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27/10/2013

दीपावली की 'ट्रिकल-डाउन-इकनॉमी'



बचपन में दीपावली को लेकर बहुत उत्साह हुआ करता था, सब कुछ जो दीपावली पर होता था, बहुत आकर्षक लगा करता था। साफ-सफाई के महायज्ञ में छोटा-छोटा सामान ही यहाँ-से-वहाँ कर देने भर से लगता था कि कुछ किया। तब छुट्टियाँ भी कितनी हुआ करती थी, दशहरे की महाअष्टमी से शुरू हुई छुट्टियाँ भाई-दूज तक चलती थी। इस बीच घर में जो कुछ दीपावली के निमित्त होता था, वो सब कुछ अद्भुत लगता था। याद आता है जब घर में सारे साफ-सफाई में व्यस्त रहते थे, तब एक चाची आया करती थी कपास की टोकरी लेकर...। चूँकि वे मुसलमान थी, इसलिए आदर से हम उन्हें चाची कहा करते थे। वे दो कटोरी गेहूँ और एक कप चाय के बदले कपास दिया करती थीं और उसी से दीपावली पर जलने वाले दीयों के लिए बाती बनाई जाती थी। उन दिनों रेडीमेड बाती का चलन नहीं था। ताईजी शाम के खाने के वक्त लकड़ी के पाटे पर हथेली को रगड़-रगड़ कर बाती बनाया करती थीं और माँ उन्हीं के सामने बैठकर रोटियाँ सेंका करती थी। दोनों इस बात की प्लानिंग किया करती थीं कि कब से दीपावली के पकवान बनाना शुरू करना है, और किस-किस दिन क्या-क्या बनाया जाना है और सुबह-शाम के खाने की कवायद के बीच कैसे इस सबको मैनेज किया जा सकता है।
कुछ चीजें अब जाकर स्पष्ट हुई हैं। एक बार दीपावली के समय सूजी और मैदे की किल्लत हुईं, इतनी कि पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) से बेचा गया। आज सोचो तो लगता है कि कालाबाजारी हुई थी, जैसे कि अभी प्याज़ की हो रही है। जब लगा कि पीडीएस से इतना नहीं मिल पाएगा तो ताईजी ने खुद ही घर में बनाने की ठानी। तब पहली बार मालूम हुआ कि सूजी, मैदा, आटा सब आपस में भाई-बहन हैं। उन्होंने गेहूँ को धोया, फिर सुखाया और फिर चक्की पर पीसने के लिए भेजा, मैदे के लिए एकदम बारीक पिसाई और सूजी के लिए मोटी पिसाई की हिदायत देकर...। दीपावली के पहले तीन दिनों में इतना काम हुआ करता था और इतनी बारीक-बारीक चीजें करनी हुआ करती थी कि तब आश्चर्य हुआ करता था, कि ये महिलाएँ इतना याद कैसे रख पाती हैं। तमाम व्यस्तता के बीच भी। हम बच्चे जागते इससे पहले ही घर के दोनों दरवाजों पर रंगोली सजी मिलती थीं। रंग, तो जब हम बाजार जाने लगे तब घर में आने लगे, इससे पहले तो हल्दी, कूंकू और नील से ही रंगोली सजा ली जाती थी।
दीपक, झाड़ू और खील-बताशे खरीदना शगुन का हिस्सा हुआ करता था। चाहे घर में कितने ही सरावले (हाँ, ताईजी दीपक को सरावले ही कहती थीं, जाने ये मालवी का शब्द है या फिर गुजराती का) हो फिर भी शगुन के पाँच दीपक तो खरीदने ही होते थे। इसी तरह घर में ढेर झाड़ू हो, लेकिन पाँच दिन गोधूली के वक्त झाड़ू खरीदना भी शगुन का ही हिस्सा हुआ करता था। घर में चाहे कितने ही बताशे हो, पिछले साल की गुजरिया हो, लेकिन दीपावली पर उनको खरीदना भी शगुन ही हुआ करता था। कितनी छोटी-छोटी चीजें हैं, लेकिन इन सबको दीपावली के शगुन से जोड़ा गया है, तब तो कभी इस पर विचार नहीं किया। आज जब इन पर विचार करते हैं तो महसूस होता है कि दीपावली की व्यवस्था कितनी सुनियोजित तरीके से बनाई गई हैं।
हमने दीपावली के बस एक ही पक्ष पर विचार किया कि ये एक धार्मिक उत्सव है, राम के अयोध्या लौटने का दिन... बस। लेकिन कभी इस पर विचार नहीं किया कि इस सबमें राम हैं कहाँ... हम पूजन तो लक्ष्मी का करते हैं। बहुत सारी चीजें गडमड्ड हो जाती है, बस एक चीज उभरती हैं कि चाहे ट्रिकल डाउन इकनॉमी का विचार आधुनिक है और पश्चिमी भी, और चाहे अर्थशास्त्र के सारे भारी-भरकम सिद्धांत पश्चिम में जन्मे हो, लेकिन हमारे लोक जीवन में व्यवस्थाकारों ने अर्थशास्त्र ऐसे पिरोया है कि वे हमें बस उत्सव का ही रूप लगता है और बिना किसी विचार के हम अर्थव्यवस्था का संचालन करते रहते हैं।
इस त्यौहार के बहाने हम हर किसी को कमाई का हिस्सेदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए कुम्हार... अब कितने दीपकों की टूट-फूट होती होगी, हर साल... तो घर में दीपकों का ढेर लगा हुआ हो, लेकिन फिर भी शगुन के दीपक तो खरीदने ही हैं, मतलब कि कुम्हार के घर हमारी कमाई का कुछ हिस्सा तो जाना ही है। आखिर उन्हें भी तो दीपावली मनानी है। ध्यान देने लायक बात ये है कि पारंपरिक तौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में दीपावली के आसपास ही खरीफ की कटाई होती हैं और बेची गई फसलों का पैसा आता है। किसान इन्हीं दिनों ‘अमीर’ होता है और इसकी अमीरी में से पूरे समाज को हिस्सा मिलता है, वो बचा तो सकता है, लेकिन शगुन के नाम पर कुछ तो उसे खर्च करना ही होगा... क्या इससे बेहतर ट्रिकल डाउन इकनॉमी का कोई उदाहरण हो सकता है? टैक्स के माध्यम से नहीं खर्च के माध्यम से पैसा रिसकर नीचे आ रहा है।
दीपावली मतलब क्षमता के हिसाब से खर्च, साफ-सफाई के सामान से लेकर कपड़े, गहने, बर्तन, उपहार, मिठाई तक तो फिर भी त्यौहार की खुशियों का हिस्सा है, लेकिन बताशे, झाड़ू, कपास और दीपक खुशियों से ज्यादा हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है। इतनी कुशलता से हमने त्यौहारी सिद्धांत बनाए हैं, और वो भी बिना किसी आडंबर के, बिना किसी प्रपोगंडा के। हम भी नहीं जानते हैं कि हम जाने-अनजाने किस तरह से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते चले आ रहे हैं, बिना किसी अहम के अहसास के... और वो भी त्यौहारी परंपरा का निर्वहन करके...।
तो दीपावली को इस नजरिए से भी देखें... आखिर हर साल हम वही-वही क्यों करते हैं? इस बार अलग दृष्टि से देखें... बात सिर्फ इतनी-सी है कि अपनी सारी तार्किकता को परे रखकर यदि हम सिर्फ शगुनों ही निभा लें तो उत्सव का आनंद भी उठाएँगे और सामाजिक जिम्मेदारी का पालन भी कर पाएँगें। आखिर
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल
कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़ दें
नहीं क्या... !

24/05/2012

सुविधा में क्या सुख है!

उस सुबह, जबकि थोड़ी फुर्सत थी और मन खुला हुआ, यूँ ही पूछ लिया – क्या तुम्हारे बचपन में संघर्ष थे।
संघर्ष... नहीं... किस तरह के...?
मतलब स्कूल पहुँचने के लिए लंबा चलना पड़ा हो या फिर रोडवेज की बस से स्कूल जाना पड़ा हो या लालटेन की रोशनी में पढ़ना पड़ा हो! – मैंने स्पष्ट किया।
हाँ, जब बच्चे थे, तब रोडवेज की बसों से स्कूल जाया करते थे, बाद में जब बड़े हुए तो साइकल से जाने लगे। लेकिन इसमें संघर्ष कहाँ से आया? ये तो मजेदार था।
तुम्हारा स्कूल कितना दूर था? यही कोई सात-आठ किमी... तो इतनी दूर साइकल चला कर जाते थे। - आखिर मैंने संघर्ष का सूत्र ढूँढ ही लिया।
ऊँ...ह तो क्या? दोस्तों के साथ साइकल चलाते हुए मजे से स्कूल पहुँचते थे और लौटते हुए मस्ती करते, रास्ते में पड़ती नदी में नहाते, बेर, इमली, शहतूत, अमरूद तोड़ते खाते घर लौटते थे। वो तो पूरी मस्ती थी।
तो फिर बचपन के संघर्ष कैसे हुआ करते हैं? – ये सवाल पूछ तो नहीं पाई, लेकिन बस अटक गया।

ननिहाल में जबकि सारे बच्चे गर्मियों में इकट्ठा हुआ करते थे, पानी की बड़ी किल्लत हुआ करती थी। १०-१२ फुट गहरा गड्ढा खोदकर पाइप लाइन खोली जाती, एक व्यक्ति वहाँ से पानी भरता और उपर खड़े व्यक्ति को देता, वो टंकी के आधे रास्ते तक पहुँचाता वहाँ से दूसरा उसे थाम लेता, ओलंपिक की मशाल की तरह, फिर वो उस व्यक्ति के हाथ में थमाता जो जरा हाईटेड टंकी के पास एक स्टूल पर पानी डालने के लिए खड़ा हुआ करता था। हर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के इस यज्ञ में हरेक बच्चा अपनी समिधा देने के लिए तत्पर... इसके उलट माँ के घर पर पाइप यहाँ से वहाँ किया और पानी भर लिया जाता था, जब कुछ किया ही नहीं जाए तो फिर मजा किस चीज में आए...!

पापा बताते रहे हैं, हमेशा से अपने स्कूल के दिनों के बारे में। लाइट नहीं हुआ करती थी, उन दिनों तो या तो कभी रात में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ते थे या फिर मोमबत्ती या लालटेन की रोशनी में। स्कूल की फीस वैसे तो ज्यादा नहीं थी, लेकिन वो जमा करना भी भारी हुआ करता था सो फीस माफ कराने के लिए चक्कर लगाते थे। कहीं होजयरी की फेक्टरी में जाकर बुनाई कर पैसा कमाते थे।
उन दिनों भी कबड्डी , खो-खो, टेबल-टेनिस खेलते थे, तैराकी करते थे और दोस्तों के साथ सारे मजे करते थे। उनके बचपन के किस्सों को याद करते हुए लगता है कि ये कैसे मान लिया था - कि असुविधा में इंसान खुश नहीं रह सकता है? वे जब बताते थे कि किस तरह वे आधी-आधी रात तक दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करते थे, भाँग खाने के उनके क्या अनुभव थे। कॉलेज के एन्यूएल फंक्शन से लेकर गर्मियों की रातें और दिन में सारा-सारा दिन नदी में तैरना...। बताते हुए कैसे उनकी आँखें चमकती हैं, लगता है जैसे वो कहते हुए अपना बचपन रिकलेक्ट कर रहे हैं। और हम कैसी हसरत से उनके बचपन को विजुवलाइज करते रहते हैं।

.... और हमारा बचपन.... पानी-बिजली की इफरात, कपड़ों की कोई कमी नहीं। फीस की चिंता क्या होती है, पता नहीं। पढ़ने के लिए किताबें तो ठीक, ट्यूशन टीचर तक की व्यवस्था थी (चाहे लक्ष्य किसी की मदद करना रहा हो)। स्कूल सारे पाँच सौ कदमों से लेकर आठ सौ कदम के फासले पर हुआ करते थे। च्च... कोई संघर्ष, कोई अभाव, कोई असुविधा नहीं। कॉलेज तक यही स्थिति बनी रही। हाँ यूनिवर्सिटी जरूर घर से ९-१० किमी दूर थी। शुरुआत में टेम्पो से ही आया-जाया करते थे... याद आता है लौटते हुए अक्सर दोस्तों के साथ ठिलवई करते हुए आधे से ज्यादा रास्ता पैदल ही तय किया जाता था, जब तक कि ज्यादातर दोस्तों के घर आ जाया करते थे, तो क्या वो संघर्ष था!

बाद के सालों में जब कभी बारिश की रातों में बिजली गुल हुआ करती थी, तब जरूरत न होने पर भी मोमबत्ती या फिर लालटेन की रोशनी में पढ़ा करती थी, आज सोचती हूँ क्यों? शायद ये सोचकर कि हम भी अपने बचपन में संघर्ष के कुछ दिन `इंसर्ट` करके देखें। सच में बड़ा अच्छा लगता था, लगता था कि पापा के स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ने के ‘संघर्ष’ में कुछ हिस्सा हमने भी बँटा लिया...। हालाँकि ऐसा कुल जमा ४-६ बार ही हुआ होगा।


अरे हाँ याद आया। एक बार सिंहस्थ के दौरान शहर में पानी की किल्लत हुई… घर में लगे नगरनिगम के नलों से पानी आना बंद हो गया। मोहल्लों के बोरिंगों से कनेक्शन लेकर पानी की सप्लाई की जाती, उसका भी समय तय और परिवार का हरेक सदस्य अपनी-अपनी क्षमता से बर्तन लेकर लाइन में हाजिर... हँसी-ठिठौली करते, कभी-कभी झगड़ते हुए भी पानी लेकर आना, लगता कि कुछ महत्त किया जा रहा है, किया गया। तो फिर बात वही.... क्या असुविधा संघर्ष है! और क्या सुविधा में ही सुख है...!

04/10/2011

...क्या फिर कारखानों में उत्पादित होगी बेटियाँ...!


कागज के उस छोटे-से टुकड़े ने जैसे पूरे घर में तूफान ला दिया था। टेबल पर पड़े उस कागज को सभी ऐसी नजर से देख रहे थे जैसे वो कोई बम है और उसके फटते ही सब कुछ खत्म हो जाएगा। लक्ष्मी देवी का चेहरा तो जैसे दहक रहा था, राधिका को ये समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्यों लग रहा है कि उससे कोई भारी अपराध हुआ है, लक्ष्मी देवी, सुरेश जी और अमोल सभी जैसे उससे नाराज है और वो खुद भी…, लेकिन बहुत सोचने के बाद भी वो खुद समझ नहीं पा रही है कि आखिर उसका अपराध क्या है?
लक्ष्मी देवी दहाड़ी थी – हमें ये नहीं चाहिए। तू कल ही डॉ. उपाध्याय से मिल और इससे छुटकारे का कोई उपाय कर।
लेकिन माँ…- राधिका के गले में शब्द ही जैसे फँस गए हो। अमोल ने भी बहुत कातर दृष्टि से राधिका की तरफ देखा था। अमोल ये तय नहीं कर पा रहा था कि उसका स्टैंड क्या होना चाहिए। हालाँकि ये तय था कि अमोल लक्ष्मी देवी और सुरेश जी के निर्णय के खिलाफ किसी भी कीमत पर नहीं जा सकता, लेकिन कहीं उसके विचार में ये सवाल जरूर उठता है कि आखिर राधिका की क्या गलती है? आखिर अमोल अपनी माँ से बात करने का साहस जुटा ही लेता है – माँ… ये पहला है। अगली बार इस पर सोचें तो…!
लक्ष्मी देवी चीखीं थी – अगली बार…! अगली बार नहीं इसी बार…। हमें ये झंझट नहीं चाहिए।
राधिका ने डबडबाई आँखों से एक बार लक्ष्मीदेवी की तरफ और एक बार अमोल की तरफ देखा था। अमोल ने बेचैन होकर नजरें चुरा ली थी, जबकि लक्ष्मीदेवी के चेहरे की दृढ़ता से राधिका ने खुद को बहुत बेबस महसूस किया था।
आखिरकार सारी तैयारी हो चुकी थी। राधिका पता नहीं किस उम्मीद में किसी चमत्कार की आस में अडोल बैठी थी कि सुरेशजी की कड़कती आवाज से चौंक गईं – चलो या फिर मुहूर्त निकलवाएँ?
राधिका डर गई थी। उसने सहारे के लिए अमोल की तरफ देखा तो उसने भी नजरें चुरा लीं। राधिका को लगा कि इस पूरी दुनिया में वो नितांत अकेली है, कोई भी उसका साथ देने के लिए नहीं है, जिस इंसान का बहुत विश्वास से हाथ पकड़कर वो इस घर में आई थी, उसने भी उसे मझधार में छोड़ दिया है।
पीली-बेदम राधिका की आँखें लगातार मूँदी जा रही थी। कमरे की रोशनी से उसे बेचैनी होने लगी तो अमोल से गुजारिश कर लाइट बंद करवा दी। एनेस्थिशिया का असर था या रात की अधूरी नींद का, कमजोरी थी या फिर लंबे तनाव के बाद गहरे अपराध बोध का उसे लगने लगा था कि वो लगातार धरती के अंदर धँस रही है… गहरे, गहरे काले अतल में…। उसी नींद-नशे के बीच की सी स्थिति में राधिका को आवाज सुनाई दी… माँ… माँ… माँ…। उसकी चेतना का कोई हिस्सा सक्रिय हुआ। वो बुदबुदाई – हाँ बेटा।
सिसकी की तीखी सीत्कार…। – तूने मुझे दुनिया में आने का अधिकार तक नहीं दिया!
राधिका घिघियाने लगी… – मैंने नहीं चाहा था कि ऐसा हो…
लेकिन… हुआ तो वही ना…! – बच्ची ने तल्खी से कहा। – तू तो माँ थीं ना… सदियों से तेरी कहानी साहित्य, इतिहास और कला में दोहराई जा रही है। खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरने वाली, खुद जागती रहकर बच्चों को सुलाने की सुविधा देने वाली, अपने खून को बच्चों के पसीने पर लुटा देने वाली ममतामयी, वात्सल्य से भरी हुई माँ…। तूने अपने ही बच्चे की हत्या पर कैसे सहमति दे दी…? वो भी सिर्फ इसलिए कि मैं बेटा न होकर बेटी थी!
राधिका ने फिर अपना बचाव किया – मैं तुझे खोना नहीं चाहती थी… लेकिन मेरे आसपास की दुनिया ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया। मैं बेबस थी।
माँ सच है तू बेबस है, तू लड़ नहीं पाई, लेकिन मैंने तो सुना था कि तुम्हारे यहाँ का इतिहास, धर्म और साहित्य माँओं के बलिदानों की कहानियों से भरे हुए हैं! भरे हुए हैं उन कहानियों से जिनमें माँ ने अपने बच्चों के लिए सारी दुनिया से लड़ाई लड़ी और तू इतनी कमजोर निकली…? मुझे आने तो देती… मैं तेरे आँगन को किलकारी, मुस्कान, अपनेपन और प्यार से भर देती। मैं तेरा अकेलापन दूर करती, जब तुझे जरूरत होती मैं तेरे साथ खड़ी होती। तेरी हिम्मत, तेरी ताकत बनती, तेरा सहारा होती… लेकिन शायद दूसरों की तरह ही तूने भी मुझे इस लायक नहीं समझा…। – उस आवाज ने कहा।
मैं… मैं… मैं भी लड़ना चाहती थी, लेकिन अकेली थी, किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। – राधिका ने साफ किया।
तुझे अपने बच्चे को बचाने के लिए साथ की जरूरत थी, सच और न्याय के लिए तू अकेले नहीं लड़ सकती थी! – वो आवाज कुछ क्षण के लिए रूकी – सही किया तूने… अच्छा किया जो मुझे मार डाला, क्योंकि जहाँ सच और न्याय के लिए लड़ाई इसलिए न लड़ी जाए कि हम अकेले हैं, जहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया जाए और उसकी पूजा का ढोंग तो किया जाता हो, लेकिन उसके जीवन को नकारा जाता हो। जो समाज स्वतंत्र और आधुनिक तो हो, लेकिन स्त्री की सुरक्षा और सम्मान का दायित्व नहीं उठा सकता हो। जहाँ बेटी और बेटे में फर्क किया जाता हो वहाँ मेरे होने का फायदा भी क्या था? क्या हो जाता एक मेरे बच जाने से… यहाँ तो हर घड़ी अजन्मी बेटियाँ मरती हो, जहाँ जीव हत्या तो पाप मानी जाती हो, लेकिन भ्रूण-हत्या पर सब मौन हो… जहाँ हर घड़ी बेटियों को प्रताड़ना, शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता हो, वहाँ एक अकेले मेरे जिंदा होने का फायदा भी क्या था? – आवाज थम गई थी, थक गई थी।
बेटा इस समाज में औरत का जीवन बहुत मुश्किल है। हर कदम पर उसे विरोध, प्रताड़ना और शोषण का सामना करना पड़ता है। तू जिन इतिहास, धर्म और साहित्य की बात कर रही है ना, वो भी स्त्री के शोषण की कहानियों, घटनाओं से रंगे पड़े हैं। जन्म से पहले मारे जाने की दास्तां तो क्या नई है। जन्म के बाद भी उसे कई-कई मुसीबतों, परेशानियों और बंधनों में अपना जीवन गुजारती है। खाने, पहनने और पढ़ने के लिए पक्षपात की जो शुरुआती होती है, वो जीवन के अंत तक जारी रहती है। – राधिका ने बचे हुए साहस को बटोरते हुए अपनी बात कही।
हाँ… हाँ शायद इसीलिए तूने मेरे जीवन के लिए संघर्ष नहीं किया? – थकी-बुझी आवाज – सही किया… जो तून मुझे पैदा होने से पहले ही मार दिया। पैदा हो भी जाती तो क्या होता? भाई के आते ही कदम-कदम पर पक्षपात सहती। पढ़ना चाहती, लेकिन पढ़ाया नहीं जाता। तू जो मेरे जीवन-मृत्यु का फैसला तक नहीं कर पाई, तू क्या मेरे भविष्य का फैसला कर पाती… पता नहीं तूने खुद अपने लिए कभी कोई फैसला किया भी है या तेरे सारे फैसले दूसरे लेकर तुझे सुना देते हैं… जैसे ये… कि तेरी कोख में पल रहे बच्चे का क्या किया जाना है? उसे जीने दिया जाना है या फिर मार दिया जाना है। जब ये निर्णय तक तुझसे नहीं हो पाया तो तू क्या मेरी जिंदगी और मेरे भविष्य का निर्णय कर पाती? जिस समाज में औरत के जन्म से लेकर मृत्यु तक का निर्णय कोई और करे, उस समाज में जन्म लेकर भी क्या हो जाता? अब सोचती हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया माँ तूने… जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मार दिया। जिस दुनिया में अपने ही घर में बहन-बेटियाँ सुरक्षित न हो, जिस दुनिया में औरतों को प्यार करने का हक तक नहीं दिया जाता हो, जिस दुनिया में स्त्रियों की कीमत ढोरों से भी कम आँकी जाती हो, जिस दुनिया में माँ को ईश्वर का दर्जा तो दिया जाता है, लेकिन उसके बीज रूप को ही कुचल दिया जाता हो। भला बताओ जब बीज को ही कुचल दिया जाए तो फिर पेड़ कहाँ से आएँगें…? आज तो दौड़ रहे हैं सीमेंट की सड़क पर चार पहियो में बैठकर जब धूप पड़ेगी, तो सिर छुपाने कहाँ जाएँगें…? तब कहाँ जाएँगें, जब बेटों के लिए बहुओं की जरूरत होंगी… भाईयों की सूनी कलाइयों को बहनों के प्यार भरे धागों की जरूरत होगी। तब पेड़ों की छाँह चाहेंगे तो कहाँ से होगी…, तब बेटियों की खेती करेंगे तब भी बेटों के लिए दुल्हनें नहीं ला पाएँगें… । इसे ही तो कहा जाएगा अपनी जड़े खोदना… विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली कि ये जान लें कि कोख में पल रहा जीव नर है या मादा… लेकिन अभी तक इतनी तरक्की नहीं की है कि बिना औरत के अपनी दुनिया, अपना वंश बढ़ा सके…। इसके लिए तो औरत की जरूरत पड़ेगी ही… अपने मकान को घर बनाने में, अपनी दुनिया को अपनी जिंदगी बनाने में औरत की ही जरूरत होगी और आपकी दुनिया का ये दुर्भाग्य है कि वो औरत किसी कारखाने में नहीं बनती है, किसी खेत में नहीं उगती है। वो तो पैदा होती है… और बढ़ती है। लेकिन नहीं… बहुत सवाल हो गए, आपकी दुनिया की गज़ालत और जहालत से मैं दूर ही भली। आपने अच्छा ही किया जो मुझे इससे दूर ही रखा… अच्छा किया जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मुक्त कर दिया। अच्छा किया माँ… जो मुझे तूने जन्म होने से पहले ही मार दिया…। अच्छा किया तूने… मुझे खुद ही तेरी दुनिया में नहीं रहना। बहुत अच्छा किया…।