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25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।

16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





23/12/2010

बाबूजी धीरे चलना...


सुबह के क्रम के तहत अखबारों पर नजर डाली जा रही थी, खबरों को पढ़ने के दौरान तो इयरफोन लगाए ही जा सकते हैं। पास की कुर्सी पर आकर बैठे नए-नए भर्ती हुए रिपोर्टर ने हलो की, हमने भी गर्दन हिलाकर हलो कर दी और मशगूल हो गए अखबार देखने में...। थोड़ी देर बाद लगा कि शायद वो हमसे कुछ पूछ रहा है। हमने एक कान से फोन हटाया... – क्या सुन रही हैं मैम?
उसने सवाल किया तो बजाए जवाब देने के इयरफोन निकाल कर उसके हाथ में दे दिए। यूँ भी मजा तो खराब कर ही चुका था वह। गज़ल चल रही थी मुहब्बत करने वाले कम न होंगे... नहीं बेग़म अख़्तर नहीं मेंहदी हसन की आवाज में... अगर तू इत्तफ़ाकन मिल भी जाए... ये लाइन दोहराई जा रही थी। शायद तीन-चार दफा हो गया था, उसने धीरे से इयरफोन निकाल कर पूछा – कैसे सुन लेती हैं मैम आप इस तरह की चीजें? एक ही लाइन को कितनी देर से गाए चले जा रहे हैं हज़रत...।
हमने मुस्कुरा कर जवाब दिया सुकून मिलता है, डूबने का स्कोप होता है और... उसने तुरंत हमारी बात काटी – इतना समय किसके पास है?
हमने बहुत धीरज से अपने कंधे उचका दिए... गोयाकि उसकी बात एक नासमझ की बतकही हो... फिर खुद ही लगा पुरानी पीढ़ी के हो चले हैं, समय की कीमत ही नहीं जानते हैं, सच तो यह भी है कि दौड़ने की उम्र से आगे जा चुके हैं, फिर खुद को ठीक किया... नहीं, ये आज की पीढ़ी हैं, इन्हें न संगीत की समझ है ना शायरी की... हाँ शीला की जवानी या मुन्नी बदनाम हुई टाइप की चीजें ही इनके लिए ठीक है।
लेकिन ये समय का काँटा धँसा तो धँसा ही रह गया। शाम टीवी के आगे अपनी थाली लिए बैठे तो (कहा जाता है कि टीवी देखते हुए खाना नहीं खाना चाहिए, मोटे होने का डर बना रहता है, लेकिन समय का जुगाड़ कहाँ से करें? देखिए, हम भी कहने लगे कि समय कहाँ हैं?) दीपिका पादुकोण अपनी मनमोहिनी मुस्कान के साथ कहती दिखी - इंडिया को चाहिए सब कुछ लाइटनिंग फास्ट... लिजिए सब कुछ तेज गति से ही चाहिए...। ज्यादा सीसी और तेज पिकअप वाली गाड़ियाँ, तेज नेटवर्क वाली मोबाइल और इंटरनेट सर्विस, तेज गति की फिल्में औऱ संगीत, छोटे लेख और कहानियाँ, तेज घटनाक्रम वाले उपन्यास, जल्दी और ज्यादा नाम-दाम देने वाला रोजगार, जल्दी और तेज तरक्की देने वाली एमएनसी... सुपर फास्ट ट्रेनें, फास्ट फूड, तेज रफ्तार जेट और पता नहीं क्या-क्या... बस जिंदगी तेज दौड़ रही है, दौड़... दौड़... और बस दौड़... तेज दौड़... आखिर कहाँ जाना है इतना तेज दौड़कर, जानता तो कोई कुछ नहीं, लेकिन ‘आसमान गिरा’ की तर्ज पर सारे-के-सारे दौड़ रहे हैं... बचपन भर खरगोश और कछुए की कहानी पढ़ी-सुनी, लेकिन आजकल लगता है कछुआ होना गुनाह है, अपराध है, अभिशाप है... सोचकर ही मन कुछ खट्टा हो गया, लेकिन क्या धीमा जीवन इतना बुरा है? यदि ये इतना बुरा होता तो इटली के लेखक और फुटबॉलर कार्लो पेट्रिनी 1949 में स्लो मूवमेंट नहीं चलाते। इटली में मैकडोनल्ड्स के खिलाफ शुरू हुए इस मूवमेंट में स्लो फूड से लेकर स्लो पेरेंटिंग तक की बात कही गई है। आखिर सोचें कि जीना, महसूस करना तो लाइटनिंग फास्ट नहीं हो सकता है ना? पहली बारिश में रूखी-सूखी धरती पर नन्हीं-नन्हीं बूँदों के पदचाप से उठती धूल और सौंधी खुशबू को क्या लाइटनिंग फास्ट स्पीड से देखा और महसूस किया जा सकता है... सुबह के सूरज को धरती से आसमान की तरफ हौले-हौले जाते देखने की क्रिया तो तेज नहीं हो सकती है। फूलों का खिलना, शाम का ढलना, मौसम का बदलना ये सब आहिस्ता-आहिस्ता होने वाली घटनाएँ हैं, जब प्रकृति किसी किस्म की जल्दी में नहीं है तो फिर हमें क्यों होना चाहिए? धीरे-धीरे अपने आस-पास को जानना, जीना-निहारना, जज़्ब करना न सिर्फ अपने परिवेश को जानना है बल्कि अपने अंदर बीजारोपण करने जैसा है। आखिर तो जीवन जीने के लिए है, आऩंद लेने के लिए, महसूस करने, खुश होने औऱ खुश करने के लिए है ना...। मशीन की तरह तेज गति से ना तो जीवन का आनंद लिया जा सकता है और न ही कुछ महसूस किया जा सकता है तो फिर बाबूजी धीरे चलना...