28/11/2010
यहाँ सादगी अश्लील शब्द और भूख गैर-जरूरी मसला है
शादियों का सिलसिला शुरू हो चला है और अपनी बहुत सीमित दुनिया में भी लोग ही बसते हैं तो उनके यहाँ होने वाले शादी-ब्याह में हम भी आमंत्रित होते हैं... फिर मजबूरी ही सही, निभानी तो है...। हर बार किसी औपचारिक सामाजिक आयोजन में जाने से पहले तीखी चिढ़ के साथ सवाल उठता है कि लोग ऐसे आयोजन करते क्यों हैं? और चलो करें... लेकिन हमें क्यों बुलाते हैं? इस तरह के आयोजनों में जाने से पहले की मानसिक ऊहापोह और अलमारी के रिजर्व हिस्से से निकली कीमती साड़ी की तरह की कीमती कृत्रिमता का बोझ चाहे कुछ घंटे ही सही, सहना तो होता ही है ना... ! बड़ी मुश्किल से आती शनिवार की शाम के होम होने की खबर तो पहले सी ही थी, उस पर हुई बारिश ने शाम के बेकार हो जाने की कसक को दोगुना कर दिया। शहर के सुदूर कोने में कम-से-कम 5 एकड़ में फैले उस मैरेज गार्डन तक पहुँचने के दौरान कितनी बार खूबसूरत शाम के यूँ जाया हो जाने की हूक उठी होगी, उसका कोई हिसाब नहीं था।
उस शादी की भव्यता का अहसास बाहर ही गाड़ियों की पार्किंग के दौरान हो रही अफरातफरी से लगाया जा चुका था। गार्डन में हल्की फुहारों से नम हुई कारपेट लॉन में पैर धँस रहे थे। गार्डन का आधा ही हिस्सा यूज हो रहा था और प्रवेश-द्वार से स्टेज ऐसा दिख रहा था, जैसे बहुत दूर कोई कठपुतली का खेल चल रहा हो।
शुरूआती औपचारिकता के बाद हमने देखने-विचारने के लिए एक कुर्सी पकड़ ली थी... आते-जाते जूस, पंच और चाय का आनंद उठाते लकदक कपड़ों, गहनों में घुमते-फिरते लोगों को देखते रहे। करीब 60 फुट चौड़े स्टेज पर दुल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देने के लिए कतार में खड़े लोगों को देखकर हँसी आई थी... यही शायद एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ देने वाले कतार बनाकर खड़े हों... वो भी आशीर्वाद और बधाई जैसी अमूल्य चीज... यही दुनिया है...।
खाने में देशी-विदेशी सभी तरह के व्यंजनों के स्टॉल थे... कहीं पहुँच पाए, कहीं नहीं... पता नहीं ये थकान होती है, ऊब या फिर खाना खाने का असुविधाजनक तरीका... घर पहुँचकर जब दूध गर्म करती हूँ... हर बार सुनती हूँ कि – ‘शादियों में बैसाखीनंदन हो जाती हो...।’ बादाम का हलवा ले तो लिया, लेकिन उसकी सतह पर तैरते घी को देखकर दो चम्मच ही खाकर उसे डस्टबिन में डाल दिया... फिर अपराध बोध से भर गए... यहाँ हर कोई हमारी ही तरह हरेक नई चीज को चखने के लोभ में क्या ऐसा ही नहीं कर रहा होगा? तो क्या देश की 38 प्रतिशत आबादी की भूख केवल मीडिया की खबर है...? यहाँ देखकर तो ऐसा कतई नहीं लगता कि इस देश में भूख कोई मसला है, प्रश्न है...।
विधायक, सांसद और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ शहर के बड़े व्यापारी, उद्योगपतियों का आना-जाना चल रहा था, कीमती सूट-शेरवानी में मर्द और महँगी चौंधियाती साड़ियों और सोने-हीरे के जेवरों में सजी महिलाओं के देखकर यूँ ही एक विचार आया... कि जिस तरह नेता रैली, बंद, धरने, हड़ताल और जुलूस के माध्यम से अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं, उसी तरह अमीर, शादियों में अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं... किसके यहाँ कौन वीआईपी गेस्ट आए... कितने स्टॉल थे, कितने लोग, मैन्यू में क्या नया और सजावट में क्या विशेष था... संक्षेप में शादी का बजट किसका कितना ज्यादा रहा... यहाँ शक्ति को संदर्भों में देखने की जरूरत है। कुल मिलाकर इस दौर में जिसके पास जो है, वो उसका प्रदर्शन करने को आतुर नजर आ रहा है, मामला चाहे सुंदर देह और चेहरे का हो, पैसे का, ताकत का या फिर बुद्धि का... यहाँ सादगी एक अश्लील शब्द, भूख-गरीबी गैर जरूरी प्रश्न है तो जाहिर है कि प्रदर्शन को एक स्थापित मूल्य होना होगा, हम लगातार असंवेदना... गैर-जिम्मेदारी और अ-मानवीयता की तरफ बढ़ रहे हैं... बस एक चुभती सिहरन दौड़ गई...।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
कुल मिलाकर इस दौर में जिसके पास जो है, वो उसका प्रदर्शन करने को आतुर नजर आ रहा है, मामला चाहे सुंदर देह और चेहरे का हो, पैसे का, ताकत का या फिर बुद्धि का... यहाँ सादगी एक अश्लील शब्द, भूख-गरीबी गैर जरूरी प्रश्न है तो जाहिर है कि प्रदर्शन को एक स्थापित मूल्य होना होगा, हम लगातार असंवेदना... गैर-जिम्मेदारी और अ-मानवीयता की तरफ बढ़ रहे हैं... बस एक चुभती सिहरन दौड़ गई...।
ReplyDeletethis thought ,actualy, may become a novel.....
मैंने आपको पूर्व में भी पढा है, बेवाकी से अपनी बात कहना और संजीदगी नहीं खोने देना, आपकी लेखनी की विशेषता है। जिसमें संवेदनाओं का सैलाब उमडता रहता है। यथार्थ चिन्तन और वास्तविक वस्तुस्थिति की असहनीयता का प्रकटीकरण बार-बार झलकता है।
ReplyDeleteशुभकामनाओं सहित।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
0141-2222225
098285-02666