17/08/2010

छोड़ो कल की बातें...


स्वतंत्रता दिवस का हैंग ओवर उतर चुका है... हम फिर से वही हो गए हैं और इस बात से बहुत राहत हुई है। क्योंकि अभिनय... आखिर अभिनय ही हो है... चाहे वह कृत्रिम रूप पैदा हुई भावनाएँ ही क्यों न हो...? तो एक बार फिर अपने खालिस रूप में आ खड़े हुए हैं, वैसे ही निस्संग, उदासीन और आत्म-केंद्रीत... यही तो हैं हम... वो तो एक उबाल था... उस दौरान एक तो बारिश नहीं हो रही है, उस पर दो दिन से लगातार देशभक्ति की बातें, गाने और इतिहास के गौरव-गान को सुन-सुनकर पकने लगे थे। हर साल इन दो और गणतंत्र दिवस के दो दिन यही सब कुछ चलता है… कभी कोई खिलाड़ी किसी खेल में विदेश में जाकर देश का झंडा गाड़ आता है, तब भी भावनाओं का ऐसा ही उबाल देखने में आता है। कारगिल युद्ध के समय भी ऐसा ही कुछ हुआ था। 62, 65 और 71 के युद्धों में भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा... कभी-कभी आज पर भी बातें हो जाती है, बाजार झंडों, बैनरों और तीन रंग के कपड़ों से पटा पड़ा है, राजनेता इसका उपयोग घोषणा करने और जनता पर उनके द्वारा (!) किए गए एहसानों का हिसाब दिखाने में करते हैं... अब तो इस कवायद में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, मॉल और शो-रूम भी कूद पड़े हैं... लगे हैं सारे 64 साल पहले मिली आज़ादी को आज भुनाने में... आज़ादी पर छूट के विज्ञापन दे रहे हैं, अखबारों के पन्ने काले हो रहे हैं, आज़ाद देश की उपलब्धियों और चुनौतियों के साथ इतिहास पर से धूल साफ करने में ... टीवी चैनलों के पास तो दिखाने की सीमा ही नहीं है, सेना का जीवन, विदेशों में भारतीयों द्वारा मनाए जा रहे आज़ादी के जश्न को दिखाने में... सेलिब्रिटी के लिए आज़ादी का मतलब (होता सब प्रायोजित है, लेकिन...) और स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास तो खैर है कि कबाड़े में कि जब चाहो तब धूल साफ कर चमकाओ और फिर दिखा दो... इन्हीं दिनों में बँटवारे की कड़वी यादें भी ताज़ा कर दी जाती है.... हाँ ये भी तो माध्यम हो सकता है कथित ‘देशभक्ति’ के ज्वार को उभारने में... हमारी देशभक्ति तो यूँ भी नकारात्मकता में ही पुष्पित-पल्लवित होती है... जब कोई दुश्मन-सा दिखे और हम उसे गाली दें... तब ही तो होंगे हम देशभक्त... पाकिस्तान के खिलाफ देखिए कैसे हम सारे एक हो जाते हैं और खुद को देशभक्त कहलाने लगते हैं? लगे रहते हैं, पाकिस्तान से अपनी तुलना करने में... कभी-कभी तो लगता है कि हमारी देशभक्ति भी सापेक्षिक है...बिना दुश्मन, बिना विपदा हमें कभी याद ही नहीं आता कि देश जैसी कोई शै भी है, जिसके प्रति हमारी जिम्मेदारी है... रेडियो तो खैर इन सबका अगुआ रहा ही है... इसमें फरमाइशी गानों के प्रोग्राम में सारी फरमाइशें भी तो देशभक्ति के गीतों की ही होती है... आखिरकार हमें देश याद ही इन दिनों आता है... तो सब तरफ आजादी की धूम नजर आ रही है और इस बात पर गहरी कोफ़्त हो रही है... तो सवाल ये उठता है कि कब तक हम प्रतीकों के माध्यम से अपनी देशभक्ति को परिभाषित करेंगे और न्यायसंगत ठहराएँगें? हर साल यही सब करते हैं और अगले दिन हम वही हो जाते हैं, हमारे कर्म, विचार और भावना में कहीं देश होता ही नहीं है। फिर देश क्या है, और देशभक्ति का मतलब क्या? हर साल हम एक रस्म निभा कर सोचते हैं कि देश के प्रति हमने अपना कर्तव्य पूरा किया... और अगले दिन हम वही हो जाते हैं, स्वार्थी, गैर-जिम्मेदार, असंवेदनशील और मक्कार...।
समय आ गया है कि हम शहीदों का पीछा छोड़े, छोड़ दें इसकी जुगाली करना कि उन्होंने इस देश का आज़ाद कराने के लिए क्या-क्या कुर्बानियाँ दी, इतिहास को विराम दे दें... शहीदों की कुर्बानियों के एवज में हम क्या कर सकते हैं, उस पर विचार करें, हम वर्तमान को कैसे खूबसूरत बनाएँ ताकि आने वाली पीढ़ी अपने इतिहास पर गर्व करें... कुछ भविष्य के लिए करें... कुछ आज को सुधारने के लिए करें....।

1 comment:

  1. कभी-कभी तो लगता है कि हमारी देशभक्ति भी सापेक्षिक है...very true...

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