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25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।

16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





31/07/2013

पत्तों के आँसू


सावन लगा तो नहीं था, लेकिन बारिश लगातार हो रही थी। मौसम की मेहरबानी और बेहद अस्त-व्यस्तता भरे ‘लंबे’ हफ्ते के बाद शांत और क्लांत मन... पूरी तरह से सन्डे का सामान था...। ऐसे ही मौकों पर हम अपने आस-पास को नज़र भरकर देख पाते हैं, जी पाते हैं। घर भर पर नज़र मारते हुए ऐसे ही छत के गमलों पर नज़र गई थी। वो बड़े-बड़े पत्तों वाला पौधा एकदम खिल और हरिया गया था। मौसम ने भी तो बड़ी दरियादिली दिखाई है ना...
‘ये इनडोर प्लांट है ना...?’
‘हाँ’
‘तो इसे तो ड्रांईंग रूम में होना चाहिए...’
‘वहाँ, ले चलते हैं।’
वो पौधा ड्रांईंग रूम के कोने में आ पहुँचा था। मन उसे देख-देखकर मुग्ध हो रहा था। हफ्ते के व्यस्तता भरे दिनों में भी आते-जाते उस कोने को देखना खुश कर दिया करता था। सप्ताह की शुरुआत के दो दिन तो ऐसा मौका ही नहीं मिल पाया कि उसके करीब बैठा जा सके। इस बीच एक दिन जरूर उस पौधे के पास की जमीन बड़ी गीली-गीली-सी लगी। नज़र उठाकर छत को देख लिया, कहीं ऐसा तो नहीं छत से पानी टपक रहा हो, आखिर तो महीने भर से लगातार हो रही बारिश को कोई भी सीमेंट कब तक सहन करेगी, लेकिन छत भी सूखी ही थी, फिर लगा कि शायद पास की खिड़की खुली रह गई हो, बौछारें भीतर आ गई हो...। अमूमन काम के दिनों में दिमाग इतने झंझटों में फँसा हुआ करता है कि घर की छोटी-मोटी चीजों पर ध्यान ही नहीं जाता है। उसी शाम बाहर की तेज़ बारिश के बीच घर पहुँची तो सरप्राइसिंगली गर्मागर्म कॉफी का मग इंतजार कर रहा था। अपने कॉलेज के दिनों में कहीं पढ़-सुन लिया था कि कॉफी पीने से दिमाग का ग्रे-मैटर कम हो जाता है और वो काम करना कम कर देता है। यूँ ही दिल हावी हुआ करता है, इसलिए कॉफी से दूरी बना ली थी, पसंद होने के बावजूद...। इसलिए जब बिना अपेक्षा के आपकी पसंद की कोई चीज़ मिल जाए तो इससे बड़ा सरप्राइज और क्या होगा...? खैर तो कॉफी का कप था, विविध भारती पर पुरानी गज़लों का कोई प्रोग्राम चल रहा था, बिजली गुल थी और बारिश मेहरबान...। कोने के उस पौधे के पास ही आसन जमा लिया था, गज़ल के बोल और बारिश की ताल... कुल मिलाकर अद्भुत समां था। अचानक बाँह पर पानी की बूँद आ गिरी थी। फिर से छत को देखा था... आखिर ये पानी आया कहाँ से? खिड़की की तरफ भी नज़र गई थी, उसके भी शीशे बंद थे। फिर सोचा वहम होगा... लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही...। इस बार कोने वाले पौधे को गौर से देखा... उसके सबसे नीचे वाले पत्ते पर पानी जमा था... और तीन-चार पत्तों के नोंक पर पानी की बूँद टपकने की तैयारी में थी... अरे... ये क्या? ये पौधा पानी छोड़ रहा है। जब इसे छत से ला रहे थे तो गमले में भरे पानी को भी निकाल दिया था, लेकिन हो सकता है कि मिट्टी में अब भी इतनी नमी हो कि अतिरिक्त पानी तने से गुज़रकर पत्तों की नोंक से डिस्चार्ज हो रहा हो...। इंटरनेट पर देखा तो इस पौधे को आमतौर पर एलिफेंट इयर या फिर Colocasia esculenta के नाम से जाना जाता है।
कितना अद्भुत है ना प्रकृति का सिस्टम... अतिरिक्त कुछ भी अपने पास नहीं रखती हैं, जो कुछ भी उसके पास अतिरिक्त होता है, वो उसे ड्रेन कर देती है, डिस्चार्ज कर देती है। बारिश के पानी से भरा हुआ लॉन सामने पसरा नज़र आया...। समझ आया कि प्रकृति का सारा संग्रहण हमारे लिए है... कुछ भी वो अपने लिए नहीं रखती है और फिर भी उसके संग्रहण की एक सीमा है? जाने विज्ञान का सच क्या है? लेकिन प्रकृति उतना ही ग्रहण करती है, जितने कि उसको जरूरत है... जितना वो संभाल पाती है। इतना ही नहीं, इंसान को छोड़कर बाकी जीव-जंतु भी... बल्कि तो इंसान के शरीर का भी सच इतना ही है... पेट भरने से ज्यादा इंसान खा नहीं सकता है... बस मन ही है जो नहीं भरता... किसी भी हाल में नहीं भरता है, ये होता है तो कुछ और चाहने लगता है, कुछ ओर हो जाता है तो और कुछ चाहने लगता है... और खत्म होने तक यही चाहत बनी रहती है। और चाहतों का बोझ लिए ही इंसान इस दुनिया से विदा हो जाता है... मरते हुए भी बोझ से छुटकारा नहीं होता... तो फिर सवाल उठता है कि क्या हम कुछ सीखेंगे प्रकृति से....!


01/05/2013

मई दिवस, मार्क्स और बचपन

कोई-कोई बचपना भी अजीब होता है... बहुत, बहुत अजीब। ये न बचपना कहलाता है और न ही परिपक्वता... जाने इसे किस कैटेगरी में रखेंगे... मई दिवस के मौके पर ये बचपना लगातार ज़हन पर दस्तक दे रहा है। इसे तब बचपना कहा जा सकता था, लेकिन आज क्या कहा जाए, ये सवाल भी परेशान कर रहा है।
जाने ये चेतना कब आई, लेकिन जब भी आई तब से मई दिवस एक खास दिन की तरह... किसी त्योहार की तरह लगता रहा है। बचपन के उन दिनों में इस दिन कुछ नया और खुशनुमा फील होता रहा... अब भी होता है... जैसे कुछ बहुत-बहुत अपना हो, निजी... बेहद पर्सनल। तब जाने कैसे समझ ने मई दिवस का संबंध मार्क्स के जन्मदिन से जोड़ लिया था। मार्क्स... जब नहीं जानती थी, तब ईश्वर-तुल्य हो गए थे... क्यों, न तब समझी, न अब...। शायद बचपना इसी को कहते होंगे। पूँजीवादी परिवेश और ‘प्रवत्ति’ (या फिर उपभोगवादी प्रवृत्ति ज्यादा सटीक होगा, लेकिन प्रकारांतर से बात तो वही होगी ना!)... पूरी तरह से नहीं, लेकिन हाँ, इससे खुद को अलग दिखा पाऊँ, ऐसा नैतिक साहस नहीं पाती, तब भी मार्क्स, जाने कैसे हीरो हो गए थे...। तब तो ये भी नहीं जाना था कि आखिर ये हैं कौन और मार्क्सवाद बला क्या है? अब सोचती हूँ तो कोई ऐसा टर्निंग पाईंट नहीं पाती, जहाँ से इस इंसान से पहला परिचय हुआ हो... बस, याद आता है तो इतना कि जिस उम्र में लड़कियों को जवान और खूबसूरत लड़कों के प्रति फेसिनेशन हुआ करता था, उस उम्र में मुझे मार्क्स और मार्क्सवाद फेसिनेट करने लगा था। और सच पूछें तो आज भी उस आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाई... अब भी व्यवस्था पर चलती बहस को अक्सर मार्क्सवाद की रिलेवेंसी पर कनक्लूड करती हूँ। यूँ मई दिवस या मजदूर दिवस का मार्क्स से कोई सीधा संबंध नहीं है, सूचना में सही है, लेकिन चेतना में तो वही है... मई दिवस मतलब मार्क्स का आह्वान... फिर वही बचपना...।
फिर लेनिन, चे, कास्त्रो और ह्युगो रियल हीरोज की लिस्ट में शामिल होने लगे और इंस्पायरिंग हीरो के तौर पर निकोलाई बुखारिन, ट्रॉटस्की, अंटोनियो ग्राम्शी, जॉर्ज लुकास और पूँजीवाद और अमेरिका विरोध करते हुए नॉम चोमस्की भी लिस्ट में आ गए। हर वो अंतर्राष्ट्रीय घटना, जिससे मार्क्सवाद का क्षरण हुआ, उसने निराश किया और हर वो घटना जिससे उस बुझती आग में चिंगारी भड़की उसने मुझे उत्साह से भर दिया। सोवियत संघ का पतन, पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद का खत्म होना और आखिर में इतिहास के अंत ही घोषणाओं और हाल ही में ह्युगो की मौत ने बुझा दिया और कास्त्रो का संघर्ष, लेटिन अमेरिका में ह्युगो शॉवेज का उदय... इटली, फ्रांस और जर्मनी के चुनावों में वामपंथियों की विजय के समाचार उत्साहित करते रहे। आज भी जबकि मार्क्सवाद सिर्फ विचारों में ही बचा है, जाने कैसे इसके हकीकत में ‘जिंदा’ होने की उम्मीद जिंदा है... भीतर। एक और बचपना...। लगता है इस बचपने से बुढ़ापे तक निज़ात नहीं है। मजदूर और मजदूरों से यूँ कभी कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन मार्क्स ने अपने विचारों से कोई सूत्र तो जोड़ा ही है... कुछ बातें जीवन भर रहती है, ज़हन में वैसी ही, जैसे बचपन में थी, उसी रंग-रूप-आकार में... कुछ को हम वैसे ही सहेजना भी चाहते हैं... बस इस बात के साथ कुछ ऐसा ही है। अब आप चाहे तो इसे भी कह सकते हैं … बचपना...

26/07/2012

भटक गए हैं, तो ठहर जाइए....


यूँ वो एक शांत-सी सुबह थी, चाहे इसकी रात उतनी शांत नहीं थी। गहरी नींद के बीच सोच की कोई सुई चुभी थी या फिर नींद दो-फाड़ हुई और घट्टी चलना शुरू हो गई थी, कुछ पता नहीं था। बस यूँ ही कोई अशांति थी, जो नींद को लगातार ठेल रही थी। फिर भी... रात हमेशा ही नींद की सहेली हुआ करती है, इसलिए ना जाने कैसे उसने चुपके से दबे पाँव नींद को भीतर दाखिल करवा दिया नींद आ गई थी।
गहरी उथल-पुथल, अस्तव्यस्तता औऱ अशांति के बीच शांति की चाह क्यों नहीं होगी...? ये कोई अनयूजवल ख़्वाहिश तो नहीं है... अब तक तो यही जाना था कि कुछ भी पाना लड़ कर ही संभव है, संघर्ष करने के बाद ही उपलब्धि हुआ करती है। शांति पाने के लिए संघर्ष किया, हर चीज को पाने के लिए जिस तरह करते रहे... उस दौर में सारी छटपटाहट शांति के लिए ही तो होगी। एकमात्र लक्ष्य शांति, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, कैसे भी... शांति... तो क्या शांति के लिए भी संघर्ष करना होता है...! सालों से शांति के लिए संघर्ष चल रहा है, चलता रहेगा... आंतरिक और बाहरी दोनों ही दुनियाओं में ... इसके परिणाम में होती है... गहरी और गहरी होती अशांति, फिर भी क्या शांति को पा सके...? नहीं... संघर्ष चलता रहा, लेकिन शांति को हाथ न आना था, नहीं आई...। अब सोचो तो कितना बेतुका है... अशांति में शांति के लिए जद्दोजहद... शांति के लिए संघर्ष... संघर्ष से पायी जाने वाली शांति की ख़्वाहिश... कितना बेतुका, कितना अतार्किक, कितना सतही... क्या वाकई संघर्ष से शांति तक पहुँचा जा सकता है...! कितनी बेतुकी बात है... शांति के लिए संघर्ष.... संघर्ष से पायी गई शांति की ख्वाहिश...! करते रहे हैं, अब तक… उतनी बेतुकी कभी लगी ही नहीं। ये अलग बात है कि संघर्ष करते हुए भी कभी शांति नहीं पा सके हैं। ऐसी मनस्थिति में, बुद्धि को नहीं आत्मा को थपकियों की जरूरत थी, इसलिए... उद्वेलन नहीं, बहने की जरूरत है....।

वो ऊब भरे दिन का अंतिम सिरा ही रहा होगा, जब टीवी पर कुछ भी ऐसा नहीं आ रहा था जो अच्छा लगे, जिसमें रूचि जागे... अंतिम विकल्प के तौर पर डिस्कवरी लगा दिया था। कोई कार्यक्रम चल रहा था, शुरू हो चुका था। बड़ा एक्साइटिंग लग रहा था। ब्रेक में पता चला कार्यक्रम का नाम था आय शुड नॉट बी अलाइव...। उस दिन डायना अपने पति टॉम के साथ एडवेंचर टूर पर गई थीं। रेगिस्तान के बीचोंबीच पहले गाड़ी खराब हो जाती है, फिर गाड़ी से पानी औऱ खाना निकालने के दौरान गाड़ी में आग लग जाती है। फिर शुरू होती है रास्ता भटकने और बाहर निकलने की कोशिश... उसमें क्या-क्या मुश्किलें आईं औऱ उससे कैसे निबटा गया... वो सब। कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात ये है कि ये उन्हीं की जुबानी होता है, जो उन परिस्थितियों से बाहर आ चुके होते हैं... एक बड़ी राहत... ।
केन, जॉर्डन, जिम, रॉजर, शैली, डैनियल, सारा, मिशेल.... हरेक.... जो कि एडवेंचर स्पोर्ट्स के शौकीन हैं उन्हें सबसे पहली हिदायत ये मिलती हैं कि यदि कहीं भटक गए तो जहाँ हैं, वहीं रूक जाएँ...।

आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा भी यही कहते हैं कि जिस चीज की ख्वाहिश हो, उसे छोड़ दो... उसके पीछे मत पड़ो। कुल मिलाकर बात ये है कि भटकाव, अशांति, दुख में ठहर जाना... कुछ न कर पाने की स्थिति में डूब जाना... सबसे सहज उपाय है। इसी तरह की मनस्थिति में यूँ ही कहीं से ओशो का कहा हाथ लग गया था। मौजूं था, क्योंकि उन्होंने शांति की ही बात की थी... “यदि शांति चाहिए तो उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा जाए... उससे तो अशांति ही उपजेगी ना...।“ लगा बात तो बिल्कुल सही है... शांति पाने के लिए जद्दोजहद... क्या ऐसा करके पाई जा सकती है, शांति...? उन्होंने कहा है कि यदि मैं अशांति के लिए तैयार हूँ तो फिर मुझे कौन अशांत कर सकता है? दुख के लिए तैयार हूँ तो फिर कौन दुखी कर सकता है? जब तक हम सुखी होना चाहेंगे तो दुख ही भाग्य होगा।
मतलब जो भी है, उसमें डूब जाएँ..., छोड़ दें खुद को... बिना प्रतिरोध-विरोध और प्रयासों के... साधने की जरूरत है खुद को, लेकिन ये अनुभव सिद्ध है कि ये दलदल है, जितने हाथ-पैर मारे जाएँगें, उतने ही धँसते चले जाएँगे, तो प्रतिकूलताओं में खुद को छोड़ देना, प्रतिकूलताओं को स्वीकार कर लेना, उसके भागीदार हो जाना अपेक्षाकृत अच्छा विकल्प है, संघर्ष करने की तुलना में।
हो सकता है दुनियादारी के नियम अलग हों, शायद होते ही हैं... भौतिक दुनिया में तो संघर्ष करके ही उपलब्धि मिलती है, जितना कड़ा संघर्ष, जितना ज्यादा परिश्रम उतना ही अच्छा फल..., लेकिन आंतरिक दुनिया के नियम अलग है, यहाँ तो धँसना पड़ता है, डूबना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है ग्राह्य-त्याज्य... सबको, तभी वो मिल पाएगा जो इच्छित है। मुश्किल है, लेकिन स्थापित है... क्या करें!

08/04/2012

कई मायनों में इंसान से बेहतर है जानवर....

सुबह जल्दी उठ पाओ तो दिन कितना संभावनाओं भरा हो जाता है... कोई टुकड़ा अपने लिए भी बचाया जा सकता है, किसी में सपने भरे जा सकते हैं और किसी हिस्से को बस यूँ ही हवाओं में उड़ाया भी जा सकता है... उस सुबह का वो ऐसा ही खास समय था। अखबार आस-पास सरसरा रहे थे, लेकिन विचार शून्यता की ही-सी स्थिति थी। निर्विकार भाव से आँखें हरेक चीज का जायजा ले रही थी, लेकिन इसमें न तो कुछ पा लेने की जल्दी थी न कुछ ठीक करना था और न ही कोई उद्विग्नता थी.... चाय के कप, अभी-अभी पढ़कर छोड़े पन्ने-पन्ने रखे हुए अखबार... खुली हुई चादरें, टेबल पर नई सीडी के रैपर, मुँह खोले पड़ा लैपटॉप और रात को पढ़ते-पढ़ते उल्टी कर रख छोड़ी किताब सिरहाने पड़ी थी। खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलस्सुबह की हल्की ठंडक भी... हर चीज जैसे उसी जगह के लिए बनी हुई थी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी, न आगे की योजना थी, वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूँ ही विचार तंद्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। तंद्रा भंग हो गई... नजरें टिक गईं। बँटने के लिए ही तो रोशनी और दिन हुआ करता है। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुँह में कपड़े का छोटा-सा टुकड़ा था, जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। करीब 40-45 सेकंड तक वो उस कोशिश में लगी रही... उसी दौरान एक और गिलहरी वहाँ आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं... ये क्रम भी 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी, वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं... कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियाँ को लेकर, एकबारगी ये विचार आया कि क्यों नहीं इसे कैमरे से शूट कर लिया जाए...! लेकिन कुछ सोचकर इस विचार को स्थगित कर दिया और नजरें पूरी तरह से वहीं गड़ा दी...। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही... फिर एकाएक वो कूलर के अंदर घुस गई और उसने अंदर से उस कपड़े को खींच लिया... मैं हतप्रभ... कितनी योजना, कितना सामंजस्य... कितनी समझ, कितना प्यार... और कितनी बुद्धि। विचारों के प्रवाह को जैसे एक झटका लगा था। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है, कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था...। मान लिया, भूल गए कि बारिश से पहले चींटियाँ अपना खाना जमा करती है, क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है, वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई सारे अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने 1958 में जापान के एक द्वीप पर एक मादा बंदर को आलूओं को धोकर खाते देखा था, बाद के सालों में उन्होंने ये पाया कि वहाँ के बंदरों की अगली पीढ़ी के बच्चों ने भी इसी पद्धति को अपनाया... तो क्या मादा बंदर का नवाचार उसकी बुद्धि का पता नहीं देता है? और क्या उसका अनुसरण जंतुओं में बुद्धि का पता नहीं देती है... ! याद आता है माँ का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बहुत बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊँगलियों औऱ अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते... वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूँढती रहती, कई बार वो हाथ पर चढ़ भी जाती है। कभी इस खेल को आगे बढ़ाने के लिए जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से उससे बाहर निकलने की जुगत लगा लेती... तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती...? बाद में अलग-अलग अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है, प्यार, संवेदना, समझ, अपनापन सब कुछ होता है...। भाषा भी होती है, अब ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के आपसी संबंधों को...। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हम इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है... जैसे बुद्धि...! लेकिन सही है, कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है... जाहिर है, तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी...। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है, और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुँचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश, प्रसार-फैलाव है, जो इस लालच और हवस की ही देन है, तो हुआ ना इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...:-(

01/04/2012

पिद्दी से हम... !

गर्मी बस शुरू हुई ही है, लेकिन लगता है जैसे देरी की सारी कोर-कसर पूरी कर लेगी। घर-दफ्तर का तनाव, गर्मी, रात की टूटी-फूटी, अधूरी-सी नींद से जो होना था, वो हुआ... माइग्रेन...। कामवाली काम छोड़ गई तो दर्द को सहलाने की लक्जरी की न तो सहूलियत थी और न ही गुंजाईश... काम निबटाकर टीवी के सामने आसन जमाकर खाना-खाने बैठे तो हाल ही में खोजे मूवी चैनल पर फिल्म चल रही थी, नोईंग...। फिल्म का नायक जोनाथन अपनी एस्ट्रोफिजिक्स की क्लास में थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म एंड थ्योरी ऑफ रेनडमनेस की चर्चा कर रहा था। थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म से मतलब है कि हरेक चीज तयशुदा है, और इसलिए हर चीज का कोई-न-कोई मतलब है। इसके उलट है थ्योरी ऑफ रेनडमनेस... इसके अनुसार किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं है और ये सृष्टि पूरी तरह से इत्तफाक पर चल रही है। आँखें दर्द और टीवी की बदलती रोशनी से तन रही थी, लगातार सो जाने की इच्छा होने लगी थी, लेकिन फिल्म की शुरुआत ही इतनी शानदार लगी कि फिल्म छोड़कर सो जाने का विचार ही बुरा लगा था। आखिर तो फिल्म की शुरुआत में ही हमारी मुठभेड़ एक सिद्धांत, एक विचार से हुई है और बस इसीलिए तो पूरी दुनिया के कार्य-व्यापार में लगे रहते हैं... लेकिन हमारा शरीर हमारी इच्छाओं का गुलाम नहीं होता है, तो बड़े बेमन से ये सोचते हुई वहाँ से उठ खड़े हुए कि जब फिल्म की शुरुआत में ही ‘कुछ’ मिल गया है तो फिर मलाल किस बात का...! दर्द था, थोड़ी नींद और थोड़ी जाग्रति भी थी... कुल मिलाकर मस्तिष्क का कोई हिस्सा चैतन्य था...। वहाँ रोशन थी वो रात जब ना तो एस्ट्रोफिजिक्स था ना फिजिक्स का पी ही था, बस था तो एक अनगढ़-सा विचार... एक सवाल और बहुत सारी उद्विग्नता...। यदि हमारा होना तयशुदा है तो फिर हमसे जुड़ी हर चीज तय है... फिर हमारे करने, होने का मतलब ही नहीं है कुछ...। और यदि हम इत्तफाक से हैं तब भी हम क्या है? बस महज एक इत्तफाक... । जरा दूर से देखें तो लगता है कि सृष्टि के इस विराट में हमारी हस्ती ही क्या है...? महासागर में एक बूँद-सी... तो क्या बूँद और क्या उसका वजूद...। ये महासागर अनंतकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा, उसमें हमारा आना और जाना ठीक वैसा है, जैसा किसी एक फूल का खिलना और फिर सूखकर बिखर जाना... अनगिनत बूँदों में एक का होना न होना... कोई फर्क पड़ता है, यदि न हो तो... ! यदि सृष्टि के विकास-क्रम की दृष्टि से देखें तो शायद इतना भी नहीं... तो फिर हमें हमारा सब-कुछ इतना बड़ा क्यों लगने लगता है... ? क्या वाकई हम इतने ही हैं...! यदि हम इतने ही है तो फिर हमारा पूरा जीवन क्या है... क्या है हमारे संघर्ष-उपलब्धि, दुख-सुख, रिश्ते-नाते, जीवन-मृत्यु, उदात्तता-क्षुद्रता, प्यार-नफरत, ... क्या है, क्यों हैं और इनके होने का अर्थ क्या है? या तो ये सब इत्तफाक है या फिर ये बेवजह है...। दोनों ही स्थितियों में हमारे ‘स्व’ का अर्थ क्या होगा...? यदि ये इत्तफाक है तो फिर हम खुद भी इत्तफाक हैं और इत्तफाक की अपनी सत्ता क्या है? वो तो बस इत्तफाक से ही है ना... फिर हमारे होने के गुरूर की कोई वजह होनी ही नहीं चाहिए... और यदि ये बेवजह है तो फिर हमारा वजूद ही बेवजह है... तो इससे जुड़ी हर चीज बेवजह है। तो फिर ये स्वत्व-बोध तक बेवजह है... फिर कैसे इंसानी सुख-दुख सृष्टि से उपर, उससे भारी हो जाते है...? और क्यों...? शायद हममें उस विराट संरचना को देख पाने की काबिलियत, लियाकत ही नहीं है, इसीलिए हम अपने दुख-सुख में ही डूबे रहते हैं, या फिर चूँकि हममें ये कूव्वत नहीं है, इसलिए इन्हीं में डूबे रहना हमारे लिए श्रेयस्कर है... ! हम इतने ही हैं, सृष्टि की संरचना में होना ही महज हमारा एक योगदान है, हम इसमें न कुछ जोड़ते हैं और न ही कम कर सकते हैं। यही निराशा है, यही हमारे स्व की सीमा, यही बेबसी है और यही है हमारी क्षुद्रता... :-c