दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।