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16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





06/03/2013

चलो बनाएँ अपना स्वर्ग




‘‘यदि ईश्वर ने ही औरतों के लिए यह जीवन रचा है तो फिर कहना होगा कि आपका ईश्वर सामंतवादी पुरुष है...’’ -जब ये कहा था उसने तो कई लोगों ने उसे घूरकर देखा था... माँ ने भी। जाहिर है ये ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की कथित नीतियों पर ‘अन्याय’ का आरोप था। और ईश्वर पर आरोप कतई-कतई सह्य नहीं है।
धीरे-धीरे जब उसने समाज को और बारीकी से जानने की कोशिश की तो उसे लगा कि धर्म के बहाने हर कहीं औरतों को मर्यादा, शालीनता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण की हिदायतें दी जाती हैं, पालन करने के लिए कभी दंड की धमकी, तो कभी आदर्श होने का प्रलोभन... हो सकता है ये विचार सख्त महिलावादी लगे लेकिन वो इस तरह से सोचती है क्या किया जा सकता है?
उसे नजर आता है कैसे लड़कियों को अच्छी लड़की बनने के लिए किस तरह से उदाहरण दिए जाते हैं। क्यों सावित्री-सत्यवान और रति-कामदेव की कथाएँ कही जाती है, क्यों लक्ष्मी-विष्णु के हर केलैंडर में लक्ष्मी, विष्णु के पैर दबाती नजर आती है... क्यों सीता-त्याग को राम की मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि से महिमामंडित किया जाता है? क्यों कृष्ण राधा को छोड़कर चले जाते हैं... वो प्रेम तो एक शादीशुदा महिला से कर सकते थे, लेकिन विवाह नहीं कर सकते थे... वो सोचती है, क्यों...? जवाब था एक ही... ‘ईश्वर सामंतवादी पुरुष है।’ लेकिन एक दिन उसे लगा कि जिसे हम ईश्वर समझते हैं, दरअसल वो तो बड़ी दुनियावी कल्पना है... ईश्वर तो निराकार, निर्विकार है... यदि है तो...। तो अब तक ईश्वर के नाम पर जो कूड़ा-कबाड़ फैला हुआ है, वो तो इंसान की ‘लीला’ है। मतलब... कि ये सारा जो ईश्वर के नाम पर धर्म में हुआ करता है, वो सब तो इंसानी करामात है...कुछ पूर्वाग्रही, कुछ पीड़ित और बहुत सारे षडयंत्रकारी पुरुषों के पूर्वाग्रह, कुंठा और षड़यंत्र... मामला साफ तब हुआ जब उसने वर्तमान में विचारों के जंजाल और बचपन की स्मृति के निहितार्थों के बीच संबंध स्थापित किया।
याद तो नहीं कि किस धार्मिक ग्रंथ के चित्र उसे दिखाए जाते थे, लेकिन उसमें छपे वे चित्र उसे अब भी उसी तरह याद है, जैसे उसने उस किताब में अपने बचपन में देखें थे। नर्क के फोटो... एक ही पेज पर कभी तीन तो कभी चार फोटो... ले-आऊट भी बड़ा अटपटा...। किसी फोटो में कुछ राक्षस जलती भट्टी के आसपास खड़े हैं और भटटी पर बड़े से कड़ाह में तेल गर्म हो रहा है। उसमें कोई मनुष्य पड़ा रो रहा है... वो कल्पना करने की कोशिश किया करती थी कि उस गर्म तेल से कितनी जलन हो रही होगी..., फिर किसी में मनुष्य को सुए चुभोए जाते हुए भी दिखाया गया था और भी कई... उन फोटो में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नजर नहीं आता था... गोयाकि नर्क तो दोनों के लिए एक-सा ही था। और स्वर्ग... ? ये सवाल जब उसने बचपन में ही किया था तो जवाब देने वाला गफ़लत में आ गया था। स्वर्ग उसमें ठंडी-ठंडी हवाएँ बहती है, झरने बहते हैं, खूबसूरत फूल खिलते हैं, मद्य (सीधे कहते हुए भावना अकड़ी जाती है- दारू...) और सुंदरी...। उसने मान लिया, लेकिन उस दिन जब उसने कड़ियाँ जोड़ी तो सवाल उठा – ‘ये सब तो पुरुषों के लिए हैं, हम महिलाओं के लिए स्वर्ग कैसा है।’ जवाब था ही नहीं तो मिलता कैसे...? बस यहीं से उसके दुख शुरू हो गए। महिलाओं के लिए तो स्वर्ग है ही नहीं, मतलब उसके लिए तो दोहरा नर्क है... एक जो धार्मिक कथाओं में है और दूसरा ‘पृथ्वीलोक’... ‘मृत्युलोक’...। तो नर्क में तो कोई अंतर नहीं है, हाँ अघोषित रूप से स्वर्ग तो सिर्फ पुरुषों के लिए ही है...।

तो आजकल वो लगी है, स्त्रियों के लिए स्वर्ग का ‘कंसेप्ट’ बनाने में... आइए जरा उसकी मदद कीजिए... ।

22/09/2012

छोड़कर जाओ तो आहत होता है घर



शाम होते ही तुम्हें घर लौटने की जल्दी क्यों मची रहती है?
...........................
बोलो....
पता नहीं, बस लगता है कि घर बुला रहा है।
घर... बुला रहा है। - उसने दोहराया था, थोड़ी खीझ और बहुत सारे आश्चर्य के साथ। हाँ...। – मैंने बड़े अनमनेपन से जवाब दिया था। उसकी खीझ और भी बढ़ गई थी। अभी लिस्ट का बहुत सारा सामान लिया जाना बाकी है और मैं घर चलो-घर चलो की रट लगाने लगी थी। अजीब भी लग रहा था, लेकिन एकदम से बाजार से उकता गई थी। शोर-शराबा, लाइट, भीड़, ट्रेफिक... बस मेरा सिर घूमने लग गया था। अजीब तो लग रहा था, ये बचपना, लेकिन... मैं बेबस थी, बेचैनी तीखी होने लगी थी। बहुत देर तक अपने संकोच में लिपटी रही थी। जब उस चौराहे के बंद सिग्नल के उस पार खड़े सेब के ठेले से सेब खऱीदने की बात आई थी... मन मसोस कर रह गई थी। फिर आगे चलकर मॉल के पार्किंग में गाड़ी लगी तो मन में हौल उठा था, अभी और देर से घर जाएँगे...। फिर एक आउटलेट से दूसरे आउटलेट के चक्कर... बस धैर्य जवाब दे चुका था। घर चलें, पहले बहुत विनम्रता से... जवाब भी उसी विनम्रता से मिला था। हाँ... बस चलते हैं।
फिर हर पाँच मिनट बाद – घर चलें... घर चलें की रट्ट... खीझ गया था वो। यार... छुट्टी वाले दिन तुम घर से निकलना नहीं चाहतीं, घर पहुँचकर निकलने में तुम्हें परेशानी है, ज्यादा देर बाजार में काम करें तो तुम्हें परेशानी है, ऐसे कैसे चलेगा? उसने अपने सारे धीरज को समेटकर सवाल किया था। उस धीरज से मेरे आँसू निकल आए थे। फिर शायद उसे थोड़ी सहानुभूति हुई थी। चलो, चलते हैं... बाकी की चीजें कल-वल खरीद लेंगे।

घर लौट तो आए थे, लेकिन एक बोझ-सा बना रहा था। खरीदी दीपावली के लिए हो रही थी, आज शनिवार था तो चाहे कितनी भी देर तक बाजार करते रहो चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन मन का क्या करें। खाना खाने के बाद अपनी पसंद की नींबू चाय बनाई थी, बालकनी में पड़े स्टूल पर रखी और उसका हाथ पकड़कर ले आई थी, जो टीवी पर कोई बकवास-सी हॉलीवुड की फिल्म देख रहा था। मैंने अपराध-बोध से ग्रस्त थी, ट्राय टू अंडरस्टैंड मी... बॉलकनी से दूर क्षितिज पर झुकते आसमान को देखते हुए कहा था। उसकी आँखों में सवाल उभरा था... – क्या?

मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ समेटते हुए बात शुरू की थी - शाम होते-होते मुझे हमेशा ही घर की याद आने लगती है... यूँ लगता है कि बाहर निकलते हुए खुद का कोई हिस्सा रह जाता है घर में ही। और शाम होते-होते उसे मेरी और मुझे उसकी याद आने लगती हो... या... पता नहीं क्या... शायद पिछले जन्म में पंछी रही होऊँ... नहीं, मुझे यकीन नहीं अगले-पिछले जन्म में। इस पर यकीन करो तो बहुत सारे दूसरे यकीन भी करने पड़ते हैं, और फिर जिंदगी जैसे यकीनों का सिलसिला बन जाती है, फिर उन यकीनों से जुड़े सवालों से भी जूझना पड़ता है। ये तो बस यूँ ही... उतरता सूरज, ना जाने क्या-क्या लेकर आता है और खिंचता रहता है, हमेशा घर की ओर... अब दुनिया में है तो दुनियादार तो होना ही हुआ, सो हुए, घर-बाहर, दोस्त-रिश्तेदार, हारी-बीमारी, जन्म-मरण-परण... बहुत कुछ है जो घर से बाहर ले जाता है...लेकिन पंछी की मन लेकर जो पैदा हुए कि शाम होते घरोंदा ही याद आता रहा है। खुद को देखूँ तो उस सवाल का जवाब ही नहीं मिलता कि हम बाहर जाने के लिए शामों को ही क्यों चुनते हैं? जबकि घर से डूबते सूरज को देखो तो एक करूणा जागती है, वो भी हमारी ही तरह अपने घर लौट रहा है... बेचारा... दिन भर का थका-हारा, तपता-जलता, झुलसता-झुलसाता। जब कभी बाहर से घर लौटों तो महसूस होता है कि घर बहुत अनमना-अनमना-सा है, उसमें कोई जुंबिश नहीं है, कोई हरकत, कोई हरारत नहीं है, वो बिल्कुल ठंडा और बेजान है, निर्जीव...। अब बोलो भला घर कोई जीव है क्या? – मैं खुद ही सवाल करती जा रही थी और खुद ही जवाब भी दिए जा रही थी... वो बस मुझे बोलते देख रहा था। वो अक्सर कहता है कि तुम जब बोलती हो तो ऐसा लगता है कि शब्द झर रहे हैं... कई बार मैं बस उन्हें झरते देखता रहता हूँ, उनके अर्थों तक नहीं पहुँच पाता... मैंने अपनी बात जारी रखने के लिए थोड़ा वक्त लिया। जब उसने प्रश्नवाचक निगाहें छोड़ी तो फिर कहना शुरू किया - पता नहीं कितने बचपन से मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा है कि घर को छोड़कर जाओ तो वो नाराज हो जाता है। बहुत देर तक वो संवाद नहीं करता, कहीं हाथ नहीं रखने देता है, अनमना-सा रहता है और थोड़े-थोड़े अंतराल में वो अपनी नाराजगी जाहिर करता रहता है। पता नहीं किसी और के साथ ऐसा होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ हमेशा ही घर का ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब कभी बाहर से लौटकर घर आओ तो घर स्वागत नहीं करता है, अलगाया-सा बना रहता है, अजनबी और पराया-पराया-सा...बड़ी मुश्किल और मशक्कत करने के बाद वो सुलह करता है, इसीलिए बचपन से ही मुझे घर को नाराज करने में डर-सा लगता रहा है, शायद यही वजह रही हो कि मुझे घर से बाहर जाना पसंद नहीं आता... बल्कि यूँ कहूँ कि लौटकर आने पर घर का आहत होना पसंद नहीं है। इसीलिए दुनियादार के अतिरिक्त और कोई वजह नहीं होती कि घर को यूँ अकेले छोड़कर जाया जाए... अपनी छुट्टियों को उसके साथ शेयर करते रहना, उसके गुनगुनेपन में खुद को छोड़ देना, उससे संवाद करना और उसकी ऊष्मा में नहाना पसंद है, इसलिए छुट्टियों में घर से निकलना पसंद नहीं है। मुझे पता नहीं किसी को ये लगता हो या न लगता हो, लेकिन मेरे लिए घर महज भौतिक ईकाई नहीं है, ये मेरे वजूद का अभिन्न हिस्सा है, जो कहीं भी रहो, साथ मौजूद रहता है, किसी-न-किसी रूप में, न हो तो स्मृति के रूप में ही...जो बार-बार अपनी ओर खिंचती है।
मैं थक गई थी, क्योंकि वो चुप था। मैं भी चुप हो गई... लेकिन उसकी चुप्पी से अपराध-बोध और गहरा गया। चाय का आखिरी घूँट लिया और आसमान की तरफ देखते हुए सोचने लगी कितनी कृत्रिम रोशनी है कि तारों की टिमटिमाहट तक नजर नहीं आती। मैं शायद उसके कुछ कहने का इंतजार भी कर रही थी, कुछ विरोध करने सा कुछ। उसने कहा था – हाँ, ऐसा होता तो है, लेकिन मैंने कभी उसे बहुत गंभीर तरीके से नहीं लिया था... होता है ना अमूमन हम अपने भीतर के सूक्ष्म अहसासों के प्रति हमेशा ही लापरवाह और उदासीन बने रहते हैं, वैसा ही... तुम उस बारीक धागे को पकड़ लेती हो, क्योंकि तुम बेहद संवेदनशील हो, लेकिन यदि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ तो सोचो जिंदगी कैसे चलेगी...?
हाँ, जिंदगी कैसे चलेगी... – अनायास ही कह गई थी, लेकिन सच ही था, आखिर दुनिया में रहने के भी तो कुछ कंपल्शंस है ना। उसने मुझे नजर से दुलराया था, मैं आश्वस्त होकर फिर डूब गई थी, खुद में... सुरक्षा की ऊष्मा जो मिली थी।





01/07/2012

जया-पार्वती - 2



आखिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से विधिवत व्रत शुरू हो गए। समाज की धर्मशाला में जया-पार्वती को बैठाया गया। मिट्टी के हाथी पर शिव-पार्वती गेहूँ के जवारों के बीच छत्र के नीचे एक बाजवट (चोकोर पाटा) पर विराजे...। एक शाम पहले उसके खाने पर खासा ध्यान दिया गया। आज अच्छे से पेट भरकर खा ले, नहीं तो कल सुबह उठते ही भूख लगेगी। १२ बजे तक खाना तो दूर पानी-दूध-चाय तक नहीं मिलना है। इधऱ माँ रोजमर्रा के खाने में लगी हैं, उधर बा उसकी पूजा की थाली सजाने औऱ फई उसे सजाने में... माँ को जल्दी है कि रोजमर्रा का खाना निबटे तो किचन साफ कर उसका खाना बनाए। आखिर साफ-सफाई का तो खास ध्यान रखना पड़ेगा ना...! उपवास का मामला है, कुछ ऐठा-जूठा यहाँ-वहाँ न हो जाए।
साड़ी के हिसाब से उसका कद छोटा था। स्कूल के आखिरी साल तक वो प्रेयर में सबसे आगे ही खड़ी हुआ करती थी। कॉलेज में तो प्रेयर हुआ ही नहीं करती थी, इसलिए उसे पता ही नहीं... (पता नहीं किन सालों में उसका कद बढ़ा... बहुत बाद में जब शायद उसकी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का आखिरी साल था, उसकी एक सहेली ने उससे पूछा कि तेरी हाईट क्या है? और जब वो सोच में पड़ गई तो उसकी सहेली ने उसका खूब मजाक बनाया और पहली बार उसने ही उसकी हाईट नापकर बताई)। फई साड़ी पहना रही है... साड़ी को आधी फोल्ड कर पहनाने में बड़ी मुश्किल आ रही थी, फिर उसके नखरे भी कुछ कम नहीं थे... फई... यहाँ से तो ऊँची हो रही है और ये देखो... ये पोचका निकल आया है...। उसकी चोटियाँ बनाते हुए भी ... ये देखो, इस तरफ के बाल उस तरफ जा रहे हैं... या फिर बाल खिंच रहे हैं... फई उसके नखरों पर मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं।

पूजा की थाली भी तैयार हो चुकी थी और वो खुद भी...। माँ और बा दोनों घर में ही उसके खाने की तैयारी में लगी थीं। फई ने उसकी पूजा की थाली उठाई और आस-पास के घरों की दो-तीन लड़कियाँ भी अपनी-अपनी भाभी, माँ, चाची या फिर ताई को अपनी पूजा की थाली थमाए आगे-आगे मस्ती में चल रही थी। दीदी (फई के बेटी) ने फई से कहा... इसकी चाल तो देख... और सारे के सारे मुस्कुराकर रह गए, लेकिन उसके अंदर कोई काँटा-सा गड़ गया। रह-रह कर उसके अंदर ये सवाल धधकता रहता कि आखिर उसकी चाल में ऐसा क्या है, जिसे देखकर सारे के सारे मुस्कुराए...।
लगभग एक से डेढ़ घंटे तक पूजा चलती रही। पूजा के बाद सब अपनी-अपनी बेटियों को जल्दी घर ले जाने के चक्कर में लगे रहे, क्योंकि आखिर बेचारियाँ सुबह से भूखी-प्यासी जो है। घर पहुँचकर ही पानी नसीब होगा। घर में माँ और बा ने मिलकर उसकी थाली लगा दी, उसके अच्छे से टिककर बैठने की व्यवस्था कर दी। जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदले गए और तुरंत खाने पर बैठा दिया। ताऊजी सामने बैठ गए... अच्छे से कुरकुरी तलों पूरियों को... बेटा, खीर में शकर ठीक है या नहीं। वे बुआ से कहते हैं – ‘ऐसा कर यहीं एक गादी लगा दे, बेटा जितना अभी खाया जाए, उतना खा ले, फिर यहीं बिना हाथ धोए सो जा... फिर जब भूख लगे, तब फिर खा लेना...।‘ माँ मुस्कुराती है कह नहीं पाती, लेकिन वो समझती है, माँ कहना चाहती है – ‘ऐसा वरत किया ही क्यों जाए’ और वो जोर से खिलखिला पड़ती है (आज चाहे याद करते हुए उसकी आँखें भर जाती हो)। सुबह ही उससे पूछ लिया जाता कि शाम को कौन-सी मिठाई और फल खाने की इच्छा है? मिठाई... रसगुल्ला... अरे नहीं... रसगुल्ला थोड़ी खाया जा सकता है व्रत में... पता नहीं उसमें क्या सूजी-मैदा पड़ता हो... मिठाई तो मावे की ही खा सकती है बेटा... – माँ ने समझाया। ठीक है... तो आज मलाई बरफी। और फल... आम खाएगी ना? – ताऊजी पूछते हैं।
हाँ, खाऊँगी ना... तोतापरी... – वो कहती है। हट... तोतापरी खाएगी, लँगड़ा आने लगा है अच्छा... – ताऊजी कहते हैं। नहीं, मुझे वो ही पसंद है – वो जिद्द पर आ जाती है। पापा मुस्कुराकर कह देते हैं, ठीक है, दोनों ले आऊँगा, फिर खुद ही कहते हैं यार ये तोतापरी में तो अब कीड़े लगना शुरू हो जाते हैं। लेकिन लौटते तो साथ लँगड़ा भी होता और तोतापरी भी...।

वो सुबह के खाने पर बैठी है और भाई इधर-उधर गोते लगा रहा है, आखिर तो जिस भी घर में बहनें ‘वरत’ कर रही है, उस घर में भाइयों के भी तो मजे हैं। सुबह चाहे बहनों का बेस्वाद खाना नहीं खाया जाए, लेकिन शाम को तो बहन के लिए आने वाले फल, मिठाई और मेवों में से थोड़ा कुछ तो उन्हें भी मिलेगा ना...। शाम को जब बहनें ‘वरत’ की कथा सुनने जाती है, तब भाई भी उनके साथ हो लेते हैं और जब बहनें कथा सुनती हैं, सारी बहनों के भाई मिलकर बाहर इतनी धमाचौकड़ी मचाते हैं कि अंदर ना तो गोरजी महाराज को कथा कहने में मजा आता है और न ही ‘वरती’ बहनों को सुनने में...।

पता नहीं चला कि पाँच दिन कहाँ निकल गए। हाँ उन पाँच दिनों में उसका खास आदेश था, घर में खीरा नहीं आएगा... क्यों? उसे खीरा बहुत...बहुत...बहुत पसंद है और व्रत में खीरा नहीं खाया जाता है। छठें दिन सादा खाना खाया जाता है, लेकिन वो भी एक ही समय...। तो पाँचवे दिन सुबह से ही उससे ये पूछ लिया गया था कि कल क्या-क्या खाना है। मीठा तो वो पिछले पाँच दिन से खा रही थी, सो मिठाई को तो कोई सवाल ही नहीं था। नमकीन में भी पातरा (अरवी के पत्ते) और हाँ दाल-चावल...। और खीरा... बहुत सारा लेकर आना... वो पापा को आदेश-सा ही देती है। पापा मुस्कुराते हैं... माँ कहती हैं – ‘हाँ, हाँ बहुत सारा... खाया जाएगा नहीं कुछ भी।‘ वो बनावटी गुस्सा करते हुए कहती है – ‘आप तो बहुत सारी लेकर आना...बस...।‘
क्रमशः....

23/03/2012

नवीन का स्वागत है...



पतझड़ और वसंत साथ-साथ आते हैं। प्रकृति की इस व्यवस्था के गहरे संकेत-संदेश हैं। अवसान-आगमन, मिलना-बिछड़ना, पुराने का खत्म होना-नए का आना... चाहे ये हमें असंगत लगते हों, लेकिन हैं ये एक ही साथ...। एक ही सिक्के के दो पहलू, जीवन का सत् और सार दोनों ही... वसंत ऋतु का पहला हिस्सा पतझड़ का हुआ करता है... पेड़ों, झाड़ियों, बेलों और पौधों के पत्ते सूखते हैं, पीले होते हैं और फिर मुरझाकर झड़ जाते हैं। उन्हीं सूखी, वीरान शाखाओं पर नाजुक कोमल कोंपले आनी शुरू हो जातीं हैं, यहीं से वसंत ऋतु अपने उत्सव के चरम पर पहुँचती है।
फागुन और चैत्र वंसत के उत्सव के महीने हैं। इसी चैत्र के मध्य में जब प्रकृति अपने शृंगार की... सृजन की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, गुलाबी, नारंगी, नीले, सफेद रंग के फूल खिलते हैं। पेड़ों पर नए पत्ते आते हैं और यूँ लगता है कि पूरी की पूरी सृष्टि ही नई हो गई है, ठीक इसी वक्त हमारी भौतिक दुनिया में भी नए का आगमन होता है। नए साल का ... यही समय है नए के सृजन का, वंदन, पूजन और संकल्प का... जब सृष्टि नए का निर्माण करती है, आह्वान करती है, तब ही सांसारिक दुनिया भी नए की तरफ कदम बढ़ाती है। इस दृष्टि से गुड़ी पडवा के इस समय मनाए जाने के बहुत गहरे अर्थ है। पुराने के विदा होने और नए के स्वागत के संदेश देता ये पर्व है, प्रकृति का, सूरज का, जीवन, दर्शन और सृजन का। जीवन-चक्र का स्वीकरण, सम्मान और अभिनंदन और उत्सव है गुड़ी पड़वा। तो हम भी प्रकृति के इस उत्सव को मनाएँ... सूरज का अभिनंदन करें और गर्मियों का स्वागत करें, आखिर जीवन भी तो एक तरह का ऋतु-चक्र है... सुख-दुख, धूप-छाँह, सर्दी-गर्मी का... गुड़ीपड़वा पर आनंद-वर्षा हो... बस यही है शुभकामना...

12/02/2012

पाँच गज़लों का फासला


दिन बड़ा ही अजीब-सा गुजरा था। बेवजह ही बहस हो गई, वो भी महिलाओं की हमारे समाज में दशा और दिशा पर...। यूँ तो महिलाओं को और महिलाओं के दुख कम नहीं है, लेकिन हम पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपने दुख का अहसास बड़ी शिद्दत से होता है। हालाँकि ये भी जरूरी नहीं है कि हर पढ़ी-लिखी महिला को हो... सुशील होने का तमगा शायद हर चीज से बड़ा होता होगा... तभी तो... या फिर ग्रूमिंग ही इस तरह से होती है कि उनकी जिंदगी से जुड़ी छोटी-छोटी बातें बहुत महत्वहीन होती है, या फिर उनका ‘स्व’ दुनिया की बाकी सारी छोटी-बड़ी बातों की तुलना में बहुत महत्वहीन होता हो.... तो बात तो महज इतनी सी थी कि महिलाओं को ये तय करना चाहिए कि उनके जीवन की प्राथमिकताएँ क्या हो...? परिवार या फिर वो खुद...। गोया कि उनका होना ही उनके पारिवारक जीवन की सबसे बड़ी बाधा हो.... :-( । नहीं, बहस ऐसे नहीं शुरू हुई थी, लेकिन खत्म इसी नोट पर हुई। इसके बीच इस बात का अहसास भी कि आपका होना समाज के लिए कितना ही अहम क्यों न हो.... हमारे लिए नहीं है, हमारे साथ की शर्तें जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी.... इसमें फेरबदल की सूत भर भी गुंजाइश नहीं है, आपको सूट नहीं करता है तो बेहतर है आप शादी ही न करो....। देर तक दिमाग झनझनाता रहा.... फिर दिमाग से इस बात को झटकने की कोशिश भी की, ये सोचकर कि जिस ‘बेचारी’ महिला के लिए मैं बहस कर रही हूँ, शायद उसे तो अपनी स्थिति से कोई शिकायत ही नहीं है और फिर वो बेचारी तो ये जानती तक नहीं है कि कोई एक कितनी शिद्दत से उनके लिए लड़ रहा है... तो फिर सारा उद्वेलन तो बेकार ही है ना...! लेकिन जो कुछ अस्तव्यस्त हुआ है उसे तो व्यवस्थित होने में समय लगेगा ना... इस बीच अपने भी ‘औरत’ होने की बेचारगी फिर उभर आई...। और साथ ही सार्त्र याद आ गए, जो कह गए कि – ‘प्यार में प्रिय पात्र को वस्तु बनाने का षडयंत्र रचा जाता है।‘ काम तो था, लेकिन उद्विग्नता ने एकाग्रता छिन ली थी और आज का काम कल पर छोड़कर घर की राह पकड़ ली थी। स्थिर करने के लिए म्यूजिक प्लेयर ऑन कर लिया था। दफ्तर से घर तक का फासला पाँच गजलों का है, यदि रास्ते के तीनों सिग्नल क्लियर हो तो... नहीं हो तो आधी गज़ल का फासला और बढ़ जाता है।
शुरुआत ही बहुत उदास-सी गज़ल कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद से हुई थी.... गाड़ी रिवर्स की फिर गियर बदला और आगे बढ़ा दी। शाम हो चली थी, बसंत के लिहाज से मौसम थोड़ा ज्यादा ठंडा था। बंद खिड़की से गाड़ी चलाने का अनुभव ठीक सनग्लास लगाने जैसा होता है, इसलिए बहुत मजबूरी के अतिरिक्त गाड़ी का ड्राइविंग सीट वाला शीशा खुला ही होता है। देखना जो आसान होता है। मन तो किया कि कहीं किसी सुनसान में गाड़ी खड़ी करके एक गहरी साँस ली जाए और चीखकर रो लिया जाए... लज़्ज़ते सजदा-ए-संगे दर क्या कहें/ होश ही कब रहा सर झुकाने के बाद... रूलाने के लिए काफी था, लेकिन हाय रे शहर की मजबूरियाँ...। लगा बड़ा मौजूं शेर है... ‘बिचारी’ औरतों के लिए.... । सर झुका लिया है तो अब होश में आने से बाज़ आ जाओ....।
चौराहे पर अगली लेन में जाने के लिए गाड़ी रूकी तो देखा तीन छोटे बच्चे गर्म कपड़े पहने एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए सड़क पार कर रहे हैं। लगा कि ये फोटो का विषय हो सकता है, मोबाइल के कैमरे को ऑन करने से पहले ही तीनों गाड़ी के पास से निकल गए और पीछे खड़ी गाड़ी का कर्कश हॉर्न चीख पड़ा.... अशआर मेरे यूँ तो जमाने के लिए हैं.... गज़ल शुरू हो चुकी थी....। कितनी अच्छी कंपोजिशन है, किसकी होगी और ये मुकेश ने ज्यादा गज़लें क्यों नहीं गाई.... कुछ और बेहतर मिलता सुनने के लिए.... पीछे छूट गया था दिन... अभी घर आगे था... फिलहाल तो सफर था। सोचो तो बड़ी चीज है तहजीब बदन की/ वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं.... शेर कितना खूबसूरत है, लेकिन ये जांनिसार अख्तर के दौर का सच है... अब तो ये पुराना हो गया है। क्या वाकई कोई चीज कालजयी हो सकती है....? कल रात कागज़ के फूल एक बार फिर देखने की कोशिश करने के दौरान उठा सवाल फिर से टकराया... हर रचना का अपना समय होता है, समाज और समाज के मूल्य बदलते ही रचना की प्रासंगिकता भी बदल जाती है। याद आया सुबह आते हुए गाना चल रहा था – एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की... क्या ये आज का सच हो सकता है? जिस दौर में भौतिकता परम धर्म हो....!
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं.... चल रही थी। इत्तफाक से दूसरे सिग्नल पर गाड़ी रोकनी पड़ी... चिढ़ तब आई, जब राइट साइड जाने वाली गाड़ी भी लेफ्ट साइड वाली लेन में खड़ी थी और सिग्नल चालू होते ही, उसकी हड़बड़ी अपनी लेन मे पहुँच जाने की थी, इस हड़बड़ी में वो तो निकल गया और सिग्नल फिर से ऑफ हो गया। गज़ल का आखिरी शेर चल रह था, देखिए मेरी पज़ीराई को अब आता है कौन/ लम्हा भर को वक्त की दहलीज पर आया हूँ मैं... कहाँ से आते हैं ये अहसास और ये अशआर... हताशा की एक लहर, उपर की तरफ चढ़ने लगी। और फिर गुलाम अली ने सरगम शुरू कर दी, दुखती रग में और दर्द उभर आया...। अबकी जैसे ही सिग्नल क्लियर हुआ, तुरंत गाड़ी आगे बढ़ा ली, हालाँकि लेफ्ट साइड से आने वाली सड़क से राइट जाने वाले वाहनों ने आधा रास्ता रोके रखा था, फिर भी हम तो निकल गए... लगा कि सारी दुनिया ही हड़बड़ी में है। वैसे भी अक्सर जब हमें जल्दी होती है तो लगता है कि सारी दुनिया ही आज जल्दी में हैं।
तब तक दिल को ग़म-ए-हयात गवारा है इन दिनों/ पहले जो दर्द था, वही चारा है इन दिनों शुरू हो गई थी। चित्रा की आवाज चाहे जगजीत के साथ सूट नहीं करती हो, लेकिन उनकी गज़लों में भी दर्द तो उभरता ही है...। एकाएक ये तलब उठी कि ये गाड़ी मेरे कमरे में तब्दील हो जाए... ठंडा, अँधेरा-सा कमरा... नए-पुराने, याद आते और भूले हुए, मजाज़ी और हक़ीक़ी सारे दर्द-तकलीफें धुआँ-धुआँ होकर कमरे में बिखर जाए और ऐसे ही दम घुट जाए... इससे बेहतर मौत और क्या हो सकती है...? लेकिन अचानक मौत की याद क्यों आई है...। तीसरा और अंतिम सिग्नल... बस बंद हुआ ही जा रहा था कि हमने गाड़ी को रफ्तार दे डाली। बिना रूके अपनी राह हो लिए... हरिहरन शुरू हो चुके थे, तब तक... खुद को बेहतर है सराबों में भटकता देखूँ/ वरना वो प्यास है मर जाऊँ तो दरिया देखूँ। बस ऐसे ही मौत की याद आई थी। लगा कि सब कुछ एक दिन खत्म हो जाना है, प्रेम-घृणा, अच्छाई-बुराई, सफलता-असफलता, पाप-पुण्य, तेरा-मेरा, खुशी-दुख... रिश्ते-नाते और सारी भौतिकताएँ... एकाएक बड़ी राहत लगी। ठीक वैसे, जैसे एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा... लगा कि बस थोड़ा ही तो सहना है। हालाँकि बहुत बेवकूफाना है, लेकिन बहुत राहत देने वाला था ... एक दिन मैं इस सबसे आजाद हो जाऊँगी, जो आज मुझे तकलीफ दे रहा है... मुक्त... स्वच्छंद...। थोड़ा-सा जाम लगा था... तो जाहिर है कि छठी गज़ल शुरू होनी ही है। आशा का आलाप-सा खत्म हुआ और ... रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए/ कुछ याद रही कुछ भूल गए.... सारी उद्विग्नता, बेचैनी, हड़बड़ाहट, चिढ़ और गुस्सा सब कुछ झर गया-सा महसूस हुआ... लगा कि मरने के बाद शायद ऐसी ही मुक्ति का अहसास होगा... :-) हल्कापन हवा में भी महसूस हुआ... घर आ गया था।

15/12/2011

ज़हन और दिल पर क़ाबिज बाज़ार



रात को कितनी ही जल्दी क्यों न करें सोते-सोते 11.30 हो ही जाती है, लिहाजा सुबह जब नींद खुलती है तो सूरज खिड़कियों पर दस्तक दे रहा होता है। कुमारजी श्याम बजा बाँसुरिया सुना रहे होते हैं और चाय के प्याले के साथ सुबह के अखबार हुआ करते हैं, जिनमें ज्यादातर निगेटिव खबरें होती हैं...। लगभग हर सुबह का यही क्रम हुआ करता है। और हर दिन की शुरुआत अखबारों में छपी खबरें और विज्ञापन देखते-देखते मन के उद्विग्न हो जाने से होती है। यूँ लगता है कि या तो दुनियाभर में बस सब कुछ गलत ही गलत हो रहा है या फिर लगता है कि हमारे आसपास बस अभाव ही अभाव है... सुबह पूरी तरह नकारात्मकता से पगी हुई, तो दिनभर का आलम क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
अच्छा खासा बड़ा, खुला, रोशन और हवादार घर है, लेकिन अखबार में छपने वाले फ्लैट के लुभावने विज्ञापन अहसास दिलाते हैं कि साहब आपके पास तो वॉकिंग जोन, स्विमिंग पुल, कम्युनिटी हॉल वाली टाउनशिप में कोई फ्लैट नहीं है औऱ यदि वो नहीं है तो फिर आपके जीवन में एक बड़ा अभाव है। स्लिमिंग सेंटर के विज्ञापनों में एक हड्डी की मॉडल देखकर लगता है कि कमर और पेट पर कितनी चर्बी चढ़ रही है और ब्यूटी पार्लरों के विज्ञापन चेहरे पर उम्र के निशान दिखाने लगते हैं किसी कॉस्मेटिक सर्जन के विज्ञापन पढ़कर चेहरे की सामान्य बनावट में कमी नजर आने लगती है और कभी लगता है कि यदि डिंपल होता तो शायद चेहरा खूबसूरत होता... किसी सेल का विज्ञापन घरेलू सामानों के अभाव को तो कपड़ों के विज्ञापन नए डिजाइन, पैटर्न आदि के कपड़ों का अभाव अलग तरह के मन को उदास करता है, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, म्यूजिक सिस्टम, गाड़ी, एयरकंडीशनर, मोबाइल, लैपटॉप आदि यदि नए भी खऱीदे हो तो लगता है कि टेक्नॉलॉजी पुरानी हो गई है। तो चाहे घऱ के किसी भी कोने पर नजर डालों बस कमियाँ ही कमियाँ नजर आती हैं...। यूँ लगता है जैसे जीवन में कमियों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। कभी-कभी तो विज्ञापन ये भ्रम तक दे डालते हैं कि हो ना हो, हमें कोई-न-कोई बीमारी जरूर है। और ये सिलसिला रूकता ही नहीं, अखबार से शुरू होकर दफ्तर तक और दफ्तर से घर लौटकर रात को टीवी देखने तक ये बदस्तूर जारी रहता है।
घर से दफ्तर के बीच एक पूरा लंबा-चौड़ा बाजार पसरा हुआ है जिनमें सामानों की शक्ल में अलग-अलग आकार-प्रकार-रंग और पदार्थों के सपने टँगे होते हैं। आते-जाते ये सपने आँखों में उतर जाते और जिंदगी बस इन्हीं सपनों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती सी लगती है। चौराहे के सिग्नल पर जब गाड़ी खड़ी थी, तभी पास में मायक्रा आकर रूकी... कितनी खूबसूरत गाड़ी है...! एक ठंडी आह निकली। शो-रूम पर हर दिन आते-जाते मेजेंटा रंग की ड्रेस पर ध्यान अटकता और हर दिन वो सपना जमा होता चला जाता है, बल्कि हर दिन कोई नया सपना साथ आता है। इनमें से कई पूरे किए, लेकिन ये फेहरिस्त कम होने का नाम ही नहीं लेती। इंटरनेट पर सर्फ करो तो पेंशन प्लान से लेकर गर्ल फॉर डेंटिंग तक और डायमंड ज्लैवरी से लेकर निवेश के विकल्पों को सुझाने वाले विज्ञापन... टीवी पर डिटर्जेंट से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक और टीवी से लेकर बैंकिंग तक हर चीज का विज्ञापन शाम का समय खा जाता है... गोया बस हर जगह बाजार लगा हुआ है, खरीदो-बेचो... खरीदो-बेचो...।
कभी-कभी तो अपना आप भी बाजार का ही हिस्सा लगने लगता है। आखिर तो किसी भी वक्त खुद को बाजार से बाहर निकाल पाने की मोहलत ही नहीं मिलती है। हर वक्त कोई न कोई जरूरत की चीज याद आती है, कोई न कोई कमी, कोई न कोई सपना... क्या हम उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिनिधि उदाहरण हैं? कभी-कभी तो लगता है कि सोते-जागते, हँसते-गाते, खाते-पढ़ते... पूरे समय दिमाग पर बाजार ही हावी रहता है। हो भी क्यों न...! यदि हम घर पर भी रहे तो अखबार, टीवी और इंटरनेट हर जगह बाजार पसरा मिलता है। लगता है कि एक पल को भी बाजार से मुक्ति नहीं है। देखते ही देखते बाजार न सिर्फ हमारे घरों तक आ पहुँचा है, बल्कि इसने हमारे उपर कब्जा कर लिया। अब बस खऱीदने और पुरानी चीजों को निकालने के अतिरिक्त और कोई विचार होता ही नहीं है, लगता है कि बस खऱीदो-बेचो, खऱीदो-बेचो यही है जीवन का ध्येय...।
दिसंबर मध्य में जब सर्दी ने अपनी आमद दर्ज करवा दी है। रात में हल्की धुँध-सी महसूस होती है और रजाई की गर्माहट शिराओं को और मेहंदी हसन की किसी अँधेरी खोह से आती आवाज में – मेरी आहों में असर है कि नहीं, देख तो लूँ... के तल दिमाग के तंतु जब शिथिल होने लगे, तब एक होशमंद विचार कौंधा कि बाजार असल में होश पर ही नहीं, बल्कि जहन और दिल तक पर काबिज़ हो गया है तभी एक सवाल उठा तो क्या बाजार से मुक्ति नहीं हैं?
जवाब मेरे पास नहीं है, क्या आपके पास है!

06/11/2011

रास्ते में यूँ ही...!


अपनी गाड़ी खराब होने के दौरान बस के समय को साधने और किसी वजह से बस छूट जाने के बाद बस या ऑटो का इंतजार करना कैसा होता है, ये वो ही समझ सकता है, जिसे ये करना पड़े। जब कभी ऐसा होता तो लगता कि काश कोई महिला अपनी टू-व्हीलर या फिर कार में हमें मुख्य सड़क तक लिफ्ट दे दें, माँगना अपने राम को कभी आया ही नहीं। किसी को अपनी कोई चीज ही दी हो, चाहे उपयोग करने के लिए, उधार (ये तो सिर्फ पैसा ही दिया जाता है) या फिर उपहार में... जरूरत पड़ने पर माँगने में जैसे हमारी ही जान निकल जाती है, तो अब खड़े हुए बस या ऑटो का इंतजार करेंगे, लेकिन लिफ्ट... वो तो नहीं होना। ऐसे ही किसी समय में ये तय किया कि अब अपनी गाड़ी में हम उन महिलाओं और लड़कियों को लिफ्ट देंगे जो हमारे जाने के रास्ते में कहीं भी जाना चाहेंगी। दी तो लड़कों-पुरुषों को भी जा सकती है, लेकिन इसमें बड़ा झंझट है... कई सारे पेंच हैं।
हुआ ये कि जिस दिन ये तय किया उसके बाद कभी ऐसा मौका आ ही नहीं पाया। कभी हम निकले तो बस सामने खड़ी थी, जिसमें चढ़ने के लिए कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती लड़कियाँ इंतजार कर रही थी, तो कभी पूरे परिवार के साथ महिला खड़ी थी, तो कभी एकसाथ इतनी लड़कियाँ खड़ी बतिया रही थी कि उन सारी की सारी को गाड़ी में बैठाने की गुँजाइश ही नहीं थी, कुछ और नहीं तो खुद हमें ही इतनी हड़बड़ी होती थी कि गाड़ी रोककर ये पूछना तक समय जाया करना लगता कि – कहाँ जाना है, मैं छोड़ देती हूँ। देखिए नीयत भी हो, इच्छा भी... लेकिन नसीब...! उसका क्या...?

पता नहीं सब कुछ बड़े आराम से करने, सुबह की पूरी दिनचर्या को विलासिता के साथ शब्दशः निभाने और फेसबुक पर लपककर जुगाली करने के बाद भी जल्दी तैयार हो गई। लगा कि आज गाड़ी को भी थोड़ा दुलरा दिया जाए। धूप खासी थी फिर भी कपड़े का एक झटका इधर मारा, एक झटका उधर मारा और ऊब होने लगी तो लगा कि सेल्फ मारे और चलें काम पर। भई देर से जाओ तो शर्मिंदा होओ... जल्दी जाने में कैसी शर्म...? वहाँ पहुँचकर थोड़ा पढ़ने का समय ज्यादा मिल जाएगा। तो दफ्तर के लिए निकल पड़े। आज... हुई मन की...। मुख्य सड़क पर एक दुबली-पतली, छोटे कद की लड़की जींस-टीशर्ट पहने, सिर सहित मुँह को स्कार्फ से ढँके खड़ी थी... हमने गाड़ी रोकी और फिल्म चढ़े दूसरी तरफ वाले शीशों के अंदर से झाँका... लेकिन लड़की ने तो कोई भाव ही नहीं दिया। हम थोड़े आहत हुए, लेकिन तुरंत ध्यान आया... उस बेचारी दिखाई ही नहीं दे रहा होगा... तो थोड़ा झुककर शीशा उतारा... – कहीं छोड़ दूँ? आवाज तो क्या पहुँच रही होगी... बस उसने ही कुछ अपने से समझ लिया... वो करीब आई... मुस्कुराई और कुछ बुदबुदाई। जैसे उसने मेरी बात बिना सुने समझ ली... मैंने भी समझ ली...। दरवाजा खोला और वो अंदर आ बैठी। थोड़ी सकुचाई-सी वो बैठी रही...मैंने पूछा पढ़ती हो (क्योंकि स्कार्फ से चेहरा ढँका होने पर उसका स्टेट्स कि काम करती है या पढ़ रही है, पता नहीं चलता है, फिर बात करने के लिए कोई तो बात हो...)?
उसने कहा – हाँ।
मैंने पूछा – कहाँ?
उसने जवाब दिया – जीडीसी...
ओह तो फिर तो मैं तुम्हें वहाँ तक छोड़ सकती हूँ। वो तो मेरे ऑफिस के रास्ते में ही है। - मैंने उत्साह में आकर कहा।
उसने कहा – मुझे लगा कि आपको दूसरी तरफ जाना होगा।
कहाँ रहती हो से लेकर, क्या पढ़ रही हो तक की सारी बातें हुई। मैंने उसका नाम भी पूछा, लेकिन उसने सिर्फ मेरा सरनेम पूछा और ब्राह्मण पाकर कुछ खुश भी हुई (स्कार्फ बँधे होने की वजह से उसका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उसकी आवाज की चहक से मुझे ऐसा अनुमान हुआ)। एक-दो बार मन हुआ कि उससे कहूँ कि अब तो गाड़ी के अंदर हो, स्कार्फ हटा सकती हो... लेकिन कह नहीं पाई। उसका कॉलेज आ चुका था, अब तक भी उसने स्कार्फ नहीं हटाया था। गाड़ी रूकी तो उसने कहा – थैंक्स मैम, नाइस टू मीट यू...।
मैंने भी उसे कहा – सेम हियर... बाय। वो कॉलेज के अंदर चली गई और मैं अपने रास्ते... । विचार चल रहा था, यही लड़की यदि अगली बार कहीं मिली, चाहे स्कार्फ के साथ या फिर बिना स्कार्फ के... मैं उसे नहीं पहचान पाऊँगी...। फिर सवाल उठा कि मैं उसे पहचानना ही क्यों चाहती हूँ। कभी... दिखे तो लगे कि किसी दिन इस लड़की को मैंने उसके कॉलेज छोड़ा था...। फिर प्रतिप्रश्न – और ऐसा क्यों चाहती हो...? कोई जवाब नहीं मिला...। फिर इन कबाड़ से सवाल जवाब में से एक नायाब निष्कर्ष निकला। ‘अच्छा ही हुआ जो लड़की ने अपना स्कार्फ नहीं हटाया। यदि भविष्य में वो कहीं मिली तो पहचान का कोई चिह्न ही नहीं होगा, मेरे पास इससे ये अहसास भी नहीं होगा कि कभी इसे इसके कॉलेज तक लिफ्ट दी थी...कोई बेकार का अहंकार भाव नहीं उभरेगा... वाह!’ कुछ ऐसा लगा जैसे बाल कटवाने पर, या फिर हर दिन ले जाने वाले बैग की सफाई कर बेकार चीजों को निकाल दिया हो, या फिर कमरे या अलमारी की सफाई कर कबाड़ निकाल दिया हो और सब कुछ हल्का, खुला-खुला और बड़ा-बड़ा-सा लग रहा हो।
फिर विचार उठा, लेकिन वो तो मुझे पहचानती है ना...! हाहाहा.... तो ये उसकी समस्या है:-)

19/09/2011

चार खूँटों से बँधी जिंदगी...!


सलीका - उठते ही सोने से फैले बालों को बाँधने के क्रम में वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और कंघी उठाकर बालों में गड़ाते हुए जैसे ही उसने आईना देखा… ऊब की लहर ऊपर से नीचे और हताशा की लहर नीचे ले ऊपर की तरफ दौड़ी। हर दिन वही चेहरा... उसी तरह की नाक, वही आँखें... सब कुछ वैसा ही, वहीं... उफ्! उसे अपने दिन का मूड समझ आ गया। वो वहीं स्टूल पर धपाक से बैठ गई। उसी हताशा में उसने एक बार फिर अपने चारों ओर नजरें दौड़ाई... हर चीज उसी जगह, कई दिनों से... बल्कि कई सालों से हरेक चीज है अपनी जगह ठिकाने से... सलीके से... । एकाएक उसे लगा कि ये सलीका ही उसकी परेशानी है। मन किया... सब कुछ को हाथ से फैला कर तितर-बितर कर दे। कुछ उठाकर जमीन पर पटक दे... कुछ... कुछ ऐसा करे जो उसे बदला सा महसूस कराए... लेकिन... लेकिन ये दिमाग। करो... कर ही डालो... फिर बिसूरते हुए समेटना भी तुम ही...।

नफासत - दफ्तर जाते हुए – वही रास्ता, सालों से वही… और वहीं दुकानें, पेड़, सड़क यहाँ तक कि गड्ढे तक... पता होता है कहाँ गाड़ी धीमी करनी है और कहाँ गियर बदलना है। इतनी उकताहट कि लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते रहे... शायद आसपास की दुनिया एकाएक बदली हुई-सी दिखे, लेकिन ये हो ही कैसे। कई बार उसे लगता है कि क्यों नहीं वो खुद ही अपने आप को बदल डालती? थोड़ा हेयर-स्टाइल बदल ले और थोड़े कपड़ों का स्टाइल... खुद भी काफी बदली नजर आएगी... लेकिन क्या ये बदलाव अच्छा होगा...? लीजिए सलीके के बाद दूसरी समस्या आ खड़ी हुई... नफासत...!

विश्वास - दफ्तर में वही जद्दोजहद... वही जगह, एक ही से चेहरे, वैसे ही एक्सप्रेशन्स और उसी तरह की बातें...। हर जगह सब कुछ इतना जाना पहचाना कि आँखें बंद कर यदि हाथ बढा़ओ तो जो हाथ आए वो परिचित चीज निकले...। उफ्....! यहाँ क्या वो खुद बदलाव नहीं कर सकती? कुछ नए लोगों से दोस्ती करे, कुछ नए लोगों को जानें, उनसे बातें करें... उनकी दुनिया में झाँके कुछ पात्र, कुछ कहानी, कुछ अनुभव उठा लें... लेकिन... लेकिन क्या ये इतना आसान है! एकाएक परिवर्तन से कईयों की भौहें तनेगी... फिर इसमें भी कौन दोस्ती के लायक है और कौन नहीं? किससे आपकी वेवलेंथ मैच करेगी और किससे नहीं... ये सब जानते-जानते पता नहीं किस ट्रेप में फँस जाए...। आखिर तो झटकना भी कहाँ आसान है, उसके लिए...? तो एक और समस्या या संकट... विश्वास का...!

सुविधा - शाम ढलते हुए ऑफिस से लौटना... 15 मिनट उपर हो या फिर 10 मिनट नीचे... सड़कों के हाल एक-ही से...। रोशनी का एक-सा जमावड़ा, ट्रेफिक जाम, हर दिन जैसा शोर। पटरी पार कर सड़कों को घरते ठेले, पुलिसवालों की मशक्कत-चिढ़ और खीझ...। उसी तरह की मनस्थिति... फिर से वही सब कुछ घर पहुँचकर... चाय या फिर कॉफी...। बनाना, खाना, टीवी देखना, टहलना, दिन भर का राग दोहराना...। अच्छे-बुरे पढ़ने को दोहराना। किसी अच्छे अनुभव को सुनाना-सुनना। छाया-गीत तक रेडियो के करीब पहुँच जाना। ज्यादातर उद् घोषक के बुरे चुनाव पर खीझना या फिर किसी अच्छे गाने को इत्मीनान से सुनने के चक्कर में घड़ी कि टिक-टिक को नजरअंदाज कर देना और फिर सोचना उफ् आज फिर देर...। सोते हुए जिस भी तरफ सिर करो... कमरे की हर चीज जानी पहचानी लगती है। कभी पूर्व तो कभी पश्चिम में सिर की दिशा रखी और नजरों को हर एंगल पर घुमा लिया... बदला कुछ भी नहीं... सब कुछ वैसा ही नजर आया। क्यों नहीं ऐसा कर लेती कि किसी शाम टीवी छोड़ दें... देर रात तक सड़कों पर आवारगी करते रहे या फिर गहरे गाढ़े अँधेरे को ओढ़कर किसी मीठी-सी धुन में खुद को डूबने-उतरने के लिए छोड़ दें। छाया-गीत का लालच छोड़ दे या फिर सुबह की चिंता छोड़ दे... देर रात तक अपनी फूलझड़ियों, छालों, फूलों और काँटों का हिसाब करते रहे... या फिर घड़ी को ताक पर पटककर समय को अँधेरे में से गुजर जाने दे...। नहीं होता, बहुत सोचते रहो तब भी नहीं होता... देर से सोए तो सुबह देर से उठेंगे या जल्दी उठ गए तो दिन भर काम करना मुश्किल होगा... फिर वही क्रम दोहराया जाएगा आखिर यहाँ मसला अ-सुविधा का है...।

वह सोचती है कि जिंदगी के चारों कोनों को खूँटे से बाँधने के बाद स्पेस, आजादी और चेंज की ख्वाहिश करना कितना हास्यास्पद है ना...! चाहना-चाहना-चाहना... अपने कंफर्ट ज़ोन में बैठकर सिर्फ चाहने से क्या बदलेगा? बदलने के लिए उसे तो छोड़ना ही पड़ेगा ना... तो...?

11/09/2011

दो कप भावना और आधा कप बुद्धि...!


यूँ गणपति स्थापना को चार-पाँच दिन हो चुके थे। आते-जाते अकाउंट्स डिपार्टमेंट के बाहर की रौनक-सजावट नजर आ ही जाती थी, सुबह-शाम गणपति की आरती का प्रसाद भी संपादकीय विभाग में आ जाता था। गणपति की स्थापना यूँ तो संपादकीय विभाग में भी हुई थी, लेकिन ये अलग बात है कि न तो वे कहाँ विराजे हैं, ये नजर आता था और न ही ये कि आरती कब होती है और कौन करता है। शायद संपादकीय के कर्मचारी अपनी कथित बुद्धिजीविता का प्रदर्शन कर रहे हों। जो भी हो, हमारे विभाग में ऐसी कोई हलचल नहीं है। तो ऑफिस में तो त्योहार का कोई भी निशान नजर नहीं आ रहा था।
अकाउंट्स के प्यून ने हमें भी आरती में शामिल होने का न्यौता दिया। याद आया... गणपति मंडप की कितनी खूबसूरत सजावट की गई है, लेकिन अभी तक हमने वहाँ जाकर नहीं देखा। चलो इसी बहाने देख पाएँगें। शाम की आरती का समय... थोड़ा धुँधलका-सा हो चला है। विचार की चकरी चल रही है, आरती के लिए समय का निर्धारण भी कितना सोच-विचार कर किया गया है ना...! दिन-रात के संधि समय में जब दिन विदा हो रहा हो और रात के आगमन की तैयारियाँ हो रही हो... जरा फर्लांग भर की ही तो दूरी है... नहीं! दिन-रात में नहीं... संपादकीय और अकाउंट्स विभाग की बिल्डिंग्स के बीच...। तो उस सजे हुए मंडप में अगरबत्ती की भीनी-भीनी सी खुश्बू, घंटी, करतल और सामूहिक कंठ स्वर... एक-सी लय और दीए की लौ...। आरती की आवाज सुनकर एक-एक कर लोगों का उस मंडप में आना... अद् भुत माहौल... लगातार दिमाग, विचार, तर्क औऱ बुद्धि से घिरे हुए हम जैसे लोगों के लिए ये माहौल बड़ा जादुई है। एक-सी ताल में जय देव जय देव जय मंगलमूर्ति... के बीच कहीं अंदर कुछ सोया हुआ जाग गया... तर्क पर आस्था की चादर उतर आई है और विचार अगरबत्ती के धुएँ के साथ हवा में विलिन हो गए... रह गई वो खुशबू जो तर्कहीन, विचारहीन औऱ बहुत हद तक अबौद्धिक है। लौटे तो बहुत हल्के और तरल होकर... सारा ‘मैं’ कहीं गल गया, झर गया...।


वहाँ से निकले तो लगा जैसे अपने प्राकृतिक क्षेत्र से निकल कर किसी दूसरे की जमीन पर आ खड़े हुए हैं। लगा कि असल में भावना इंसान में इनबिल्ट होती है और तर्क विकसित होते हैं। इस दृष्टि से भावना प्रकृतितः हमारी विरासत है, लेकिन तर्क हम बोते, पनपाते और फिर सजाते सँवारते हैं। जन्म से ही भावना हममें होती है, लेकिन बुद्धि या तर्क का विकास उम्र के साथ होता चलता है। थोड़ा आगे चलें तो भावना संस्कृतियों की वाहक है और तर्क सभ्यताओं के...। थोड़ा और आगे बढ़े तो इस विचार तक (फिर विचार...!) पहुँचते हैं कि सभ्यताओं ने बाँटने का और संस्कृतियों ने जोड़ने का काम किया है। तर्क सिर्फ मानवता को ही नहीं बाँटते हैं, बल्कि इनका काम व्यक्तित्व तक को विखंडित करना है। हम जान ही नहीं पाते कि कब तर्क या बुद्धि हमें खंडित कर देते हैं। फिर बुद्धि का लाभ क्या? क्योंकि अक्सर ये पाया जाता है कि बुद्धि ही हमारे दुख का कारण है। ज्यादातर हमारी खुशियों का आधार भावनाएँ हैं...। तो फिर जीवन में भावना और बुद्धि या तर्क का कांबिनेशन कैसा होना चाहिए ...! डोसे के घोल के प्रपोशन जितना... दो कप भावना (चावल) और आधा कप बुद्धि (दाल)...। सही है ना...!

12/08/2011

बड़े नोट-सा दिन... रेजगारी-सी रात...!


दिन तो महीने के अंत में पगार की तरह फटाफट खर्च हो जाता। आखिर में हथेली में फुटकर.. रेजगारी की तरह रात बच जाती है। सब कुछ खर्च करने के बाद बची रेजगारी कितनी कीमती होती है ये तो खत्म हुई सेलैरी के बाद ही जाना जा सकता है। तो बची हुई रेजगारी को दाँत से पकड़ते हुए हर रात किफायत बरतने की जद्दोजहद के साथ आती और फिसल जाती है। बचाते-बचाते भी फिजूलखर्ची हो ही जाती थी।
उस रात दिन भर की दुनियादारी झड़ गई थी औऱ रात खालिस होकर उतरी थी। पूनम की तरफ बढ़ता चाँद अपनी रूठी चाँदनी से रात को रोशन करने की कोशिश ही कर रहा था कि न जाने कहाँ से भूरी-लाल बदली ने उसे अपनी आगोश में समेट लिया था। रात गाढ़ी हो चली थी, न चाहते हुए भी एक-एक कर सिक्के खर्च हुए जा रहे थे। अचानक जैसे आखिरी बचे चंद सिक्कों की कीमत का खयाल आ गया हो और मुट्ठी तो पूरी ताकत से भींच लिया...। बाहर बारिश जैसे सितार के तारों को छेड़ रही थी और अंदर रेडियो भी जैसे राग नॉस्टेल्जिया बजा रहा हो। घर आजा घिर आए, बदरा साँवरिया... यादों के कबाड़ से कुछ बहुत ही मजेदार चीजें निकल आईं जैसे - बचपन में मोटी रही लड़की का नाम भाइयों ने मोटा आलू कर दिया और उसकी शादी तक हम सब उसे मोटा आलू ही कहते रहे, इसी तरह मोटी-नाक वाले लड़के का नाम भजिया आलू रख दिया और बाद में दोनों के नामों को एक साथ इस्तेमाल करते हुए मोटा आलू और भजिया आलू कह-कह कर चिढ़ाते रहते... घिर-घिर आई बदरिया कारी... यादों की पिटारी में कई सारी कबाड़ है, कई तो ऐसी कि उसे हाथ लगाते ही कहीं अंदर काँटे गड़ने लगे। सुनाते-सुनाते ऐसी हँसी चली कि हँसते-हँसते आँसू ही आ गए... गुजरा जमाना बचपन का... बाँहें गर्दन के नीचे से गुजरी, प्यार और आश्वासन की थपकी दिमाग के सनसनाते हुए तंतुओं पर एक गति से पड़ने लगी, दिमाग थोड़ा-सा शिथिल हुआ... एक-एक कर सिक्के खत्म होते जा रहे हैं... रेडियो बजा रहा है शराबी-शराबी ये सावन का मौसम... बस यूँ ही-सा एक विचार आया... कितना भी सुख हो, कितना भी दुख... आखिर तो एक दिन सब खत्म होना ही है... एक दिन तो मर ही जाना है... तो फिर ये स्साली जिंदगी सही क्यों नहीं जाती है...?
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ... कहते हैं कि कितनी भी जरूरत हो एक सिक्का हमेशा बचा कर रखना चाहिए, उसे बरकती सिक्का कहते हैं, फिर वही रात है, फिर वही रात है ख्वाब की... तो एक दिन सब कुछ के खत्म हो जाने के विचार के बाद भी उस आखिरी सिक्के को हथेली में मुट्ठी भींच कर बचा लिया कि कल फिर से नई शुरुआत होगी... बरकत बनी रहेगी...।

26/01/2011

ये दुनिया ऊँटपटाँगा....


हम अपने पड़ोसी के कुत्तों और रेडियो दोनों से परेशान रहते हैं... दिन में जोर-जोर से रेडियो बजता है और रात में जोर-जोर से कुत्ते भौंकते हैं। मतलब दिन-रात की परेशानी... ड्रायवर इसलिए परेशान है कि वो गाड़ी साफ करता है और कुत्ते आसपास मँडराते हैं और गंदा कर देते हैं। वो थोड़ा है भी विशेष... महीने के बीच में ही घोषणा कर दी कि – बस अगले महीने और आपके साथ काम करूँगा... फिर मैं आपके साथ काम नहीं कर पाऊँगा।
लगा कि एकाएक बड़ी मुसीबत में आ फँसे। पूछा – क्यों भाई?
जवाब मिला – कुछ खास नहीं बस अब मैं ड्रायवरी करना ही नहीं चाहता।
एक बार और कुरेदा... तब भी जवाब वही मिला। हमारा ईगो भी ऐंठ में आ गया। ठीक है, डेढ़ महीना है, हम ही सीख लेंगे गाड़ी... थोड़ा ठंडा हुआ तो... ठीक है जैसे पहले जाते थे, वैसे ही जाएँगें, ऊँ..ह..ह शहर में ड्रायवरों की कोई कमी तो है नहीं...एक ढूँढों तो हजार मिलेंगे... साहब हो रहे हैं ड्रायवरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे... पढ़े लिखे हैं क्या कि कहीं और कोई और काम मिल जाएँगें... आदि-आदि...। शाम को घर पहुँचकर जो खबर सुनाई तो एक बार फिर धमक सुनाई दी। फिर वही सवाल, वही जवाब... मान लिया, भाई छोड़ेगा ही। तीन-चार दिन बाद जब हमारे ईगो की ऐंठन कम हुई तो फिर प्यार से फुसला कर पूछा। जवाब ने जैसे आसमान से गिरा दिया।
जवाब मिला – मैं छुट्टी नहीं ले पाता हूँ।
लेकिन हमने तो कभी आपको छुट्टी के लिए इंकार नहीं किया।
हाँ, लेकिन आप छुट्टी के पैसे नहीं काटते हैं ना, तो मैं छुट्टी नहीं ले पाता हूँ। राजेश और मैंने एक-दूसरे को चौंक कर देखा... इसका क्या? याद आया पिछले चार महीनों में अपनी बीमारी और पिता की मौत पर वह 15-15 दिनों की छुट्टी ले चुका था, उसे छुट्टी के पैसे देने के पीछे भी हमारी सोच कोई मानवतावादी या फिर सहानुभूतिपूर्ण नहीं थी। बस जो हमें मिलता है, हम उसे आगे बढ़ा रहे थे। मतलब हमारे अपने वर्क प्लेस से हमें भी साल भर में कुछ निश्चित छुट्टियाँ मिलती है, तो हमें लगा कि उसे भी कुछ तो मिलना ही चाहिए... बस... लेकिन... खैर...। प्रस्ताव राजेश की ओर से आया – ठीक है ऐसा करते हैं, जब भी आप छुट्टी लोगे हम उसका पैसा नहीं देंगे और सन-डे को यदि हमने बुलाया तो हम उसका पैसा देंगे, चलेगा...?
वो खुश... अब मैं काम कर सकता हूँ। चलिए एक बड़ी समस्या हल हुई। इस बीच गाड़ी चलाना सीख लेने की उसकी रट कम नहीं हुई और आखिरकार चलाना सीख ली... अब ये बात अलग है कि उसकी अनुपस्थिति में सड़क पर गाड़ी दौड़ाने का साहस अभी तक नहीं आ पाया है, हाँ उसके होते ही आत्मविश्वास आसमान पर होता है।
जनवरी गुजर रहा है। संस्थान में हर कोई कुछ-न-कुछ सूँघने की कोशिश कर रहा है। छोटी-से-छोटी घटना का एक ही निष्कर्ष निकलता है अपरेजल... क्यों नहीं भई आखिर अप्रैल जो आ रहा है।
घर से निकले ही थे कि साथी का फोन आया पिछले साल हुए अपरेजल को लेकर बहुत सारा असंतोष उँडेलने और इस बार भी यदि ठीक नहीं हुआ तो संस्थान को छोड़ देने की परोक्ष चेतावनी देते हुए उन्होंने ये जानने चाहा कि – छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के... अमीर खुसरो का ही है ना! मैं हिंदी के विकास पर एक राइट-अप तैयार कर रहा था।
हाँ, अमीर खुसरो का ही लिखा हुआ है।
ओके, थैंक्य यू... फोन काट दिया गया।
सिग्नल पर गाड़ी रूकी तो लगा कि ड्रायवर कुछ कहना चाह रहा है। उसने एक बार फिर झटका दिया – भाभीजी आपको और सरजी को ये लगता होगा ना कि मुझे बहुत कम समय के काम के लिए बहुत ज्यादा पैसा दिया जा रहा है?
जवाब ही नहीं सूझा... क्या दें, हड़बड़ाए... – अरे नहीं, हमारे पास काम ही इतना है क्या करें?
इसीलिए तो मैं चाह रहा था कि आप चलाना सीख लें, जरा-सा ही तो चलाना है। क्या है कि मुझे बड़ी शर्म आती है कि मैं इतना-सा काम करता हूँ और इतना पैसा लेता हूँ।
हम भी तब तक संभल गए – बल्कि तो यदि किसी दिन हम आपको दिन भर के लिए बुलाते हैं तो हमें लगता है कि आज दिन भर आपको परेशान किया।
जवाब मिला – उल्टा मुझे तो खुशी होती है, कि चलो आज के लिए आप जो देंगे उतना काम तो कम-से-कम आज मैंने किया...।
ये हैं हमारे ड्रायवर श्रीमान गोपाल कुशवाह... और एक ये हैं
नोटिस बोर्ड पर लगे नए नोटिस को पढ़ने के लिए लगातार लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। थोड़ी भीड़ छँटी तो हम भी वहाँ पहुँचे। संस्थान के कर्मचारियों के लिए प्रबंधन ने निशुल्क योग प्रशिक्षण क्लासेस की व्यवस्था की है। ये ऐच्छिक है, आप चाहे तो काम के घंटों में से ही समय निकाल कर सीख सकते हैं। इस पर हमारे साथी की टिप्पणी थी – ये भी अच्छा है। योग सीख लो, अपनी शारीरिक क्षमता बढ़ाओ और फिर गधों की तरह यहाँ का काम करते जाओ...।
हमारी समझ में ये नहीं आया कि इस पर हँसे कि रोएँ....पड़ोसी ने फिर से ऊँची आवाज में अपना रेडियो चालू कर दिया है... इस बार कैलाश खैर गा रहे हैं – ये दुनिया ऊँटपटाँगा, कित्थे हत्थ तो कित्थे टाँगा..... चक दे फट्टे...
हमें लगा सही है... नहीं क्या?

26/11/2010

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं...


कार्तिक की आखिरी शाम... आसमान पर बादलों की हल्की परतों के पीछे चाँद यूँ नजर आ रहा था, जैसे उसने भूरे-सफेद रंग का दुपट्टा डाल रखा हो... फिर हर दिन बादलों, फुहारों और बारिश के बीच निकलता रहा... अगहन में सर्दी की तरफ बढ़ते और सावन-सा आभास देते दिन... अखबार बताते हैं कि ये गुजरात में आए चक्रवात का असर है... देश में कहीं कुछ होता है तो असर हमें महसूस होता है, कभी हिमालय पर गिरी बर्फ से शहर ठिठुरने लगता है तो कभी दक्षिण में आए तूफान से यहाँ बरसात होती है। और इन सबके पीछे भी दुनिया के किसी सुदूर कोने में हुआ कोई प्राकृतिक परिवर्तन होता है, तो क्या पूरी सृष्टि... ये चर-अचर जगत किसी अदृश्य सूत्र, कोई तार... किसी तंतु... या फिर किसी तरंग से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? होगा ही तभी तो कहाँ क्या घटन-अघटन होता है और उसका असर कहाँ पड़ता दिखाई देता है, चाहे दिखाई दे या न दें... । ये बहुत सुक्ष्म परिवर्तन हैं और लगातार स्थूलता की तरफ बढ़ती हमारी दुनिया इन सुक्ष्म परिवर्तनों को देख तो क्या महसूस भी कर पाएगी... ? ... हम तो रोजमर्रा में हमारे आसपास होते बारीक और बड़े परिवर्तनों के प्रति ही अनजान होते हैं... या फिर उन्हें देखकर अनदेखा कर देते हैं, तो ये सृष्टि की विराटता में घटित होता है, जिसकी एक बूँद का 100 वाँ हिस्सा ही हम तक पहुँचता होगा।
कभी ये फितूर-सा रहा था कि अपने हर कर्म के अर्थ तक पहुँचें... लेकिन फिर वही... अपनी संवेदनाओं, समझ, समय और ज्ञान की सीमा आड़े आ गईं और धीरे-धीरे तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा होते चले गए। फिर भूल ही गए कि यूँ हर चीज के होने का एक अर्थ है, उद्देश्य है, महत्व है, अब ये अलग बात है कि हमें वो नजर नहीं आता है।
फिर भी प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी जैसा बार-बार महसूस होता है, कि आकंठ डूबने के बाद भी हमारे अंदर कुछ ऐसा होता है, जो खुद को सूखा बचा लेता है.... पाता है तो वो हमें ‘वॉर्न’ करता रहता है कि दुनिया की हर चीज हम देखें ना देखें, महसूस करें ना करें हमें, हमारे जीवन, हमारे कर्म... अनुभव और आखिर में हमारे स्व को प्रभावित करता है... इस दृष्टि से हर साँस, हर घटना, अनुभूति, हर वो इंसान जो हमारे संपर्क में आता है... हमें कुछ सिखाता है... कुछ समझाता है... समृद्ध करता है, चाहे उसका होना... घटना क्षणिक क्यों न दिखता हो, उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और प्रभाव बहुत स्थायी होते हैं।
याद आते हैं... सिलिगुड़ी से दार्जिलिंग की यात्रा में मिले वे कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे... तीन दिन की यात्रा की थकान... सुबह से फिर ट्रेन का सफर... खाने का सामान खत्म और तेज भूख... हर स्टेशन पर खाने जैसे ‘खाने’ की तलाश... नहीं मिलने पर निराशा ... और फिर सामने आई पराँठें-सब्जी को वो प्लेट.... कहीं कौंधा था – इस दुनिया में हमारा लेना-देना स्थायी रहता है, किसी-न-किसी रूप में फिर से हमारे सामने होता है, समय और देश की सीमा के परे... चाहे अगले-पिछले जन्म पर विश्वास न हो, लेकिन ऐसे किसी समय में महसूस होता है, कि ये जो अजनबी हैं, जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले... शायद कभी नहीं मिलेंगे, हमारे जीवन में किसी भी रूप में आए हैं तो इसका कोई सूत्र कोई सिरा कहीं न कहीं हमसे जुड़ा है, हमारे जीवन, हमारे अनुभव या फिर हमारे भूत-भविष्य से, न मानें फिर भी अगले-पिछले जन्म से भी जुड़ा हो सकता है... ये अलग बात है कि वो हमें नजर नहीं आता है। तो कहीं कुछ भी होना बेकार नहीं होता, चाहे वो बुरा हो... वो हर अनुभव, सुख-दुख, पीड़ा, घटना, परिवेश, सपने, चाहत, ठोकरें, उपलब्धि हो या फिर कोई इंसान... जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक होता है, घटता है... हरेक चीज का एक अर्थ होता है, यदि दुख होता है तो भी और सुख होता है तो भी... हमें समझाता है, बचकर चलना, डूबकर जीना सिखाता है... समृद्ध करता है, वक्ती उत्तेजना या टूटन के बाद भी हम खुद को कदम-दो-कदम आगे की ओर पाते हैं... खासतौर पर दुख... पीड़ा... वेदना.... क्योंकि जैसा कि धर्मवीर भारती ने लिखा है
सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यही पीड़ा, यह कुंठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिसका कोई अर्थ नहीं।
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं