04/10/2011

...क्या फिर कारखानों में उत्पादित होगी बेटियाँ...!


कागज के उस छोटे-से टुकड़े ने जैसे पूरे घर में तूफान ला दिया था। टेबल पर पड़े उस कागज को सभी ऐसी नजर से देख रहे थे जैसे वो कोई बम है और उसके फटते ही सब कुछ खत्म हो जाएगा। लक्ष्मी देवी का चेहरा तो जैसे दहक रहा था, राधिका को ये समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्यों लग रहा है कि उससे कोई भारी अपराध हुआ है, लक्ष्मी देवी, सुरेश जी और अमोल सभी जैसे उससे नाराज है और वो खुद भी…, लेकिन बहुत सोचने के बाद भी वो खुद समझ नहीं पा रही है कि आखिर उसका अपराध क्या है?
लक्ष्मी देवी दहाड़ी थी – हमें ये नहीं चाहिए। तू कल ही डॉ. उपाध्याय से मिल और इससे छुटकारे का कोई उपाय कर।
लेकिन माँ…- राधिका के गले में शब्द ही जैसे फँस गए हो। अमोल ने भी बहुत कातर दृष्टि से राधिका की तरफ देखा था। अमोल ये तय नहीं कर पा रहा था कि उसका स्टैंड क्या होना चाहिए। हालाँकि ये तय था कि अमोल लक्ष्मी देवी और सुरेश जी के निर्णय के खिलाफ किसी भी कीमत पर नहीं जा सकता, लेकिन कहीं उसके विचार में ये सवाल जरूर उठता है कि आखिर राधिका की क्या गलती है? आखिर अमोल अपनी माँ से बात करने का साहस जुटा ही लेता है – माँ… ये पहला है। अगली बार इस पर सोचें तो…!
लक्ष्मी देवी चीखीं थी – अगली बार…! अगली बार नहीं इसी बार…। हमें ये झंझट नहीं चाहिए।
राधिका ने डबडबाई आँखों से एक बार लक्ष्मीदेवी की तरफ और एक बार अमोल की तरफ देखा था। अमोल ने बेचैन होकर नजरें चुरा ली थी, जबकि लक्ष्मीदेवी के चेहरे की दृढ़ता से राधिका ने खुद को बहुत बेबस महसूस किया था।
आखिरकार सारी तैयारी हो चुकी थी। राधिका पता नहीं किस उम्मीद में किसी चमत्कार की आस में अडोल बैठी थी कि सुरेशजी की कड़कती आवाज से चौंक गईं – चलो या फिर मुहूर्त निकलवाएँ?
राधिका डर गई थी। उसने सहारे के लिए अमोल की तरफ देखा तो उसने भी नजरें चुरा लीं। राधिका को लगा कि इस पूरी दुनिया में वो नितांत अकेली है, कोई भी उसका साथ देने के लिए नहीं है, जिस इंसान का बहुत विश्वास से हाथ पकड़कर वो इस घर में आई थी, उसने भी उसे मझधार में छोड़ दिया है।
पीली-बेदम राधिका की आँखें लगातार मूँदी जा रही थी। कमरे की रोशनी से उसे बेचैनी होने लगी तो अमोल से गुजारिश कर लाइट बंद करवा दी। एनेस्थिशिया का असर था या रात की अधूरी नींद का, कमजोरी थी या फिर लंबे तनाव के बाद गहरे अपराध बोध का उसे लगने लगा था कि वो लगातार धरती के अंदर धँस रही है… गहरे, गहरे काले अतल में…। उसी नींद-नशे के बीच की सी स्थिति में राधिका को आवाज सुनाई दी… माँ… माँ… माँ…। उसकी चेतना का कोई हिस्सा सक्रिय हुआ। वो बुदबुदाई – हाँ बेटा।
सिसकी की तीखी सीत्कार…। – तूने मुझे दुनिया में आने का अधिकार तक नहीं दिया!
राधिका घिघियाने लगी… – मैंने नहीं चाहा था कि ऐसा हो…
लेकिन… हुआ तो वही ना…! – बच्ची ने तल्खी से कहा। – तू तो माँ थीं ना… सदियों से तेरी कहानी साहित्य, इतिहास और कला में दोहराई जा रही है। खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरने वाली, खुद जागती रहकर बच्चों को सुलाने की सुविधा देने वाली, अपने खून को बच्चों के पसीने पर लुटा देने वाली ममतामयी, वात्सल्य से भरी हुई माँ…। तूने अपने ही बच्चे की हत्या पर कैसे सहमति दे दी…? वो भी सिर्फ इसलिए कि मैं बेटा न होकर बेटी थी!
राधिका ने फिर अपना बचाव किया – मैं तुझे खोना नहीं चाहती थी… लेकिन मेरे आसपास की दुनिया ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया। मैं बेबस थी।
माँ सच है तू बेबस है, तू लड़ नहीं पाई, लेकिन मैंने तो सुना था कि तुम्हारे यहाँ का इतिहास, धर्म और साहित्य माँओं के बलिदानों की कहानियों से भरे हुए हैं! भरे हुए हैं उन कहानियों से जिनमें माँ ने अपने बच्चों के लिए सारी दुनिया से लड़ाई लड़ी और तू इतनी कमजोर निकली…? मुझे आने तो देती… मैं तेरे आँगन को किलकारी, मुस्कान, अपनेपन और प्यार से भर देती। मैं तेरा अकेलापन दूर करती, जब तुझे जरूरत होती मैं तेरे साथ खड़ी होती। तेरी हिम्मत, तेरी ताकत बनती, तेरा सहारा होती… लेकिन शायद दूसरों की तरह ही तूने भी मुझे इस लायक नहीं समझा…। – उस आवाज ने कहा।
मैं… मैं… मैं भी लड़ना चाहती थी, लेकिन अकेली थी, किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। – राधिका ने साफ किया।
तुझे अपने बच्चे को बचाने के लिए साथ की जरूरत थी, सच और न्याय के लिए तू अकेले नहीं लड़ सकती थी! – वो आवाज कुछ क्षण के लिए रूकी – सही किया तूने… अच्छा किया जो मुझे मार डाला, क्योंकि जहाँ सच और न्याय के लिए लड़ाई इसलिए न लड़ी जाए कि हम अकेले हैं, जहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया जाए और उसकी पूजा का ढोंग तो किया जाता हो, लेकिन उसके जीवन को नकारा जाता हो। जो समाज स्वतंत्र और आधुनिक तो हो, लेकिन स्त्री की सुरक्षा और सम्मान का दायित्व नहीं उठा सकता हो। जहाँ बेटी और बेटे में फर्क किया जाता हो वहाँ मेरे होने का फायदा भी क्या था? क्या हो जाता एक मेरे बच जाने से… यहाँ तो हर घड़ी अजन्मी बेटियाँ मरती हो, जहाँ जीव हत्या तो पाप मानी जाती हो, लेकिन भ्रूण-हत्या पर सब मौन हो… जहाँ हर घड़ी बेटियों को प्रताड़ना, शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता हो, वहाँ एक अकेले मेरे जिंदा होने का फायदा भी क्या था? – आवाज थम गई थी, थक गई थी।
बेटा इस समाज में औरत का जीवन बहुत मुश्किल है। हर कदम पर उसे विरोध, प्रताड़ना और शोषण का सामना करना पड़ता है। तू जिन इतिहास, धर्म और साहित्य की बात कर रही है ना, वो भी स्त्री के शोषण की कहानियों, घटनाओं से रंगे पड़े हैं। जन्म से पहले मारे जाने की दास्तां तो क्या नई है। जन्म के बाद भी उसे कई-कई मुसीबतों, परेशानियों और बंधनों में अपना जीवन गुजारती है। खाने, पहनने और पढ़ने के लिए पक्षपात की जो शुरुआती होती है, वो जीवन के अंत तक जारी रहती है। – राधिका ने बचे हुए साहस को बटोरते हुए अपनी बात कही।
हाँ… हाँ शायद इसीलिए तूने मेरे जीवन के लिए संघर्ष नहीं किया? – थकी-बुझी आवाज – सही किया… जो तून मुझे पैदा होने से पहले ही मार दिया। पैदा हो भी जाती तो क्या होता? भाई के आते ही कदम-कदम पर पक्षपात सहती। पढ़ना चाहती, लेकिन पढ़ाया नहीं जाता। तू जो मेरे जीवन-मृत्यु का फैसला तक नहीं कर पाई, तू क्या मेरे भविष्य का फैसला कर पाती… पता नहीं तूने खुद अपने लिए कभी कोई फैसला किया भी है या तेरे सारे फैसले दूसरे लेकर तुझे सुना देते हैं… जैसे ये… कि तेरी कोख में पल रहे बच्चे का क्या किया जाना है? उसे जीने दिया जाना है या फिर मार दिया जाना है। जब ये निर्णय तक तुझसे नहीं हो पाया तो तू क्या मेरी जिंदगी और मेरे भविष्य का निर्णय कर पाती? जिस समाज में औरत के जन्म से लेकर मृत्यु तक का निर्णय कोई और करे, उस समाज में जन्म लेकर भी क्या हो जाता? अब सोचती हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया माँ तूने… जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मार दिया। जिस दुनिया में अपने ही घर में बहन-बेटियाँ सुरक्षित न हो, जिस दुनिया में औरतों को प्यार करने का हक तक नहीं दिया जाता हो, जिस दुनिया में स्त्रियों की कीमत ढोरों से भी कम आँकी जाती हो, जिस दुनिया में माँ को ईश्वर का दर्जा तो दिया जाता है, लेकिन उसके बीज रूप को ही कुचल दिया जाता हो। भला बताओ जब बीज को ही कुचल दिया जाए तो फिर पेड़ कहाँ से आएँगें…? आज तो दौड़ रहे हैं सीमेंट की सड़क पर चार पहियो में बैठकर जब धूप पड़ेगी, तो सिर छुपाने कहाँ जाएँगें…? तब कहाँ जाएँगें, जब बेटों के लिए बहुओं की जरूरत होंगी… भाईयों की सूनी कलाइयों को बहनों के प्यार भरे धागों की जरूरत होगी। तब पेड़ों की छाँह चाहेंगे तो कहाँ से होगी…, तब बेटियों की खेती करेंगे तब भी बेटों के लिए दुल्हनें नहीं ला पाएँगें… । इसे ही तो कहा जाएगा अपनी जड़े खोदना… विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली कि ये जान लें कि कोख में पल रहा जीव नर है या मादा… लेकिन अभी तक इतनी तरक्की नहीं की है कि बिना औरत के अपनी दुनिया, अपना वंश बढ़ा सके…। इसके लिए तो औरत की जरूरत पड़ेगी ही… अपने मकान को घर बनाने में, अपनी दुनिया को अपनी जिंदगी बनाने में औरत की ही जरूरत होगी और आपकी दुनिया का ये दुर्भाग्य है कि वो औरत किसी कारखाने में नहीं बनती है, किसी खेत में नहीं उगती है। वो तो पैदा होती है… और बढ़ती है। लेकिन नहीं… बहुत सवाल हो गए, आपकी दुनिया की गज़ालत और जहालत से मैं दूर ही भली। आपने अच्छा ही किया जो मुझे इससे दूर ही रखा… अच्छा किया जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मुक्त कर दिया। अच्छा किया माँ… जो मुझे तूने जन्म होने से पहले ही मार दिया…। अच्छा किया तूने… मुझे खुद ही तेरी दुनिया में नहीं रहना। बहुत अच्छा किया…।

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