिर उम्र का... कि अचानक विचारों के केंद्र में मौत आ गई...। या फिर बचपन में कभी पढ़ी-सुनी बुद्ध की वह कहानी जिसमें उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि – इस दुनिया में आपको सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक क्या लगता है?
तो बुद्ध कहते हैं कि – ये जानते हुए भी कि हमें एक दिन मर जाना है, हमारी दौड़ जारी है।
सचमुच... ये कितना आश्चर्यजनक है, हम सब जानते हैं कि हम सब एक दिन मर जाने वाले हैं, किसी के लिए कोई दिन और किसी के लिए कोई... या शायद आज ही... अभी ... फिर भी हम यूँ जी रहे हैं, जैसे हमें यही रहना है, हमेशा-हमेशा के लिए...।
कहीं से भी विचार करना शुरू करो मृत्यु पर विचार हमें एक ही जगह ले जाता है, जीवन का अंत...। चाहे हमारा दर्शन पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता का विचार देता हो, लेकिन ये महज एक विचार है, विश्वास और अविश्वास की सीमा से परे... होने और न होने की सवाल से दूर, क्योंकि इसमें स्मृति नहीं जुड़ती है, इसलिए पश्चिम में प्रचलित दर्शन हमारे जीवन के ज्यादा करीब है कि – मृत्यु जीवन का अंत है... सारी संभावनाओं का अंत है। होना और चाहना का अंत है। और हमारे चाहने और न चाहने से अलग इसका अस्तित्व अवश्यंभावी है।
तो फिर सवाल उठता है कि - क्या हम जीवन-मृत्यु के बीच बस सफर पर नहीं हैं? प्रस्थान जन्म और गंतव्य मृत्यु...? उद्गम जन्म और विसर्जन मृत्यु... प्रारंभ जन्म और अंत मृत्यु... ! बस इसके बीच कहीं जीवन टँगा हुआ है..., शायद इसीलिए इतना दिलफरेब, बिंदास और निश्चिंत... हम सब जानते है कि हरेक की मृत्यु यकीनी है... हमारे जीवन की पूर्णाहुति है, हमारे होने की नियति है। हम चाहे या न चाहे उसके साए से अलग कोई कभी नहीं हो सकता है, फिर भी हम उसे बरसों बरस भुलाए रहते हैं। दरअसल हम ये मान कर जीते हैं कि ये सच हमारा नहीं है, दुनियावी सच है, जैसे दूसरे और सच होते हैं, वैसे ही या यूँ कह लें कि ये तथ्य है, हमारे लिए... दुनिया के लिए चाहे सच हो... हमारे लिए नहीं... । लेकिन हमारे झुठलाने से भी न तो इसकी प्रकृति बदलती है और न ही तासीर... ।
कभी तमाम दुनियादारी औऱ पूर्वाग्रहों से दूर होकर सोचें तो लगेगा कि दरअसल हमारा जन्म ही कदम-दर-कदम मौत की तरफ बढ़ने के लिए हुआ है, क्योंकि उससे अलग हमारे होने की कोई औऱ परिणति हो ही नहीं सकती है। दुनिया के सारे दर्शन और अध्यात्म का अस्तित्व ही इस बात पर है कि आखिरकार हमें सब कुछ से ‘कुछ नहीं’ हो जाना है, हमें मर जाना है, सिर्फ याद बन कर रह जाना है... लेकिन यही सबसे महत्वपूर्ण सत्य को हम भूल जाते हैं। कभी-कभी तो यूँ लगता है जैसे इसी वजह से सारी दुनिया चल रही है। शायद सृष्टि के गतिमान रहने का रहस्य ही ये भ्रम है कि हम कभी मरने वाले नहीं है...
भौतिकता में आकंठ डूबे हुए प्राणियों तक मौत का विचार पहुँचता ही नहीं है, लेकिन जब कभी ये चेतना जागती है यही वो बिंदू होता है, जहाँ से आध्यात्मिकता हमारे जीवन में प्रवेश करती है। और सवाल उठता है कि इस दुनिया का हमारे लिए मतलब ही क्या है? फिर भी हम इस विचार, इस शाश्वत सच से विलग होकर अपना जीवन गुज़ारते हैं। हम भूले रहते हैं कि दरअसल हम उस मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं जिसका कोई विकल्प नहीं है, जिसमें चुनाव की स्वतंत्रता भी नहीं है और जिससे निजात भी नहीं है। हम इस भुलावे में रहते हैं कि हमारी राह हमें किसी दूसरी मंजिल की तरफ ले जा रही है, मौत का रास्ता कोई दूसरा है। हम इस भ्रम में जीते हैं... जीना चाहते हैं कि ये भयावह सच्चाई हमें और हमारे अपनों को छोड़कर शेष बची दुनिया के लिए है, बस यही इस सच्चाई की खूबसूरती है और यही दौड़ते रहने का अभिशाप भी... इसी की वजह से जीवन की दौड़ का अस्तित्व है... और इसी के होने से जीवन के अर्थहीन होने की चेतना भी... हम सब इस सच के साथ जीते हैं, लेकिन उसके अहसास से दूरी बनाए रखते हैं। कितना अजीब है कि हम लगातार मृत्यु के साए में जीते हैं, लेकिन लगातार उससे बहुत दूर होने के भ्रम को पाले रहते हैं। हर वक्त हमारे साथ चलते इस साए को हम महसूस तक नहीं करते हैं। हम दौड़ में हैं, लगातार, एक-दूसरे को धकियाकर आगे जाने की दौड़ में... सबसे आगे होने, होना चाहने की दौड़ में। एक मंजिल को पाकर दूसरी कई-कई मंजिल को पाने की दौड़ में, इस सच के बाद भी कि एक दिन यहीं सब कुछ छूट जाना है, एक... भ्रम... एक झूठ... जिंदगी को संचालित करता है और हमें वो खूबसूरत लगती है... कितना अजीब है ना...!

19/08/2011

रोज शाम भविष्य में थोड़ा मर जाता हूँ...!


इतिहास निर्मित होने के दौर में इतिहास की गुत्थियों को जस-का-तस रखती किताब पढ़ना, क्या है ? - वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ना! या फिर वर्तमान को इतिहास के संदर्भ से समझने की कोशिश करना...! ...पता नहीं! बहुत दिनों से अटका पड़ा पढ़ने का क्रम न जाने कैसे आज शुरू हुआ तो ओम थानवी की यात्रा संस्मरण (ऐतिहासिक-स्थल की यात्रा) मुअनजोदड़ो के पूरा होने का मुहूर्त बन ही गया। इस बीच अण्णा-आंदोलन-गतिरोध-भ्रष्टाचार और पक्ष-विपक्ष पर भी नजरें पड़ती रही।
जैसा कि होता है – खत्म होने पर हमेशा सवाल खड़ा होता है ‘औचित्य का’। यहाँ किताब को पढ़ने का। क्यों पढ़ी गई... ? जानना लक्ष्य था या फिर पढ़ना... यदि जानना लक्ष्य था तो क्या जान लिया और यदि पढ़ना ही लक्ष्य था तो यही क्यों? फिर सवालों का जंजाल... इसी में से निकलता है एक और पुराना सवाल जो गाहे-ब-गाहे जाग जाता है - ‘आखिर इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का लक्ष्य क्या है?’, क्या वाकई हम इतिहास इसलिए पढ़ते हैं कि हम उससे सबक सीख सकें! आज तक हमने इतिहास से क्या सबक सीखे? अभी तो किसी ऐतिहासिक घटना पर हमारे इतिहासविद् और विशेषज्ञ निश्चित नहीं है। फिर अपने-अपने पूर्वाग्रह और उस आधार पर स्थापित सिद्धांत... ढेर सारी स्थापनाओं के प्रतिपादन और खंडन-मंडन के बाद भी अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका कि 1. मुअनजोदड़ों के संस्थापक कौन थे और कहाँ से आए थे? 2. वैदिक सभ्यता ज्यादा पुरानी है या फिर मुअनजोदड़ो की! और 3. सभ्यता का अंत कैसे हुआ? अब तक लिपि पढ़ी नहीं जा सकी तो सभ्यता को जानने में कोई मदद नहीं मिली...। मान लिजिए कभी जान भी लें इन सारे और इनके जैसे और कई सारे सवालों के जवाब तो क्या फर्क पड़ेगा? क्या वर्तमान ज्यादा खुशनुमा बन जाएगा। आज तक कितनी सभ्यताओं, व्यवस्थाओं, राष्ट्रों, सरकारों, संस्थाओं और व्यक्तियों ने इतिहास से सबक ग्रहण किए हैं?
तो आखिर पढ़ ही लिए गए सारे दावे-प्रतिदावे, इतिहास को खोजने के ऐतिहासिक प्रयास ...तो... उससे क्या हुआ! क्या पाया?
शुरू हुआ खोने-पाने का शाश्वत हिसाब... भौतिक हो, जरूरी नहीं, लेकिन होता है। सफर में न हो तो सफर खत्म होने पर ... जीवन में न हो तो जीवन के अंत में होगा... चाहे हम कितना ही इंकार कर लें। दो और दो चार का गणित पीछा नहीं छोड़ता... हिसाब के रूप में न हो तो विश्लेषण के रूप में, होगा ही। और जब ये सवाल उठता है तो फिर अब तक हुए सारे कर्म अपना-अपना बही खाता लिए हाजिर हुए चले जाते हैं। हमारा भी हिसाब कर दो... हमारा भी कर दो... हमारा भी...। मतलब हिसाब से मुक्ति नहीं है। तो क्या यहीं से जुड़ते है अतीत-वर्तमान-भविष्य के सिरे...! ओम जी की ही किताब से अज्ञेय की कविता की पंक्तियाँ – ‘रोज सबेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ / क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।’
यही है चक्र... इतिहास को जानने का, वर्तमान को जीने का और भविष्य में मरने का... पैदा होने, जीने और मरने का...:(