बॉक्स की न्यूज थी... हमेशा की तरह फ़र्ज अदायगी को महिमामंडित किया गया था। वीसी शुक्ल के युवा पीएसओ ने ये कहकर आखिरी गोली खुद को मार ली कि बस हम अब आपकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। टीवी और अख़बार लगे हुए हैं, उसके आखिरी शब्दों की जुगाली में। ख़बर तो जाहिर है बहुत बड़ी थी, इतनी बड़ी संख्या में इस देश में राजनीतिक लोगों की मौत कभी हुई ही नहीं... पूरा इतिहास खंगाल लें। तब भी नहीं जब श्रीपेरंबदुर में राजीव गाँधी की आत्मघाती हमले में मौत हुई थी। जबकि वे वहाँ चुनावी रैली को संबोधित करने गए थे और जाहिर है कि उनके साथ वहाँ स्थानीय राजनीतिज्ञों की फ़ौज होगी... लेकिन तब भी इतने राजनीतिज्ञ हताहत नहीं हुए थे, जितने कि सुकमा में हाल ही में हुए नक्सली हमलों में हुए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के बारे में बहुत जानकारी नहीं है, अरे... राजनीति के बारे में ही जानकारी कम है, जबकि इसके बारे में ही सबसे ज्यादा जानकारी होनी चाहिए थी, अब पढ़ा तो यही है ना! कुछ समय पहले अपने प्रोफेसरों से मिलने का 'संयोग' हुआ, अरे सौभाग्य-वौभाग्य कोई बात नहीं है और दुर्भाग्य तो खैर है ही नही... हाँ तो उनसे मिलने के दौरान बहुत सालों बाद बल्कि यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद याद आया कि पॉलिटिकल-साइंस पढ़ा है। शायद राजनीति ने जल्दी ही इससे मोहभंग कर दिया। नहीं पॉलिटिकल-साइंस से नहीं... बल्कि पॉलिटिक्स से... पॉलिटिकल-साइंस तो बहुत सारी चीजों की तरह ही दुखती रग है। खैर तो कहा तो ये जा रहा है कि हालिया नक्सली हमले ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के फ्रंट लाइन नेताओं की बलि ले ली। होगा ही, क्योंकि इस हमले में कांग्रेस के बहुत सारे कद्दावर नेताओं की जान ले ली और इसमें कुछ ऐसे लोगों की भी मौत हुई जो बेनाम है, अनजान और नामामूल किस्म के हैं। ड्रायवर, सहयोगी, सुरक्षा कर्मी आदि-आदि... महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और इसी तरह के बड़े-बड़े नामों के बीच ये गुमनाम लोग। राजनीतिज्ञ तो सारे-के-सारे चुनाव की तैयारियों के लिए वहाँ गए थे, चुनाव जीतते तो कुछ-न-कुछ तो मिलता ही, लेकिन उनके साथ जो लोग मारे गए उनका क्या? उन्हें क्या मिला? क्या मिलता?
ये सवाल बड़ा असुविधाजनक है, कह तो सकते हैं कि बड़ा अहमकाना भी। अरे यही व्यवस्था है, ऐसा ही होता आया है। अरस्तू ने भी तो कहा है कि महत्वपूर्ण काम करने वालों को सहयोगियों (उन्होंने तो खैर बाकायदा गु़लाम कहा था, लेकिन जरा सभ्य हो गए हैं, इसलिए शब्द थोड़े सॉफ्ट कर दिए हैं।) की जरूरत होती ही है। आखिर तो जो वीआईपी होते हैं, वे देश की संपदा होते हैं, व्यवस्था की रीढ़... उनका वज़ूद कितना अहम है वो इस बात से तय होता है कि उनके जीवन के लिए कितने लोग अपना जीवन कुर्बान कर सकते हैं? आखिर आम लोगों की जिंदगी का मतलब ही क्या है? लेकिन ये कौन तय करता है कि किसकी जिंदगी कितनी महत्वपूर्ण हैं और ये अधिकार किसने दिया है, किसको दिया है और किस नाते दिया गया है? पात नहीं ‘जीवन’ के प्रति संवेदना बढ़ गई है, इसलिए या फिर ‘इंसानी जीवन’ के प्रति व्यवस्थागत असंवेदनशीलता कम हुई है, इसीलिए ये सवाल परेशान कर रहा है कि कैसे और क्यों किसी की जान की कीमत कम और किसी की ज्यादा हो जाती है? और ये कीमत कौन तय करता है और उसका आधार क्या होता है? इसलिए कुछ बेवजह के सवाल आकर घेरते रहते हैं... व्यवस्था की क्रूरता की वजह से, आक्रोश पैदा होता है और इसलिए लगता है कि व्यवस्थाएं, अपने लिए सिर्फ ‘बोनसाई’ चाहती हैं... मनुष्यों को अपने हिसाब से कांट-छांट कर बनाने से ही व्यवस्थाएं सर्वाइव करती हैं और हम इतने कंडिशंड हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी नया, कुछ भी गलत नहीं लगता है...?
आखिर क्यों किसी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दें...? जिसके लिए कुर्बानी दी जा रही है, वो इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं कि कइयों की जान उस पर न्यौछावर कर दी जानी चाहिए...! तो क्या ऐसा है कि किसी जिंदगी का मूल्य महज पैसा है? सिर्फ पैसा ही वो वजह होती है, जिसकी वजह से कोई अपनी जान का सौदा करता है और सिर्फ पैसा ही वो वजह है, जिसकी वजह से किसी की जान बहुत सारे लोगों की जान से ज्यादा कीमती हो जाती है। तो फिर मानवता, इंसानियत, लोकतंत्र, समानता और भाईचारा सिर्फ शब्द नहीं रह जाते हैं, खोखले, अर्थहीन और बे-ग़ैरत शब्द। सिर्फ धन वो शब्द नहीं हो जाता है, जिसका अर्थ है! और फिर हमारी सारी संवेदना, ज्ञान, दर्शन, विचार, व्यवस्था, समाज सब कुछ बेमानी नहीं हो जाता है, जब अर्थ ही एकमात्र संचालक नजर आता हो तो... !
कौमनिस या होमनिस...
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