Showing posts with label बचपन. Show all posts
Showing posts with label बचपन. Show all posts

04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।

01/05/2013

मई दिवस, मार्क्स और बचपन

कोई-कोई बचपना भी अजीब होता है... बहुत, बहुत अजीब। ये न बचपना कहलाता है और न ही परिपक्वता... जाने इसे किस कैटेगरी में रखेंगे... मई दिवस के मौके पर ये बचपना लगातार ज़हन पर दस्तक दे रहा है। इसे तब बचपना कहा जा सकता था, लेकिन आज क्या कहा जाए, ये सवाल भी परेशान कर रहा है।
जाने ये चेतना कब आई, लेकिन जब भी आई तब से मई दिवस एक खास दिन की तरह... किसी त्योहार की तरह लगता रहा है। बचपन के उन दिनों में इस दिन कुछ नया और खुशनुमा फील होता रहा... अब भी होता है... जैसे कुछ बहुत-बहुत अपना हो, निजी... बेहद पर्सनल। तब जाने कैसे समझ ने मई दिवस का संबंध मार्क्स के जन्मदिन से जोड़ लिया था। मार्क्स... जब नहीं जानती थी, तब ईश्वर-तुल्य हो गए थे... क्यों, न तब समझी, न अब...। शायद बचपना इसी को कहते होंगे। पूँजीवादी परिवेश और ‘प्रवत्ति’ (या फिर उपभोगवादी प्रवृत्ति ज्यादा सटीक होगा, लेकिन प्रकारांतर से बात तो वही होगी ना!)... पूरी तरह से नहीं, लेकिन हाँ, इससे खुद को अलग दिखा पाऊँ, ऐसा नैतिक साहस नहीं पाती, तब भी मार्क्स, जाने कैसे हीरो हो गए थे...। तब तो ये भी नहीं जाना था कि आखिर ये हैं कौन और मार्क्सवाद बला क्या है? अब सोचती हूँ तो कोई ऐसा टर्निंग पाईंट नहीं पाती, जहाँ से इस इंसान से पहला परिचय हुआ हो... बस, याद आता है तो इतना कि जिस उम्र में लड़कियों को जवान और खूबसूरत लड़कों के प्रति फेसिनेशन हुआ करता था, उस उम्र में मुझे मार्क्स और मार्क्सवाद फेसिनेट करने लगा था। और सच पूछें तो आज भी उस आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाई... अब भी व्यवस्था पर चलती बहस को अक्सर मार्क्सवाद की रिलेवेंसी पर कनक्लूड करती हूँ। यूँ मई दिवस या मजदूर दिवस का मार्क्स से कोई सीधा संबंध नहीं है, सूचना में सही है, लेकिन चेतना में तो वही है... मई दिवस मतलब मार्क्स का आह्वान... फिर वही बचपना...।
फिर लेनिन, चे, कास्त्रो और ह्युगो रियल हीरोज की लिस्ट में शामिल होने लगे और इंस्पायरिंग हीरो के तौर पर निकोलाई बुखारिन, ट्रॉटस्की, अंटोनियो ग्राम्शी, जॉर्ज लुकास और पूँजीवाद और अमेरिका विरोध करते हुए नॉम चोमस्की भी लिस्ट में आ गए। हर वो अंतर्राष्ट्रीय घटना, जिससे मार्क्सवाद का क्षरण हुआ, उसने निराश किया और हर वो घटना जिससे उस बुझती आग में चिंगारी भड़की उसने मुझे उत्साह से भर दिया। सोवियत संघ का पतन, पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद का खत्म होना और आखिर में इतिहास के अंत ही घोषणाओं और हाल ही में ह्युगो की मौत ने बुझा दिया और कास्त्रो का संघर्ष, लेटिन अमेरिका में ह्युगो शॉवेज का उदय... इटली, फ्रांस और जर्मनी के चुनावों में वामपंथियों की विजय के समाचार उत्साहित करते रहे। आज भी जबकि मार्क्सवाद सिर्फ विचारों में ही बचा है, जाने कैसे इसके हकीकत में ‘जिंदा’ होने की उम्मीद जिंदा है... भीतर। एक और बचपना...। लगता है इस बचपने से बुढ़ापे तक निज़ात नहीं है। मजदूर और मजदूरों से यूँ कभी कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन मार्क्स ने अपने विचारों से कोई सूत्र तो जोड़ा ही है... कुछ बातें जीवन भर रहती है, ज़हन में वैसी ही, जैसे बचपन में थी, उसी रंग-रूप-आकार में... कुछ को हम वैसे ही सहेजना भी चाहते हैं... बस इस बात के साथ कुछ ऐसा ही है। अब आप चाहे तो इसे भी कह सकते हैं … बचपना...

05/07/2012

जया-पार्वती - तीसरी और समापन किश्त


दफ्तर से आते-जाते ताऊजी को रोज मालीपुरा पर मोगरे के फूल नजर आते रहते थे। अचानक ही उन्हें खयाल आया और उन्होंने इसे बा से कहा कि – ‘’क्यों नहीं ‘इसकी’ वेणी गूँथवा दी जाए... कितना मोगरा आ रहा है। कोई दिन ऐसा हो सकता है जिसमें दो-तीन घंटे मिल सकते हों...?’’ लालच तो बा को भी आया... आखिर हरेक के बालों पर कहाँ वेणी गूँथी जा सकती है, और यदि गूँथी ही जाए तो कितने खटकर्म करने पड़ते हैं, पहले तो नकली चोटी लेकर आओ... फिर उसे अच्छे से बालों में लगाओ फिर ही वेणी बँध पाएगी ना...। इसके लिए तो कुछ करना ही नहीं है, इतने अच्छे बाल जो हैं। तो छठे दिन तय कर दिया कि इसकी वेणी गूँथी जाएगी। सुबह-सुबह बाल धुलवाए (इस दिन बाल धोने जरूरी हैं) फिर टॉवेल से रगड़-रगड़ कर जल्दी से सुखाए और खूब तेल लगाकर कस कर एक चोटी बाँधी गई। और फिर शुरू हुआ वेणी गूँथने का क्रम... इसके लिए दो-तीन एक्सपर्ट्स को बुलवाया गया। चोटी की लंबाई का एक गत्ते का टुकड़ा काटा और उसके दोनों तरफ छेद किए गए, उन छेदों में जूते की तरह लेस लगाई गई और उसी लेस के सहारे चोटी पर लपेटा गया... फिर शुरू हुआ मोगरे की कलियाँ पिरोने का काम... इसमें लाल कनेर की कलियाँ और हरे पत्तों को कलियों की शक्ल देकर एक-एक लड़ पिरोना शुरू किया... दो-तीन घंटे हो गए... उसकी पीठ दुखने लगी... वो बार-बार किसी के कुछ कहने पर गर्दन घुमाती... मामी ने चिढ़कर उसके सिर पर एक चपत लगाई... – ‘कितना हिलती है... शांति से बैठी रहेगी तो जल्दी हो जाएगा... नहीं तो देर होगी, तुझे भी और हमें भी...।‘ वो भी चिढ़ गई – ‘कितनी देर से तो बैठी हूँ, चुपचाप... कितनी देर लगेगी और... मुझे नहीं गुँथवानी वेणी-ऐणी...।‘ ‘बेटा, बस हो गया... थोड़ी-सी देर और... बा ने समझाया – ‘देख तो कित्ती सुंदर लग रही है।‘ अब वो कैसे देखे... उसकी चोटी पर तो ‘काम’ चल रहा है ना...। आखिर तीन-चार घंटे की मशक्कत के बाद उसकी वेणी ने शक्ल ली.... चोटी पर सफेद मोगरों के बीच लाल कनेर और हरे पत्तों की कलियों ने तीन शकरपारे का आकार लिया... उसने चोटी को धीरे से आगे कर देखा... मन खुश हो गया। फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर छठें दिन की पूजा में पहुँची।
आखिरी दिन था व्रत का... आज तो दाल-चावल और खीरा खाने को मिलेगा... इस सोच मात्र से ही उसके दिन में कुछ नया आ गया था। पाँच दिनों से नमक ना खाने का असर थोड़ा-थोड़ा महसूस होने लगा था और हल्का-फुल्का उनींदापन सुबह से ही लग रहा था। उस पर आज पूरी रात जागने का विधान...। सुबह की पूजा से जब वो लौटी तो उसे उतावली थी, दाल-चावल खाने की। माँ कहती ही रह गई, बेटा पहले ठीक से रोटी खा ले...। चावल से पेट तो भर जाता है, लेकिन भार नहीं रहता है, लेकिन उसकी ‘प्यास’ की शिद्दत इतनी थी कि गर्म-खिले-बिखऱे-सफेद चावल को देखकर ही जैसे उसका मन तृप्त हो गया। फरमाईश पहले से ही कर दी थी माँ से... चावल बनाते हुए घी-नींबू जरूर डालना... वो एकदम से सफेद और खिलेखिले होने चाहिए।
या तो ऐसा है कि वो भविष्य को इतना घोंट चुकी होती है कि जब वो वर्तमान होता है तब तक उसका सारा रस निचुड़ जाता है... या फिर भविष्य पर अपेक्षाओं का इतना भार हो जाता है कि उसके वर्तमान होते-होते वो खत्म ही हो जाता है... यही हुआ भी...। इतना सारा सोचा था, लेकिन सब खत्म हो गया...। हाथ आए सपने-सा...। वो कुछ भी ठीक से नहीं खा पाई... फिर वही असंतुष्टि...।
चूँकि आज रात भर जागना है, इसलिए उसे जल्दी से खिला-पिलाकर सुला दिया गया। हालाँकि कस के गूँथी गई चोटी और मोटी-सी वेणी की वजह से सोने में उसे दिक्कत तो हो रही थी, लेकिन करवट लेकर वो सो गई।
आज रात को चार पहर की पूजा होगी, इसलिए रात्रि जागरण भी, क्योंकि अंतिम पूजा सुबह ४ बजे की जाती है। इसकी तैयारी ना सिर्फ व्रती लड़कियाँ करती है, बल्कि उनके परिवार की सारी महिलाएँ और लड़के भी...। तीन पूजा हो चुकी थी, मैदान में पकडमपाटी, फुंदडी, छुपाछाई जैसे खेल हो गए थे और लड़के-लड़कियाँ दोनों ही थक गए थे। महिलाएँ अंदर बैठकर अंत्याक्षरी खेल रही थीं। थकेहारे लड़के-लड़कियाँ लौटकर महिलाओं के साथ अंत्याक्षरी का हिस्सा बन गए... कुछ ऊँघने भी लगे थे... चूँकि व्रती लड़कियों को तो चौथी पूजा के लिए जागना ही है, इसलिए उन्हें छोड़कर सारे
लड़के, कुछ महिलाएँ और बची हुई लड़कियाँ धीरे-धीरे पसरने लगी थीं। थोड़ी देर में लड़कियों में उम्र में सबसे बड़ी औऱ खिलंदड लड़की ने बाकी सभी लड़कियों से धीरे से कहा – चलो एक चक्कर लगाकर आते हैं। आधी रात गुजर चुकी थी, सड़कें सुनसान थीं उसने पहले सोचा इतनी रात को बाहर... फिर से सोचकर खुद को समझा लिया कि इतनी सारी लड़कियाँ तो है, यदि कोई आएगा तो सब मिलकर काट-काटकर ही उसे अधमरा कर देंगी। तब तक वो लड़कियों के साथ ऊँच-नीच जैसी किसी चीज का मतलब नहीं समझती थीं... यूँ भी उसे हर चीज बाद में ही समझ आती थी। ऐसा नहीं था कि वो डंब थी, लेकिन उसकी समझ दूसरी तरह से काम करती थीं। आम चीजें समझने में उसका मन नहीं लगता था शायद इसीलिए वो उसकी समझ में नहीं आती थी और मुश्किल चीजों के पीछे पड़ जाती थीं, तब ही तो उस उम्र में उसने धर्मयुग में छपा अज्ञेय का यात्रा-वृत्तांत पढ़ डाला... चाहे उसे समझ कुछ नहीं आया हो, बस उसे महाबलिपुरम् का समुद्र ही समझ आया और हाँ.... लेखक का नाम उसे बड़ा पसंद आया... अज्ञेय.... कितना अच्छा नाम है ना...! बहुत बाद में जब उसने अज्ञेय को पढ़ा तब तो वो और भी अभिभूत हुई कि कितने बचपन से वो अज्ञेय को ‘जानती’ है न...कितना अच्छा लिखते हैं न...! बेवजह वो रविवार, दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान को भी पूरा-पूरा चाट जाती... चाहे समझ आए या ना आए...।
तो एक-एक कर सारी लड़कियाँ वहाँ से बाहर आ गईं। ये सब वही गलियाँ, सड़के, पेड़, घर, खिड़की, गड्ढे हैं जिन्हें देखते, जिनमें से गुजरकर सारी-की-सारी लड़कियाँ हर दिन स्कूल जाती और आती हैं। उसे ये देखकर इतनी हैरानी हुई कि ये सब कुछ दिन में कितना अलग होता है और रात में कितना अलग...। रात में कितना खूबसूरत होता है ये सब... कितना शांत, कितना अपना और कितना रहस्यमय...। लड़कियों के झुंड में वो बीच में थी और हुल्लड़बाज लड़कियाँ कभी किसी के घर की कुंडी खटखटाकर भाग निकलती तो कभी रास्ते में पड़े किसी पत्थऱ को ठोकर मारकर चलती। कई सारे घरों की तो बाहर से साँकल ही लगाती चल रही थीं।
थोड़ी देर बाद जब उसका डर कम हुआ तो वो धीरे-से झुंड से अलग हो गई और एक घर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गई। उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि वो इस सुनसान रात में इस तरह अकेली, बिना किसी डर के इस दुनिया को इस तरह से देख पा रही है। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में उसके सामने एकदम से एक नई-सी दुनिया ही खुल रही थी। उसे पहली बार महसूस हुआ कि अँधेरे में किस तरह का रहस्य है और उस रहस्य का सौंदर्य कितना अद्भुत है। यही रास्ते और यही घर, खिड़की, दुकाने, पत्थर-पेड़ हैं, जिन्हें वो हर दिन देखते हुए निकलती है, रात में कितने अलग लगते हैं... कितने खूबसूरत, कितनी शांति है, मीठी, सुरीली... कहीं कोई नहीं है, कोई आवाज भी नहीं... सन्नाटा भी नहीं, उसने आँखें मूँद ली... उसे बस अच्छा लगा, कोई विचार नहीं था, बस ऐसे ही... वो बहुत देर तक उस दीवार से सिर टिकाए यूँ ही आँखें मूँदे बैठी रही... उसे पहली बार अपने लड़की होने का दुख हुआ... वो बस अपने दुख को सेंत रही थी... तब उसे पता नहीं था कि सहेजा हुआ दुख भी कभी-कभी कुछ सिरजता है। जया-पार्वती व्रत की वो आखिरी रात थी, लेकिन इस रात ने उसके सामने एक नए रहस्य-लोक की सृष्टि की थी।
सारी लड़कियाँ गोल चक्कर लगाकर लौट रही थी... चलो-चलो आखिरी पूजा का टाइम हो रहा है... तू यहीं थी?
उसने आँखें खोली... कुछ गीलापन आँखों के सिरों पर आ ठहरा... उसने एक बड़ी गहरी साँस ली... आखिरी साँस जैसे... इस सौंदर्य को जी लेने के लिए, इस रहस्य को गह लेने के लिए... इस आजादी को पी लेने के लिए और उठकर लड़कियों के साथ चल पड़ी...।
समाप्त

01/07/2012

जया-पार्वती - 2



आखिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से विधिवत व्रत शुरू हो गए। समाज की धर्मशाला में जया-पार्वती को बैठाया गया। मिट्टी के हाथी पर शिव-पार्वती गेहूँ के जवारों के बीच छत्र के नीचे एक बाजवट (चोकोर पाटा) पर विराजे...। एक शाम पहले उसके खाने पर खासा ध्यान दिया गया। आज अच्छे से पेट भरकर खा ले, नहीं तो कल सुबह उठते ही भूख लगेगी। १२ बजे तक खाना तो दूर पानी-दूध-चाय तक नहीं मिलना है। इधऱ माँ रोजमर्रा के खाने में लगी हैं, उधर बा उसकी पूजा की थाली सजाने औऱ फई उसे सजाने में... माँ को जल्दी है कि रोजमर्रा का खाना निबटे तो किचन साफ कर उसका खाना बनाए। आखिर साफ-सफाई का तो खास ध्यान रखना पड़ेगा ना...! उपवास का मामला है, कुछ ऐठा-जूठा यहाँ-वहाँ न हो जाए।
साड़ी के हिसाब से उसका कद छोटा था। स्कूल के आखिरी साल तक वो प्रेयर में सबसे आगे ही खड़ी हुआ करती थी। कॉलेज में तो प्रेयर हुआ ही नहीं करती थी, इसलिए उसे पता ही नहीं... (पता नहीं किन सालों में उसका कद बढ़ा... बहुत बाद में जब शायद उसकी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का आखिरी साल था, उसकी एक सहेली ने उससे पूछा कि तेरी हाईट क्या है? और जब वो सोच में पड़ गई तो उसकी सहेली ने उसका खूब मजाक बनाया और पहली बार उसने ही उसकी हाईट नापकर बताई)। फई साड़ी पहना रही है... साड़ी को आधी फोल्ड कर पहनाने में बड़ी मुश्किल आ रही थी, फिर उसके नखरे भी कुछ कम नहीं थे... फई... यहाँ से तो ऊँची हो रही है और ये देखो... ये पोचका निकल आया है...। उसकी चोटियाँ बनाते हुए भी ... ये देखो, इस तरफ के बाल उस तरफ जा रहे हैं... या फिर बाल खिंच रहे हैं... फई उसके नखरों पर मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं।

पूजा की थाली भी तैयार हो चुकी थी और वो खुद भी...। माँ और बा दोनों घर में ही उसके खाने की तैयारी में लगी थीं। फई ने उसकी पूजा की थाली उठाई और आस-पास के घरों की दो-तीन लड़कियाँ भी अपनी-अपनी भाभी, माँ, चाची या फिर ताई को अपनी पूजा की थाली थमाए आगे-आगे मस्ती में चल रही थी। दीदी (फई के बेटी) ने फई से कहा... इसकी चाल तो देख... और सारे के सारे मुस्कुराकर रह गए, लेकिन उसके अंदर कोई काँटा-सा गड़ गया। रह-रह कर उसके अंदर ये सवाल धधकता रहता कि आखिर उसकी चाल में ऐसा क्या है, जिसे देखकर सारे के सारे मुस्कुराए...।
लगभग एक से डेढ़ घंटे तक पूजा चलती रही। पूजा के बाद सब अपनी-अपनी बेटियों को जल्दी घर ले जाने के चक्कर में लगे रहे, क्योंकि आखिर बेचारियाँ सुबह से भूखी-प्यासी जो है। घर पहुँचकर ही पानी नसीब होगा। घर में माँ और बा ने मिलकर उसकी थाली लगा दी, उसके अच्छे से टिककर बैठने की व्यवस्था कर दी। जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदले गए और तुरंत खाने पर बैठा दिया। ताऊजी सामने बैठ गए... अच्छे से कुरकुरी तलों पूरियों को... बेटा, खीर में शकर ठीक है या नहीं। वे बुआ से कहते हैं – ‘ऐसा कर यहीं एक गादी लगा दे, बेटा जितना अभी खाया जाए, उतना खा ले, फिर यहीं बिना हाथ धोए सो जा... फिर जब भूख लगे, तब फिर खा लेना...।‘ माँ मुस्कुराती है कह नहीं पाती, लेकिन वो समझती है, माँ कहना चाहती है – ‘ऐसा वरत किया ही क्यों जाए’ और वो जोर से खिलखिला पड़ती है (आज चाहे याद करते हुए उसकी आँखें भर जाती हो)। सुबह ही उससे पूछ लिया जाता कि शाम को कौन-सी मिठाई और फल खाने की इच्छा है? मिठाई... रसगुल्ला... अरे नहीं... रसगुल्ला थोड़ी खाया जा सकता है व्रत में... पता नहीं उसमें क्या सूजी-मैदा पड़ता हो... मिठाई तो मावे की ही खा सकती है बेटा... – माँ ने समझाया। ठीक है... तो आज मलाई बरफी। और फल... आम खाएगी ना? – ताऊजी पूछते हैं।
हाँ, खाऊँगी ना... तोतापरी... – वो कहती है। हट... तोतापरी खाएगी, लँगड़ा आने लगा है अच्छा... – ताऊजी कहते हैं। नहीं, मुझे वो ही पसंद है – वो जिद्द पर आ जाती है। पापा मुस्कुराकर कह देते हैं, ठीक है, दोनों ले आऊँगा, फिर खुद ही कहते हैं यार ये तोतापरी में तो अब कीड़े लगना शुरू हो जाते हैं। लेकिन लौटते तो साथ लँगड़ा भी होता और तोतापरी भी...।

वो सुबह के खाने पर बैठी है और भाई इधर-उधर गोते लगा रहा है, आखिर तो जिस भी घर में बहनें ‘वरत’ कर रही है, उस घर में भाइयों के भी तो मजे हैं। सुबह चाहे बहनों का बेस्वाद खाना नहीं खाया जाए, लेकिन शाम को तो बहन के लिए आने वाले फल, मिठाई और मेवों में से थोड़ा कुछ तो उन्हें भी मिलेगा ना...। शाम को जब बहनें ‘वरत’ की कथा सुनने जाती है, तब भाई भी उनके साथ हो लेते हैं और जब बहनें कथा सुनती हैं, सारी बहनों के भाई मिलकर बाहर इतनी धमाचौकड़ी मचाते हैं कि अंदर ना तो गोरजी महाराज को कथा कहने में मजा आता है और न ही ‘वरती’ बहनों को सुनने में...।

पता नहीं चला कि पाँच दिन कहाँ निकल गए। हाँ उन पाँच दिनों में उसका खास आदेश था, घर में खीरा नहीं आएगा... क्यों? उसे खीरा बहुत...बहुत...बहुत पसंद है और व्रत में खीरा नहीं खाया जाता है। छठें दिन सादा खाना खाया जाता है, लेकिन वो भी एक ही समय...। तो पाँचवे दिन सुबह से ही उससे ये पूछ लिया गया था कि कल क्या-क्या खाना है। मीठा तो वो पिछले पाँच दिन से खा रही थी, सो मिठाई को तो कोई सवाल ही नहीं था। नमकीन में भी पातरा (अरवी के पत्ते) और हाँ दाल-चावल...। और खीरा... बहुत सारा लेकर आना... वो पापा को आदेश-सा ही देती है। पापा मुस्कुराते हैं... माँ कहती हैं – ‘हाँ, हाँ बहुत सारा... खाया जाएगा नहीं कुछ भी।‘ वो बनावटी गुस्सा करते हुए कहती है – ‘आप तो बहुत सारी लेकर आना...बस...।‘
क्रमशः....

30/06/2012

जया-पार्वती - 1 (पहला भाग)


जेठ उतर रहा था। कोलामन की हवाएँ चलना शुरू हो चुकी थी। माँ और बा (ताईजी) दोनों ही जान रही थीं कि ये बस बारिश का संदेश है। मानसून-वानसून क्या होता है, इससे दोनों को ही कोई लेना-देना नहीं था। बात ये थी कि बारिश से पहले की क्या और कैसी तैयारियाँ की जानी है। शाम ढ़ल रही थी, बहुत धीरे-धीरे... माँ पटिए पर बैठी गैस-चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही थीं और उनके सामने ही बा घर भर के लालटेन लेकर उन्हें साफ करने, उनमें बत्तियाँ और केरोसिन डालने का काम कर रहीं थीं, आखिर तो बारिश आने ही वाली है बस...।
धूल-पसीने से बदरंग हो रही शकल, कस कर गूँथी गईं दो चोटियों में से भी उड़कर बिखरे बाल और जगह-जगह से गंदी हो गई गुलाब फ्रॉक पहने ना जाने वो कहाँ से प्रकट हो गई और आकर बा के पास बैठ गई। बहुत देर तक लालटेन की चमकती काँच की हंडी को वो मुग्ध होकर देखती रही... हेट-टेल करती रही कि इसे उठाऊँ या नहीं... फिर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ा ही दिया था कि तुरंत बा ने डाँटा... मत कर, टूट जाएगी। उसने उसे छूकर बहुत बेमन से अपना हाथ पीछे खींच लिया।
मुझे भी वरत (व्रत) करना है! – उसने चिरौरी के अंदाज में कहा। माँ तो मुस्कुरा दी, लेकिन बा ने उसे लाड़ से झिड़का – बेटा अपने से नहीं होगा। उन सारी लड़कियों (बा यहाँ अपनी भतीजियों के बारे में बात कर रही थीं) को करने दे... वो सब भूखे रहने में कट्टर है। बहुत कठिन व्रत है वो बेटा...।
अरे मुझे करना है ना... – उस १२-१३ साल की लड़की ने व्रत के कठिन होने की बात को जरा भी तवज्जो नहीं दी, उसे तो बस उन पाँच दिनों में व्रती लड़कियों को किस तरह से पैंपर किया जाता है, वो ही याद है, किस तरह पाँच दिन पूजा में पहनने के लिए कभी किसी भाभी की, चाची, ताई, बुआ, दादी, मामी, मौसी या माँ की सबसे खूबसूरत साड़ी और गहने आ जाया करते हैं। कैसे हर दिन लड़की से पूछा जाता है – ‘आज कौन सी मिठाई-फल खाने हैं...?’ ‘भूख तो नहीं लग रही है, बेटा।‘ ‘अच्छे से पेट भर के खाया या नहीं। ‘ ‘बेचारी बिना नमक का खा रही है... कैसे पेट भरता होगा...’ आदि-आदि....।

बहुत झिक-झिक के बाद आखिर बा ने ये कह कर हथियार डाले कि ठीक है, इस बार करके देख ले, यदि तुझसे होगा तो पाँच पूरे करना नहीं तो एक करके ही हाथ जोड़ लेना... नहीं सधे तो क्या करें? बस बा ने निर्णय कर दिया। उसे सोच-सोच कर ही मजा आने लगा। कभी भाभी की वो ब्लू सितारों वाली साड़ी, तो कभी मम्मी की गुलाबी, बा की फिरोजी और फई की जामुनी साड़ी... सोचने लगी किस दिन किसकी और कौन-सी साड़ी पहनी जाएगी। व्रत में खाने के लिए किसी एक अनाज का चुनाव करना था विकल्प थे तीन – गेहूँ, चावल औऱ ज्वार। माँ ने उसे बहुत समझाया बेटा गेहूँ ले... रोटी, पूरी, पराँठे, बाफले कुछ भी खाए जा सकते हैं। माँ समझती थी कि चार पूरी या एक बाफला खा लें तो दिन भर पेट भरा-भरा रहता है, आखिर तो पाँच दिन तक बिना नमक का एक धान और वो भी एक ही समय जो खाना है... लेकिन उसे तो बस एक धुन थी, चावल.... चावल और चावल.... वजह, नागपंचमी पर बनने वाले चावल के लड्डू जो उसे उस वक्त बेहद पसंद थे और इस बहाने वो जितने चाहे उतने लड्डू खा सकेगी.... जानती नहीं थी कि वैसे लड्डूस खाना और व्रत करके लड्डू खाना दो अलग-अलग बात है। खैर तो आषाढ़ खत्म होने को था। माँ और बा दोनों ही उसके जया-पार्वती के व्रत की तैयारियों में लगी थीं। चावल को धोकर सुखाना और फिर घट्टी में पिसना... व्रत का मामला है, इसलिए आटा चक्की में नहीं पिसवाया जा सकता है, वहाँ तो गेहूँ, पिसा जाता है ना...! तो घट्टी में चावल पिसना... व्रत के लिए खाना बनाने और खाना खाने के बर्तनों को अच्छे से साफ कर अलग रखना। छः दिन की पूजा की सामग्री की तैयारी फिर उसके तैयार होने के लिए कपड़ों की व्यवस्था... उस छुटंकी-सी लड़की को साड़ी पहनाना... ब्लाउज (उस समय इतना पैसा नहीं हुआ करता था, कि एक दिन के लिए अलग से ब्लाउज सिलवाया जाए... तो साड़ियों के साथ के ब्लाउज में टाँके भरना... ताकि फिटिंग ‘ठीक-ठाक’ हो जाए... आदि-आदि... ढेरों काम... थे। फई (बुआएँ) भी मदद के लिए दोपहर में आ जाया करती... और फिर शुरू होता गप्प लगाने, हँसी-ठिठौली करते हुए काम पूरा करने का दौर।
क्रमशः...