05/07/2012
जया-पार्वती - तीसरी और समापन किश्त
दफ्तर से आते-जाते ताऊजी को रोज मालीपुरा पर मोगरे के फूल नजर आते रहते थे। अचानक ही उन्हें खयाल आया और उन्होंने इसे बा से कहा कि – ‘’क्यों नहीं ‘इसकी’ वेणी गूँथवा दी जाए... कितना मोगरा आ रहा है। कोई दिन ऐसा हो सकता है जिसमें दो-तीन घंटे मिल सकते हों...?’’ लालच तो बा को भी आया... आखिर हरेक के बालों पर कहाँ वेणी गूँथी जा सकती है, और यदि गूँथी ही जाए तो कितने खटकर्म करने पड़ते हैं, पहले तो नकली चोटी लेकर आओ... फिर उसे अच्छे से बालों में लगाओ फिर ही वेणी बँध पाएगी ना...। इसके लिए तो कुछ करना ही नहीं है, इतने अच्छे बाल जो हैं। तो छठे दिन तय कर दिया कि इसकी वेणी गूँथी जाएगी। सुबह-सुबह बाल धुलवाए (इस दिन बाल धोने जरूरी हैं) फिर टॉवेल से रगड़-रगड़ कर जल्दी से सुखाए और खूब तेल लगाकर कस कर एक चोटी बाँधी गई। और फिर शुरू हुआ वेणी गूँथने का क्रम... इसके लिए दो-तीन एक्सपर्ट्स को बुलवाया गया। चोटी की लंबाई का एक गत्ते का टुकड़ा काटा और उसके दोनों तरफ छेद किए गए, उन छेदों में जूते की तरह लेस लगाई गई और उसी लेस के सहारे चोटी पर लपेटा गया... फिर शुरू हुआ मोगरे की कलियाँ पिरोने का काम... इसमें लाल कनेर की कलियाँ और हरे पत्तों को कलियों की शक्ल देकर एक-एक लड़ पिरोना शुरू किया... दो-तीन घंटे हो गए... उसकी पीठ दुखने लगी... वो बार-बार किसी के कुछ कहने पर गर्दन घुमाती... मामी ने चिढ़कर उसके सिर पर एक चपत लगाई... – ‘कितना हिलती है... शांति से बैठी रहेगी तो जल्दी हो जाएगा... नहीं तो देर होगी, तुझे भी और हमें भी...।‘ वो भी चिढ़ गई – ‘कितनी देर से तो बैठी हूँ, चुपचाप... कितनी देर लगेगी और... मुझे नहीं गुँथवानी वेणी-ऐणी...।‘ ‘बेटा, बस हो गया... थोड़ी-सी देर और... बा ने समझाया – ‘देख तो कित्ती सुंदर लग रही है।‘ अब वो कैसे देखे... उसकी चोटी पर तो ‘काम’ चल रहा है ना...। आखिर तीन-चार घंटे की मशक्कत के बाद उसकी वेणी ने शक्ल ली.... चोटी पर सफेद मोगरों के बीच लाल कनेर और हरे पत्तों की कलियों ने तीन शकरपारे का आकार लिया... उसने चोटी को धीरे से आगे कर देखा... मन खुश हो गया। फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर छठें दिन की पूजा में पहुँची।
आखिरी दिन था व्रत का... आज तो दाल-चावल और खीरा खाने को मिलेगा... इस सोच मात्र से ही उसके दिन में कुछ नया आ गया था। पाँच दिनों से नमक ना खाने का असर थोड़ा-थोड़ा महसूस होने लगा था और हल्का-फुल्का उनींदापन सुबह से ही लग रहा था। उस पर आज पूरी रात जागने का विधान...। सुबह की पूजा से जब वो लौटी तो उसे उतावली थी, दाल-चावल खाने की। माँ कहती ही रह गई, बेटा पहले ठीक से रोटी खा ले...। चावल से पेट तो भर जाता है, लेकिन भार नहीं रहता है, लेकिन उसकी ‘प्यास’ की शिद्दत इतनी थी कि गर्म-खिले-बिखऱे-सफेद चावल को देखकर ही जैसे उसका मन तृप्त हो गया। फरमाईश पहले से ही कर दी थी माँ से... चावल बनाते हुए घी-नींबू जरूर डालना... वो एकदम से सफेद और खिलेखिले होने चाहिए।
या तो ऐसा है कि वो भविष्य को इतना घोंट चुकी होती है कि जब वो वर्तमान होता है तब तक उसका सारा रस निचुड़ जाता है... या फिर भविष्य पर अपेक्षाओं का इतना भार हो जाता है कि उसके वर्तमान होते-होते वो खत्म ही हो जाता है... यही हुआ भी...। इतना सारा सोचा था, लेकिन सब खत्म हो गया...। हाथ आए सपने-सा...। वो कुछ भी ठीक से नहीं खा पाई... फिर वही असंतुष्टि...।
चूँकि आज रात भर जागना है, इसलिए उसे जल्दी से खिला-पिलाकर सुला दिया गया। हालाँकि कस के गूँथी गई चोटी और मोटी-सी वेणी की वजह से सोने में उसे दिक्कत तो हो रही थी, लेकिन करवट लेकर वो सो गई।
आज रात को चार पहर की पूजा होगी, इसलिए रात्रि जागरण भी, क्योंकि अंतिम पूजा सुबह ४ बजे की जाती है। इसकी तैयारी ना सिर्फ व्रती लड़कियाँ करती है, बल्कि उनके परिवार की सारी महिलाएँ और लड़के भी...। तीन पूजा हो चुकी थी, मैदान में पकडमपाटी, फुंदडी, छुपाछाई जैसे खेल हो गए थे और लड़के-लड़कियाँ दोनों ही थक गए थे। महिलाएँ अंदर बैठकर अंत्याक्षरी खेल रही थीं। थकेहारे लड़के-लड़कियाँ लौटकर महिलाओं के साथ अंत्याक्षरी का हिस्सा बन गए... कुछ ऊँघने भी लगे थे... चूँकि व्रती लड़कियों को तो चौथी पूजा के लिए जागना ही है, इसलिए उन्हें छोड़कर सारे
लड़के, कुछ महिलाएँ और बची हुई लड़कियाँ धीरे-धीरे पसरने लगी थीं। थोड़ी देर में लड़कियों में उम्र में सबसे बड़ी औऱ खिलंदड लड़की ने बाकी सभी लड़कियों से धीरे से कहा – चलो एक चक्कर लगाकर आते हैं। आधी रात गुजर चुकी थी, सड़कें सुनसान थीं उसने पहले सोचा इतनी रात को बाहर... फिर से सोचकर खुद को समझा लिया कि इतनी सारी लड़कियाँ तो है, यदि कोई आएगा तो सब मिलकर काट-काटकर ही उसे अधमरा कर देंगी। तब तक वो लड़कियों के साथ ऊँच-नीच जैसी किसी चीज का मतलब नहीं समझती थीं... यूँ भी उसे हर चीज बाद में ही समझ आती थी। ऐसा नहीं था कि वो डंब थी, लेकिन उसकी समझ दूसरी तरह से काम करती थीं। आम चीजें समझने में उसका मन नहीं लगता था शायद इसीलिए वो उसकी समझ में नहीं आती थी और मुश्किल चीजों के पीछे पड़ जाती थीं, तब ही तो उस उम्र में उसने धर्मयुग में छपा अज्ञेय का यात्रा-वृत्तांत पढ़ डाला... चाहे उसे समझ कुछ नहीं आया हो, बस उसे महाबलिपुरम् का समुद्र ही समझ आया और हाँ.... लेखक का नाम उसे बड़ा पसंद आया... अज्ञेय.... कितना अच्छा नाम है ना...! बहुत बाद में जब उसने अज्ञेय को पढ़ा तब तो वो और भी अभिभूत हुई कि कितने बचपन से वो अज्ञेय को ‘जानती’ है न...कितना अच्छा लिखते हैं न...! बेवजह वो रविवार, दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान को भी पूरा-पूरा चाट जाती... चाहे समझ आए या ना आए...।
तो एक-एक कर सारी लड़कियाँ वहाँ से बाहर आ गईं। ये सब वही गलियाँ, सड़के, पेड़, घर, खिड़की, गड्ढे हैं जिन्हें देखते, जिनमें से गुजरकर सारी-की-सारी लड़कियाँ हर दिन स्कूल जाती और आती हैं। उसे ये देखकर इतनी हैरानी हुई कि ये सब कुछ दिन में कितना अलग होता है और रात में कितना अलग...। रात में कितना खूबसूरत होता है ये सब... कितना शांत, कितना अपना और कितना रहस्यमय...। लड़कियों के झुंड में वो बीच में थी और हुल्लड़बाज लड़कियाँ कभी किसी के घर की कुंडी खटखटाकर भाग निकलती तो कभी रास्ते में पड़े किसी पत्थऱ को ठोकर मारकर चलती। कई सारे घरों की तो बाहर से साँकल ही लगाती चल रही थीं।
थोड़ी देर बाद जब उसका डर कम हुआ तो वो धीरे-से झुंड से अलग हो गई और एक घर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गई। उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि वो इस सुनसान रात में इस तरह अकेली, बिना किसी डर के इस दुनिया को इस तरह से देख पा रही है। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में उसके सामने एकदम से एक नई-सी दुनिया ही खुल रही थी। उसे पहली बार महसूस हुआ कि अँधेरे में किस तरह का रहस्य है और उस रहस्य का सौंदर्य कितना अद्भुत है। यही रास्ते और यही घर, खिड़की, दुकाने, पत्थर-पेड़ हैं, जिन्हें वो हर दिन देखते हुए निकलती है, रात में कितने अलग लगते हैं... कितने खूबसूरत, कितनी शांति है, मीठी, सुरीली... कहीं कोई नहीं है, कोई आवाज भी नहीं... सन्नाटा भी नहीं, उसने आँखें मूँद ली... उसे बस अच्छा लगा, कोई विचार नहीं था, बस ऐसे ही... वो बहुत देर तक उस दीवार से सिर टिकाए यूँ ही आँखें मूँदे बैठी रही... उसे पहली बार अपने लड़की होने का दुख हुआ... वो बस अपने दुख को सेंत रही थी... तब उसे पता नहीं था कि सहेजा हुआ दुख भी कभी-कभी कुछ सिरजता है। जया-पार्वती व्रत की वो आखिरी रात थी, लेकिन इस रात ने उसके सामने एक नए रहस्य-लोक की सृष्टि की थी।
सारी लड़कियाँ गोल चक्कर लगाकर लौट रही थी... चलो-चलो आखिरी पूजा का टाइम हो रहा है... तू यहीं थी?
उसने आँखें खोली... कुछ गीलापन आँखों के सिरों पर आ ठहरा... उसने एक बड़ी गहरी साँस ली... आखिरी साँस जैसे... इस सौंदर्य को जी लेने के लिए, इस रहस्य को गह लेने के लिए... इस आजादी को पी लेने के लिए और उठकर लड़कियों के साथ चल पड़ी...।
समाप्त
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण....impressive..
ReplyDelete