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03/05/2014

रचना नहीं, रचना-क्रम आनंद है



महीने का ग्रोसरी का सामान खरीदने गए तो रेडी टू ईट रेंज पर फिर से एक बार नज़र पड़ी। आदतन उसे उलट-पलट कर देखा और फिर वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था। एकाध बार लेकर आए भी, बनाया तो अच्छा लगा लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कुछ बहुत मज़ा नहीं आया। आजकल हिंदी फिल्मों में वो एक्टर्स भी गा रहे हैं, जिनके पास गाने की जरा भी समझ नहीं है। जब उनके गाए गाने सुनते हैं तो लगता ही नहीं है कि ये गा नहीं पाते हैं। बाद में कहीं जाना कि आजकल आप कैसे भी गा लो, तकनीक इतनी एडवांस हो गई है कि उसे ठीक कर दिया जाएगा। अब तो चर्चा इस बात की भी हो रही है कि जापान ने ऐसे रोबोट विकसित कर लिए हैं जो इंसानों की तरह काम करेंगे। मतलब जीवन को आसान बनाने के सारे उपाय हो रहे हैं। ठीक है, जब जीवन की रफ्तार और संघर्षों से निबटने में ही हमारी ऊर्जा खर्च हो रही हो तो जीवन की रोजमर्रा की चीजें तो आसान होनी ही चाहिए। हो भी रही है। फिर से बात बस इतनी-सी नहीं है।
पिछला पढ़ा हुआ बार-बार दस्तक देता रहता है तो अरस्तू अवतरित हो गए... बुद्धि के काम करने वालों का जीवन आसान बनाने के लिए दासों की जरूरत हुआ करती है, तब ही तो वे समाज उपयोगी और सृजनात्मक काम करने का वक्त निकाल पाएँगे। सही है। जीवन को आसान करने के लिए भौतिक सुविधाओं की जरूरत तो होती है और हम अपने लिए, अपने क्रिएशन के लिए ज्यादा वक्त निकाल पाते हैं। लेकिन जब मसला सृजन-कर्म से आगे जाकर सिर्फ सृजन के भौतक पक्ष पर जाकर रूक जाता है तब...?
विज्ञान, अनुसंधान, व्यापार और तकनीकी उन्नति ने बहुत सारे भ्रमों के लिए आसमान खोल दिया है। फोटो शॉप से अच्छा फोटो बनाकर आप खुद को खूबसूरत होने का भ्रम दे सकते हैं, ऐसी रिकॉर्डिंग तकनीक भी आ गई है, जिसमें आप गाकर खुद के अच्छा गायक होने का मुगालता पाल सकते हैं। अच्छा लिखने के लिए अच्छा लिखने की जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा पढ़ने की जरूरत है... कॉपी-पेस्ट करके हम अच्छा लिखने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। इसी तरह से रेडी-टू-ईट रेंज... रेडीमेड मसाले... आप चाहें तो हर कोई काम आप उतनी ही एक्यूरेसी से कर सकते हैं, जितनी कि लंबे रियाज से आती है। इस तरह से तकनीक और अनुसंधान आपको भ्रमित करती हैं और आप चाहें तो इससे खुश भी हो सकते हैं। तो अच्छा गाना और अच्छा गा पाना... अच्छा खाना बनाना और अच्छा खाना बना पाने के बीच यूँ तो कोई फर्क नज़र नहीं आता है। फर्क है तो... बहुत बारीक फिर भी बहुत अहम...। यहाँ रचनाकार दो हिस्सों में बँट जाता है – एक जो अपने लिए है... अच्छा गा पाने वाला या फिर अच्छा खाना बना पाने वाला और दूसरा जो लोगों के लिए है अच्छा गाने वाला और अच्छा खाना बनाने वाला। फाइनल प्रोडक्ट बाजार का शब्द है...।
लेकिन सवाल ये है कि आप जीवन से चाहते क्या हैं? यदि आपका लक्ष्य सिर्फ भौतिक उपलब्धि है, तो जाहिर है आप सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे हैं। आप दूसरों को ये बताना चाहते हैं कि आप कुछ है, जबकि आप खुद ये जानते हैं कि आप वो नहीं है जो आप दूसरों को बताना चाहते हैं। दूसरा और सबसे महत्त सत्य.... सृजन की प्रक्रिया सुख है। बहुत हद तक सृजनरत रहने के दौरान हम खुद से रूबरू होते हैं। रचना-क्रम अपने आप में खुशी है, सुख है, संतोष है। ऐसा नहीं होता तो लोग बिना वजह रियाज़ करके खुद को हलकान नहीं कर रहे होते। पिछले दिनों किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शान (शांतनु) शहर में आए, अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आजकल गाने में वो मज़ा नहीं है, पूछा क्यों तो जवाब मिला कि आजकल आवाज और रियाज़ से ज्यादा सहारा तकनीक का हुआ करता है। आप कैसा भी गाओ... तकनीक उसे ठीक कर देंगी। अब शान तो खुद ही अच्छा गाते हैं, तो उन्हें इससे क्यों तकलीफ होनी चाहिए...? वजह साफ है, इंसान सिर्फ अंतिम उत्पाद के सहारे नहीं रह सकता है, उसे उस सारी प्रक्रिया से भी संतोष, सुख चाहिए होता है, जो उत्पाद के निर्माण के दौरान की जाती है। ऐसा नहीं होता तो अब जबकि जीवन का भौतिक पक्ष बहुत समृद्ध हो गया है, कोई सृजन करना चाहेगा ही नहीं... हर चीज तो रेडीमेड उपलब्ध है। न माँ घर में होली-दिवाली गुझिया, मठरी, चकली बनाएँगी न सर्दियों में स्वेटर बुनेंगी। भाई पेंटिंग नहीं करेगा और बहन संगीत का रियाज़। असल में यही फर्क है, इंसान और मशीन होने में, मशीन सिर्फ काम करती है, इंसान को उस काम से सुख भी चाहिए होता है। जो मशीन की तरह काम करते हैं, वे काम से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और बहुत मायनों में उनका जीवन भी मशीन की तरह ही हो जाता है, मेकेनिकल।
साँचे से अच्छी मूर्तियाँ बनाई तो जा सकती है, लेकिन उससे वो संतोष जनरेट नहीं किया जा सकता है, जो एक मूर्तिकार दिन-रात एक कर मूर्ति बनाकर करता है। सृजन शायद सबसे बड़ा सुख है, उसकी पीड़ा भी सुख है। उससे जो बनता है चाहे उसका संबंध दुनिया से है, मगर बनाने की क्रिया में रचनाकार जो पाता है, वह अद्भुत है, इस दौरान वह कई यात्राएँ करता है, बहुत कुछ पाता है, जानता है और जीता है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी स्त्री माँ बनना नहीं चाहती, क्योंकि उसमें पीड़ा है। हकीकत में जो हम सिरजते हैं, हमारा उससे रागात्मक लगाव होता है, वो प्यार होता है और उसी प्यार को हम दुनिया में खुश्बू की तरह फैलाना चाहते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इंसान सृजन से सुख पाए ही... ऐसा होता तो दुनिया में रचनाएँ चुराने जैसे अपराध नहीं होते। जो रचनाकार होने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं, लेकिन रच पाने की कूव्वत नहीं रखते हैं, वे अक्सर ऐसा करते हैं। तो फिर वे ये जान ही नहीं सकते हैं कि रचनाकार होने से ज्यादा महत्त है रचनारत रहना। इसमें भी जिनका लक्ष्य भौतिकता है, वे सिर्फ रचना पर ध्यान केंद्रित करेंगे, लेकिन जिनका लक्ष्य आनंद है, वे उन सारे चरणों से गुजरेंगे जो रचना के दौरान आते हैं... क्योंकि सुख वहाँ है। सृजन के बाद भौतिकता बचती है, क्योंकि रचना के पूरे हो जाने के बाद वो दूसरी हो जाती है, वो रचनाकार के हाथ से छूट जाती है। तब उसे दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए, लेकिन जब रचना के क्रम में रहती है, तो वह रचनाकार की अपनी बहुत निजी भावना और संवेदना होती है। सुख और संतुष्टि रचनारत रहने में... तभी तो रचनाकार किसी रचना के लिए पीड़ा सहता है, श्रम और प्रयास करता है, क्योंकि वही, सिर्फ वही जान सकता है कि जो आनंद रचने की प्रक्रिया में है, वो रचना पूरी करने में नहीं है।
इस तरह से कलाकार जब सृजन के क्रम में रहता है, तब वह ऋषि होता है और जब उसका सृजन पूरा हो जाता है, तब वह दुनियादार हो जाता है और दोनों का ही अपना सुख है, अपनी तृप्ति है। तभी तो जो रेडीमेड पसंद करते हैं, वो बस भौतिक दुनिया में उलझकर रह जाते हैं और नहीं जान पाते कि आनंद क्या है?






04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।

27/10/2013

दीपावली की 'ट्रिकल-डाउन-इकनॉमी'



बचपन में दीपावली को लेकर बहुत उत्साह हुआ करता था, सब कुछ जो दीपावली पर होता था, बहुत आकर्षक लगा करता था। साफ-सफाई के महायज्ञ में छोटा-छोटा सामान ही यहाँ-से-वहाँ कर देने भर से लगता था कि कुछ किया। तब छुट्टियाँ भी कितनी हुआ करती थी, दशहरे की महाअष्टमी से शुरू हुई छुट्टियाँ भाई-दूज तक चलती थी। इस बीच घर में जो कुछ दीपावली के निमित्त होता था, वो सब कुछ अद्भुत लगता था। याद आता है जब घर में सारे साफ-सफाई में व्यस्त रहते थे, तब एक चाची आया करती थी कपास की टोकरी लेकर...। चूँकि वे मुसलमान थी, इसलिए आदर से हम उन्हें चाची कहा करते थे। वे दो कटोरी गेहूँ और एक कप चाय के बदले कपास दिया करती थीं और उसी से दीपावली पर जलने वाले दीयों के लिए बाती बनाई जाती थी। उन दिनों रेडीमेड बाती का चलन नहीं था। ताईजी शाम के खाने के वक्त लकड़ी के पाटे पर हथेली को रगड़-रगड़ कर बाती बनाया करती थीं और माँ उन्हीं के सामने बैठकर रोटियाँ सेंका करती थी। दोनों इस बात की प्लानिंग किया करती थीं कि कब से दीपावली के पकवान बनाना शुरू करना है, और किस-किस दिन क्या-क्या बनाया जाना है और सुबह-शाम के खाने की कवायद के बीच कैसे इस सबको मैनेज किया जा सकता है।
कुछ चीजें अब जाकर स्पष्ट हुई हैं। एक बार दीपावली के समय सूजी और मैदे की किल्लत हुईं, इतनी कि पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) से बेचा गया। आज सोचो तो लगता है कि कालाबाजारी हुई थी, जैसे कि अभी प्याज़ की हो रही है। जब लगा कि पीडीएस से इतना नहीं मिल पाएगा तो ताईजी ने खुद ही घर में बनाने की ठानी। तब पहली बार मालूम हुआ कि सूजी, मैदा, आटा सब आपस में भाई-बहन हैं। उन्होंने गेहूँ को धोया, फिर सुखाया और फिर चक्की पर पीसने के लिए भेजा, मैदे के लिए एकदम बारीक पिसाई और सूजी के लिए मोटी पिसाई की हिदायत देकर...। दीपावली के पहले तीन दिनों में इतना काम हुआ करता था और इतनी बारीक-बारीक चीजें करनी हुआ करती थी कि तब आश्चर्य हुआ करता था, कि ये महिलाएँ इतना याद कैसे रख पाती हैं। तमाम व्यस्तता के बीच भी। हम बच्चे जागते इससे पहले ही घर के दोनों दरवाजों पर रंगोली सजी मिलती थीं। रंग, तो जब हम बाजार जाने लगे तब घर में आने लगे, इससे पहले तो हल्दी, कूंकू और नील से ही रंगोली सजा ली जाती थी।
दीपक, झाड़ू और खील-बताशे खरीदना शगुन का हिस्सा हुआ करता था। चाहे घर में कितने ही सरावले (हाँ, ताईजी दीपक को सरावले ही कहती थीं, जाने ये मालवी का शब्द है या फिर गुजराती का) हो फिर भी शगुन के पाँच दीपक तो खरीदने ही होते थे। इसी तरह घर में ढेर झाड़ू हो, लेकिन पाँच दिन गोधूली के वक्त झाड़ू खरीदना भी शगुन का ही हिस्सा हुआ करता था। घर में चाहे कितने ही बताशे हो, पिछले साल की गुजरिया हो, लेकिन दीपावली पर उनको खरीदना भी शगुन ही हुआ करता था। कितनी छोटी-छोटी चीजें हैं, लेकिन इन सबको दीपावली के शगुन से जोड़ा गया है, तब तो कभी इस पर विचार नहीं किया। आज जब इन पर विचार करते हैं तो महसूस होता है कि दीपावली की व्यवस्था कितनी सुनियोजित तरीके से बनाई गई हैं।
हमने दीपावली के बस एक ही पक्ष पर विचार किया कि ये एक धार्मिक उत्सव है, राम के अयोध्या लौटने का दिन... बस। लेकिन कभी इस पर विचार नहीं किया कि इस सबमें राम हैं कहाँ... हम पूजन तो लक्ष्मी का करते हैं। बहुत सारी चीजें गडमड्ड हो जाती है, बस एक चीज उभरती हैं कि चाहे ट्रिकल डाउन इकनॉमी का विचार आधुनिक है और पश्चिमी भी, और चाहे अर्थशास्त्र के सारे भारी-भरकम सिद्धांत पश्चिम में जन्मे हो, लेकिन हमारे लोक जीवन में व्यवस्थाकारों ने अर्थशास्त्र ऐसे पिरोया है कि वे हमें बस उत्सव का ही रूप लगता है और बिना किसी विचार के हम अर्थव्यवस्था का संचालन करते रहते हैं।
इस त्यौहार के बहाने हम हर किसी को कमाई का हिस्सेदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए कुम्हार... अब कितने दीपकों की टूट-फूट होती होगी, हर साल... तो घर में दीपकों का ढेर लगा हुआ हो, लेकिन फिर भी शगुन के दीपक तो खरीदने ही हैं, मतलब कि कुम्हार के घर हमारी कमाई का कुछ हिस्सा तो जाना ही है। आखिर उन्हें भी तो दीपावली मनानी है। ध्यान देने लायक बात ये है कि पारंपरिक तौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में दीपावली के आसपास ही खरीफ की कटाई होती हैं और बेची गई फसलों का पैसा आता है। किसान इन्हीं दिनों ‘अमीर’ होता है और इसकी अमीरी में से पूरे समाज को हिस्सा मिलता है, वो बचा तो सकता है, लेकिन शगुन के नाम पर कुछ तो उसे खर्च करना ही होगा... क्या इससे बेहतर ट्रिकल डाउन इकनॉमी का कोई उदाहरण हो सकता है? टैक्स के माध्यम से नहीं खर्च के माध्यम से पैसा रिसकर नीचे आ रहा है।
दीपावली मतलब क्षमता के हिसाब से खर्च, साफ-सफाई के सामान से लेकर कपड़े, गहने, बर्तन, उपहार, मिठाई तक तो फिर भी त्यौहार की खुशियों का हिस्सा है, लेकिन बताशे, झाड़ू, कपास और दीपक खुशियों से ज्यादा हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है। इतनी कुशलता से हमने त्यौहारी सिद्धांत बनाए हैं, और वो भी बिना किसी आडंबर के, बिना किसी प्रपोगंडा के। हम भी नहीं जानते हैं कि हम जाने-अनजाने किस तरह से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते चले आ रहे हैं, बिना किसी अहम के अहसास के... और वो भी त्यौहारी परंपरा का निर्वहन करके...।
तो दीपावली को इस नजरिए से भी देखें... आखिर हर साल हम वही-वही क्यों करते हैं? इस बार अलग दृष्टि से देखें... बात सिर्फ इतनी-सी है कि अपनी सारी तार्किकता को परे रखकर यदि हम सिर्फ शगुनों ही निभा लें तो उत्सव का आनंद भी उठाएँगे और सामाजिक जिम्मेदारी का पालन भी कर पाएँगें। आखिर
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल
कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़ दें
नहीं क्या... !

16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





16/03/2012

जीवन का रहस्य.... रंग


होली गुजरे चार दिन हो चुके हैं, लेकिन मालवा-निमाड़वासियों का जैसे मन ही नहीं भरता होली के गुलाल-अबीर से, तभी तो चौथे दिन रंगपंचमी मनाते हैं और गुलाबी-हरा-नीला-काला-सुनहरी रंग पोते हुए रंग-बिरंगी होकर पूरी दुनिया को रंगीन करने निकल पड़ते हैं।
जहाँ होली को पूरी शालीनता और सभ्यता से सूखे रंगों के साथ मनाते हैं, वहीं रंगपंचमी पर जैसे साल भर की मस्ती का कैथार्सिस होता है। कोई भी रंग चलेगा... रंगने के लिए भी कोई भी चलेगा और लगाने के लिए भी। मस्ती का आलम यूँ होता है कि बाजार-सड़क तक रंगीन हो जाया करती है। इसी दिन गेर निकालने की परंपरा है... परंपरा क्या है सामूहिक मस्ती का आयोजन है। खूब रंग-गुलाल साथ लिए... बड़ी-बड़ी मिसाइलों से सबपर उड़ाते पूरे माहौल को रंगमय करते चलता बड़ा-सा हुजूम... और इसमें शामिल होते जाते और... और.... और.....।
अपने बचपन में गेर में बनेठी घुमाते बच्चों और युवाओं को देखा करते थे, अब इसका स्वरूप सिर्फ जुलूस की तरह हो चला है। या फिर जैसे रंगों की बारात... हर तरफ रंग, मस्ती, बेखयाली, तरंग, नशा... बस। बेतरतीब रंगों से रंगोली की रचना होती है, और गुजरने के बाद सड़कें उस अनगढ़ रंगोली से जैसे मौसम की मस्ती-मिजाजी का भी पता देती है.... जिस जगह से ये गेर या अब इसे फाग यात्रा नाम दे दिया गया है गुजरती है ऐसा लगता है जैसे पूरी कायनात को रंगने निकली हो...। शामिल होने वाला मस्त देखने वाला भी मस्त... बस ऐसा लगने लगता है कि ये मस्ती ही स्थायी हो जाए, क्योंकि यही तो रहस्य है, सार है... जीने का, जीवन का....।

12/11/2011

अभिभूत करते लोग... पार्ट – 1


आजकल मुझे वो चीजें अभिभूत करती है, जो हकीकत में कुछ है ही नहीं। चमचमाती गाड़ियाँ, खूबसूरत कपड़े, महँगे गैजेट्स, चौंधियाती पार्टियाँ, खूबसूरत चेहरे, डुबाता संगीत या फिर गहरी किताबें अभिभूत नहीं करती। करते हैं जमीन से जुड़े लोग, स्वार्थ को दरकिनार कर दूसरों के लिए सुविधा जुटाते, हँसते हुए संघर्ष करते, अपने दुख-दर्द को बहुत करीने से सहेजते-सहते, सीखने के लिए खुले हुए, नया करने के लिए राह बनाते-निकालते लोग, छोटे-छोटे, नाजुक और मासूम-से जैस्चर्स और मीठे-मीठे रिश्ते... कहीं ठहर जाते हैं, भीतर और उस तरह उतरते चले जाते हैं जैसे बारिश की फुहारों का पानी उतरता रहता है जमीन के अंदर.... गहरे.... गहरे और गहरे...। अजीब है, लेकिन है... इन दिनों ऐसा ही कुछ अभिभूत करता है। पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसे ही लोग आसपास से गुजर रहे हैं और जीने का उनका तरीका, परिस्थितियों से लड़ने का साहस और जीवट मेरी यादों की किताब में दर्ज हो रहे हैं, उनके जीवन के गहरे अर्थ खुलते हैं और नया जीवन दर्शन भी मिलता है।
दीपक - वो हमारे घर पुताई करने के लिए आया था। रैक की किताबों को बहुत गौर से देख रहा था। यूँ ही पूछ लिया पढ़ते हो...। उसने बड़ी विनम्रता से नजरें झुकाकर गर्दन हाँ में हिला दी। हमने बड़े आश्चर्य से फिर से अपना सवाल दोहराया – पढ़ते हो?
इस बार उसने बहुत आत्मविश्वास से हमारी आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया – हाँ... पढ़ रहा हूँ।
उसके विनम्र आत्मविश्वास ने हमें चौंकाया – कौन-सी क्लास में...?
10 वीं में – उसने जवाब दिया।
कौन से स्कूल में ...?
उसने शहर के एक बड़े प्राइवेट स्कूल का नाम लिया...। हमने अपनी आँखों को थोड़ा फैलाया... – उसकी फीस तो बहुत ज्यादा है।
हाँ...- अबकी उसने आत्मविश्वास से मुस्कुरा कर जवाब दिया – तभी तो छुट्टी-छुट्टी काम करके फीस जमा करता हूँ। पिता मजदूरी करते हैं, वो हमें रोटी देते हैं। फीस की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती है। पढ़ना चाहता हूँ, इसलिए अपनी फीस का इंतजाम मुझे खुद ही करना चाहिए। बस... टुकड़ों-टुकड़ों में थोड़ा-थोड़ा काम करके साल भर में इतना पैसा जमा कर लेता हूँ कि स्कूल की फीस निकल जाए।
तीन दिन उसने बहुत मेहनत और लगन से काम किया। उसके काम का तरीका देखकर महसूस हुआ कि ये काम उसके पढ़ने के जुनून का हिस्सा है और उसके जुनून का इंप्रेशन भी...। वो काम कर जा चुका है, लेकिन जीवन के अनुभवों पर उसका नक्श हमेशा के लिए अंकित हो गया।
लक्ष्मी – पता नहीं कैसे वो हमारी झोली में आ गिरी थी। हरफनमौला... यूँ काम तो करती थी खाना बनाने का, लेकिन जो काम बताओ उसे पूरे उत्साह से अंजाम देती थी। खाना बनाने से लेकर कपड़ों को ठीक करना, छोटा-मोटा सामान खरीद कर ला देना, बालों में मेंहदी लगा देना या फिर मौका-बे-मौका फेशियल ही कर देना। दीपावली की सफाई की कल्पना तो उसके बिना की ही नहीं जा सकती थी। पिता मंडी में हम्माली करते हैं और माँ प्राइवेट स्कूल में खाना बनाती है। वो खाना बनाने का काम इसलिए करती है ताकि पैसा जमा करके ब्यूटीशियन का कोर्स कर सकें। अभी उसका टारगेट पूरा नहीं हुआ था... भागती हुई हमारे यहाँ खाना बनाने आती थी, यहीं से ट्रेनिंग के लिए... शाम को ट्रेनिंग से लौटते हुए घर आकर खाना बनाती थी और फिर अपने घर जाकर खाना बनाती थी। पिछले दिनों बस का इंतजार करते हुए मिली तो बिल्कुल बदली हुई...। धूप से बचने के लिए आँखों पर काला चश्मा था, जींस पर कुर्ता और छाता लेकर खड़ी थी। हमने पहचान कर लिफ्ट दी तो उसने बताया कि जहाँ उसने ट्रेनिंग की वहीं पर नौकरी भी करने लगी है। महीने भर की तनख्वाह के साथ ही हर फेशियल पर कमीशन अलग...। वो खुश है, क्योंकि उसने अपनी राह तलाशी और मंजिल भी पाई है।
यूँ ये लिस्ट बहुत लंबी है, लेकिन फिलहाल इसमें सिर्फ दो ही लोगों को शामिल किया है। जैसे-जैसे लिखती जाऊँगी इसे विस्तार दूँगी। चूँकि हरेक किरदार अपने-आप में एक पूरी कहानी कहता है, इसलिए ये जरूरी नहीं है कि इसे शृंखलाबद्ध तरीके से ही लिखा जाए। इसलिए इस कड़ी में बस इतना ही... अगली कब होगी, कहा नहीं जा सकता...।

17/04/2011

लहरों के हवाले है मन...


हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा अच्छा नहीं है। ये सीख हरेक को अपने बचपन में मिलती रही है और यदि आप घर में बड़े हो तो आपको तो इसके साथ ये भी सुनने को मिलेगा कि तुम बड़े हो ना! समझदार हो, वो बच्चा है या बच्ची है उसकी बात सुन लो...। बड़े होने पर कई बार ऐसा होता है कि हम इसके उलट काम करने लगते हैं और कई बार उसी लीक को पकड़कर आगे का जीवन तय करते हैं। कुछ स्वभाव से लड़ाकू हो जाते हैं और कुछ समझदार...। औऱ कुछ ऐसे भी होते हैं, जो समय-समय पर सुविधानुसार बदलते रहते हैं... जैसे हम...। इसे प्रयोग भी कह सकते हैं और सुविधा भी। यूँ हर वक्त समझौतावादी होना या फिर हर वक्त हथियार लेकर लड़ना दोनों ही प्रवृत्ति ठीक नहीं है। मौका देखकर अपनी रणनीति तय करना ही अक्लमंदी मानी जाती है, लेकिन जब मामला अक्ल तक पहुँचने से पहले ही मन पर अटक जाए तो...? मुश्किलें संभाले नहीं संभलती है।
पता नहीं ये ग्रह-नक्षत्रों के परिवर्तन के प्रति मन की संवेदनशीलता है, रोजमर्रा के जीवन के प्रति उदासीनता या फिर लक्ष्यहीनता से पैदा हुई ऊब है। गर्मी के तपते दिनों और बेचैन करती रातों में अंदर भी कुछ उबलता, तपता-तपाता रहता है। जीवन अपनी गति और प्रवाह के साथ सहज है, लेकिन मन नहीं...। कहीं अटका, कहीं भटका, उदास, निराश और हताश, किसी बिंदू पर टिकता नहीं है, इसलिए हल तक हाथ पहुँचे ये हो नहीं सकता... तो फिर...? क्या किया जाए? सहा जाए या फिर लड़ा जाए...?
सवाल ये भी उठता है कि क्यों हर वक्त हथियार तान कर लड़ने के लिए तैयार रहे। कई बार बिना लड़े भी तो मसले हल होते हैं। तो क्या ऐसे ही हथियार डाल दें? लिजिए संघर्ष से संघर्ष करने के तरीके पर ही संघर्ष शुरू हो गया।
अज्ञेय को पढ़ते हुए लगा कि लड़ा जाए... क्योंकि शोधन करने पर ही परिष्कार हो सकता है। लड़ते रहे.... लड़ते रहे.... ना जीत मिली ना हार। संघर्ष घना होता चला गया। बेचैनी बढ़ती रही, अनिश्चय से पैदा होता तनाव भी... कुछ परिणाम नहीं। कब तक ये संघर्ष, कब तक ये बेचैनी और तनाव, जवाब... मौन। बचपन की सीख याद भी आ गई... हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा... फिर फायदा भी क्या है?
कहा ना! प्रयोग करने की आदत है या फिर कह लें सनक... टेस्ट चेंज करने लिए ओशो को पढ़ा तो लगा कि कभी-कभी खुद को छोड़ देना भी काम कर सकता है। छोड़ दिया बहने और डूबने के लिए... देख रहे हैं, किनारे खड़े होकर... मरेंगे नहीं ये विश्वास है। उबरेंगे, कुछ लेकर, कुछ नए होकर...।

26/11/2010

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं...


कार्तिक की आखिरी शाम... आसमान पर बादलों की हल्की परतों के पीछे चाँद यूँ नजर आ रहा था, जैसे उसने भूरे-सफेद रंग का दुपट्टा डाल रखा हो... फिर हर दिन बादलों, फुहारों और बारिश के बीच निकलता रहा... अगहन में सर्दी की तरफ बढ़ते और सावन-सा आभास देते दिन... अखबार बताते हैं कि ये गुजरात में आए चक्रवात का असर है... देश में कहीं कुछ होता है तो असर हमें महसूस होता है, कभी हिमालय पर गिरी बर्फ से शहर ठिठुरने लगता है तो कभी दक्षिण में आए तूफान से यहाँ बरसात होती है। और इन सबके पीछे भी दुनिया के किसी सुदूर कोने में हुआ कोई प्राकृतिक परिवर्तन होता है, तो क्या पूरी सृष्टि... ये चर-अचर जगत किसी अदृश्य सूत्र, कोई तार... किसी तंतु... या फिर किसी तरंग से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? होगा ही तभी तो कहाँ क्या घटन-अघटन होता है और उसका असर कहाँ पड़ता दिखाई देता है, चाहे दिखाई दे या न दें... । ये बहुत सुक्ष्म परिवर्तन हैं और लगातार स्थूलता की तरफ बढ़ती हमारी दुनिया इन सुक्ष्म परिवर्तनों को देख तो क्या महसूस भी कर पाएगी... ? ... हम तो रोजमर्रा में हमारे आसपास होते बारीक और बड़े परिवर्तनों के प्रति ही अनजान होते हैं... या फिर उन्हें देखकर अनदेखा कर देते हैं, तो ये सृष्टि की विराटता में घटित होता है, जिसकी एक बूँद का 100 वाँ हिस्सा ही हम तक पहुँचता होगा।
कभी ये फितूर-सा रहा था कि अपने हर कर्म के अर्थ तक पहुँचें... लेकिन फिर वही... अपनी संवेदनाओं, समझ, समय और ज्ञान की सीमा आड़े आ गईं और धीरे-धीरे तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा होते चले गए। फिर भूल ही गए कि यूँ हर चीज के होने का एक अर्थ है, उद्देश्य है, महत्व है, अब ये अलग बात है कि हमें वो नजर नहीं आता है।
फिर भी प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी जैसा बार-बार महसूस होता है, कि आकंठ डूबने के बाद भी हमारे अंदर कुछ ऐसा होता है, जो खुद को सूखा बचा लेता है.... पाता है तो वो हमें ‘वॉर्न’ करता रहता है कि दुनिया की हर चीज हम देखें ना देखें, महसूस करें ना करें हमें, हमारे जीवन, हमारे कर्म... अनुभव और आखिर में हमारे स्व को प्रभावित करता है... इस दृष्टि से हर साँस, हर घटना, अनुभूति, हर वो इंसान जो हमारे संपर्क में आता है... हमें कुछ सिखाता है... कुछ समझाता है... समृद्ध करता है, चाहे उसका होना... घटना क्षणिक क्यों न दिखता हो, उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और प्रभाव बहुत स्थायी होते हैं।
याद आते हैं... सिलिगुड़ी से दार्जिलिंग की यात्रा में मिले वे कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे... तीन दिन की यात्रा की थकान... सुबह से फिर ट्रेन का सफर... खाने का सामान खत्म और तेज भूख... हर स्टेशन पर खाने जैसे ‘खाने’ की तलाश... नहीं मिलने पर निराशा ... और फिर सामने आई पराँठें-सब्जी को वो प्लेट.... कहीं कौंधा था – इस दुनिया में हमारा लेना-देना स्थायी रहता है, किसी-न-किसी रूप में फिर से हमारे सामने होता है, समय और देश की सीमा के परे... चाहे अगले-पिछले जन्म पर विश्वास न हो, लेकिन ऐसे किसी समय में महसूस होता है, कि ये जो अजनबी हैं, जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले... शायद कभी नहीं मिलेंगे, हमारे जीवन में किसी भी रूप में आए हैं तो इसका कोई सूत्र कोई सिरा कहीं न कहीं हमसे जुड़ा है, हमारे जीवन, हमारे अनुभव या फिर हमारे भूत-भविष्य से, न मानें फिर भी अगले-पिछले जन्म से भी जुड़ा हो सकता है... ये अलग बात है कि वो हमें नजर नहीं आता है। तो कहीं कुछ भी होना बेकार नहीं होता, चाहे वो बुरा हो... वो हर अनुभव, सुख-दुख, पीड़ा, घटना, परिवेश, सपने, चाहत, ठोकरें, उपलब्धि हो या फिर कोई इंसान... जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक होता है, घटता है... हरेक चीज का एक अर्थ होता है, यदि दुख होता है तो भी और सुख होता है तो भी... हमें समझाता है, बचकर चलना, डूबकर जीना सिखाता है... समृद्ध करता है, वक्ती उत्तेजना या टूटन के बाद भी हम खुद को कदम-दो-कदम आगे की ओर पाते हैं... खासतौर पर दुख... पीड़ा... वेदना.... क्योंकि जैसा कि धर्मवीर भारती ने लिखा है
सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यही पीड़ा, यह कुंठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिसका कोई अर्थ नहीं।
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

10/10/2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!

14/08/2010

मुट्ठी में बँधे सपनों का सच – 1




थर्ड सेम की क्लासेस शुरु हो चुकी थी। बारिश के ही दिन थे... कैंपस हरे रंग की पृष्ठभूमि पर चटख रंगों से बनी एक बड़ी-सी पैंटिंग-सा खूबसूरत और दिलफरेब नजर आ रहा था। आज का बकरा यूँ तो तय था... सुधीर... वो कल सीधे जेएनयू कैंपस से आया था, आज वो बदला हुआ दिख भी रहा था... लेकिन, उसे बकरा बनाने में मजा नहीं है... बस यही सोचकर कुछ उदासी थी और कुछ खलबली भी... कारण बहुत स्पष्ट था, उस बकरे को हलाल करने में क्या मजा जो अपनी गर्दन खुद ही हमारे छुरे के नीचे रख दें, तो आज इससे काम चलना नहीं था, इससे से न तो समोसे का स्वाद आएगा और न ही कॉफी से ताज़गी मिलेगी (अपना घोषित फंडा था, खुद पेमैंट करेंगे तो चाय और कोई दूसरा पिलाएगा तो कॉफी... चाय उन दिनों 3 रुपए की और कॉफी 5 की मिलती थी) तो हर हाल में किसी दूसरे को ढूँढना होगा। चौकड़ी बेर की झाड़ी के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर अभी इस विचार पर मंथन कर ही रही थी कि दूर तक फैली हुई हरी-हरी घास के बीच की पगडंडी पर नींबू पीले रंग का टी-शर्ट पहने आता प्रभु नजर आ गया। बबली चिल्लाई ... हुर्रे बकरा... नजर गई और सभी के चेहरे खिल गए।
प्रभु के पास आते ही एक से बढ़कर एक तारीफ के शब्द उसे मिलने लगे... ये...!!! नई टी-शर्ट... या बहुत अच्छी लग रही है... या कितना अच्छा रंग पहना है प्रभु... या आज तो जम रहे हो.. उसने भी अपनी झेंपी-सी मुस्कुराहट चमकाई और सफाई दी – इट्स नॉट न्यू...। लहजा वही दक्षिण भारतीय... आय वोर इट ऑन वेलकम पार्टी ऑलरेडी...।
ऊँह... दैट डे वी डिड नॉट नोटिस दिस...।
कैंटीन बंद – चलताऊ हिंदी में उसने संकेत समझने के संकेत देने शुरू कर दिए।
दीप्ति ने कहा नहीं खुल गई है। थोड़ी बहुत खींचतान और नोंकझोंक के बाद बात बन गई... बननी ही थी। हर कोई जानता था कि यदि ये चौकड़ी पीछे पड़ जाएगी तो फिर कोई भी बच नहीं सकता है, तभी प्रोफेसर क्लास में जाते दिखे और सभा विसर्जित हो गई। शीत-युद्ध पढ़ाया जा रहा था, अभी तक हम तो यही समझे बैठे थे कि शीत-युद्ध विचारधारा की लड़ाई है और इसलिए सोवियत संघ और चीन दोनों एक ही खेमे में हैं, लेकिन उस दिन जो चैप्टर पढ़ाया जा रहा था, उसमें सोवियत संघ और चीन के बीच खऱाब रिश्तों पर बात हो रही थी।
जब सुधीर ने प्रोफेसर से सवाल किया कि यहाँ विचारधारा कहाँ हैं? यहाँ तो वर्चस्व और हित का संघर्ष है? तो ऐसा लगा जैसे टॉप गियर में चल रही गाड़ी पर एकाएक ब्रेक लग गया और गियर बदल नहीं पाने से वो खड़ी हो गई। खून का प्रवाह नीचे की ओर होता महसूस हुआ और, एक तीखी जलन नीचे से उपर तक दौड़ गई। इतना सादा सा सवाल सुधीर ने पूछा, हमारे अंदर क्यों नहीं आया? चाहे पूछें या ना पूछें... सवाल तो पैदा होना चाहिए ना! बस सारी केमिस्ट्री का कबाड़ा हो गया। कैंटीन में पहले चाय की ट्रे आई तो बेखुदी इतनी ज्यादा थी कि वो ही कप उठा लिया... रजनी फुसफुसाई भी कि चाय है, लेकिन फ्यूज पूरी तरह से उड़ चुका था। बस ऐसे ही कब और कैसे घर पहुँचे पता नहीं चला। पहुँच कर हर दिन की तरह कमरा बंद कर लिया। दिन अभी सुनहरा था, कब साँवला और फिर सुरमई हो गया पता नहीं चला, जबकि खिड़की से तकिया लगाए, गज़ल पर गज़ल सुनते शब्द और सुर के साथ आँसुओं में अवसाद को धोते रहे थे... खुद को समझाया था, इंसान हो... हो जाता है, हर वक्त इस तरह का तना-खींचापन क्यों? और फिर ये तो कोई बात नहीं ना कि किसी के भी अंदर उठा सवाल तुम्हारे अंदर भी पैदा होना चाहिए... धीरे-धीरे सब गुज़र गया...।