14/07/2010
भूली-बिसरी किताब-सा हाथ आया सुख
ऐसा नहीं होता है, लेकिन कल रात ऐसा हुआ। हर दिन का वही क्रम - रात के खाने के बाद टहलना, कभी भी इसे अलग नहीं पाया... कभी-कभी तो टहलने वाली सड़क सिर्फ इसलिए बदल दी जाती है कि हर दिन इसी सड़क पर टहलते हैं, कुछ चेंज हो ..... कल रात अलग यूँ था कि अपने मोबाइल में म्यूजिक को नए सिर से फॉर्मेट किया था और दिन भर उसे सुनने का मौका नहीं मिला, सो रात को टहलते हुए साथ ले लिया। नई बस रही सुनसान कॉलोनी में इक्का-दुक्का टिमटिमाती ट्यूब की रोशनी.... हालाँकि आषाढ़ के मध्य में आ पहुँचे हैं और बारिश की आस है फिर भी साफ आसमान पर झिलमिलाते तारे है, आश्चर्य है कि बुरे नहीं लग रहे हैं.... हल्की-हल्की हवा और बहुत पहले सुनी हुई गज़लें..... फिर कुछ इस दिल को बेकरारी है..... कहीं कुछ मीठा सा छूकर गुजर गया... अपने-अपने गुजरे दिन को चुभलाते हुए भूली-बिसरी गज़लों के साथ जगा था वो एहसास..... बड़ा अजबनी.... बहुत पराया.... फिर भी भला-सा लगने वाला।
कहीं पढ़ा था कि – मन अपने सामने भी खुद को नहीं खोलता है।
अपने अंदर उगी यह अजनबीयत उसी मन की नई-नई खुलती पर्तों का नतीजा है। क्या और कितना कुछ होता है, मन के भीतर, लगातार खोलते चले जाने के बाद भी खुलता ही चला जा रहा है। कुछ इसी तरह का अनुभव है इन दिनों... न अतीत है, न भविष्य.... आज भी हवा के पंखों पर सवार.... हल्का और ताजा...। न गुजरे हुए को लेकर कोई कड़वाहट, असंतोष और अभाव, न आने वाले पर किसी तरह की ख़्वाहिश, सपना या महत्वाकांक्षा का बोझ .... न आज के लिए कोई दौड़.... न कुछ पाना चाहना और न कुछ छूट जाने का दुख..... न दौड़.... न हार.... न जीत, न कुछ करना और न ही इस नहीं कर पाने को लेकर कोई मलाल.... कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ है, कहता-सा, जीता-सा, मुस्कुराता-सा कुछ.... कुछ नहीं करते, पाते, सोचते-विचारते, पढ़ते-सुनते हुए भी भरा-भरा अहसास... शायद ये जीवन में पहली बार महसूस हुआ है।
मजदूरों-से हैं, जब तक पत्थर नहीं तोड़ लें, तब तक न तो नींद आए न भूख लगे... ठीक वैसे ही, जब तक खुद को खुरचे नहीं, थोड़ा खून निकाले, थोड़े आँसू हो.. तब जाकर लगे कि हम जिंदा है, लेकिन इन दिनों अचानक से अपने अंदर उगी इस अजनबीयत का क्या करें ये समझ नहीं आ रहा है। बहुत सालों बाद खुद को इतना निर्द्वंद्व और इतना हल्का पाया..... प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी किसी तरह की बेचैनी या छटपटाहट नहीं... कोई दुख, बेचैनी, छटपटाहट या कोई निरीहता भी नहीं.... खुद को इतने परायेपन के साथ देख और भोग रहे हैं, जैसे ये हम न हैं कोई ओर है। हाँ ये सुख है, इसी तरह से आता है, जैसे कोई गुम हो चुकी पुरानी पसंदीदा किताब या फिर कहीं अटाले में पड़ी मिले कोई बहुमूल्य सीडी... बस यूँ ही आया है ये... और आश्चर्य ये है कि न आँसू है, न बेचैनी और न ही छटपटाहट... कुछ यूँ कि न शब्द मिले न भाव... बस है.... कुछ बहा ले जाता-सा, सुख है।
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कुछ बहा ले जाता-सा, सुख है.....lucky....
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