03/07/2011

संघर्ष खुद से....!


मैंने उसे बहुत गहरी नींद से जगाया था। हड़बड़ा कर उठी थी वो... मैंने उसे आदेश-सा दिया, मेरे साथ चल, मुझे तुझसे कुछ बात करनी है...। मैं समझती हूँ कि वो बहुत गहरी नींद में थी, लेकिन मैंने उसकी कलाई को बहुत सख्ती से पकड़ लिया, और घसीटती हुई ही उसे ले जाने लगी थी। रात गहरी थी, सन्नाटा घना... वो अनमनी-सी, समझ नहीं पा रही थी कि मैं उसके साथ ऐसा क्यों कर रही हूँ!
लग तो मुझे भी रहा था कि मैं ये क्या कर रही हूँ? क्यों? का जवाब था मेरे पास, क्योंकि एक खऱाश, खलिश, घुटन मुझे लगातार महसूस हो रही थी और मुझे लगने लगा था कि बस उसकी वजह वो ही है। हम चलते चले जा रहे थे। एकाएक लगा कि एक नदी उग आई है, (तब मेरा विश्वास यकीन में बदल गया कि, मैं सपना देख रही हूँ, क्योंकि नदियाँ क्या ऐसे उगा करती है? सदियों तक पानी बहता है, तब जाकर नदी का रूप लेता है। खैर).... उछलती-कूदती शोर मचाती नदी रात के अँधेरे में थोड़ी और शैतान लगने लगी है। किनारे पर रखे पत्थरों पर हम दोनों ही बैठ गई। मुझे पता नहीं चला कि कब मेरी उँगलियों की पकड़ ढीली हो गई। मेरे चेहरे की सख्ती थोड़ी ढल गई। उसने अब मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा – हाँ, बोल...।
मेरी नजर सीधी-काट देने वाली – तू जानती नहीं है क्या?
क्या? – उसका बहुत मासूम-सा सवाल
तू नहीं जानती है कि मुझे कितनी घुटन हो रही है, खुद को मैं कितना उपेक्षित होते हुए देख रही हूँ...! – मैंने तल्ख होकर उससे पूछा था।
उसके चेहरे पर बहुत भोलापन उतर आया... – नहीं, तू क्यों घुटती है, औऱ तेरी उपेक्षा कौन कर सकता है?
तेरी वजह से हो रहा है ये सब... – मैने थोड़ा नर्म होकर उससे कहा। मेरे अंदर कुछ बेतरह सुलग रहा था। - तेरे दिखने ने मेरे होने को खत्म कर दिया है। ये मत समझना कि मैं तुझसे जलती हूँ... – मैंने तीखी बात को अंदर ही ठेल दिया।
बस तू मुझे मुक्त कर दें... मुझे घुटन होने लगी है। ये भौतिकता मुझ से नहीं सधती है। लगातार सतर्कता... जैसे सारी ऊर्जा एक ही जगह जाया हो रही है। - रोकते-रोकते तक कड़वाहट उभर ही आई।
जाया हो रही है? - उसने आहत भाव से पूछा।
हाँ, सारी चेतना जैसे एक ही जगह बह रही है, तेज प्रवाह से... भौतिक होने पर... दैहिक होने पर... मुझे उससे निजात चाहिए। - मैंने जैसे फैसला सुना दिया।
मेरे करने से कहाँ कुछ बदलता है? - उसने अपनी बेबसी जाहिर की। - कितना भी करो, भौतिकता से कहाँ निजात है। कौन हमारे होने तक पहुँच पाता है, या पहुँचना चाहता है! किसके पास है इतनी फुर्सत...? - ना चाहते हुए भी उसकी पीड़ा छलक पड़ी थी।
पता नहीं ये पूरे चाँद की रात का असर है या यूँ ही-सा एक जुनून सवार था, मैं किसी भी कीमत पर हार मानने को राजी नहीं थी। कुछ चाहना अपना भी होता है मेरी जान... – ताना मारा था, मैंने।
तूने कब चाही मुक्ति... तू भी इसमें धँसे रहना चाहती है। आखिर तो किसे पसंद है, हर दिन, हर वक्त की जलन, चुभन, उबलन और बेचैनी...। बाहर सबकुछ खूबसूरत होना बहुत बड़ी राहत है, ये तो तू भी जानती ही है ना...! – उसे घायल करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हूँ। कभी-कभी होता है ना एक तरह का पागलपन सवार... बस ये कुछ ऐसा ही था, जब हम जानते हैं कि ये सरासर पालगपन है, फिर भी उसे जारी रखे रहते हैं, क्यों... ये तो सोचते ही नहीं।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखे डबडबाने लगी थी, हालाँकि मेरे अंदर कुछ नर्मा रहा था फिर भी एकदम से नहीं। - जब सब कुछ अच्छा लगे तो फिर क्या ठीक करना और क्यों ठीक करना...?
वो एक तरह से मिन्नत ही कर रही थी – देख मैं भी तो तेरे साथ ही लगी हुई हूँ..। तुझसे अलग कहाँ हो पा रही हूँ? जो जैसा तू चाहती है, वैसा ही मैं भी तो कर रही हूँ। तू बता और क्या करूँ, जो तेरी घुटन कम हो..।
वो उठकर मेरे करीब आ गई। मेरी गोद में सिर रख दिया तो मेरे अंदर कुछ बहुत तेजी से पिघलने लगा। मेरी ऊँगलियाँ उसके बालों में घूमने लगी। मैंने उससे वादा लिया – तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी ना...! मुझे कभी अकेला तो नहीं छोड़ेगी ना...! तू जब बाहर हो जाती है ना, तो मैं बहुत अकेली पड़ जाती हूँ। मैं तेरा भीतर हूँ, चाहे जलता हुआ, उबलता हुआ हूँ, लेकिन तेरे होने का साक्षी और साथी भी... तू जानती है ना...!
उसने सिर उठाया, आँखों में अब भी आँसू थे। सिर हिलाकर हामी की और मुझे कमर से कस लिया। कहीं मेरी आँखें भी भीग गई थी। आँसू को ढ़लकने से बचाने के लिए सिर उठाया तो चाँद का अक्स नदी में नजर आया। यूँ ही एक विचार आया कि चाँद तक खुद को निहारता है, तो फिर इंसान की तो बिसात ही क्या है?

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