06/07/2014

आत्मालाप...!

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले/कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले... जिस वक्त नींद टूटी उस वक्त रात से चल रहे म्यूजिक सिस्टम पर यही गज़ल बज रही थी। खिड़की के उस पार चाँद अपने शबाब पर था। उसे देखकर याद आया कि आज पूरणमासी है। लगना तो चाहिए था, लेकिन कभी-कभी अपना आप ही खुद से छूट जाया करता है और छिटककर इतनी दूर चला जाता है कि उस तक पहुँचने में कई सारे दिन गुजर जाते हैं। कामाक्षी न जाने किस चीज से बेचैन है... दूर-पास कहीं भी तो उसकी बेचैनी की वजह का कोई सिरा नहीं मिल रहा है। बस वो बेचैन है। खुद से बहुत दूर, दुनिया में डूबकर बुरी तरह से छटपटा रही है। इस बहाव में उसने खुद को बहा दिया है। शायद इस दहशत में उसकी नींद टूटी थी कि कहीं वह खुद को विसर्जित तो नहीं कर चुकी है... रात के जिस पहर उसकी नींद टूटी थी, उसके बाद उसने बहुत कोशिश की थी कि उसे दूसरे सिरे से सिल दे, लेकिन बस दूसरा सिरा नहीं मिला तो नहीं ही मिला। बहुत देर तक रात के अँधेरे को नज़रों से सहलाती रही, फिर बेचैनी बढ़ने लगी तो तकिए को पलंग की पुश्त पर टिका कर उस पर अपना सिर डाल दिया। खिड़की का पल्ला खोल लिया, बाहर से हवा का झोंका-सा आया। पूरा-बड़ा और चमकीला चाँद होने के बावजूद अँधेरा उसे घना लगा। शायद भीतर का अँधकार फैलकर बाहर आ गया है उसका....। उसने बीती रात को फिर से बुहारा था, कोई फाँस यदि चुभी है, ठहरी है तो उभरकर हाथ आए, कोई सिरा तो मिले अपनी बेचैनी का। लेकिन नहीं जीवन में सब कुछ अपनी जगह पर सही और अपनी गति से चल रहा है। न कोई रूकावट है न कोई खराश... तो फिर ये सब आया कहाँ से और क्यों? वैसे ये उसके लिए कुछ नया भी नहीं है। थोड़े बहुत अंतराल के बाद कमोबेश ये बेचैनी सिर उठाती ही रहती है। कोई बीज है जो मर-मर कर भी नहीं मरता है। बार-बार जी उठता है। ये न तो किसी घटना से जुड़ता है और न ही किसी विचार से... बल्कि विचार की प्रक्रिया तो बेचैनी के बाद की घटना है... तो। सालों साल से ये उसके साथ है, हर कोशिश के बाद भी। अब तो उसने इसे स्वीकार भी कर ही लिया है। लेकिन चाहे दर्द के साथ जीना सीख लें, लेकिन दर्द तो फिर भी दर्द होता है न...। दो-तीन दिनों से उसे सब कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस हो तो रहा था, आहट बहुत करीब आ रही थी, लेकिन जानती थी कि जो सामने होगा उसे तो हर हाल सहना ही है...। वो जहाँ टँगी है, वहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है। बस अँधेरे कमरे में बाहर निकलने के लिए सिर भड़ीक रही है।
आसमान का रंग काले से जरा साँवला होने लगा है, सूरज के आने की सूचना है। फिर से वही दिन, वही जीवन... कल्पना भर से उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। सुबह हो चुकी थी... सुबह की ताजे-मन उजाले में उसकी आँखों के सामने पड़ोसी का लॉन था। मन ने तय किया था आज... कहीं जाना नहीं है। नीम की, अमरूद की डाल पर तोते का जोड़ा बैठा हुआ था। काली छोटी-सी चिड़िया तार पर बैठी हुई थी। गर्दन हिलाने पर उसके पंखों से मोरपंखी रंग झलक रहा था, ऐसे-जैसे वो रंग छलक रहा हो। फाख़्ता घास पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फुदकती फिर रही थी। खिड़की से लगी दीवार पर चींटियाँ कतार में आ-जा रही थी।
लड़ते-लड़ते वह थकने लगी, तभी उसे याद आया कि कहीं उसने पढ़ा है, जो कुछ परेशान करे उससे लड़ें नहीं, उसके साथ खुद को छोड़ दें... हाँ, ये भी सही है। उसने आँखें मूँद ली और छोड़ दिया खुद को उस भँवर में, जिससे वह पिछले कई दिनों से लड़ रही थी, डूबने के लिए मुक्त कर दिया... अपने आप को। इतनी गाफिल हो गई कि उसे इस बात का भी अहसास नहीं रहा कि आखिर वह पहुँची कहाँ है?
भीतर के भँवर में डूब-उतराते भी थकान होने लगी थी। वो बस डूब जाना चाहती थी, लेकिन संभव ही नहीं हो पा रहा था। एकाएक उसे लगा कि उसे शिद्दत से मरने की तलब लगने लगी है। उसने खुद को छोड़ दिया था... शांत... निश्चेष्ट...। चेतना उसके शरीर पर भटकने लगी। और उसका मन उसका पीछा करने लगा... पैर के अँगूठे से चली तो पूरे शरीर का चक्कर लगा लिया... फिर लौटी... फिर से यात्रा पर निकली, इस बार गिरफ्त छूट गई, वो न जाने कहाँ गुम हो गई... उसकी आँखें खुली थी... जाने वो जिंदा भी थी या... !



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