अज्ञेय ने लिखा है – शब्द माना व्यर्थ हैं, इसीलिए कि इनमें शब्दातीत कुछ अर्थ है।
दुनिया तेजी से बदल रही है, शब्दों ने लंबा रास्ता तय किया... कहे गए, लिखे गए, छपे, फिर इनमें ध्वनि जुड़ी और अंत में दृश्य जुड़े... दृश्य जुड़ते ही शब्द सिहरने-काँपने लगे... अपने वजूद को लेकर आशंकित वे अपने संसार को समेटने लगे.... दृश्य लुभाते है, ध्वनियाँ डुबाती है, लेकिन शब्द... वे हमें जहाँ ले जाते हैं, वह बीहड़ है... हम वहाँ नहीं जाना चाहते हैं, क्योंकि बीहड़ को हम साध नहीं सकते हैं। ये चैतन्य है, गूँज देते हैं, लंबी... दूर तक.... साध लें तो साधू बना देते हैं। दृश्य का दौर है, शब्द पार्श्व में कहीं चले गए हैं। शब्द की सत्ता खतरे में है, तभी तो उनका जो जैसे चाहे वैसा उपयोग कर रहा है। खोखले हो चुके हैं, अर्थ खो चुके हैं, तभी तो इनकी व्यर्थता उभरती है और दृश्य महत्वपूर्ण हो उठते हैं। दृश्य जो कुंद करते हैं, पंगु बनाते हैं, ‘मैं’ को छीन लेते हैं उसे श्रीहीन बना देते हैं, फिर भी आकर्षित करते हैं। दृश्य अफीम की तरह सपनों की दुनिया देते हैं, लेकिन बदले में कल्पनाएँ हर लेते हैं। तभी तो कलम अब हथियार नहीं रही, फुटेज हथियार हो गए हैं। डिस्पोजेबल का दौर है... यही उपभोक्तावाद का सार भी...। जब तक उपयोगी है, है, जब उपयोग नहीं रहा, जंक...., लेकिन ये सब निर्जीव के साथ तो किया जा सकता है, चैतन्य के साथ नहीं किया जा सकता... दृश्य जब तक आकर्षक है तब तक ही देखे और दिखाए जा सकते हैं, जहाँ आकर्षण खत्म, दृश्यों का वजूद भी खत्म... शब्द लेकिन अपनी सत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करते हैं, इसलिए वे हाशिए पर चले गए हैं।
तो एक बार फिर से अज्ञेय की शरण – शब्द तो व्यर्थ है
... लेकिन जब उनके शब्दातीत अर्थ उभरते हैं, तो फिर क्रांति होती है। तो माना कि आज उम्मीद नजर नहीं आती, लेकिन प्रकृति का चलन गोलाकार है, इसलिए एक दिन फिर से शब्दातीत अर्थ उभरेंगे.... हम आशान्वित हैं....
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