11/12/2010
मुक्ति की चाह... किससे और क्यों...?
बेतरह उलझन और कठिन सामाजिकता निबाहने का दौर तो गुजर गया, लेकिन पता नहीं क्यों कहीं कुछ अटका पड़ा हुआ है, तभी तो कुछ बेचैनी-सी है। लगातार देर रात तक जागने और सुबह जल्दी उठ जाने के बीच आज की सुबह कुछ सुकूनभरी थी... लंबे समय के बाद सुबह की दौड़-धूप से दूर निपट तनहाई... छुट्टी की सुबह हो और ऐसा अकेलापन हो तो और मन क्या चाहेगा, जबकि उसकी शिद्दत से जरूरत भी हो...सुबह गुनगुना उनींदापन और मीठी-महकती उदासी के बीच सामाजिक जीवन को जीने के दौरान उभरे अर्थहीनता के आइसबर्ग को दूर ढकेल दिया और जरा खुद के करीब आ बैठे। पिछली कई रातों से ऐसा हो रहा है कि गहरी नींद के बीच एक शब्द ‘मुक्ति’ लगातार एक ही जैसी आहट और आवृत्ति के साथ जहन पर तब तक दस्तक देता रहता है,... जब तक कि नींद न उचट जाए... नींद उचटने के बाद सवाल – किससे मुक्ति? कैसी मुक्ति? हर बार की तरह जवाब नहीं।
दाग़ के अशआर औऱ शुमोना की आवाज के साथ... होशो हवास ताब-ओ-तवां दाग़ जा चुके/ अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया... घुलने की चाहत जागी थी। एकाएक मुक्ति की गुत्थी सुलझती हुई नजर आई थी। अपने भौतिक और अभौतिक होने से मुक्ति की माँग... घुलने... बह जाने... कुछ न होने की चाह...। भौतिक होने के अहम औऱ अभौतिक होने की कभी-कभी बोझिल हो जाती प्यास से मुक्ति... उस बोझ से मुक्ति की चाहत, जो सामाजिकता औऱ व्यक्तिगतता की वजह से खुद पर लादा हुआ-सा महसूस होता है। भौतिक के अदृश्य हो जाने और अभौतिक के घुल जाने की आकांक्षा... जागा कि ‘हम’ होने से ‘न-कुछ’ हो जाए... अपनी अनुपस्थिति में देखें दुनिया को, असंपृक्त, निर्लिप्त और निस्संग होकर... देखें कि जो दुनिया हमारे होने पर ऐसी है, वो हमारे द्वारा छोड़े खाली स्थान के साथ कैसी होगी? महसूस करें कि खुद के ‘दिखने’ और ‘होने’ से अलग खुद का होना क्या है और कैसा है? जानें कि जो अब्सर्ड हमारे होते हैं, क्या वही अब्सर्ड हमारे न होते भी होता है, हो सकता है ... महसूस करें कि अपने ‘होने’ से मुक्त होने के बाद का ‘होना’ कैसे होता होगा? अपनी भौतिकता की कभी नर्म तो कभी गर्म होती अनुभूति के बिना कैसा लगता है? और अपने अभौतिक होने के अहम के गल जाने, तरल होकर बह जाने के बाद अपना ‘होना’ कैसा होता होगा? क्या ऐसा होना हो भी पाता है, या फिर ये बस एक न-पूरी होने वाली आकांक्षा ही है... या इसका होना वैसा होता होगा, जैसे गाढ़ी नींद....! लेकिन गाढ़ी नींद तो जागने तक होने वाली मौत होती है, जिसमें कोई चेतना नहीं होती है... यहाँ मामला अपने ‘न-होने’ की चेतना के बाद दुनियावी चेतना का है... ठोस स्व के पिघलने, गलने औऱ बह जाने के बाद न-कुछ होकर दुनिया के कारोबार को देखने और महसूस करने की नामुमकिन-सी इच्छा... क्यों है ये?
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जागा कि ‘हम’ होने से ‘न-कुछ’ हो जाए... अपनी अनुपस्थिति में देखें दुनिया को, असंपृक्त, निर्लिप्त और निस्संग होकर... देखें कि जो दुनिया हमारे होने पर ऐसी है, वो हमारे द्वारा छोड़े खाली स्थान के साथ कैसी होगी?
ReplyDelete.......अनुपम....