16/03/2012

जीवन का रहस्य.... रंग


होली गुजरे चार दिन हो चुके हैं, लेकिन मालवा-निमाड़वासियों का जैसे मन ही नहीं भरता होली के गुलाल-अबीर से, तभी तो चौथे दिन रंगपंचमी मनाते हैं और गुलाबी-हरा-नीला-काला-सुनहरी रंग पोते हुए रंग-बिरंगी होकर पूरी दुनिया को रंगीन करने निकल पड़ते हैं।
जहाँ होली को पूरी शालीनता और सभ्यता से सूखे रंगों के साथ मनाते हैं, वहीं रंगपंचमी पर जैसे साल भर की मस्ती का कैथार्सिस होता है। कोई भी रंग चलेगा... रंगने के लिए भी कोई भी चलेगा और लगाने के लिए भी। मस्ती का आलम यूँ होता है कि बाजार-सड़क तक रंगीन हो जाया करती है। इसी दिन गेर निकालने की परंपरा है... परंपरा क्या है सामूहिक मस्ती का आयोजन है। खूब रंग-गुलाल साथ लिए... बड़ी-बड़ी मिसाइलों से सबपर उड़ाते पूरे माहौल को रंगमय करते चलता बड़ा-सा हुजूम... और इसमें शामिल होते जाते और... और.... और.....।
अपने बचपन में गेर में बनेठी घुमाते बच्चों और युवाओं को देखा करते थे, अब इसका स्वरूप सिर्फ जुलूस की तरह हो चला है। या फिर जैसे रंगों की बारात... हर तरफ रंग, मस्ती, बेखयाली, तरंग, नशा... बस। बेतरतीब रंगों से रंगोली की रचना होती है, और गुजरने के बाद सड़कें उस अनगढ़ रंगोली से जैसे मौसम की मस्ती-मिजाजी का भी पता देती है.... जिस जगह से ये गेर या अब इसे फाग यात्रा नाम दे दिया गया है गुजरती है ऐसा लगता है जैसे पूरी कायनात को रंगने निकली हो...। शामिल होने वाला मस्त देखने वाला भी मस्त... बस ऐसा लगने लगता है कि ये मस्ती ही स्थायी हो जाए, क्योंकि यही तो रहस्य है, सार है... जीने का, जीवन का....।

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