08/03/2012

त्योहार पर तफरीह...



छोटी और मीठी इच्छाएँ अक्सर पूरी होने में बहुत समय लगाती है। ऐसा शायद इसलिए हो कि ये मन के उस कोने से पैदा होती है, जहाँ हमारे बचपन का कब्जा हुआ करता है और बड़े होने के बाद हम सबसे पहला काम ये करते हैं कि अपने बचपने के विस्तार को हर हाल में रोक देना चाहते हैं... ठीक वैसे ही जैसे शीत-युद्ध के दौरान अमेरिका ने सोवियत संघ के प्रसार को रोकने के लिए उसकी चारों तरफ से घेराबंदी करने की कोशिश की थी, लेकिन हम हमेशा ही अमेरिका की तरह सफल हो जाएँ ये जरूरी तो नहीं... :-) तो कभी ड्रायवर की छुट्टी तो कभी पार्किंग की समस्या या फिर कभी दफ्तर से समय पर न निकल पाने का बहाना नहीं तो फिर दिन भर काम करने के बाद बाहर न निकल पाने की मनस्थिति... कोई न कोई कारण तो बनता ही था त्योहार पर बाहर न निकलने का... लेकिन इस बार बचपने ने फिर से सिर उठाया। वो बचपन जो ताऊजी के हाथों में हाथ डालकर होली की एक शाम पहले शहर भर में घूमा करता था। खासतौर पर गोपाल मंदिर की वो होली, जिसमें ताईजी के रिश्ते के भाई (कन्हैया भाई) राधा-कृष्ण की बड़ी-सी रंगोली बनाया करते थे। यूँ उसमें रंगोली के अलावा देखने के लिए कुछ और होता नहीं था, लेकिन मौसम, मन और बाजार में बिखरते होली के रंग बस यूँ ही त्योहार का अहसास दे दिया करते थे और लगता था कि हाँ त्योहार बस इतने ही तो होते हैं...।
इस बार भी जैसे दो दिन पहले ये संकल्प लिया जा चुका था कि कुछ भी हो जाए, इस बार होल्करों की होली जलती देखेंगे ही...। काम समय से पहले निबटाने के चक्कर में कुछ भी पढ़ा-उढ़ा नहीं... जल्दी-जल्दी काम निबटा लिया और जाने के लिए सामान समेट ही रहे थे कि लीजिए काम आ गया... जल्दी-जल्दी उसे पूरा किया और घर पहुँचे... लेकिन देर वहाँ भी हो गई। गिरते-पड़ते जब राजबाड़ा पहुँचे तो होल्करों की होली में से तो धुँआ निकलता मिला... थोड़ी निराशा हुई... लेकिन फिर भी यूँ लगा कि जैसे इस वक्त घर से निकल आए ये बड़ी उपलब्धि है। आजकल घर से निकलते हैं तो कैमरा साथ रखते हैं... पता नहीं कौन-सा क्षण सहेजने की इच्छा हो जाए... तो अंदर की आवारगी अपने असली रंग में आ गई... बंद होते बाजार के सिरे नापते रहे। होली के रंग, पिचकारी, बच्चों की किलकारी, फल-मिठाइयों की खुश्बू और रंग के उमंग को बिखेरते चेहरे... जब किसी कोने में जलने के लिए सजी होली का फोटो ले रहे थे तो कमेंट मिला – ‘बड़ा अजीब लग रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे कोई विदेशी हर छोटी-बड़ी चीज का फोटो खींच रहा है।‘ हम थोड़े सकुचा गए... हाँ, हो सकता हो, लोग सोचें कि शक्ल-सूरत और रहन-सहन से तो खाँटी देशी है, लेकिन बीहैव ऐसे कर रही है, जैसे विदेशी हो... कैमरा बंद करके अंदर रख लिया। हालाँकि मन कुलबुलाता रहा... जलती, जलने के लिए सजी होली, रंग, पिचकारी के फोटो ले चुके थे... शराब की एक दुकान पर बड़ी भीड़ देखी और बाहर लटका एक बैनर… जिस पर लिखा था – ‘कल दुकान बंद रहेगी।‘ मन किया एक क्लिक मार ही लें... लेकिन कैमरा अंदर ही पड़ा रहा। आवारगी चलती रही... बाजार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक... । इस वक्त कहीं भी होली जलती नहीं मिलेगी, या तो जल चुकी है या फिर सुबह मुँहअँधेरे जलेगी। याद आया, इस शहर में पहले-पहल आकर जहाँ रहे थे, वहाँ अभी जलना बाकी होगी... वहीं चलते हैं। जिया वक्त पीछा नहीं छोड़ता है... :-)। उस कॉलोनी का भी पूरा चक्कर लगा लिया, अभी लोग इकट्ठा हो रहे थे और होलिका-दहन में अभी वक्त था, पेड़ से पीठ टिकाकर उस पूरे माहौल को जज़्ब करने लगे। तभी एक सज्जन आए, कहा – ‘हम चाहते हैं कि इस बार होली की पूजा पाँच जोड़े करें तो आप...।‘ बाकी की बात हमारी समझ पर छोड़ दी... और हमने समझ भी ली...। वो दूसरे चार जोड़ों के जुगाड़ के लिए चले गए... आज तक पूजा-पाठ जैसे कर्मकांड से दूर रहे हम दोनों के लिए ये धर्मसंकट का मामला था, हमने राय दी – ‘निकल लेते हैं, उन्हें कोई दूसरा जोड़ा मिल जाएगा।‘ जवाब मिला – ‘नहीं, इसे भी एक अनुभव की तरह लेते हैं।’ ये सोचकर कि हम कितने अजीब लगेंगे, पूजा करते हुए एक बच्चे को कैमरा पकड़ा दिया, उसने भी पूरी जिम्मेदारी से अपना काम किया। पूजा के दौरान पूजा में शामिल एक कपल के पतिदेव नारियल फोड़ने के लिए झुके तो झन्न से एक बोतल गिरी और फूट गई... वो थोड़ा सिटपिटाए और तुरंत वो बोतल उठाकर फेंक आए, उसके बिखरे शीशों को किसी और ने समेटा। ये इतनी जल्दी-जल्दी में हुआ कि कुछ ज्यादा समझ नहीं आया, लेकिन होलिका के पास बोतल के फूटने से जो द्रव गिरा उसकी खुश्बू (!) ने दिमाग की बत्ती जला दी...। वो तो खैर पूजा करते रहे। पूजा खत्म हुई होलिका दहन कर दिया गया। घर लौटते हुए हम सोच रहे थे कि काश हम उस दुकान का फोटो ले पाते तो हमारी इस पोस्ट के लिए बहुत काम आता... :-(

2 comments:

  1. हा हा हा.. फोट फाइनली नहीं मिला.
    वैसे आपका यह अनुभव बहुत बढ़िया रहा, बचपन की याद ताजा हो गई. :)

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