07/07/2014

रंग से मिली आज़ादी

रंग की अहमियत मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है जो साँवले रंग के साथ ही जन्मा हो... नर्सरी में ही ये तो समझ आ ही गया था कि कुछ तो ऐसा है जो मुझे दूसरों से कमतर करता है। और ये अहसास साल-दर-साल पुख्ता होता चला गया। बावजूद घर के मजबूत संरक्षण के ये बात कभी सहानुभूति के तौर पर तो कभी उलाहनों और तानों के तौर पर बता दी जाती थी कि ‘तेरी शादी कैसे होगी?’ बस सारी चीजें उस शादी के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। आत्म-विश्वास कम होता चला गया और मैं धीरे-धीरे अपने खोल में सिमटने लगी। हर लड़की मुझे खुद से बेहतर लगती रही। मिडिल और हाई स्कूल के बीच के सालों में मेरी दिशा तय होने लगी।
सारी स्त्री-सुलभ चीजें चुन-चुनकर इरेज कर दी गई। कपड़े, जूलरी, मेकअप, फैशन... सब कुछ से ध्यान हटा लिया गया। (उस वक्त के अपने अटायर पर आज तक ताने सुनती हूँ, कि पता है कैसे रंग पहनती थीं) मन को म्यूट कर दिया गया और दिमाग ने कमान संभाल ली। जो कुछ बड़े पढ़ते थे, वो सब पढ़ने और समझने में खुद को झोंक दिया। इस विचार के साथ कि ‘चाहे आज ये सब समझ नहीं आ रहा है, लेकिन कोशिश करती रही तो एक दिन जरूर समझ आएगा।’ शुरुआत में पढ़ने में रस आने लगा, फिर आनंद और अंत में नशा आने लगा। जब भीतर ही रहने लगी तो बाहरी दुनिया की समझ आ ही नहीं पाई। कई साल बुद्धिवाद के पागलपन में बिताए... ये मानकर कि बुद्धि की सीमा से बाहर कुछ है ही नहीं। और यदि खुद को सिद्ध करना है तो दिमाग को हथियार बनाना ही होगा... फिर भी रंग की कमतरी से उबर नहीं पाई। यूँ किसी और चीज में भी कोई झंडे नहीं गाड़े थे। हर जगह औसत ही रही... ।
आज फिर उसी बात पर लंबी बहस हुई जिस पर पिछले 13 सालों से चल रही है... हर बहस में मैं कंविंस करवाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन हर बार असफल होती हूँ। ये बात खारिज ही होती चली जा रही है, सालों-साल से कि हमारे यहाँ लड़कियों के रंग का मतलब होता है। या यूँ कि रंग भी खूबसूरती का मापदंड होता है। व्यक्तिगत तौर पर कोई चाहे जो मानें, लेकिन सामाजिक तौर पर फेयर होना... बस फेयर होना ही है। लेकिन नहीं माना जाता है, न व्यक्तिगत तौर पर और न ही सामाजिक सच को... बस खारिज किया जाता है।
आज भी बात हमशक्ल की हीरोइन ईशा गुप्ता के उस बयान से शुरू हुई थी जिसमें उसने कहा था कि साँवला रंग होने की वजह से उसे भेदभाव सहना पड़ा। उसकी बहनें फेयर थीं इसलिए भी उसे ज्यादा इस चीज का सामना करना पड़ा। और सानिया मिर्जा और नंदिता दास का उदाहरण भी... लेकिन बात इसी नोट पर खत्म हुई कि ‘तुम्हारा परिवेश बेहद अ-संवेदनशील था और तुम अति-संवेदनशील’। अन्यथा वक्त बदल गया है, सौंदर्य-सौंदर्य होता है, गोरा-काला नहीं...। होता है... मैं गवाह हूँ।
क्या अब भी...?
नहीं, अब नहीं...।
जीवन में बदलाव तब आया, जब प्यार आया। अहसास जागा कि उतना बुरा भी नहीं है सबकुछ... फिर भी वो सब कुछ नहीं आया जो इतने सालों से बंधक रहा। सालों-साल कोशिशें हुईं बहुत एफर्ट और बहुत मशक्कत के बाद मैं उस एहसास-ए-कमतरी से बाहर आ पाई हूँ। बहुत सारी दीगर चीजों के साथ ही आज मैं अपने रंग से भी आजाद हो पाई हूँ।
लेकिन आज भी मैं इस बात पर यकीन करती हूँ कि चाहे जो हो जाए, हमारे देश में खूबसूरत होने की सबसे पहली और सबसे अहम शर्त है फेयर होना... और चाहे कोई कुछ कहे, यही सच है। और ये हर वर्ग और हर जगह एक-सा है... उदाहरण नंदिता का ले लें या फिर नयोनिका का...


1 comment:

  1. इसे पूरा कीजिये। स्मृति के आह्वान को जीवन संदर्भों से जोड़कर आगे लिखा जाना जरूरी है। स्त्री और रंग ...

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