साल भर में यही कुछ दिन हुआ करते हैं, जब वो खुद हो जाती है... वरना तो अंदर से बाहर की तरफ तनी रस्सी पर नट-करतब करते हुए ही दिन और जिंदगी गुजर रही होती है। कभी संतुलन बिगड़ जाता है, गिरती है, दर्द-तंज सहती है, असफल होती है और फिर उठकर करतब दिखाने लगती है। कभी-कभी सोचती है, क्या सबको यही करना होता है। क्या अंदर-बाहर के बीच हरेक के जीवन में इतनी ही दूरी हुआ करती है? हरेक को उसे इसी तरह पाटना होता है...? या ये उसी का अज़ाब है...! उसे अक्सर लगता है कि खुद को ही अच्छे से नहीं जाना जा सकता है तो हम दूसरों को कैसे जान सकते हैं? और कैसे, किसी के प्रति जजमेंटल हो जाया करते हैं? आखिर हम किसी की मानसिक और भावनात्मक बुनावट को कितना जानते है? इंसान तो अपने परिवेश में ही घड़ा जाता है ना...! हम उसकी जरूरत और परिवेश पर विचार किए बिना ही, उसे सही-गलत कैसे ठहरा सकते हैं...?
दो स्तरों पर लगातार विचार चल रहे थे... पता नहीं कमरा कैसा होगा? इंटरनेट पर बुकिंग करवाने पर यही होता है... गाड़ी ने बाहर छोड़ दिया था... कुली ने जब लगेज उठाया तो असीम ने उसे पहियों पर खींचने के लिए हैंडल खोलकर दे दिया...। चढ़ाव पर लगेज की गड़घड़ की तेज आवाज के बीच सारे विचार अटक गए। जैसे ही लगेज की गड़घड़ आवाज रूकी, गहरी शांति फैल गई...। जब कमरे में पहुँचे तो पूर्व की तरफ खुलती बड़ी-सी खिड़की से धूप की रोशनी में धुँधलाते पहाड़ नजर आए... सारी कुशंकाएँ भी धुँधला गई। अटेंडर ने पानी रखा, असीम ने चाय लाने के लिए कहा तो वो चला गया। असीम ने सूटकेस खोलकर कपड़े निकाले और बाथरूम चला गया। वो कमरे में अकेली हो गई। तेज साँस खींची... जैसे उस शांति को भीतर भर लेना चाहती हो। खिड़की के पास रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गई। इतनी शांति पता नहीं कितने सालों से नहीं मिली उसे... जब बाहर सबकुछ शांत होता है, तब भीतर अशांति चलती है, बाहर-भीतर शांति हो... ये कभी-कभी ही तो होता है।
इस बार फिर से घूमने के लिए मसूरी इसलिए ही तो चुना है, कि घूमने की हवस ना हो... यहाँ का चप्पा-चप्पा देखा हुआ है। पिछली बार आए थे, तब भी लगभग हफ्ते भर यहाँ रहे थे, इस बार भी इतना ही लंबा टूर है। शांति से रहने, पढ़ने, महसूस करने और खुद से संवाद करने का लक्ष्य लेकर ही तो दोनों यहाँ आए हैं। और उसके लिए इससे बेहतर और कौन-सी जगह होगी...।
चाय बनाने, खाना-नाश्ता, लांड्रीवाला, माली, सब्जीवाला, मैकेनिक, बाथरूम का टपकता नल, बदरंग हुए जा रहे पर्दे... गर्द जमी हुई टेबल और अस्त-व्यस्त किताबों को व्यवस्थित करने का अटका पड़ा काम... म्यूजिक सिस्टम को ठीक करवाना और इंटरनेट कनेक्शन का बंद हो जाना... बूटिक से कपड़े उठाना और गाड़ी में फ्यूज डलवाने जैसे सारे रूटीन से भरकर ही तो यहाँ आए हैं। अपनी दुनिया न हो तो दुनियादारी भी वैसी नहीं होती है। सोचा तो था कि बस दिन भर कमरे में ही रहेंगे... लेकिन पहले दिन उसे साध नहीं पाए...। लगा कि पहले उस सबको रिकलेक्ट कर लिया जाए जो पिछली बार यहाँ छूट गया था। दिन भर दोनों उन निशानों को इकट्ठा करने में लगे रहे जो पिछली बार जगह-जगह छोड़े थे, छूट गए थे। यहाँ कॉफी पिया करते थे, और यहाँ से सॉफ्टी लिया करते थे...। यहाँ की फोटो है और यहाँ के एकांत में... तुम्हें पता है... यहाँ पहले कुछ दुकानें हुआ करती थी। हाँ और ये एंटीक की दुकान... तब भी वैसी ही थी... जरा भी नहीं बदली। और यहाँ से आडू खरीदा करते थे, याद है हमने पहली बार जाना था कि असल में आडू का स्वाद कैसा होता है! मैदानों में हम तक जो पहुँचते हैं, वो तो बस फल ही है... स्वाद तो यहाँ के आडुओं में हुआ करता है। और लीची का शर्बत... कितनी खूबसूरत बॉटल में मिलता था! यहाँ तुम थककर रो पड़ी थी और यहाँ हमने झगड़ा किया था...। और फिर मनाने के लिए चॉकलेट खरीदी थी यहाँ से... । यहाँ मेंहदी बनवाई थी... कितनी स्मृतियाँ हैं यहाँ हर जगह बिखरी हुई...। उसे लगा कि ये भी रिलेक्स होने का एक तरीका है।
देर रात जब थककर कमरे पर पहुँचे थे तो जैसे 10 साल पुरानी स्मृतियों को जिंदाकर लौटे थे। ठंड बढ़ गई थी, मोटे ब्लैंकेट और फिर उस पर रजाई... इतना वजन कि सारे बदन को आराम महसूस होने लगा। आखिर दिन भर चल-चलकर ही तो बीते हुए दिनों को इकट्ठा किया था। असीम तो थककर सो गए थे, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। अँधेरा और शांति... शांति इतनी कि उससे सन्नाटे को दहशत होने लगे... स्मृतियों से ध्वनियाँ चुन-चुनकर लाता रहा मन... ना तो कुत्तों के भौंकने की आवाज थी और ना ही झींगुर की... इतनी गाढ़ी शांति में उसे साँस लेना भी गुनाह लग रहा था, यूँ लग रहा था जैसे ये जादू, जिसके लिए वो लगातार तरसती रही है टूट जाएगा, भंग हो जाएगा...। उसी जादू में उसे नींद आ गई। असीम की बड़बड़ से उसकी नींद खुली थी – यार इतनी रात लाईट जलाकर क्या कर रही हो...?
उसने आँखें खोली तो खिड़की से तेज रोशनी आ रही थी... – जरा उठकर देखो, खुद सूरज तुम्हारे कमरे में आकर जल रहा है...। – उसने असीम को गुदगुदाकर कहा।
ओह... क्या टाईम हुआ होगा...! – कहकर असीम ने टेबल पर से घड़ी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उसने असीम का हाथ खींच लिया। - सूरज निकल आया है... क्या ये कम है!
पता है, इस कमरे में इस बड़ी-सी खिड़की के अलावा और सबसे खूबसूरत क्या है...?
खुद कमरा...
ऊँ हू... इसमें घड़ी नहीं है...। – खुलकर हँसी थी वो... असीम लपका था, उसकी तरफ। वो जानता था कि उसने ये क्यों कहा था।
छोड़ दो सब... मोबाइल, घड़ी, लैपटॉप, दिन-रात का खयाल... बस घुलने ही आए हैं, हम यहाँ... - हवाघर की बेंच पर बैठी थी... भुट्टा खाते हुए... - और हाँ महँगा-सस्ता भी... – और शरारत से मुस्कुराई थी।
कभी खुद की बुद्धि को विश्राम देकर, दूसरों की नीयत पर भी विश्वास किया करो... दुनिया का हर आदमी घात लगाकर तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।
हर वक्त खुद को लादे हुए घूमती हो, थक नहीं जाती हो...! मुक्त करो खुद को... आजाद हो जाओ... किसी दिन बुद्धिमान और खूबसूरत नहीं लगोगी तो आसमान टूटकर गिर नहीं जाएगा...।
हाहाहा... आसमान तो है ही नहीं... टूटकर गिरेगा क्या खाक...!
है कैसे नहीं... सिर उठाकर देखो, तुम्हारे दुपट्टे के रंग का है... । –असीम ने दुपट्टे के कोने को अपनी ऊँगलियों में लपेट लिया था।
ये मैंने नहीं कहा है, तुम्हारा साईंस ही कहता है।
तुम्हें क्या दिखता है? जरा आसमान की तरफ सिर उठाकर देखो... साईंस को छोड़ो
मुझे दिखता है आसमान, मेरे दुपट्टे के रंग का... जिस पर बादल है, तुम्हारी शर्ट के रंग के...
तो बस... वो है... पता है तथ्य जीवन को जटिल बना देते हैं...।
तथ्य या फिर सत्य...!
नहीं... तथ्य... सत्य तो कुछ है ही नहीं।
दिन-पर-दिन गुजर गए... सुबह, दोपहर, शाम और रात... दुनिया और दुनियादारी से दूर... भटकाव, अपेक्षा, उलझन, दबाव और तमाम जद्दोजहद से दूर पंछी की तरह उन्मुक्त दिन उड़ गए, हवा हो गए। अब... अब लौटना है... कोई भी वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, लंबा टिक जाता है तो रूटीन हो जाता है। घर लौटने की कल्पना भी उत्साह भर रही थी। हरिद्वार से ही रिजर्वेशन है... एक दिन पहले ही दोपहर वहाँ पहुँच गए थे।
बहती हुई गंगा को छुए बिना कैसे लौटा जा सकता है!
बहती नदी जादू होती है
बहाकर लाती है ना जाने क्या-क्या
ले जाती है ना जाने क्या-क्या
माना कि बहना ही जीवन है
लेकिन
नदी-सा बहना
खुशी भी है और
त्रास भी...
क्योंकि बहना चुनाव हो तो
ठीक
अगर मजबूरी हो तो...?
तो... तो... त्रास, देखो गंगा को, लोग अपनी आस्था के जुनून में क्या-क्या बहाते जा रहे हैं। संध्या-आरती का समय था, हर की पौड़ी पर आरती के लिए मजमा इकट्ठा था। बाकी घाटों पर लोग एक दोने में फूल और दीया लेकर गंगा में प्रवाहित कर रहे थे... क्या ये सारा कूड़ा नहीं है?
असीम ने आँखों से डपटा था – तुम आस्था पर सवाल कर रही हो...!
मैं सिर्फ जानना चाह रही हूँ।
हाँ ये भी कूड़ा है। - असीम ने गंगा के ठंडे पानी में पैर डालते हुए कहा था
तो क्या किसी को ये जरा भी खयाल नहीं आता है कि कितना साफ पानी बह रहा है और उसमें ये कूड़ा क्यों बहाया जा रहा है? क्या सरकारें भी नहीं सोचती...! – गहरी वितृष्णा से भरकर उसने कहा था।
तुम फिर से तर्क पर आ रही हो...
ये तर्क है...? ये आस्था है, सौंदर्य-बोध है... छोड़ों।
दोनों अलग-अलग किनारों पर जा बैठे थे। असीम कैमरे से आसपास को खंगाल रहा था। वो बस बैठी थी... तेज लहरों को एकटक देखते हुए...। धारा का वेग उसकी चेतना को भी बहा ले जा रहा था। वो अचानक खड़ी हुई... घाट की पहली सीढ़ी पर पैर रखा... फिर दूसरी... फिर तीसरी... लहरों ने उसे कमर तक भिगो दिया था उसने बेखयाली में जंजीर को छोड़कर चौथी सीढ़ी की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि खयाल लौट आया – ये क्या कर रही थी तू...?
उसने जंजीर पकड़कर आसपास नजरें दौड़ाई, असीम थोड़ी दूर जाकर फोटो ले रहा था... कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। यदि ये बेखयाली और नीचे की सीढ़ियों की तरफ ले जाती तो...! उसे खुद से ही वहशत होने लगी...। वो लौट आई थी अपनी चेतना में... यदि भीतर का ये आवेग लहरों के हवाले कर देता उसे तो...! यदि वो बह जाती तो निश्चित ही कहीं दूर उसकी लाश मिलती... या शायद वो भी नहीं... क्योंकि बहाव तो क्रूर होता है... निर्मम भी...। उसने अपनी दुनिया में नजरें दौड़ाई... उसके न होने से किसकी दुनिया में फर्क आता... सबकी दुनिया भरी-पूरी है... सिवाय असीम के... सिर्फ असीम की दुनिया ही सूनी होती... उसे अचानक असीम पर लाड़ आया। वो अब भी पहली सीढ़ी पर खड़ी थी। असीम लौट आया था... चलें, सुबह जल्दी उठना है।
उसने झुककर अंजुरी में गंगा को भरा और अपने सिरपर उँढेल लिया...। ऐसा आवेग कभी आता नहीं है, उसने हाथ जोड़े तो ना जाने क्यों आँसू उमड़ आए... पलट कर चप्पल पहनी और असीम का हाथ थामे हुए भीड़ में से रास्ता बनाते दोनों लौट आए...।
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25/04/2012
08/03/2011
क्रमशः मनाली
मनु-आलय... यानी मनाली
मनु हमारे आदि पुरुष हैं और यहाँ की किंवदंतियों के हिसाब से सृष्टि के प्रलय के बाद मनु अपनी नाव सहित यहीं आकर रूके थे। रूके होंगे... एक तो हिमालय और दूसरा सृष्टि के पुर्नसृजन के लिए इससे बेहतर जगह कोई हो सकती है क्या... यदि प्रलय सिर्फ भारतीय उप-महाद्वीप में ही आया हो तो... ।
अब सृष्टि के पुर्नसृजन के किस्से भारतीय पुराणों, इस्लाम और यहाँ तक कि ईसाईयों में भी एक ही तरह के हैं... हमारे लिए मनु इस्लाम और ईसाईयों के लिए वो नूह हुए... तो मनु मंदिर के बारे में उत्सुकता गहरी थी। साढ़े तीन किमी का रास्ता तय कर जब हम मनु मंदिर के पास पहुँचे तो लगा कि हम हकीकत में उसी काल में आ पहुँचे हैं। गाय-बकरियों के बीच...। यहाँ पहुँच कर एकबारगी विश्वास आ गया कि जरूर मनु महाराज अपनी नाव लेकर यहीं आए होंगे, यहीं उन्हें श्रद्धा भी मिली होगी... लेकिन ईड़ा...? वो तो मैदानी ही होगी... क्यों... चलिए छोड़िए इस बेकार के विचार को...।
धीरे-धीरे लौटने का समय करीब आने लगा था... एक-साथ दो चीजें अंदर चल रही थी, प्रकृति से दूर चले जाने इस सौंदर्य से अलग हो जाने की टीस तो अपने घर लौटने की उत्कंठा... कोई जगह चाहे स्वर्ग-सी सुंदर हो, लेकिन आखिर अपना घर, अपना घर होता है ना... !
तो सबसे खूबसूरत जगह रोहतांग दर्रा ... हम खूबसूरत चीजों को बचाकर रखते हैं खूबसूरत दिनों के लिए... इस बीच दो बार सुन चुके थे कि रोहतांग बंद है, अब तो चार दिन गुजर चुके हैं बर्फ गिरे... अब तो रास्ता खुल ही गया होगा...? लेकिन नहीं... रोहतांग तो गर्मियों में ही खुलता है, अभी बर्फ का मैदान घुमना हो तो सोलांग वैली जाना पड़ेगा।
सोलांग... नमक का मैदान
सोलांग वैली मनाली से मात्र 16 किमी दूर है। वहाँ पेड़-पौधे नहीं है, बस हर तरफ चकाचौंध सफेदी है। जिस दिन हम सोलांग के मैदान पर पहुँचे उस दिन सूरज भी आलस छोड़ कर बाहर आ चुका था। उस बर्फ... नमक के मैदान पर सूर्य की किरणों से जो रिफ्लेक्शन पैदा हो रहा था, उससे परेशानी हो रही थी। वो मैदान असल में मैदान था, नर्म बर्फ में पैर धँस रहे थे, यहाँ स्कीईंग, पैराग्लाईडिंग, आईस स्कूटर और पता नहीं कौन-कौन से खेल चल रहे थे। पर्यटकों का मेला-सा लगा हुआ था। बाजार भी था, लेकिन बर्फ और धूप ने मिलकर आँखों को चौंधिया दिया था। वहाँ रहने से ज्यादा मजेदार वहाँ के फोटो देखना लगा।
... और घर की ओर
अंतिम दिन था... वन विहार होटल के सामने ही था... बाहर से दिखता था कि यहाँ देवदार का जंगल होगा, लेकिन ये अहसास नहीं था कि ब्यास भी यहीं से बहकर निकलती होगी। दिल्ली के लिए बस 3.30 पर थी और इस तरह लगभग आधा दिन था। इसमें मोनेस्ट्री देखी और वन विहार भी। वन विहार देवदार का घना-सा जंगल है और उसके पीछे से ब्यास नदी बह रही है। एक बार फिर पहाड़ से उतरती नदी... ग्रामीण... खालिस... अनगढ़ सौंदर्य... देखने और भोगने को मिला... हूक उठी यदि गर्मी होती तो क्या हमारे स्पर्श के बिना यूँ ही पानी बहता रह सकता था, लेकिन अभी... नहीं हाथ ड़ाल कर देखा था... बर्फ-सा ठंडा पानी थी, गर्मियों की तिस्ता भी याद आई थी, और हाँ पार्वती भी तो...। एकाध और आसपास की जगह देखी और लिजिए बारिश होने लगी। हमें लगा, जैसे हमारा स्वागत हुआ, हो सकता हो वैसी ही विदाई भी हो... मौसम बहुत सर्द हो गया। पिछले नौ दिनों में इतना सर्द नहीं हुआ था। बस में बैठे हुए उसके चलने की दुआ करने लगे थे... जब तक हमारी बस चली तब तक बस बूँदे ही बरस रही थी, बादल नहीं उतरे थे विदाई में...।
07/03/2011
पुनश्चः मनाली
सौंदर्य निरापद नहीं होता
कुनमुनाते हुए जब बाहर निकले तो सूरज हल्के-हल्के मुस्कुरा रहा था। मॉल रोड पर टोनी के चाय के स्टॉल पर पहुँचे तो नजारा ही दूसरा था। बदले मौसम का असर नजर आ रहा था। पर्यटक तो कम थे लेकिन स्थानीय लोग झुंड के झुंड बनाकर सूरज का स्वागत करते नजर आ रहे थे... लगा कि इस मौसम में यहाँ के लोग सूरज के निकलने को जरूर उत्सव की तरह मनाते होंगे। जहाँ से गाड़ियाँ आती-जाती हैं, वहाँ से तो बर्फ साफ की जा चुकी थी, लेकिन मनाली मॉल रोड पर वाहनों पर प्रतिबंध है, इसलिए यहाँ तो लोगों से चलने से बर्फ जम चुकी थी, जहाँ से ज्यादा आवाजाही थी, वहाँ बर्फ थो़ड़ी पिघलने भी लगी थी। याक मॉल रोड पर आ चुके थे और पर्यटक उन पर बैठकर फोटो खिंचवा रहे थे। हर तरफ रौनक नजर आ रही थी। उष्मा की रौनक...
खाने के बाद मीठी से नींद लेकर जब शाम की चाय के लिए बाहर आए, तो हल्की फुहारें शुरू हो चुकी थी। गर्म चाय का गिलास हाथ में लेकर आसमान की तरफ नजरें उठाई थी, ये जानने के लिए कि आज का इरादा क्या है कि बादलों की चिंदियाँ उतरती नजर आने लगी, छाता खोलकर मॉल रोड के अंतिम सिरे की तरफ बढ़ गए। धीरे-धीरे स्थानीय लोग और पर्यटक सभी गायब होने लगे... बादल अब कतरनों में बरसने लगे। छाते हटा दिए थे, सिर पर रूई की तरह ठहरने लगी थी बर्फ... हथेली में लेने का हौसला दिखाया तो, लेकिन ऊनी दस्तानों के अंदर जब पिघल कर उतरी तो सिहरन दौड़ने लगी... तुरंत हाथ खींच लिए। पागलपन यूँ कि कभी बर्फ समेटे तो कभी समय को थाम लेने की बेतुकी-सी हूक उठे... रंग-बिरंगी दुनिया पर सफेदी छाने लगी थी... धीरे-धीरे सब कुछ सफेद हो गया था, श्वेत, धवल, उज्जवल... तभी एक स्थानीय युवक ने पूछा – आपका फोटो ले सकता हूँ?
क्यों नहीं, लेकिन एक शर्त है, आपको भी हमारे फोटो खींचने पड़ेंगे।
जरूर...
फोटो खींचने के दौरान उसका साथी दुकानदार कश्मीरी युवक भी आ खड़ा हुआ, कहने लगा – तंग आ चुके हैं, पिछले बीस दिनों से रोज यही-यही हो रहा है। किसी एक दिन खूब बरस जाए और खत्म हो जाए... ऐसा तो नहीं... रोज-रोज बस यही।
अरे... कहाँ तो हम इसे ही थामने की नामुमकिन-सी इच्छा को दबा रहे हैं और ये तंग आ चुका है। तभी लगा कि सौंदर्य भी निरापद नहीं होता... ये भी तो आपदा है...।
जब तीसरा चक्कर लगाकर लौटे तो देखा कि वो दोनों युवक और उसके साथी खुले से मॉल रोड पर बर्फ से खेल रहे हैं और लगा कि मुश्किलों में भी जिंदगी बहकर आ ही जाती है। कोई भी क्षण स्थायी सच नहीं होता है, हर क्षण का सच बदलता है... अरे... फिर से वही। ठंड बढ़ने लगी थी, इसलिए अब लौटना तो था ही... खत्म होना भी तो सच है, चाहे जीवन हो, सफर हो या फिर आनंद...।
हिडिंबा और आस्था का प्रवाह
ये हम हमेशा करते हैं, कि जहाँ-जहाँ आसानी से चल कर जाया जा सके, वहाँ पैदल ही जाते हैं। कहीं भी पहुँचते ही वहाँ की ट्रेवल गाईड और नक्शा जरूर खरीदते हैं, ताकि उस जगह को थोड़ा ज्यादा जान और समझ सके। तो मॉल रोड से हिडिंबा मंदिर (अब वहाँ तो उसे हिडिंबा देवी मंदिर कहा जाता है, लेकिन हमारे लिए तो वो राक्षसी है ना...!) लगभग डेढ़ किमी दूर है और वहाँ बहुत आराम से पैदल चलकर जाया जा सकता है। बर्फ की सड़क थी और बर्फ के ही पेड़-पौधे...। क्लब हाउस जाने वाले रास्ते से बाँई ओर जाने वाली सड़क हिडिंबा देवी मंदिर की ओर जाती है। थोड़ी सीढ़ियाँ भी चढ़नी पड़ती है। मंदिर को देखकर अनायास मनोहर श्याम जोशी और शिवानी के उपन्यासों में वर्णित हिमाचल के मंदिरों की याद आ गई। बहुत ही साधारण मंदिर, लेकिन उसकी असाधारणता थी, सफेद बर्फ... हर तरफ बस बर्फ ही बर्फ.... टीन की छत वाले लीपे हुए फर्श पर एक तरफ हवन चल रहा था, स्थानीय लोग बड़ी श्रद्धा से अंदर जाकर आराधना कर रहे थे... लगा कि हम भारतीयों के अंदर आस्था किस कदर बहती है कि देवी आराधना के लिए उन्हें न तो दुर्गा की दरकार है, न सरस्वती या काली की, हिडिंबा भी चलेगी। खैर हमें तो लगा कि यहाँ आकर ही पूरा मनाली घुम लिया। देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ यूँ लग रही थी जैसे ये बर्फ के ही पेड़ हो... । वैसे पैदल 3 किमी चलना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन रबर के जूते पहन कर बर्फ में चलना खासा थकाने वाला साबित हुआ। दोपहर में खासी गहरी नींद आई... रात को जब पिघलती बर्फ पर चहलकदमी कर रहे थे, तब आसमान में पूरा चाँद दिखाई दिया... साफ आसमान पर चाँद यूँ लग रहा था जैसे ये भी बर्फ का ही हो...।
यहाँ आए तीन पूरे दिन बीत गए थे। अब घुमने में थोड़ी तेजी दिखानी होगी। अगले दिन मणिकर्ण पहुँच गए। कुल्लू... हुड़कचुल्लू (राजेश ने बाद में कुल्लू को देखकर ये कविता लिखी थी) से और 35 किमी दूर मणिकर्ण एक गुरुद्वारा है, लेकिन वहाँ जाने का सबब गंधक के चश्मे हैं। चावल की पोटली लेकर गंधक के पानी में थोड़ी देर रखी... बुलबुले उठाता उबलता प्राकृतिक पानी... धुआँ ही धुआँ... साथ ही पहाड़ों से उतरती पार्वती भी...।
जब गुरुद्वारे की तरफ बढ़े तो सीढ़ियाँ चढ़े तो एक बुजुर्ग सरदारजी ने पके चावल की पोटली देखकर अपनी दुकान से एक पोलीथिन दी राजेश को और ये कहकर गले लगा लिया – बड़ी दमदार पर्सनेलिटी है साहब आपकी...।
अंदर बहुत भीगा-भीगा-सा कुछ बह निकला। हम सौजन्यता वश उनकी दुकान का सामान देखने लगे। एक कड़ा पसंद आया तो उन्होंने सूखे प्रसाद का पाउच भी पकड़ा दिया। जब पैसे दिए तो उन्होंने बहुत अपराध से भरकर कहा – अरे मैंने तो आपसे भी दुकानदारी कर ली। आदतन आते इस विचार को हमने झटक दिया कि शायद ये उनकी दुकानदारी का स्टाइल होगा... मानसिक प्रदूषण से कितना और कैसे बचे?
वशिष्ठ मंदिर
लिजिए लगता है कि सारे ही पौराणिक पात्र यहाँ से रिश्ता रखते हैं। हिडिंबा की वजह से भीम तो खैर यहाँ आए ही होंगे... वहीं उपर ही घटोत्कच का भी मंदिर है। महाभारत का मसाला तो है ही रामायण का भी है। वशिष्ठ मंदिर में भी गंधक का चश्मा है, बताने वाले ने बताया कि यहाँ तो पानी में गंधक के क्रिस्टल भी नजर आते हैं, लेकिन वहाँ का फर्श इतना ठंडा था और जूते उतार कर जाने की बाध्यता में हम ये साहस नहीं दिखा सके। गए तो यहाँ ऑटो से लेकिन लौटे पैदल... ब्यास नदी के किनारे-किनारे हायवे से चलते हुए पहाड़ों और उन देवदारों पर जमी बर्फ को निहारते, अभिभूत होते थके-हारे लौटे, लेकिन आनंद लेकर...।
कुल्लू... हुड़कचुल्लू
जब से आए हैं तब से ही ये सवाल रह-रहकर परेशान कर रहा था कि मनाली तो खैर बहुत खूबसूरत है, लेकिन इसके साथ कुल्लू क्यों जुड़ता है। जबकि हमारे टैक्सी ड्रायवर ने हमें बताया कि कुल्लू में तो बर्फबारी भी नहीं होती है। तो ये देखने के लिए कि आखिर कुल्लू में क्या है, बहस करते-करते पहुँच गए। कुल्लू पहुँचे तो 6 दिनों में पहली बार फ्रेश ब्लू कलर का आसमान देखा... शायद सूरज के साथ आसमान और निखर जाता हो। और तो कुछ वहाँ था नहीं, सिवा कल-कल करती ब्यास नदी के...।
कुनमुनाते हुए जब बाहर निकले तो सूरज हल्के-हल्के मुस्कुरा रहा था। मॉल रोड पर टोनी के चाय के स्टॉल पर पहुँचे तो नजारा ही दूसरा था। बदले मौसम का असर नजर आ रहा था। पर्यटक तो कम थे लेकिन स्थानीय लोग झुंड के झुंड बनाकर सूरज का स्वागत करते नजर आ रहे थे... लगा कि इस मौसम में यहाँ के लोग सूरज के निकलने को जरूर उत्सव की तरह मनाते होंगे। जहाँ से गाड़ियाँ आती-जाती हैं, वहाँ से तो बर्फ साफ की जा चुकी थी, लेकिन मनाली मॉल रोड पर वाहनों पर प्रतिबंध है, इसलिए यहाँ तो लोगों से चलने से बर्फ जम चुकी थी, जहाँ से ज्यादा आवाजाही थी, वहाँ बर्फ थो़ड़ी पिघलने भी लगी थी। याक मॉल रोड पर आ चुके थे और पर्यटक उन पर बैठकर फोटो खिंचवा रहे थे। हर तरफ रौनक नजर आ रही थी। उष्मा की रौनक...
खाने के बाद मीठी से नींद लेकर जब शाम की चाय के लिए बाहर आए, तो हल्की फुहारें शुरू हो चुकी थी। गर्म चाय का गिलास हाथ में लेकर आसमान की तरफ नजरें उठाई थी, ये जानने के लिए कि आज का इरादा क्या है कि बादलों की चिंदियाँ उतरती नजर आने लगी, छाता खोलकर मॉल रोड के अंतिम सिरे की तरफ बढ़ गए। धीरे-धीरे स्थानीय लोग और पर्यटक सभी गायब होने लगे... बादल अब कतरनों में बरसने लगे। छाते हटा दिए थे, सिर पर रूई की तरह ठहरने लगी थी बर्फ... हथेली में लेने का हौसला दिखाया तो, लेकिन ऊनी दस्तानों के अंदर जब पिघल कर उतरी तो सिहरन दौड़ने लगी... तुरंत हाथ खींच लिए। पागलपन यूँ कि कभी बर्फ समेटे तो कभी समय को थाम लेने की बेतुकी-सी हूक उठे... रंग-बिरंगी दुनिया पर सफेदी छाने लगी थी... धीरे-धीरे सब कुछ सफेद हो गया था, श्वेत, धवल, उज्जवल... तभी एक स्थानीय युवक ने पूछा – आपका फोटो ले सकता हूँ?
क्यों नहीं, लेकिन एक शर्त है, आपको भी हमारे फोटो खींचने पड़ेंगे।
जरूर...
फोटो खींचने के दौरान उसका साथी दुकानदार कश्मीरी युवक भी आ खड़ा हुआ, कहने लगा – तंग आ चुके हैं, पिछले बीस दिनों से रोज यही-यही हो रहा है। किसी एक दिन खूब बरस जाए और खत्म हो जाए... ऐसा तो नहीं... रोज-रोज बस यही।
अरे... कहाँ तो हम इसे ही थामने की नामुमकिन-सी इच्छा को दबा रहे हैं और ये तंग आ चुका है। तभी लगा कि सौंदर्य भी निरापद नहीं होता... ये भी तो आपदा है...।
जब तीसरा चक्कर लगाकर लौटे तो देखा कि वो दोनों युवक और उसके साथी खुले से मॉल रोड पर बर्फ से खेल रहे हैं और लगा कि मुश्किलों में भी जिंदगी बहकर आ ही जाती है। कोई भी क्षण स्थायी सच नहीं होता है, हर क्षण का सच बदलता है... अरे... फिर से वही। ठंड बढ़ने लगी थी, इसलिए अब लौटना तो था ही... खत्म होना भी तो सच है, चाहे जीवन हो, सफर हो या फिर आनंद...।
हिडिंबा और आस्था का प्रवाह
ये हम हमेशा करते हैं, कि जहाँ-जहाँ आसानी से चल कर जाया जा सके, वहाँ पैदल ही जाते हैं। कहीं भी पहुँचते ही वहाँ की ट्रेवल गाईड और नक्शा जरूर खरीदते हैं, ताकि उस जगह को थोड़ा ज्यादा जान और समझ सके। तो मॉल रोड से हिडिंबा मंदिर (अब वहाँ तो उसे हिडिंबा देवी मंदिर कहा जाता है, लेकिन हमारे लिए तो वो राक्षसी है ना...!) लगभग डेढ़ किमी दूर है और वहाँ बहुत आराम से पैदल चलकर जाया जा सकता है। बर्फ की सड़क थी और बर्फ के ही पेड़-पौधे...। क्लब हाउस जाने वाले रास्ते से बाँई ओर जाने वाली सड़क हिडिंबा देवी मंदिर की ओर जाती है। थोड़ी सीढ़ियाँ भी चढ़नी पड़ती है। मंदिर को देखकर अनायास मनोहर श्याम जोशी और शिवानी के उपन्यासों में वर्णित हिमाचल के मंदिरों की याद आ गई। बहुत ही साधारण मंदिर, लेकिन उसकी असाधारणता थी, सफेद बर्फ... हर तरफ बस बर्फ ही बर्फ.... टीन की छत वाले लीपे हुए फर्श पर एक तरफ हवन चल रहा था, स्थानीय लोग बड़ी श्रद्धा से अंदर जाकर आराधना कर रहे थे... लगा कि हम भारतीयों के अंदर आस्था किस कदर बहती है कि देवी आराधना के लिए उन्हें न तो दुर्गा की दरकार है, न सरस्वती या काली की, हिडिंबा भी चलेगी। खैर हमें तो लगा कि यहाँ आकर ही पूरा मनाली घुम लिया। देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ यूँ लग रही थी जैसे ये बर्फ के ही पेड़ हो... । वैसे पैदल 3 किमी चलना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन रबर के जूते पहन कर बर्फ में चलना खासा थकाने वाला साबित हुआ। दोपहर में खासी गहरी नींद आई... रात को जब पिघलती बर्फ पर चहलकदमी कर रहे थे, तब आसमान में पूरा चाँद दिखाई दिया... साफ आसमान पर चाँद यूँ लग रहा था जैसे ये भी बर्फ का ही हो...।
यहाँ आए तीन पूरे दिन बीत गए थे। अब घुमने में थोड़ी तेजी दिखानी होगी। अगले दिन मणिकर्ण पहुँच गए। कुल्लू... हुड़कचुल्लू (राजेश ने बाद में कुल्लू को देखकर ये कविता लिखी थी) से और 35 किमी दूर मणिकर्ण एक गुरुद्वारा है, लेकिन वहाँ जाने का सबब गंधक के चश्मे हैं। चावल की पोटली लेकर गंधक के पानी में थोड़ी देर रखी... बुलबुले उठाता उबलता प्राकृतिक पानी... धुआँ ही धुआँ... साथ ही पहाड़ों से उतरती पार्वती भी...।
जब गुरुद्वारे की तरफ बढ़े तो सीढ़ियाँ चढ़े तो एक बुजुर्ग सरदारजी ने पके चावल की पोटली देखकर अपनी दुकान से एक पोलीथिन दी राजेश को और ये कहकर गले लगा लिया – बड़ी दमदार पर्सनेलिटी है साहब आपकी...।
अंदर बहुत भीगा-भीगा-सा कुछ बह निकला। हम सौजन्यता वश उनकी दुकान का सामान देखने लगे। एक कड़ा पसंद आया तो उन्होंने सूखे प्रसाद का पाउच भी पकड़ा दिया। जब पैसे दिए तो उन्होंने बहुत अपराध से भरकर कहा – अरे मैंने तो आपसे भी दुकानदारी कर ली। आदतन आते इस विचार को हमने झटक दिया कि शायद ये उनकी दुकानदारी का स्टाइल होगा... मानसिक प्रदूषण से कितना और कैसे बचे?
वशिष्ठ मंदिर
लिजिए लगता है कि सारे ही पौराणिक पात्र यहाँ से रिश्ता रखते हैं। हिडिंबा की वजह से भीम तो खैर यहाँ आए ही होंगे... वहीं उपर ही घटोत्कच का भी मंदिर है। महाभारत का मसाला तो है ही रामायण का भी है। वशिष्ठ मंदिर में भी गंधक का चश्मा है, बताने वाले ने बताया कि यहाँ तो पानी में गंधक के क्रिस्टल भी नजर आते हैं, लेकिन वहाँ का फर्श इतना ठंडा था और जूते उतार कर जाने की बाध्यता में हम ये साहस नहीं दिखा सके। गए तो यहाँ ऑटो से लेकिन लौटे पैदल... ब्यास नदी के किनारे-किनारे हायवे से चलते हुए पहाड़ों और उन देवदारों पर जमी बर्फ को निहारते, अभिभूत होते थके-हारे लौटे, लेकिन आनंद लेकर...।
कुल्लू... हुड़कचुल्लू
जब से आए हैं तब से ही ये सवाल रह-रहकर परेशान कर रहा था कि मनाली तो खैर बहुत खूबसूरत है, लेकिन इसके साथ कुल्लू क्यों जुड़ता है। जबकि हमारे टैक्सी ड्रायवर ने हमें बताया कि कुल्लू में तो बर्फबारी भी नहीं होती है। तो ये देखने के लिए कि आखिर कुल्लू में क्या है, बहस करते-करते पहुँच गए। कुल्लू पहुँचे तो 6 दिनों में पहली बार फ्रेश ब्लू कलर का आसमान देखा... शायद सूरज के साथ आसमान और निखर जाता हो। और तो कुछ वहाँ था नहीं, सिवा कल-कल करती ब्यास नदी के...।
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