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01/05/2013

मई दिवस, मार्क्स और बचपन

कोई-कोई बचपना भी अजीब होता है... बहुत, बहुत अजीब। ये न बचपना कहलाता है और न ही परिपक्वता... जाने इसे किस कैटेगरी में रखेंगे... मई दिवस के मौके पर ये बचपना लगातार ज़हन पर दस्तक दे रहा है। इसे तब बचपना कहा जा सकता था, लेकिन आज क्या कहा जाए, ये सवाल भी परेशान कर रहा है।
जाने ये चेतना कब आई, लेकिन जब भी आई तब से मई दिवस एक खास दिन की तरह... किसी त्योहार की तरह लगता रहा है। बचपन के उन दिनों में इस दिन कुछ नया और खुशनुमा फील होता रहा... अब भी होता है... जैसे कुछ बहुत-बहुत अपना हो, निजी... बेहद पर्सनल। तब जाने कैसे समझ ने मई दिवस का संबंध मार्क्स के जन्मदिन से जोड़ लिया था। मार्क्स... जब नहीं जानती थी, तब ईश्वर-तुल्य हो गए थे... क्यों, न तब समझी, न अब...। शायद बचपना इसी को कहते होंगे। पूँजीवादी परिवेश और ‘प्रवत्ति’ (या फिर उपभोगवादी प्रवृत्ति ज्यादा सटीक होगा, लेकिन प्रकारांतर से बात तो वही होगी ना!)... पूरी तरह से नहीं, लेकिन हाँ, इससे खुद को अलग दिखा पाऊँ, ऐसा नैतिक साहस नहीं पाती, तब भी मार्क्स, जाने कैसे हीरो हो गए थे...। तब तो ये भी नहीं जाना था कि आखिर ये हैं कौन और मार्क्सवाद बला क्या है? अब सोचती हूँ तो कोई ऐसा टर्निंग पाईंट नहीं पाती, जहाँ से इस इंसान से पहला परिचय हुआ हो... बस, याद आता है तो इतना कि जिस उम्र में लड़कियों को जवान और खूबसूरत लड़कों के प्रति फेसिनेशन हुआ करता था, उस उम्र में मुझे मार्क्स और मार्क्सवाद फेसिनेट करने लगा था। और सच पूछें तो आज भी उस आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाई... अब भी व्यवस्था पर चलती बहस को अक्सर मार्क्सवाद की रिलेवेंसी पर कनक्लूड करती हूँ। यूँ मई दिवस या मजदूर दिवस का मार्क्स से कोई सीधा संबंध नहीं है, सूचना में सही है, लेकिन चेतना में तो वही है... मई दिवस मतलब मार्क्स का आह्वान... फिर वही बचपना...।
फिर लेनिन, चे, कास्त्रो और ह्युगो रियल हीरोज की लिस्ट में शामिल होने लगे और इंस्पायरिंग हीरो के तौर पर निकोलाई बुखारिन, ट्रॉटस्की, अंटोनियो ग्राम्शी, जॉर्ज लुकास और पूँजीवाद और अमेरिका विरोध करते हुए नॉम चोमस्की भी लिस्ट में आ गए। हर वो अंतर्राष्ट्रीय घटना, जिससे मार्क्सवाद का क्षरण हुआ, उसने निराश किया और हर वो घटना जिससे उस बुझती आग में चिंगारी भड़की उसने मुझे उत्साह से भर दिया। सोवियत संघ का पतन, पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद का खत्म होना और आखिर में इतिहास के अंत ही घोषणाओं और हाल ही में ह्युगो की मौत ने बुझा दिया और कास्त्रो का संघर्ष, लेटिन अमेरिका में ह्युगो शॉवेज का उदय... इटली, फ्रांस और जर्मनी के चुनावों में वामपंथियों की विजय के समाचार उत्साहित करते रहे। आज भी जबकि मार्क्सवाद सिर्फ विचारों में ही बचा है, जाने कैसे इसके हकीकत में ‘जिंदा’ होने की उम्मीद जिंदा है... भीतर। एक और बचपना...। लगता है इस बचपने से बुढ़ापे तक निज़ात नहीं है। मजदूर और मजदूरों से यूँ कभी कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन मार्क्स ने अपने विचारों से कोई सूत्र तो जोड़ा ही है... कुछ बातें जीवन भर रहती है, ज़हन में वैसी ही, जैसे बचपन में थी, उसी रंग-रूप-आकार में... कुछ को हम वैसे ही सहेजना भी चाहते हैं... बस इस बात के साथ कुछ ऐसा ही है। अब आप चाहे तो इसे भी कह सकते हैं … बचपना...

01/07/2012

जया-पार्वती - 2



आखिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से विधिवत व्रत शुरू हो गए। समाज की धर्मशाला में जया-पार्वती को बैठाया गया। मिट्टी के हाथी पर शिव-पार्वती गेहूँ के जवारों के बीच छत्र के नीचे एक बाजवट (चोकोर पाटा) पर विराजे...। एक शाम पहले उसके खाने पर खासा ध्यान दिया गया। आज अच्छे से पेट भरकर खा ले, नहीं तो कल सुबह उठते ही भूख लगेगी। १२ बजे तक खाना तो दूर पानी-दूध-चाय तक नहीं मिलना है। इधऱ माँ रोजमर्रा के खाने में लगी हैं, उधर बा उसकी पूजा की थाली सजाने औऱ फई उसे सजाने में... माँ को जल्दी है कि रोजमर्रा का खाना निबटे तो किचन साफ कर उसका खाना बनाए। आखिर साफ-सफाई का तो खास ध्यान रखना पड़ेगा ना...! उपवास का मामला है, कुछ ऐठा-जूठा यहाँ-वहाँ न हो जाए।
साड़ी के हिसाब से उसका कद छोटा था। स्कूल के आखिरी साल तक वो प्रेयर में सबसे आगे ही खड़ी हुआ करती थी। कॉलेज में तो प्रेयर हुआ ही नहीं करती थी, इसलिए उसे पता ही नहीं... (पता नहीं किन सालों में उसका कद बढ़ा... बहुत बाद में जब शायद उसकी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का आखिरी साल था, उसकी एक सहेली ने उससे पूछा कि तेरी हाईट क्या है? और जब वो सोच में पड़ गई तो उसकी सहेली ने उसका खूब मजाक बनाया और पहली बार उसने ही उसकी हाईट नापकर बताई)। फई साड़ी पहना रही है... साड़ी को आधी फोल्ड कर पहनाने में बड़ी मुश्किल आ रही थी, फिर उसके नखरे भी कुछ कम नहीं थे... फई... यहाँ से तो ऊँची हो रही है और ये देखो... ये पोचका निकल आया है...। उसकी चोटियाँ बनाते हुए भी ... ये देखो, इस तरफ के बाल उस तरफ जा रहे हैं... या फिर बाल खिंच रहे हैं... फई उसके नखरों पर मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं।

पूजा की थाली भी तैयार हो चुकी थी और वो खुद भी...। माँ और बा दोनों घर में ही उसके खाने की तैयारी में लगी थीं। फई ने उसकी पूजा की थाली उठाई और आस-पास के घरों की दो-तीन लड़कियाँ भी अपनी-अपनी भाभी, माँ, चाची या फिर ताई को अपनी पूजा की थाली थमाए आगे-आगे मस्ती में चल रही थी। दीदी (फई के बेटी) ने फई से कहा... इसकी चाल तो देख... और सारे के सारे मुस्कुराकर रह गए, लेकिन उसके अंदर कोई काँटा-सा गड़ गया। रह-रह कर उसके अंदर ये सवाल धधकता रहता कि आखिर उसकी चाल में ऐसा क्या है, जिसे देखकर सारे के सारे मुस्कुराए...।
लगभग एक से डेढ़ घंटे तक पूजा चलती रही। पूजा के बाद सब अपनी-अपनी बेटियों को जल्दी घर ले जाने के चक्कर में लगे रहे, क्योंकि आखिर बेचारियाँ सुबह से भूखी-प्यासी जो है। घर पहुँचकर ही पानी नसीब होगा। घर में माँ और बा ने मिलकर उसकी थाली लगा दी, उसके अच्छे से टिककर बैठने की व्यवस्था कर दी। जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदले गए और तुरंत खाने पर बैठा दिया। ताऊजी सामने बैठ गए... अच्छे से कुरकुरी तलों पूरियों को... बेटा, खीर में शकर ठीक है या नहीं। वे बुआ से कहते हैं – ‘ऐसा कर यहीं एक गादी लगा दे, बेटा जितना अभी खाया जाए, उतना खा ले, फिर यहीं बिना हाथ धोए सो जा... फिर जब भूख लगे, तब फिर खा लेना...।‘ माँ मुस्कुराती है कह नहीं पाती, लेकिन वो समझती है, माँ कहना चाहती है – ‘ऐसा वरत किया ही क्यों जाए’ और वो जोर से खिलखिला पड़ती है (आज चाहे याद करते हुए उसकी आँखें भर जाती हो)। सुबह ही उससे पूछ लिया जाता कि शाम को कौन-सी मिठाई और फल खाने की इच्छा है? मिठाई... रसगुल्ला... अरे नहीं... रसगुल्ला थोड़ी खाया जा सकता है व्रत में... पता नहीं उसमें क्या सूजी-मैदा पड़ता हो... मिठाई तो मावे की ही खा सकती है बेटा... – माँ ने समझाया। ठीक है... तो आज मलाई बरफी। और फल... आम खाएगी ना? – ताऊजी पूछते हैं।
हाँ, खाऊँगी ना... तोतापरी... – वो कहती है। हट... तोतापरी खाएगी, लँगड़ा आने लगा है अच्छा... – ताऊजी कहते हैं। नहीं, मुझे वो ही पसंद है – वो जिद्द पर आ जाती है। पापा मुस्कुराकर कह देते हैं, ठीक है, दोनों ले आऊँगा, फिर खुद ही कहते हैं यार ये तोतापरी में तो अब कीड़े लगना शुरू हो जाते हैं। लेकिन लौटते तो साथ लँगड़ा भी होता और तोतापरी भी...।

वो सुबह के खाने पर बैठी है और भाई इधर-उधर गोते लगा रहा है, आखिर तो जिस भी घर में बहनें ‘वरत’ कर रही है, उस घर में भाइयों के भी तो मजे हैं। सुबह चाहे बहनों का बेस्वाद खाना नहीं खाया जाए, लेकिन शाम को तो बहन के लिए आने वाले फल, मिठाई और मेवों में से थोड़ा कुछ तो उन्हें भी मिलेगा ना...। शाम को जब बहनें ‘वरत’ की कथा सुनने जाती है, तब भाई भी उनके साथ हो लेते हैं और जब बहनें कथा सुनती हैं, सारी बहनों के भाई मिलकर बाहर इतनी धमाचौकड़ी मचाते हैं कि अंदर ना तो गोरजी महाराज को कथा कहने में मजा आता है और न ही ‘वरती’ बहनों को सुनने में...।

पता नहीं चला कि पाँच दिन कहाँ निकल गए। हाँ उन पाँच दिनों में उसका खास आदेश था, घर में खीरा नहीं आएगा... क्यों? उसे खीरा बहुत...बहुत...बहुत पसंद है और व्रत में खीरा नहीं खाया जाता है। छठें दिन सादा खाना खाया जाता है, लेकिन वो भी एक ही समय...। तो पाँचवे दिन सुबह से ही उससे ये पूछ लिया गया था कि कल क्या-क्या खाना है। मीठा तो वो पिछले पाँच दिन से खा रही थी, सो मिठाई को तो कोई सवाल ही नहीं था। नमकीन में भी पातरा (अरवी के पत्ते) और हाँ दाल-चावल...। और खीरा... बहुत सारा लेकर आना... वो पापा को आदेश-सा ही देती है। पापा मुस्कुराते हैं... माँ कहती हैं – ‘हाँ, हाँ बहुत सारा... खाया जाएगा नहीं कुछ भी।‘ वो बनावटी गुस्सा करते हुए कहती है – ‘आप तो बहुत सारी लेकर आना...बस...।‘
क्रमशः....

30/06/2012

जया-पार्वती - 1 (पहला भाग)


जेठ उतर रहा था। कोलामन की हवाएँ चलना शुरू हो चुकी थी। माँ और बा (ताईजी) दोनों ही जान रही थीं कि ये बस बारिश का संदेश है। मानसून-वानसून क्या होता है, इससे दोनों को ही कोई लेना-देना नहीं था। बात ये थी कि बारिश से पहले की क्या और कैसी तैयारियाँ की जानी है। शाम ढ़ल रही थी, बहुत धीरे-धीरे... माँ पटिए पर बैठी गैस-चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही थीं और उनके सामने ही बा घर भर के लालटेन लेकर उन्हें साफ करने, उनमें बत्तियाँ और केरोसिन डालने का काम कर रहीं थीं, आखिर तो बारिश आने ही वाली है बस...।
धूल-पसीने से बदरंग हो रही शकल, कस कर गूँथी गईं दो चोटियों में से भी उड़कर बिखरे बाल और जगह-जगह से गंदी हो गई गुलाब फ्रॉक पहने ना जाने वो कहाँ से प्रकट हो गई और आकर बा के पास बैठ गई। बहुत देर तक लालटेन की चमकती काँच की हंडी को वो मुग्ध होकर देखती रही... हेट-टेल करती रही कि इसे उठाऊँ या नहीं... फिर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ा ही दिया था कि तुरंत बा ने डाँटा... मत कर, टूट जाएगी। उसने उसे छूकर बहुत बेमन से अपना हाथ पीछे खींच लिया।
मुझे भी वरत (व्रत) करना है! – उसने चिरौरी के अंदाज में कहा। माँ तो मुस्कुरा दी, लेकिन बा ने उसे लाड़ से झिड़का – बेटा अपने से नहीं होगा। उन सारी लड़कियों (बा यहाँ अपनी भतीजियों के बारे में बात कर रही थीं) को करने दे... वो सब भूखे रहने में कट्टर है। बहुत कठिन व्रत है वो बेटा...।
अरे मुझे करना है ना... – उस १२-१३ साल की लड़की ने व्रत के कठिन होने की बात को जरा भी तवज्जो नहीं दी, उसे तो बस उन पाँच दिनों में व्रती लड़कियों को किस तरह से पैंपर किया जाता है, वो ही याद है, किस तरह पाँच दिन पूजा में पहनने के लिए कभी किसी भाभी की, चाची, ताई, बुआ, दादी, मामी, मौसी या माँ की सबसे खूबसूरत साड़ी और गहने आ जाया करते हैं। कैसे हर दिन लड़की से पूछा जाता है – ‘आज कौन सी मिठाई-फल खाने हैं...?’ ‘भूख तो नहीं लग रही है, बेटा।‘ ‘अच्छे से पेट भर के खाया या नहीं। ‘ ‘बेचारी बिना नमक का खा रही है... कैसे पेट भरता होगा...’ आदि-आदि....।

बहुत झिक-झिक के बाद आखिर बा ने ये कह कर हथियार डाले कि ठीक है, इस बार करके देख ले, यदि तुझसे होगा तो पाँच पूरे करना नहीं तो एक करके ही हाथ जोड़ लेना... नहीं सधे तो क्या करें? बस बा ने निर्णय कर दिया। उसे सोच-सोच कर ही मजा आने लगा। कभी भाभी की वो ब्लू सितारों वाली साड़ी, तो कभी मम्मी की गुलाबी, बा की फिरोजी और फई की जामुनी साड़ी... सोचने लगी किस दिन किसकी और कौन-सी साड़ी पहनी जाएगी। व्रत में खाने के लिए किसी एक अनाज का चुनाव करना था विकल्प थे तीन – गेहूँ, चावल औऱ ज्वार। माँ ने उसे बहुत समझाया बेटा गेहूँ ले... रोटी, पूरी, पराँठे, बाफले कुछ भी खाए जा सकते हैं। माँ समझती थी कि चार पूरी या एक बाफला खा लें तो दिन भर पेट भरा-भरा रहता है, आखिर तो पाँच दिन तक बिना नमक का एक धान और वो भी एक ही समय जो खाना है... लेकिन उसे तो बस एक धुन थी, चावल.... चावल और चावल.... वजह, नागपंचमी पर बनने वाले चावल के लड्डू जो उसे उस वक्त बेहद पसंद थे और इस बहाने वो जितने चाहे उतने लड्डू खा सकेगी.... जानती नहीं थी कि वैसे लड्डूस खाना और व्रत करके लड्डू खाना दो अलग-अलग बात है। खैर तो आषाढ़ खत्म होने को था। माँ और बा दोनों ही उसके जया-पार्वती के व्रत की तैयारियों में लगी थीं। चावल को धोकर सुखाना और फिर घट्टी में पिसना... व्रत का मामला है, इसलिए आटा चक्की में नहीं पिसवाया जा सकता है, वहाँ तो गेहूँ, पिसा जाता है ना...! तो घट्टी में चावल पिसना... व्रत के लिए खाना बनाने और खाना खाने के बर्तनों को अच्छे से साफ कर अलग रखना। छः दिन की पूजा की सामग्री की तैयारी फिर उसके तैयार होने के लिए कपड़ों की व्यवस्था... उस छुटंकी-सी लड़की को साड़ी पहनाना... ब्लाउज (उस समय इतना पैसा नहीं हुआ करता था, कि एक दिन के लिए अलग से ब्लाउज सिलवाया जाए... तो साड़ियों के साथ के ब्लाउज में टाँके भरना... ताकि फिटिंग ‘ठीक-ठाक’ हो जाए... आदि-आदि... ढेरों काम... थे। फई (बुआएँ) भी मदद के लिए दोपहर में आ जाया करती... और फिर शुरू होता गप्प लगाने, हँसी-ठिठौली करते हुए काम पूरा करने का दौर।
क्रमशः...

24/05/2012

सुविधा में क्या सुख है!

उस सुबह, जबकि थोड़ी फुर्सत थी और मन खुला हुआ, यूँ ही पूछ लिया – क्या तुम्हारे बचपन में संघर्ष थे।
संघर्ष... नहीं... किस तरह के...?
मतलब स्कूल पहुँचने के लिए लंबा चलना पड़ा हो या फिर रोडवेज की बस से स्कूल जाना पड़ा हो या लालटेन की रोशनी में पढ़ना पड़ा हो! – मैंने स्पष्ट किया।
हाँ, जब बच्चे थे, तब रोडवेज की बसों से स्कूल जाया करते थे, बाद में जब बड़े हुए तो साइकल से जाने लगे। लेकिन इसमें संघर्ष कहाँ से आया? ये तो मजेदार था।
तुम्हारा स्कूल कितना दूर था? यही कोई सात-आठ किमी... तो इतनी दूर साइकल चला कर जाते थे। - आखिर मैंने संघर्ष का सूत्र ढूँढ ही लिया।
ऊँ...ह तो क्या? दोस्तों के साथ साइकल चलाते हुए मजे से स्कूल पहुँचते थे और लौटते हुए मस्ती करते, रास्ते में पड़ती नदी में नहाते, बेर, इमली, शहतूत, अमरूद तोड़ते खाते घर लौटते थे। वो तो पूरी मस्ती थी।
तो फिर बचपन के संघर्ष कैसे हुआ करते हैं? – ये सवाल पूछ तो नहीं पाई, लेकिन बस अटक गया।

ननिहाल में जबकि सारे बच्चे गर्मियों में इकट्ठा हुआ करते थे, पानी की बड़ी किल्लत हुआ करती थी। १०-१२ फुट गहरा गड्ढा खोदकर पाइप लाइन खोली जाती, एक व्यक्ति वहाँ से पानी भरता और उपर खड़े व्यक्ति को देता, वो टंकी के आधे रास्ते तक पहुँचाता वहाँ से दूसरा उसे थाम लेता, ओलंपिक की मशाल की तरह, फिर वो उस व्यक्ति के हाथ में थमाता जो जरा हाईटेड टंकी के पास एक स्टूल पर पानी डालने के लिए खड़ा हुआ करता था। हर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के इस यज्ञ में हरेक बच्चा अपनी समिधा देने के लिए तत्पर... इसके उलट माँ के घर पर पाइप यहाँ से वहाँ किया और पानी भर लिया जाता था, जब कुछ किया ही नहीं जाए तो फिर मजा किस चीज में आए...!

पापा बताते रहे हैं, हमेशा से अपने स्कूल के दिनों के बारे में। लाइट नहीं हुआ करती थी, उन दिनों तो या तो कभी रात में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ते थे या फिर मोमबत्ती या लालटेन की रोशनी में। स्कूल की फीस वैसे तो ज्यादा नहीं थी, लेकिन वो जमा करना भी भारी हुआ करता था सो फीस माफ कराने के लिए चक्कर लगाते थे। कहीं होजयरी की फेक्टरी में जाकर बुनाई कर पैसा कमाते थे।
उन दिनों भी कबड्डी , खो-खो, टेबल-टेनिस खेलते थे, तैराकी करते थे और दोस्तों के साथ सारे मजे करते थे। उनके बचपन के किस्सों को याद करते हुए लगता है कि ये कैसे मान लिया था - कि असुविधा में इंसान खुश नहीं रह सकता है? वे जब बताते थे कि किस तरह वे आधी-आधी रात तक दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करते थे, भाँग खाने के उनके क्या अनुभव थे। कॉलेज के एन्यूएल फंक्शन से लेकर गर्मियों की रातें और दिन में सारा-सारा दिन नदी में तैरना...। बताते हुए कैसे उनकी आँखें चमकती हैं, लगता है जैसे वो कहते हुए अपना बचपन रिकलेक्ट कर रहे हैं। और हम कैसी हसरत से उनके बचपन को विजुवलाइज करते रहते हैं।

.... और हमारा बचपन.... पानी-बिजली की इफरात, कपड़ों की कोई कमी नहीं। फीस की चिंता क्या होती है, पता नहीं। पढ़ने के लिए किताबें तो ठीक, ट्यूशन टीचर तक की व्यवस्था थी (चाहे लक्ष्य किसी की मदद करना रहा हो)। स्कूल सारे पाँच सौ कदमों से लेकर आठ सौ कदम के फासले पर हुआ करते थे। च्च... कोई संघर्ष, कोई अभाव, कोई असुविधा नहीं। कॉलेज तक यही स्थिति बनी रही। हाँ यूनिवर्सिटी जरूर घर से ९-१० किमी दूर थी। शुरुआत में टेम्पो से ही आया-जाया करते थे... याद आता है लौटते हुए अक्सर दोस्तों के साथ ठिलवई करते हुए आधे से ज्यादा रास्ता पैदल ही तय किया जाता था, जब तक कि ज्यादातर दोस्तों के घर आ जाया करते थे, तो क्या वो संघर्ष था!

बाद के सालों में जब कभी बारिश की रातों में बिजली गुल हुआ करती थी, तब जरूरत न होने पर भी मोमबत्ती या फिर लालटेन की रोशनी में पढ़ा करती थी, आज सोचती हूँ क्यों? शायद ये सोचकर कि हम भी अपने बचपन में संघर्ष के कुछ दिन `इंसर्ट` करके देखें। सच में बड़ा अच्छा लगता था, लगता था कि पापा के स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ने के ‘संघर्ष’ में कुछ हिस्सा हमने भी बँटा लिया...। हालाँकि ऐसा कुल जमा ४-६ बार ही हुआ होगा।


अरे हाँ याद आया। एक बार सिंहस्थ के दौरान शहर में पानी की किल्लत हुई… घर में लगे नगरनिगम के नलों से पानी आना बंद हो गया। मोहल्लों के बोरिंगों से कनेक्शन लेकर पानी की सप्लाई की जाती, उसका भी समय तय और परिवार का हरेक सदस्य अपनी-अपनी क्षमता से बर्तन लेकर लाइन में हाजिर... हँसी-ठिठौली करते, कभी-कभी झगड़ते हुए भी पानी लेकर आना, लगता कि कुछ महत्त किया जा रहा है, किया गया। तो फिर बात वही.... क्या असुविधा संघर्ष है! और क्या सुविधा में ही सुख है...!

03/11/2011

ताजमहल और उसका सपना…



बच्चों की भीड़ के बीच माँ उसे लेकर घर लौट रही थी। माँ ने उससे उसका बैग लेने की कोशिश की तो उसने माँ का हाथ झटक दिया। मेरे दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं...- उसने बड़ी मासूमियत से मुँह फुलाकर माँ से कहा। माँ ने उसे हल्के से छेड़ा – क्यों...?
कहते हैं कि ये तो अभी भी बच्चा ही है, इसे लेने इसकी मम्मी आती है, इसकी मम्मी इसका बैग लेकर आती है... और... – माँ ने मुस्कुराते हुए कहा – इसमें क्या है? अभी तू बच्चा ही तो है।
उसने फिर मुँह फुला लिया। वो कहना चाहता है माँ से कि अब मैं खुद से घर आ सकता हूँ। मुझे घर का रास्ता याद है, लेकिन कह नहीं पाता, क्योंकि एक दिन ऐसे ही अकेले घऱ के लिए निकलते हुए जब वो सड़क क्रॉस कर रहा था तो स्कूटर की चपेट में आ गया था। सिर में चोट लगी थी औऱ स्कूटर वाले अंकल उसका ड्रेसिंग करवा कर उसे जब घर छोड़ने गए तो घर में कोहराम मचा हुआ था। स्कूल छूटे घंटा भर हो गया था औऱ वो घर नहीं पहुँचा था, बस पापा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए निकल ही रहे थे। उस दिन के बाद से उसे हर दिन माँ ही स्कूल छोड़ती औऱ माँ ही लेने जाती थी। छोड़ते समय तो यूँ भी कोई विकल्प नहीं हुआ करता था, लेकिन स्कूल छूटते में कई बार ऐसा हुआ कि यूनिफॉर्म में एक ही उम्र के बच्चे जब स्कूल से छूटते तो उस भीड़ में माँ उसे पहचान नहीं पाती और वो माँ की नजर बचाकर निकल जाता। माँ बहुत देर तक स्कूल के गेट पर खड़ी रहती, फिर जब स्कूल खाली हो जाता और बड़े बच्चे (वो बड़ी क्लास के स्टूडेंट्स को यही कहता था) आने लगते तब माँ स्टॉफ रूम में जाती और तफ्तीश करती। निराश होकर घर लौटती तो उसे वो घर पर खेलता हुआ मिलता। उसके बाद से माँ वहाँ खड़ी होती है, जहाँ से बच्चों को लाइन से छोड़ा जाता। फिर भी कई बार वो गफलत में माँ की नजर बचाकर निकल ही जाता।

खाना खाते हुए वो माँ से पूछता है – आज आपने मेरे टिफिन में मीठे भजिए नहीं रखे थे?
रखे थे, तूने खाए नहीं क्या?
नहीं थे... सिर्फ अचार-पराँठा ही था। - उसने जोर देकर कहा। लेकिन माँ कैसे भूल सकती है... माँ ने तो खुद तले थे...। माँ को खुटका होता है, कहीं उसका टिफिन कोई और तो नहीं खा रहा है। माँ सोचने लगती है... कल जाकर इसकी क्लास टीचर से शिकायत करनी पड़ेगी। वो मीठे भजिए भूलकर अपने साथ खाना खाती बहन को बताने लगता है - आज है ना मोटी मैडम को धीरज ने पीछे से चॉक मारा और नाम जितेंद्र का ले दिया। उस बेचारे को मार पड़ी।
बहन पूछती है आज तेरी मैडम ने क्या पढ़ाया...?
वो दाल-चावल में शक्कर मिलाते हुए कहता है – आज है ना ताजमहल के बारे में बताया। वो कितना सुंदर है, मैंने उसका फोटो देखा है किताब में... बहुत सुंदर, एकदम सफेद झक्क...। अचानक वो मचल कर माँ से कहता है – मम्मी मुझे एक बार ताजमहल दिखा दो ना...।
माँ भी उसका मन रखने के लिए कह देती है – हाँ दिखा देंगे। और काम में व्यस्त हो जाती है। पता नहीं कैसे उसका ये कहना, बहन के अंदर कहीं खुभ जाता है। वो देर तक इस चीज का हिसाब लगाती रहती है कि यदि हम चारों ताजमहल देखने गए तो कितना पैसा लगेगा, हाँलाकि उसे ना तो इस बात की जानकारी थी कि वहाँ जाएँगें कैसे और टिकट कितना होगा, बस यूँ ही अनुमान लगा रही थी... 200 रु. पर हेड... लेकिन हम दोनों तो छोटे हैं ना। तो हमारी तो आधी टिकट लगेगी, मतलब 200 में तो हमारे दोनों का आना-जाना हो जाएगा। आठ सौ रु. में मम्मी-पापा का आना जाना। वहाँ ठहरेंगे कहाँ...? फिर ठहरने के लिए भी तो पैसा चाहिए होगा...। बहुत माथापच्ची करने के बाद उसका हिसाब बैठा ज्यादा से ज्यादा पाँच हजार रु....। पापा क्या इतना पैसा भी खर्च नहीं कर सकते। पता नहीं कैसे ये बात आई-गई हो गई। फिर एकाध बार ताजमहल का जिक्र हुआ तो उसने बहुत अनुनय से माँ से कहा... माँ बस एक बार दिखा लाओ ना ताजमहल...। उसका अनुनय बहन के मन में गाँठ की तरह पड़ गया। जीवन चलता रहा, वक्त गुजरता रहा। यादें धुँधला गई, सपने कहीं बिला गए।

हालाँकि फतेहपुर सीकरी और आगरा उसके टूर का हिस्सा नहीं था, लेकिन इतिहास से फेसिनेटेड आदित्य ने अपने प्रोफेसरों को एक दिन वहाँ रूकने के लिए मना ही लिया। एक तो बिना किसी विघ्न के यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट टूर से लौट रहे थे, दूसरा फंड भी कुछ बच रहा था, इसलिए पहले फतेहपुर सीकरी और फिर आगरा पहुँचे थे। ताजमहल में घुसते हुए उसे बहुत रोमांच हो रहा था... लेकिन लंबा रास्ता पार कर जैसे ही वह उस भव्य, खूबसूरत और झक्क सफेद ताजमहल के सामने जाकर खड़ी हुई, पता नहीं कैसे कोई स्मृति उड़कर उसके सामने आ गई और उसके मन में हूक उठी...। बचपन नजरों के सामने कौंध गया और उसे अपना नन्हा-सा भाई माँ से अनुनय करता याद आया – माँ एक बार ताजमहल दिखा दो...। उफ्...! कितनी छोटी-सी ख्वाहिश थी। फिर ताजमहल को वो वैसे देख नहीं पाई, अंदर भी गई... पीछे भी और फोटो भी खिंचे-खिंचवाए... लेकिन कुछ कसकता-सा रह गया उसके मन में।

जिंदगी की राह में ऐसे मकाम आने लगे/ छोड़ दी मंजिल तो मंजिल के पयाम आने लगे... गज़ल चल रही थी उसके मोबाइल में। यूँ ताजमहल देखने का उसका सपना नहीं था। पता नहीं ये उसके साथ ही होता है या फिर सबके साथ होता होगा कि सपनों की ऊँचाई उतनी ही होती है, जितनी ऊँची नजर जाती हो...। तो एक बार फिर वो ताजमहल के सामने वाली पत्थर की उस फेमस बेंच पर बैठकर फोटो खिंचवा रही थी, जो ये भ्रम देती है कि ताजमहल हमारी ऊँगली की टिप के नीचे हैं। फिर से भाई का वो सपना उड़कर उसके करीब आकर, उससे सटकर बैठ गया और बहुत मासूमियत से उससे पूछ रहा है कि तुझे तो भाई का सपना याद है, क्या उसे याद है कि उसने भी ये सपना देखा था...!

10/10/2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!