28/07/2010

यूटोपिया से आगे....




ऐसा आजकल हर दिन होता है। यहाँ ई-मेल एक्सेस करने, फेसबुक पर मैसेजिंग करने और ब्लॉगिंग करने का समय होता है और वो आती जाती है, उसे देखते ही कहीं, कुछ सिकुड़ता जाता है। वो आती है, पंखा बंद करती है, कमरे की झाड़ू लगाती है और निकलते हुए पंखा फिर से चालू कर देती है। वो जितने समय कमरे में रहती है, काम से इत्तर बहुत सारा कुछ अंदर चलता रहता है, शायद सारा ध्यान उसके काम की तरफ लगा रहा है, देखना तो कुछ नहीं होता है, लेकिन कहीं अंदर बहुत सारा कुछ सरसराता रहता है। उसने इसी साल दसवीं की परीक्षा पास की और ग्यारहवीं में आई हैं। जब उसने अपने रिजल्ट की बात बताई तो पता नहीं कैसे कह बैठे कि – खूब मन लगा के पढ़ाई करना, हमारे पास बस यही एक चीज है।
फिर खुद ही सोचा, हमारे पास का क्या मतलब था? अभी इसकी तह खुल नहीं रही है, कभी खुलेगी तब इस पर बात होगी। फिलहाल तो उसकी उपस्थिति और कमरे में पसरी असहजता की बात....।
एक उम्र होती है, जब सारी ‘अच्छी’ बातें आकर्षित करती है। और इस बात पर आश्चर्य होता है कि क्यों दुनिया इतनी अजीब है? तब तो खऱाब ही कहा जाता था, लेकिन अब समझदार हो गए हैं ना! तो शब्द को थोड़ा ‘मॉडरेट’ कर लिया है, अजीब... ठीक भी है न! ना अच्छा न बुरा, बस अजीब! क्यों नहीं सब कुछ को सबसे अच्छे तरीके से जिया जा सकता है? कहा ना! वो उम्र ही ऐसी होती है, क्योंकि हमें खुद कुछ करना नहीं होता है, इसलिए हम सपने देखते हैं, और उसी में जीते भी है... एक मालवी कहावत है कि यदि सपने में लड्डू देखे तो फिर देसी घी के क्यों नहीं... तो मामला कुछ ऐसा ही। यूटोपिया.....इसे ही तो कहा जाता है ना....!
तो उस दौर में प्लेटो का आदर्श, दार्शनिक राजा और सैनिक शिक्षा की वकालत करती उसकी शिक्षा व्यवस्था तो भाती थीं, लेकिन उनके परिवार की घिचपिच ने सब कुछ पर पानी फेर दिया, फिर अरस्तू आ गए.... वो थोड़े दुनियादार आदमी थे, सब कुछ ठीक लगा, लेकिन यहाँ भी मामला अटका कि वे दासों की परंपरा को सही मानते थे। दासों के बारे में वे बहुत सारी मानवीय बातें करते हैं, वे उन्हें इंसान भी मानते हैं, लेकिन फिर भी वे जरूरी मानते हैं। तो लगा करता था कि आखिर यूनानी खून है.... दासों के बिना कैसे काम करेगा। फिर वही यूटोपिया... हाँ मूर का यूटोपिया.... उस उम्र के सबसे करीब होता है.... आज ये सब इसलिए याद आ रहा है कि एक तरफ हम पैर फैलाए अपने सिस्टम पर गिटिरपिटिर कर रहे होते हैं और सोनू.... वही... काम करने वाली लड़की, अपना काम करती हैं। कहीं हमें अपने अंदर अरस्तू का जिंदा होना महसूस होता है, हम भी तो वही है।
ठीक-ठीक दासों का समर्थन नहीं हैं, भई जमाना भी बदला है और हाँ हम भी तो बदले हैं कहीं। हम खुद को ही जवाब देते हैं - वो जो काम करती है, उसका पैसा पाती है। कहीं तो ये भी उठता है कि हम भी तो दास ही है... फिर अरस्तू भी कहाँ गलत कहते थे? वे तो कहते थे, कि जो जिस काम में माहिर हो, उसे वही करना चाहिए। यदि हम बुद्धि के काम ठीक से कर सकते हैं तो हमें वो और यदि वो.... हाँ सोनू.... घर के कामों में दक्ष है तो वो वही करे....इससे घर के कामों में हम जितना समय देते हैं, उतना हम समाज की ‘भलाई’ के काम में लगाए.... एक तरह से वो हमारी सहयोगी है.... आ गए न हम भी वहीं। हमने धीरे से पतली गली निकाली, अर्थशास्त्र में इसे श्रम विभाजन कहते हैं। अरे वाह! कैसी तीक्ष्ण बुद्धि पाई है....

2 comments:

  1. उसी दुनिया में कई लोग बिना दासों के भी परफेक्ट जीवन बिता रहे हैं....मैडम.try to be independent.

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  2. बेहतरीन लेख! कल के जनसत्ता में पढ़ा था, बहुत-बहुत बधाई!

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