14/08/2010

मुट्ठी में बँधे सपनों का सच – 1




थर्ड सेम की क्लासेस शुरु हो चुकी थी। बारिश के ही दिन थे... कैंपस हरे रंग की पृष्ठभूमि पर चटख रंगों से बनी एक बड़ी-सी पैंटिंग-सा खूबसूरत और दिलफरेब नजर आ रहा था। आज का बकरा यूँ तो तय था... सुधीर... वो कल सीधे जेएनयू कैंपस से आया था, आज वो बदला हुआ दिख भी रहा था... लेकिन, उसे बकरा बनाने में मजा नहीं है... बस यही सोचकर कुछ उदासी थी और कुछ खलबली भी... कारण बहुत स्पष्ट था, उस बकरे को हलाल करने में क्या मजा जो अपनी गर्दन खुद ही हमारे छुरे के नीचे रख दें, तो आज इससे काम चलना नहीं था, इससे से न तो समोसे का स्वाद आएगा और न ही कॉफी से ताज़गी मिलेगी (अपना घोषित फंडा था, खुद पेमैंट करेंगे तो चाय और कोई दूसरा पिलाएगा तो कॉफी... चाय उन दिनों 3 रुपए की और कॉफी 5 की मिलती थी) तो हर हाल में किसी दूसरे को ढूँढना होगा। चौकड़ी बेर की झाड़ी के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर अभी इस विचार पर मंथन कर ही रही थी कि दूर तक फैली हुई हरी-हरी घास के बीच की पगडंडी पर नींबू पीले रंग का टी-शर्ट पहने आता प्रभु नजर आ गया। बबली चिल्लाई ... हुर्रे बकरा... नजर गई और सभी के चेहरे खिल गए।
प्रभु के पास आते ही एक से बढ़कर एक तारीफ के शब्द उसे मिलने लगे... ये...!!! नई टी-शर्ट... या बहुत अच्छी लग रही है... या कितना अच्छा रंग पहना है प्रभु... या आज तो जम रहे हो.. उसने भी अपनी झेंपी-सी मुस्कुराहट चमकाई और सफाई दी – इट्स नॉट न्यू...। लहजा वही दक्षिण भारतीय... आय वोर इट ऑन वेलकम पार्टी ऑलरेडी...।
ऊँह... दैट डे वी डिड नॉट नोटिस दिस...।
कैंटीन बंद – चलताऊ हिंदी में उसने संकेत समझने के संकेत देने शुरू कर दिए।
दीप्ति ने कहा नहीं खुल गई है। थोड़ी बहुत खींचतान और नोंकझोंक के बाद बात बन गई... बननी ही थी। हर कोई जानता था कि यदि ये चौकड़ी पीछे पड़ जाएगी तो फिर कोई भी बच नहीं सकता है, तभी प्रोफेसर क्लास में जाते दिखे और सभा विसर्जित हो गई। शीत-युद्ध पढ़ाया जा रहा था, अभी तक हम तो यही समझे बैठे थे कि शीत-युद्ध विचारधारा की लड़ाई है और इसलिए सोवियत संघ और चीन दोनों एक ही खेमे में हैं, लेकिन उस दिन जो चैप्टर पढ़ाया जा रहा था, उसमें सोवियत संघ और चीन के बीच खऱाब रिश्तों पर बात हो रही थी।
जब सुधीर ने प्रोफेसर से सवाल किया कि यहाँ विचारधारा कहाँ हैं? यहाँ तो वर्चस्व और हित का संघर्ष है? तो ऐसा लगा जैसे टॉप गियर में चल रही गाड़ी पर एकाएक ब्रेक लग गया और गियर बदल नहीं पाने से वो खड़ी हो गई। खून का प्रवाह नीचे की ओर होता महसूस हुआ और, एक तीखी जलन नीचे से उपर तक दौड़ गई। इतना सादा सा सवाल सुधीर ने पूछा, हमारे अंदर क्यों नहीं आया? चाहे पूछें या ना पूछें... सवाल तो पैदा होना चाहिए ना! बस सारी केमिस्ट्री का कबाड़ा हो गया। कैंटीन में पहले चाय की ट्रे आई तो बेखुदी इतनी ज्यादा थी कि वो ही कप उठा लिया... रजनी फुसफुसाई भी कि चाय है, लेकिन फ्यूज पूरी तरह से उड़ चुका था। बस ऐसे ही कब और कैसे घर पहुँचे पता नहीं चला। पहुँच कर हर दिन की तरह कमरा बंद कर लिया। दिन अभी सुनहरा था, कब साँवला और फिर सुरमई हो गया पता नहीं चला, जबकि खिड़की से तकिया लगाए, गज़ल पर गज़ल सुनते शब्द और सुर के साथ आँसुओं में अवसाद को धोते रहे थे... खुद को समझाया था, इंसान हो... हो जाता है, हर वक्त इस तरह का तना-खींचापन क्यों? और फिर ये तो कोई बात नहीं ना कि किसी के भी अंदर उठा सवाल तुम्हारे अंदर भी पैदा होना चाहिए... धीरे-धीरे सब गुज़र गया...।

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