14/06/2014

आसान नहीं है पुरुष का पिता होना


सोच रहा हूं कि मुझे ये सब क्यों कहना चाहिए? क्यों मुझे खुद को खोल देना चाहिए...? फिर मुझे ही क्यों कहना चाहिए? क्यों बताना चाहिए ये सब... लेकिन फिर सोचता हूं कि शायद जो मुझे लगा वह और भी पिताओं को लगता होगा शायद उन्हें ये अहसास नहीं होता होगा। या अहसास भी होता होगा, लेकिन कह पाने लायक शब्द नहीं हुआ करते होंगे। जो भी हो बहुत सोच-समझ कर मैंने ये तय किया कि आज मैं बताऊंगा कि पिता भी बच्चों से प्यार करता है, पिता के सीने में भी दिल हुआ करता है और उसे भी बच्चे का दुख-सुख व्यापता है। पिता को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता है। सिर्फ इसलिए कि वह कहता नहीं है, रोता नहीं है। बताता नहीं है कि वो अपने बच्चों से कितना प्यार करता है... वो यह नहीं जता पाता कि बच्चे के सुख-दुख में वह भी हंसता-रोता है... बस दिखा नहीं पाता... क्योंकि ये उसके लिए वर्जित है। फिर भी क्यों बताना चाहिए मुझे कि आसां नहीं होता पिता होना। इसलिए एक पुरुष का पिता होना भी आसान नहीं होता।
क्योंकि मुझे तो हमेशा से सिखाया है ज़ब्त करना... अपने दुख-सुख, भावनाएं, संवेदना... सब कुछ को बस अपने मन के तहखाने में जमा करके रखना। पुरुष हूं तो मुझे रोना नहीं है, पुरुष हूं तो मुझे संतुलित रहना है। पुरुष होने का भी अनुशासन होता है शायद ही कोई जानता हो। जिस तरह से स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, उसी तरह पुरुष भी पैदा नहीं होता, बनाया जाता है। कोई माने या न माने... पुरुष होने की बाध्यता, पुरुष होने की मजबूरी और अपने पुरुष होने को जीवन भर निभाना आसान नहीं होता। पुरुष होने को सहना आसान नहीं होता। क्योंकि पुरुष होने के साथ-साथ वो इंसान भी होता है, रिश्तों से बंध्ाा होना, उन्हें जीना, सेना फिर भी उससे अलग रहना... यकीन मानिए आसान नहीं होता है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह खुद को मजबूत सिद्ध करे... दृढ़, क्षमतावान और ताकतवर रहे। और ये भी कि पिता होकर पुरुष होना और भी मुश्किल है। जानता हूं कि तुम्हें ये हास्यास्पद लगेगा, क्योंकि हरेक ने ये जाना है कि पुरुष होकर ही पिता हुआ जा सकता है, लेकिन शायद ये नहीं समझा कि पुरुष होकर पिता होना कितना मुश्किल है।
जानता हूं कि मां की भूमिका, उसका त्याग, समर्पण और पीड़ा पिता से ज्यादा होती है। ये प्राकृतिक है, स्वाभाविक है, क्योंकि मां होने का वरदान उसे ही मिला है...पता नहीं वो मां होने की हैसियत रखती है इसलिए, बच्चों के जीवन में उसकी भूमिका पहली और स्पष्ट है या फिर उसकी भूमिका पहली है, इसलिए उसका होना पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण और ज्यादा गरिमामय है। इसलिए वह पूजनीय भी है। लेकिन कभी पिता की तरफ भी ध्यान दें।
ये सही है कि पिता बच्चे को गर्भ में नहीं रखता है। वो सारी परेशानियां खुद नहीं उठाता जो मां बच्चे को गर्भ में रखते हुए उठाती है। ये भी सही है कि पिता को प्रसव-पीड़ा नहीं सहनी होती है... इसलिए स्त्री होने का मतलब पुरुष की तुलना में ज्यादा है। लेकिन पिता होने की पीड़ा भी तो कम नहीं है।
पहली बार बता रहा हूं कि मुझे भी दुख होता था, जब फुटबॉल खेलते हुए तुम्हारे घुटने छिलते थे या साइकल सीखते हुए जब तुम्हारा पैर पहिए में फंसा था। तुम्हें याद है छुटकी... तब तुम्हारा पैर का तलुवा कट गया था और बहुत खून बहा था। मैं दौड़कर तुम्हें डॉक्टर के पास लेकर गया था, टांके लगे थे। तुम और तुम्हारी मां बेतहाशा रो रहीं थीं। मेरे भीतर भी कुछ ऐसा हो रहा था जो बस फटकर निकलने को आतुर था। लेकिन मैंने रोका था... मैं नहीं रो सकता था। क्योंकि तुम्हारी मां रो रही थी। मैं कैसे रो सकता था? लेकिन क्या तुम्हें ऐसा लगा था कि तुम्हारा दर्द बस तुम्हारा था? शायद तुझे याद न हो, लेकिन उस शाम मैं खाना नहीं खा पाया था। बार-बार डॉक्टर के यहां तेरा दर्द से चीखना और पैर से बहता खून याद आ रहा था।
और तब... जब तू पहली बार पीएमटी में असफल हुई थी। हमने तुझे नींद की गोलियां देकर सुलाया था, लेकिन फिर भी रात के हर घंटे मैं उठकर तेरे कमरे में आया हूं... तुझे गहरी नींद में सोता देखता रहा हूं। तेरे सिरहाने बहुत देर तक बैठा रहा हूं।
मैं बंध्ाा रहा हूं अपनी ही सामाजिक छवि में... लेकिन अब नहीं बंध्ाा रह सकता हूं। रोका है हर बार खुद को... तब भी जब उस नाकारा लड़के ने तेरा दिल तोड़ा था। तब भी जब तेरा अपनी बेस्ट फ्रेंड से झगड़ा हुआ है। तुझे लगता होगा कि मैं बस हर उस वक्त तुझे देखता रहा होऊंगा जब तुझे मेरी सख्त जरूरत थी। लेकिन ऐसा नहीं है बेटा... हर उस वक्त मैं तेरा साथ था... बस मैं जाहिर नहीं कर पाया था, नहीं बता पाया था। और शायद कोई कभी ये समझ पाए कि ज़ब्त करने में... सब्र करने में कितनी पीड़ा होती है।
नहीं बंध्ाा रह पाऊंगा। मैं पुरुष होने से आज़िज आ चुका हूं, मैं पिता होना चाहता हूं... बस पिता... विशुद्ध पिता। तू बहुत उत्साह से अपनी शादी की तैयारियां कर रही है। मुझे भी खुशी है, उत्साह भी... लेकिन बस ये विचार ही मुझे उदास कर रहा है कि तू चली जाने वाली है और गाहे-ब-गाहे मेरी आंखें छलक पड़ती है। तेरी मां मुझे आश्चर्य और फिर प्रेम से देखती है। समझाती है... कई बार यूं भी कहा कि अरे पिता होकर रोते हो... मैं पूछता नहीं हूं, मगर पूछना चाहता हूं कि 'पिता क्यों नहीं रो सकता?" या 'पिता को क्यों नहीं रोना चाहिए?" क्या इसलिए कि उसने पुरुष होने का गुनाह किया है? या इसलिए कि वह पुरुष होकर पिता भी होना चाहता है।
बेटा फिर कहता हूं आसान नहीं है पुरुष होकर पिता होना। मगर मैं पुरुष होते-होते थक गया हूं और बस पिता होना चाह रहा हूं। कह लूं पिता होता जा रहा हूं। मैं अपने पिता होने को नहीं रोक सकता हूं, रोकना भी नहीं चाहता हूं। मैं बस बदल रहा हूं और सच पूछो तो बदलना चाहता भी हूं। अपनी भावनाओं को मैं पुरुषत्व की कैद से मुक्त करना चाहता हूं।
मैं मुक्त होकर पिता होने का आनंद लेना चाहता हूं, मैं मुक्त होकर तेरे साथ रोना, हंसना, गाना-खेलना और उड़ना चाहता हूं। मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं पुरुष होने की उस केंचुल से, जिसमें मेरी भावनाएं घुटती हैं, जिसमें मेरा मन कुम्हलाने लगता है, जिसमें मेरा जीवन कण-कण कर खिर रहा है। उसमें वजूद रेशा-रेशा कर उध्ाड़ रहा है। मैं पूरा होना चाहता हूं। मैं तुम्हारी मां की तरह ही तुममें होना चाहता हूं। मैं खुलकर तुम्हें गले लगाना चाहता हूं। चाहता हूं कि जिस तरह तू अपनी मां की गोद में सिर रखकर सोती या रोती है, उसी तरह मैं भी अपनी गोद में मैं तुझे रूलाना-हंसाना और सुलाना चाहता हूं। चाहता हूं कि मैं तेरे बालों में तेल लगाऊं और तेरी सफलता पर तेरी नज़र उतारूं। मैं क्यों नहीं कर सकता ये सब...? इसलिए कि मैं पिता होकर पुरुष हूं... मैं बस पिता होना चाहता हूं।
इसलिए तेरे साथ हंसना-रोना, गाना-मुस्कुराना चाहता हूं... मैं पुरुष होने से मुक्त होना चाहता हूं, मैं बस...

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