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23/08/2014

लिखे नहीं जाते हैं रंग...

रंग उड़ाना चाहती है, रंग भरना भी, गाना भी और लिखना भी... मन हुलसता है उसका आँखों पर छाए आसमानी आसमान और उस पर तैरते भूरे-सांवले-सफेद बादल... उमगाते हैं, रंगों को पकड़ने के लिए, मचलती है, लेकिन दूर चले जाते हैं सारे रंग... उसकी जिद्द है समेटने की... सहलाने की, उसमें डूबने और रंगों को खुद में डूबा लेने की... रंग... हर तरफ जो बिखरे हैं। समंदर वाला नीला, मिट्टी के खिलौने बेचती छोटी लड़की के लहंगे वाला बैंगनी, फूल लिए घूमती लड़की के कुर्ते-सा पीला, आसमानी नीला, फाख्ता के रंग-सा भूरा... मोर के पंखों-सा नीला-हरा... बरसात वाला हरा, सुबह वाला सिंदूरी, दोपहर वाला सुनहरी, शाम वाला उदास सांवला, रात वाला गहरा सुरमयी... पत्तियों वाला हरा, गुलमोहर वाला लाल, अमलतास वाला पीला, गुलाबों वाला गहरा गुलाबी, नींबू वाला पीला... खुद के दुपट्टे सा सतरंगा... बस रंग ही चाहती है, पकड़ना, फैलाना, बिखेरना, लिखना...डूबना... डुबो देना... मगर लगता है कि उससे सारे रंग रूठे हुए हैं।
वो सोचकर उदास हो जाती है, सारे रंग उसकी आँखों की कोरों को छूकर गुजरते हैं, दिमाग के खाँचों में उतर जाते हैं... वो हाथ पकड़कर थाम लेना चाहती है, मन में उतारकर बिखेर देना चाहती है। कभी उसे भ्रम होता भी है, कि उसने थाम लिए हैं, भर लिए हैं मुट्ठी में... फैला दिए है जैसे फैलाते हैं रंग किए दुपट्टे... सूखने के लिए। खुश हो जाती है... झूमने और नाचने लगती है, सिर को आसमान की तरफ तानकर गहरी साँसें लेती है, भर लेती है सारी कायनात की खुशबू... और खोलती है अपनी मुट्ठी... अरे ये क्या, कोई रंग नहीं है हाथ में। हथेली पूरी स्याह हुई पड़ी है। आँखों में कुछ गरम और तरल-सा उतर आया... एक निराशा साँसों के रास्ते शरीर में समा गई, और खून की तरह नसों में बहने लगी... स्याही आँखों के सफेद रंग पर फैल गई...। रंग मन को नहीं छू पा रहे हैं... अब तो उसे रंग दिखना भी बंद हो गए... हर जगह अँधेरा फैल गया, ये स्याही अब उसके साथ चल रही है... मन अब भी रंगों के पीछे भाग रहा है, लेकिन उसे रंग दिखाई देना बंद हो गए हैं। रंग उससे रूठ गए हैं, छिटककर दूर चले गए हैं। वो फिर से उदास है... अब रंग दिखेंगे ही नहीं तो क्या तो वह बिखेरेगी और क्या फैलाएगी और क्या लिखेगी...? अब कभी भी वह नहीं लिख पाएगी रंग...कभी भी नहीं खिल पाएंगें रंग...।

19/09/2011

चार खूँटों से बँधी जिंदगी...!


सलीका - उठते ही सोने से फैले बालों को बाँधने के क्रम में वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और कंघी उठाकर बालों में गड़ाते हुए जैसे ही उसने आईना देखा… ऊब की लहर ऊपर से नीचे और हताशा की लहर नीचे ले ऊपर की तरफ दौड़ी। हर दिन वही चेहरा... उसी तरह की नाक, वही आँखें... सब कुछ वैसा ही, वहीं... उफ्! उसे अपने दिन का मूड समझ आ गया। वो वहीं स्टूल पर धपाक से बैठ गई। उसी हताशा में उसने एक बार फिर अपने चारों ओर नजरें दौड़ाई... हर चीज उसी जगह, कई दिनों से... बल्कि कई सालों से हरेक चीज है अपनी जगह ठिकाने से... सलीके से... । एकाएक उसे लगा कि ये सलीका ही उसकी परेशानी है। मन किया... सब कुछ को हाथ से फैला कर तितर-बितर कर दे। कुछ उठाकर जमीन पर पटक दे... कुछ... कुछ ऐसा करे जो उसे बदला सा महसूस कराए... लेकिन... लेकिन ये दिमाग। करो... कर ही डालो... फिर बिसूरते हुए समेटना भी तुम ही...।

नफासत - दफ्तर जाते हुए – वही रास्ता, सालों से वही… और वहीं दुकानें, पेड़, सड़क यहाँ तक कि गड्ढे तक... पता होता है कहाँ गाड़ी धीमी करनी है और कहाँ गियर बदलना है। इतनी उकताहट कि लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते रहे... शायद आसपास की दुनिया एकाएक बदली हुई-सी दिखे, लेकिन ये हो ही कैसे। कई बार उसे लगता है कि क्यों नहीं वो खुद ही अपने आप को बदल डालती? थोड़ा हेयर-स्टाइल बदल ले और थोड़े कपड़ों का स्टाइल... खुद भी काफी बदली नजर आएगी... लेकिन क्या ये बदलाव अच्छा होगा...? लीजिए सलीके के बाद दूसरी समस्या आ खड़ी हुई... नफासत...!

विश्वास - दफ्तर में वही जद्दोजहद... वही जगह, एक ही से चेहरे, वैसे ही एक्सप्रेशन्स और उसी तरह की बातें...। हर जगह सब कुछ इतना जाना पहचाना कि आँखें बंद कर यदि हाथ बढा़ओ तो जो हाथ आए वो परिचित चीज निकले...। उफ्....! यहाँ क्या वो खुद बदलाव नहीं कर सकती? कुछ नए लोगों से दोस्ती करे, कुछ नए लोगों को जानें, उनसे बातें करें... उनकी दुनिया में झाँके कुछ पात्र, कुछ कहानी, कुछ अनुभव उठा लें... लेकिन... लेकिन क्या ये इतना आसान है! एकाएक परिवर्तन से कईयों की भौहें तनेगी... फिर इसमें भी कौन दोस्ती के लायक है और कौन नहीं? किससे आपकी वेवलेंथ मैच करेगी और किससे नहीं... ये सब जानते-जानते पता नहीं किस ट्रेप में फँस जाए...। आखिर तो झटकना भी कहाँ आसान है, उसके लिए...? तो एक और समस्या या संकट... विश्वास का...!

सुविधा - शाम ढलते हुए ऑफिस से लौटना... 15 मिनट उपर हो या फिर 10 मिनट नीचे... सड़कों के हाल एक-ही से...। रोशनी का एक-सा जमावड़ा, ट्रेफिक जाम, हर दिन जैसा शोर। पटरी पार कर सड़कों को घरते ठेले, पुलिसवालों की मशक्कत-चिढ़ और खीझ...। उसी तरह की मनस्थिति... फिर से वही सब कुछ घर पहुँचकर... चाय या फिर कॉफी...। बनाना, खाना, टीवी देखना, टहलना, दिन भर का राग दोहराना...। अच्छे-बुरे पढ़ने को दोहराना। किसी अच्छे अनुभव को सुनाना-सुनना। छाया-गीत तक रेडियो के करीब पहुँच जाना। ज्यादातर उद् घोषक के बुरे चुनाव पर खीझना या फिर किसी अच्छे गाने को इत्मीनान से सुनने के चक्कर में घड़ी कि टिक-टिक को नजरअंदाज कर देना और फिर सोचना उफ् आज फिर देर...। सोते हुए जिस भी तरफ सिर करो... कमरे की हर चीज जानी पहचानी लगती है। कभी पूर्व तो कभी पश्चिम में सिर की दिशा रखी और नजरों को हर एंगल पर घुमा लिया... बदला कुछ भी नहीं... सब कुछ वैसा ही नजर आया। क्यों नहीं ऐसा कर लेती कि किसी शाम टीवी छोड़ दें... देर रात तक सड़कों पर आवारगी करते रहे या फिर गहरे गाढ़े अँधेरे को ओढ़कर किसी मीठी-सी धुन में खुद को डूबने-उतरने के लिए छोड़ दें। छाया-गीत का लालच छोड़ दे या फिर सुबह की चिंता छोड़ दे... देर रात तक अपनी फूलझड़ियों, छालों, फूलों और काँटों का हिसाब करते रहे... या फिर घड़ी को ताक पर पटककर समय को अँधेरे में से गुजर जाने दे...। नहीं होता, बहुत सोचते रहो तब भी नहीं होता... देर से सोए तो सुबह देर से उठेंगे या जल्दी उठ गए तो दिन भर काम करना मुश्किल होगा... फिर वही क्रम दोहराया जाएगा आखिर यहाँ मसला अ-सुविधा का है...।

वह सोचती है कि जिंदगी के चारों कोनों को खूँटे से बाँधने के बाद स्पेस, आजादी और चेंज की ख्वाहिश करना कितना हास्यास्पद है ना...! चाहना-चाहना-चाहना... अपने कंफर्ट ज़ोन में बैठकर सिर्फ चाहने से क्या बदलेगा? बदलने के लिए उसे तो छोड़ना ही पड़ेगा ना... तो...?

19/08/2011

रोज शाम भविष्य में थोड़ा मर जाता हूँ...!


इतिहास निर्मित होने के दौर में इतिहास की गुत्थियों को जस-का-तस रखती किताब पढ़ना, क्या है ? - वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ना! या फिर वर्तमान को इतिहास के संदर्भ से समझने की कोशिश करना...! ...पता नहीं! बहुत दिनों से अटका पड़ा पढ़ने का क्रम न जाने कैसे आज शुरू हुआ तो ओम थानवी की यात्रा संस्मरण (ऐतिहासिक-स्थल की यात्रा) मुअनजोदड़ो के पूरा होने का मुहूर्त बन ही गया। इस बीच अण्णा-आंदोलन-गतिरोध-भ्रष्टाचार और पक्ष-विपक्ष पर भी नजरें पड़ती रही।
जैसा कि होता है – खत्म होने पर हमेशा सवाल खड़ा होता है ‘औचित्य का’। यहाँ किताब को पढ़ने का। क्यों पढ़ी गई... ? जानना लक्ष्य था या फिर पढ़ना... यदि जानना लक्ष्य था तो क्या जान लिया और यदि पढ़ना ही लक्ष्य था तो यही क्यों? फिर सवालों का जंजाल... इसी में से निकलता है एक और पुराना सवाल जो गाहे-ब-गाहे जाग जाता है - ‘आखिर इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का लक्ष्य क्या है?’, क्या वाकई हम इतिहास इसलिए पढ़ते हैं कि हम उससे सबक सीख सकें! आज तक हमने इतिहास से क्या सबक सीखे? अभी तो किसी ऐतिहासिक घटना पर हमारे इतिहासविद् और विशेषज्ञ निश्चित नहीं है। फिर अपने-अपने पूर्वाग्रह और उस आधार पर स्थापित सिद्धांत... ढेर सारी स्थापनाओं के प्रतिपादन और खंडन-मंडन के बाद भी अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका कि 1. मुअनजोदड़ों के संस्थापक कौन थे और कहाँ से आए थे? 2. वैदिक सभ्यता ज्यादा पुरानी है या फिर मुअनजोदड़ो की! और 3. सभ्यता का अंत कैसे हुआ? अब तक लिपि पढ़ी नहीं जा सकी तो सभ्यता को जानने में कोई मदद नहीं मिली...। मान लिजिए कभी जान भी लें इन सारे और इनके जैसे और कई सारे सवालों के जवाब तो क्या फर्क पड़ेगा? क्या वर्तमान ज्यादा खुशनुमा बन जाएगा। आज तक कितनी सभ्यताओं, व्यवस्थाओं, राष्ट्रों, सरकारों, संस्थाओं और व्यक्तियों ने इतिहास से सबक ग्रहण किए हैं?
तो आखिर पढ़ ही लिए गए सारे दावे-प्रतिदावे, इतिहास को खोजने के ऐतिहासिक प्रयास ...तो... उससे क्या हुआ! क्या पाया?
शुरू हुआ खोने-पाने का शाश्वत हिसाब... भौतिक हो, जरूरी नहीं, लेकिन होता है। सफर में न हो तो सफर खत्म होने पर ... जीवन में न हो तो जीवन के अंत में होगा... चाहे हम कितना ही इंकार कर लें। दो और दो चार का गणित पीछा नहीं छोड़ता... हिसाब के रूप में न हो तो विश्लेषण के रूप में, होगा ही। और जब ये सवाल उठता है तो फिर अब तक हुए सारे कर्म अपना-अपना बही खाता लिए हाजिर हुए चले जाते हैं। हमारा भी हिसाब कर दो... हमारा भी कर दो... हमारा भी...। मतलब हिसाब से मुक्ति नहीं है। तो क्या यहीं से जुड़ते है अतीत-वर्तमान-भविष्य के सिरे...! ओम जी की ही किताब से अज्ञेय की कविता की पंक्तियाँ – ‘रोज सबेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ / क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।’
यही है चक्र... इतिहास को जानने का, वर्तमान को जीने का और भविष्य में मरने का... पैदा होने, जीने और मरने का...:(

03/07/2011

संघर्ष खुद से....!


मैंने उसे बहुत गहरी नींद से जगाया था। हड़बड़ा कर उठी थी वो... मैंने उसे आदेश-सा दिया, मेरे साथ चल, मुझे तुझसे कुछ बात करनी है...। मैं समझती हूँ कि वो बहुत गहरी नींद में थी, लेकिन मैंने उसकी कलाई को बहुत सख्ती से पकड़ लिया, और घसीटती हुई ही उसे ले जाने लगी थी। रात गहरी थी, सन्नाटा घना... वो अनमनी-सी, समझ नहीं पा रही थी कि मैं उसके साथ ऐसा क्यों कर रही हूँ!
लग तो मुझे भी रहा था कि मैं ये क्या कर रही हूँ? क्यों? का जवाब था मेरे पास, क्योंकि एक खऱाश, खलिश, घुटन मुझे लगातार महसूस हो रही थी और मुझे लगने लगा था कि बस उसकी वजह वो ही है। हम चलते चले जा रहे थे। एकाएक लगा कि एक नदी उग आई है, (तब मेरा विश्वास यकीन में बदल गया कि, मैं सपना देख रही हूँ, क्योंकि नदियाँ क्या ऐसे उगा करती है? सदियों तक पानी बहता है, तब जाकर नदी का रूप लेता है। खैर).... उछलती-कूदती शोर मचाती नदी रात के अँधेरे में थोड़ी और शैतान लगने लगी है। किनारे पर रखे पत्थरों पर हम दोनों ही बैठ गई। मुझे पता नहीं चला कि कब मेरी उँगलियों की पकड़ ढीली हो गई। मेरे चेहरे की सख्ती थोड़ी ढल गई। उसने अब मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा – हाँ, बोल...।
मेरी नजर सीधी-काट देने वाली – तू जानती नहीं है क्या?
क्या? – उसका बहुत मासूम-सा सवाल
तू नहीं जानती है कि मुझे कितनी घुटन हो रही है, खुद को मैं कितना उपेक्षित होते हुए देख रही हूँ...! – मैंने तल्ख होकर उससे पूछा था।
उसके चेहरे पर बहुत भोलापन उतर आया... – नहीं, तू क्यों घुटती है, औऱ तेरी उपेक्षा कौन कर सकता है?
तेरी वजह से हो रहा है ये सब... – मैने थोड़ा नर्म होकर उससे कहा। मेरे अंदर कुछ बेतरह सुलग रहा था। - तेरे दिखने ने मेरे होने को खत्म कर दिया है। ये मत समझना कि मैं तुझसे जलती हूँ... – मैंने तीखी बात को अंदर ही ठेल दिया।
बस तू मुझे मुक्त कर दें... मुझे घुटन होने लगी है। ये भौतिकता मुझ से नहीं सधती है। लगातार सतर्कता... जैसे सारी ऊर्जा एक ही जगह जाया हो रही है। - रोकते-रोकते तक कड़वाहट उभर ही आई।
जाया हो रही है? - उसने आहत भाव से पूछा।
हाँ, सारी चेतना जैसे एक ही जगह बह रही है, तेज प्रवाह से... भौतिक होने पर... दैहिक होने पर... मुझे उससे निजात चाहिए। - मैंने जैसे फैसला सुना दिया।
मेरे करने से कहाँ कुछ बदलता है? - उसने अपनी बेबसी जाहिर की। - कितना भी करो, भौतिकता से कहाँ निजात है। कौन हमारे होने तक पहुँच पाता है, या पहुँचना चाहता है! किसके पास है इतनी फुर्सत...? - ना चाहते हुए भी उसकी पीड़ा छलक पड़ी थी।
पता नहीं ये पूरे चाँद की रात का असर है या यूँ ही-सा एक जुनून सवार था, मैं किसी भी कीमत पर हार मानने को राजी नहीं थी। कुछ चाहना अपना भी होता है मेरी जान... – ताना मारा था, मैंने।
तूने कब चाही मुक्ति... तू भी इसमें धँसे रहना चाहती है। आखिर तो किसे पसंद है, हर दिन, हर वक्त की जलन, चुभन, उबलन और बेचैनी...। बाहर सबकुछ खूबसूरत होना बहुत बड़ी राहत है, ये तो तू भी जानती ही है ना...! – उसे घायल करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हूँ। कभी-कभी होता है ना एक तरह का पागलपन सवार... बस ये कुछ ऐसा ही था, जब हम जानते हैं कि ये सरासर पालगपन है, फिर भी उसे जारी रखे रहते हैं, क्यों... ये तो सोचते ही नहीं।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखे डबडबाने लगी थी, हालाँकि मेरे अंदर कुछ नर्मा रहा था फिर भी एकदम से नहीं। - जब सब कुछ अच्छा लगे तो फिर क्या ठीक करना और क्यों ठीक करना...?
वो एक तरह से मिन्नत ही कर रही थी – देख मैं भी तो तेरे साथ ही लगी हुई हूँ..। तुझसे अलग कहाँ हो पा रही हूँ? जो जैसा तू चाहती है, वैसा ही मैं भी तो कर रही हूँ। तू बता और क्या करूँ, जो तेरी घुटन कम हो..।
वो उठकर मेरे करीब आ गई। मेरी गोद में सिर रख दिया तो मेरे अंदर कुछ बहुत तेजी से पिघलने लगा। मेरी ऊँगलियाँ उसके बालों में घूमने लगी। मैंने उससे वादा लिया – तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी ना...! मुझे कभी अकेला तो नहीं छोड़ेगी ना...! तू जब बाहर हो जाती है ना, तो मैं बहुत अकेली पड़ जाती हूँ। मैं तेरा भीतर हूँ, चाहे जलता हुआ, उबलता हुआ हूँ, लेकिन तेरे होने का साक्षी और साथी भी... तू जानती है ना...!
उसने सिर उठाया, आँखों में अब भी आँसू थे। सिर हिलाकर हामी की और मुझे कमर से कस लिया। कहीं मेरी आँखें भी भीग गई थी। आँसू को ढ़लकने से बचाने के लिए सिर उठाया तो चाँद का अक्स नदी में नजर आया। यूँ ही एक विचार आया कि चाँद तक खुद को निहारता है, तो फिर इंसान की तो बिसात ही क्या है?

31/10/2010

उमंग है तो अवसाद भी होगा


हर तरफ सफाई का दौर चल रहा है... सोचा थोड़ा अपने अंदर के जंक का भी कुछ करे, लेकिन बड़ी मुश्किल पेश आई... सामान हो तो छाँट कर अलग कर दें, लेकिन विचारों का क्या करें? कई सारे टहलते रहते हैं, किसी एक को पकड़ कर झाड़े-पोंछे तो दूसरा आ खड़ा होता है और इतनी जल्दी मचाता है कि पहले को छोड़ना पड़ता है... दूसरे को चमकाने की कवायद शुरू करें तो पहला निकल भागता है, उसके निकल भागने का अफसोस कर रहे होते हैं तो जो हाथ में होता है, उसके निकल जाने की भी सूरत निकल आती है... बस यही क्रम लगातार चल रहा है।... कुल मिलाकर बेचैनी...। अंदर-बाहर उत्सव का माहौल है, लेकिन कहीं गहरे... उमंग और उदासी के बीच छुपाछाई का खेल चल रहा है। आजकल संगीत का नशा रहता है... और इन दिनों एक ही सीडी स्थाई तौर पर बज रही है... मेंहदी हसन की... तो ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ गज़ल चल रही थी और उसका अंतरा – उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू... के जादू को वो विस्तार दे रहे थे और उस विस्तार से उदासी का मीठा-मखमली जादू फैलता-गहराता जा रहा था।
मन की प्रकृति भी अजीब है, कल जिस बात को मान लिया था, आज उसी से विद्रोह कर बैठता है। ओशो के उद्धरण से समझा लिया था कि जिस तरह के प्रकृति के दूसरे कार्य-व्यापार का कोई उद्देश्य नहीं है, उसी तरह जीवन का भी कोई उद्देश्य नहीं है... लेकिन उस मीठी-मखमली उदासी के समंदर से जब बाहर आए तो जीवन के निरूद्देश्य और अर्थहीन होने का नमक हमारे साथ लौटा... अब फिर से वही कश्मकश है, यदि जीवन है तो फिर उसका कोई अर्थ तो होना ही है और यदि नहीं है तो फिर जीवन क्यों है? और इसी से उपजता है एक भयंकर सवाल... मृत्यु... ?
एक बार फिर चेतना इसके आसपास केंद्रीत होने लगी है... जब एक दिन मर जाना है तो फिर कुछ भी करने का हासिल क्या है? मरने के बाद क्या बचा रहेगा... जो भी बचेगा, उसका हमारे लिए क्या मतलब होगा? औऱ जब मतलब नहीं है तो फिर कुछ भी क्यों करें... ? हाँलाकि सच ये भी है कि कर्म करना हमारी मजबूरी है।
वही पुराने सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है... बेमौका है... उत्सव के बीच है ... खत्म होने से पहले ही अवसाद... यही धूप-छाँव है... यही अँधेरा-उजाला.... सुख-दुख... यही जीवन-मृत्यु... तो फिर उमंग-अवसाद भी सही...। आखिरकार तो नितांत विरोधी दिखती भावनाएँ... कहीं-न-कहीं एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई जो होती है.... नहीं...!

आखिर में – 100 पोस्ट पूरी होने पर वादे के मुताबिक मिला डिजिटल कैमरा, लेकिन त्योहार और व्यस्तता के बीच कहीं आना-जाना नहीं हो पा रहा है तो फोटो लेने की सूरत भी नहीं निकल पा रही है...